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आदमी और ईश्वर

पेरियार द्वारा 1973 में दिए गए भाषण का अनुवाद मैं कहता हूं, ‘जिसने ईश्वर की खोज की वह मूर्ख है।’ मैं ऐसा क्यों कहता हूं? आदिम मनुष्य ने पहले-पहल बहुत-सी चीजों के बारे में सोचना शुरू किया था। वह जानना चाहता था कि यह दुनिया कैसे बनी? वह समझ नहीं सका था कि यह सृष्टि […]

पेरियार द्वारा 1973 में दिए गए भाषण का अनुवाद

मैं कहता हूं, ‘जिसने ईश्वर की खोज की वह मूर्ख है।’ मैं ऐसा क्यों कहता हूं?

आदिम मनुष्य ने पहले-पहल बहुत-सी चीजों के बारे में सोचना शुरू किया था। वह जानना चाहता था कि यह दुनिया कैसे बनी? वह समझ नहीं सका था कि यह सृष्टि लगातार कैसे कायम है। वह जीवन और मृत्यु के रहस्य को जानना चाहता था। उसने अपने आसपास मानव-निर्मित अनेक वस्तुओं को देखा था। व्यक्तिगत अनुभव से उसने समझा कि चीजें कैसे विद्यमान थीं। उसके मन में दूसरी वस्तुओं को समझने की स्वाभाविक उत्कंठा थी। जब वह जीवन और मृत्यु के पीछे निहित कारण को समझने में नाकाम रहा, तो उसने हड़बड़ी में यह अनुमान लगाया था कि इन सब दृश्यमान वस्तुओं का कोई न कोई कारक होना चाहिए। आखिरकार उसने अपने अज्ञान से संतोष कर दिया।

यही कारण है, जैसेकि आज भी तीसरे दर्जें का जड़बुद्धि इंसान आमतौर पर सवाल कर बैठता है, ‘यदि ईश्वर नहीं है, तो तुम पैदा कैसे हुए थे?’ बातचीत के दौरान वह आगे कहता है, ‘मनुष्य ने केवल घर बनाए थे। फिर ये पहाड़, नदियां, महासागर, वन-वनस्पति, पेड़-पौधे कैसे बने थे? इन सबका कोई न कोई निर्माता तो होना ही चाहिए?’ इन शब्दों के साथ वह आगे बढ़कर ईश्वर की सत्ता के समर्थन में प्रमाण देने लगेगा।

इस तरह, मनुष्य की अज्ञानता या सच तक पहुंचने की अयोग्यता ही ईश्वर और ईश्वरीय सृष्टि में उसके विश्वास का कारण बनती है। इसलिए, ईश्वर की सत्ता में विश्वास का मूल कारण केवल मनुष्य की अज्ञानता है। मनुष्य की ईश्वर संबंधी अवधारणा केवल अनुमान की नींव पर टिकी है।

मनुष्य ने ईश्वर की संकल्पना केवल उन वस्तुओं के लिए की है, जिन्हें वह पूरी तरह समझने या अनुभव करने में असमर्थ है। इस कारण, साधारण मनुष्यों को, जो अपनी औसत बुद्धि से वास्तविक सत्य तक पहुंच सकते थे, मामले में आगे खोज करना न केवल अनावश्यक; अपितु अवांछित भी लगा था।

[bs-quote quote=”अपने स्वार्थ के कारण शासन-प्रशासन सब ब्राह्मणों के अधीन हो चुके हैं। प्रत्येक ब्राह्मण खुद बुरी शक्तियों के अधीन है। उसका ध्यान केवल इस पर केंद्रित रहता है कि उसे जन्म के आधार पर श्रेष्ठतम माना जाए। उसी उद्देश्य के लिए वह ईश्वर का सरंक्षण करता है। आज भी वह किसी भी गुणधर्म के मामले में, दूसरों से ऊपर उठने के लिए तैयार नहीं है। उसे मानवीय मूल्यों और सभ्यता के उच्चतम मापदंडों को जीवन में उतारकर दूसरों से श्रेष्ठतर दिखने कतई चिंता नहीं है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

उन्हें केवल मिथों में विश्वास करना सुविधाजनक लगा था। ऐसे मामलों में अधिकांश मनुष्यों के पूर्वाग्रह उन्हें गंभीरतापूर्वक चिंतन-मनन तथा शोध करने से रोकते आए हैं। असल में, मनुष्य की गहन जांच-पड़ताल तथा अनुसंधान करने की क्षमता को प्रतिबंधित कर दिया गया था। यही कारण है कि ऐसे लोग जो ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व में विश्वास करते थे- उन्हें अतार्किक माना जाता है।

मनुष्य में चिंतन-मनन करने का भले ही प्रचुरसामर्थ्य हो, उसका आकलन इस बात से किया जाएगा कि उसने अपने बौद्धिक सामर्थ्य का वास्तव में कितना और किस दिशा में उपयोग किया है।

आगे, इस बारे में मैं आपको अपने 75 साल पुराने अनुभव के माध्यम से बताना चाहूंगा।

उन दिनों इरोद में निगम का अस्पताल था। दो-तीन भारतीय चिकित्सक तथा एक ईसाई उपदेशक उस अस्पताल से संबद्ध थे। प्रत्येक वर्ष, दो बार वहां हैजे की महामारी फैलती थी। उन दिनों इरोद की कुल जनसंख्या लगभग 15000 थी। वहां प्रतिवर्ष 300 लोग हैजे की गिरफ्त में आ जाते थे। किसी-किसी साल मरने वालों की संख्या 500 भी पहुंच जाती थी। उन दिनों लोग मानते थे कि हैजा, ‘ओम काली अम्मन’ नामक दुष्ट देवी का प्रकोप है।

इस कारण वे डॉक्टरी इलाज से बचते थे। यहां तक कि यदि डॉक्टर दवा देना भी चाहें तो वे उसे लेने से इनकार कर देते थे। वे कहा करते थे कि दवा लेने से देवी और भी रुष्ट हो जाएगी। यहां तक कि वे डॉक्टर को डांट भी देते थे। हैजे का प्रकोप लगभग एक-दो महीने तक बना रहता था। महीने-भर बाद जब उसका प्रकोप प्राकृतिक रूप से धीमा हो जाता था, और उससे होने वाले मौतें एक-दो तक सिमट जातीं, तब वे ओम काली अम्मन देवी की प्रार्थना करने लगते थे।

उस अवसर पर बूढ़ी औरतें बाकी लोगों को यह कहकर छला करती थीं कि देवी ‘अम्मन’ उनके शरीर में प्रवेश कर चुकी है; फिर उन्हें यह कहकर डराती थीं, ‘जब तक तुम लोग मेरा ध्यान नहीं रखोगे, मेरा आदर-सम्मान नहीं करोगे-तब तक मैं मौत का खेल खेलती रहूंगी। तुम तब मेरी विशेष पूजा करते हो जब मैं अपनी असली ताकत दिखाती हूं। मैं तुम पर अपना क्रोध बरपा दूंगी।’ उसकी धमकी को सुनकर लोग सचमुच घबरा जाते। तत्क्षण वे देवी अम्मन की विशेष पूजा-अर्चना करने का वचन भी दे देते थे। हैजे का प्रकोप तो कुछ दिनों बाद अपने आप समाप्त हो ही जाना था।

वायकम सत्याग्रह का नेतृत्व करते हुए पेरियार

इस बीच निगम के अधिकारीगण हैजे का मुकाबला करने के लिए यथावश्यक इंतजाम कर चुके होते। वे लोगों को उबला हुआ पानी पीने की सलाह देते। बच्चों से, बगैर ढकी, खुलेआम बिकने वाली खाने-पीने की चीजें न खरीदने को कहते। लोगों को समझाते कि वे बासी और ठंडे भोजन का प्रयोग न करें। पेयजल के स्रोतों को प्रदूषित होने से बचाने का इंतजाम कर चुके होते। ये इंतजामात चल ही रहे होते, तभी अचानक एक औरत यह कहते हुए चिल्लाने लगती कि उसके मुख से स्वयं देवी अम्मन बोल रही है- ‘मैंने तेल (हैजा) के दो घड़े ले लिए हैं, बाकी मैं किसी दूसरे गांव से लूंगी। फिलहाल मैं तुम्हारा गांव छोड़ रही हूं।’ लोग रात्रि में उसकी पूजा-अर्चना किया करते। पुरानी चटाइयों, घड़ों तथा फटे-पुराने चिथड़ों के साथ जुलूस निकालते तथा उन्हें गांव की सीमा से बाहर जाकर छोड़ आते थे।’

आप जानते ही होंगे, जब भी दो महिलाएं आपस में झगड़ती हैं तो एक महिला अपनी प्रतिद्विंद्वी से कहती है- ‘क्या देवी अम्मन तुम्हें एक चमचा तेल नहीं देगी!’ चूंकि तेल लेने से व्यक्ति को पेचिश या दस्त लग सकते हैं-वे लोग हैजा को तेल बताते थे। उन दिनों हैजे से होने वाली मौतें बहुत चौंकाने वाली होती थीं। कुछ गांवों में तो 75 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हैजे की भेंट चढ़ जाती थी। फिर भी लोग सावधानी बरतने से बचते थे। वे उपचार कराने से इनकार कर देते थे। हैजे की महामारी के वास्तविक कारण तक पहुंचने की वे कोशिश ही नहीं करते थे।

यह जाना-माना सच है कि हैजे का प्रकोप केवल त्योहार के महीनों में होता था। विभिन्न कस्बों और शहरों में से आए लोग एक ही स्थान पर जमा होने लगते थे। वहां जो उपलब्ध हो वही उन्हें खाना पड़ता था। जहां जी चाहे वहीं मल-त्याग कर गंदगी फैलाते थे। पीने का पानी आसानी से प्रदूषित हो जाता था। त्योहारी महीनों (अगहन, पौष, माघ, फाल्गुन) में गहरी नींद की कमी, ऊपर से अधपकी मांसाहारी चीजें जैसे मछली, मांस तथा अन्य मांसाहारी व्यंजन खाना उन दिनों सामान्य बात थी। ठीक ऐसा ही दूसरे हिन्दू त्योहारों यथा एकादशी, पूसम (पुष्य नक्षत्र में कार्तिकेय को समर्पित त्योहार), माघम (माघ नक्षत्र में पूर्णिमा के दिन मनाया जाना वाला पर्व इस दिन तमिलवासी पवित्र नदियों में स्नान करते हैं), दीपम (कार्तिक पूर्णिमा को कार्तिकेय के सम्मान में मनाया जाने वाला उत्सव) पर भी होता था। पूजा के लिए निर्धारित स्थानों पर जमा होने वाले साधारणजन, अपने घरों के विषाणु बसों, गाड़ियों, रेलगाड़ियों तथा होटलों और ढाबों में फैला देते थे। प्रदूषण फैलना एकदम आसान था। संक्रामक बीमारियां क्या हैं, कैसे फैलती हैं, तथा उन्हें फैलने से रोका कैसे जाए, इस बारे में उन दिनों लोग कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए उनका विश्वास था कि यह सब ईश्वरीय देन है।

ई.वी. रामास्वामी पेरियार

यदि सिर्फ 70-75 वर्ष पहले यह हालत थी, तब इस बात में आश्चर्य कतई नहीं होना चाहिए कि 100-200-500-1000 वर्ष पहले के लोग ईश्वर के अस्तित्व में ऐसा ही अंधविश्वास रखा करते थे।

यद्यपि, यह अंधविश्वास कि हैजा दैवीय आपदा है, अब धीरे-धीरे खत्म होने लगा है। आज लोग हैजे के निजात हेतु इलाज कराने में विश्वास रखते हैं। स्वास्थ्य विभाग कई अच्छी योजनाएं चलाता है। तालाबों, कुओं तथा पेयजल के दूसरे स्रोतों को आधुनिक वैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा सुरक्षित रखने के लिए वे नियमित सावधानी बरतते हैं। जिन दिनों इरोद की जनसंख्या महज 15,000 थी, प्रतिवर्ष औसतन 300 लोग मौत का शिकार बनते थे। आज वहां की जनसंख्या 70,000 है फिर भी प्रतिवर्ष बामुश्किल 20-30 मौतें ही होती हैं।

अब यह साफ हो चुका कि ईश्वर तथा उसके चमत्कारों में विश्वास ने लोगों को किस तरह अज्ञानी और मूर्ख बनाए रखा है। जैसे-जैसे लोगों ने ईश्वर तथा उसकी चामत्कारिक शक्तियों पर विश्वास से मुक्त होना शुरू किया, उनका ज्ञान बढ़ा और प्रकारांतर में समाज का भी प्रबोधन हुआ।

हालांकि पश्चिमी देशों में भी लोग ईश्वर में विश्वास रखते हैं, किंतु वे उसके चमत्कारों पर विश्वास नहीं रखते। ईसाइयों के यहां कहावत है- ‘ईश्वर में श्रद्धा रखो, मगर अपने दिलो-दिमाग खुले रखो।’

‘अल्लाह में भरोसा रखो, मगर अपने घोड़े को खूंटे से कसकर बांधो।’ मुसलमान इस उक्तिपर विश्वास रखते हैं।

इन सब बातों से हमें क्या समझ में आता है? यही कि भगवान बुद्धिमान व्यक्ति की जरूरत नहीं है। भगवान भोजन की तरह नहीं है, जिससे बचा न जा सके। वह महज ऐसी पोशाक जैसा है जिसे परिवेश के अनुरूप बने रहने के लिए धारण किया जाता है। वही ईश्वर के बारे में सच है। यदि कोई कहे कि जीवन के लिए ईश्वर में विश्वास रखना आवश्यक है, तो मैं कहना चाहूंगा कि वह व्यक्ति पूरी तरह निकम्मा, नाकारा और जड़बुद्धि है। यही नहीं, ऐसा व्यक्ति हमारे लिए ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने के लिए आगे नहीं आएगा। इस काम को वह ईश्वर पर छोड़ देगा कि वह अपनी सत्ता को स्वयं प्रमाणित करे। इसलिए इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि ईश्वर मूर्खों की निर्मिति है।

मैं कहता हूं कि जो ईश्वर की उपासना करता है, वह दुष्ट है। मैं यह इसलिए कहता हूं कि उसने ईश्वर को निश्चित रूपाकार दिया है और उसे उच्च गुणों की खान बताया है। जो लोग ईश्वर को परिभाषित करते हैं और कहते हैं कि वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान सबकुछ है- वही कहते हैं कि ईश्वर की कोई आकृति नहीं है।

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वे कहते हैं कि वह दयालु है। हम यह कैसे कह सकते हैं कि ऐसे लोग अज्ञानी और नासमझ हैं? यदि कोई व्यक्ति वस्तु विशेष के बारे में जानने में असमर्थ है तो हम कह सकते हैं कि वह अज्ञानी है। बावजूद इसके ये लोग आगे आकर ईश्वर को परिभाषित करते तथा उसकी व्याख्या करते हैं। वे जान-बूझकर लोगों को धोखा देते हैं।

यदि कोई मूर्ख कहता है कि ईश्वर अस्तित्ववान है, तब ये लोग आगे बढ़कर ईश्वर का इस तरह गुणगान करने लगते हैं, जैसे इन्होंने वास्तव में उसे देखा हो। जब हम उनसे पूछते हैं कि वह कैसा है, वे कहते हैं कि वह निराकार है। कोई उस वस्तु को भला कैसे देख सकता है जिसका कोई आकार ही न हो? कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें निर्धारित आकार न होने के बावजूद हम अनुभव कर सकते हैं। हम स्वाद, गंध, स्पर्श, दृष्टि, ध्वनि का अनुभव कर सकते हैं, उनके अस्तित्व को जान सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम वायु को देख नहीं सकते, परंतु उसके बहाव का अनुभव कर सकते हैं।

इसी तरह यद्यपि हम बिजली को देख नहीं सकते, परंतु जब वह काम करती है तो उसे महसूस कर सकते हैं। हम प्रकाश अथवा गरमी के माध्यम उसे जान सकते हैं। जैसे चाहें वैसे उसका उपयोग कर सकते हैं। हम उसको महज एक स्विच की मदद से नियंत्रित कर सकते हैं। इस तरह हम उसके अनेकानेक गुणों से परिचित होने में सक्षम हैं।

इसलिए मैं कहता हूं कि ऐसी वस्तु में विश्वास करना सरासर मूर्खता है, जिसे हम न तो महसूस कर पाएं, न ही देख पाएं। जो हमें ऐसा विश्वास दिलाना चाहता है, वह अवश्य ही धूर्त्त है। ईश्वर महज कल्पना है। बेईमान साधनों में संलिप्त व्यक्ति को कभी भी ईमानदार नहीं कहा जा सकता। फिर भी, केवल भोले-भाले लोगों को जान-बूझकर बलि का बकरा बनाने के लिए ब्राह्मण ऐसा करते हैं। लोग जान-बूझकर मूर्ख बनाए जाते हैं। इस तरह के बेहूदा और बेईमानी भरे तर्कों द्वारा वे जनसाधारण को ठगना चाहते हैं। ईश्वर बहुत बड़ा धोखा है। वे न केवल यह कहते हैं कि ईश्वर आकारविहीन है, बल्कि यह दावा भी करते हैं कि वह सर्वव्यापी है। यह एक और पर्वताकार धोखादड़ी है। उनके इस दुस्साहस को हमें क्या कहना चाहिए?

पत्नी मनियम्मई के साथ

जब हम उनसे कहते हैं, ‘क्या साहब, आप ईश्वर के बारे में ढेर सारी बातें बता रहे हैं। हम नहीं समझ सके। ईश्वर क्या है, हमारा दिमाग इसे अच्छी तरह समझ नहीं पाया।’ वे कहेंगे, ‘ईश्वर किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता। वह मानव-बुद्धि की सीमा से परे है। इसलिए तुम उसे देख या समझ नहीं सकते। इसीलिए ईश्वर को निराकार बताया जाता है। यहां तक कि पढ़े-लिखे और प्रज्ञावान लोगों के लिए उसे समझना या महसूस कर पाना असंभव है।’ क्या यह धूर्त्त और मक्कार लोगों द्वारा, जनसाधारण के प्रति खूब सोच-समझकर रचा गया प्रपंच नहीं है?

कोई वस्तु जो विद्वान लोगों के लिए भी, न तो अनुभूतिजन्य है, न स्पष्ट-वह इन मूर्खों द्वारा कैसे समझी और अनुभव की जा सकती है?

साथियो! जब भी आप अपने ऐसे मित्रों से मिलें जो आस्तिक हों, तब आप ईश्वर को समझने की कोशिश में, इन जायज सवालों को उनके आगे रख सकते हैं।

दो चीजें जो मनुष्य को अतार्किक बनाती हैं, वे हैं धर्म और ईश्वर। ईश्वर ऐसा अमृत है जिसे मनुष्य को मूर्ख बनाने के लिए दिया जाता है। सूर्य, चंद्र, अग्नि, जल, वायु, पत्थर, कीचड़ किसी मनुष्य का आविष्कार नहीं हैं। मनुष्य ने केवल इनका नामकरण किया है। उनकी व्याख्या करने अथवा इनके कारणों की तह में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

मनुष्य उन्हें पहचानने तथा उनका आनंद लेने के लिए विवश है।

परंतु ईश्वर ऐसा नहीं है। उसका प्रचार-प्रसार आवश्यक है। प्रायः केवल प्रचार-प्रसार से भी ईश्वर का काम नहीं चलता। व्यक्ति जो भी उसके बारे में प्रचारित करता है, उस पर दूसरे व्यक्ति का अंधविश्वास भी होना चाहिए। बात यहीं तक सीमित नहीं है। व्यक्ति को जोर-जबरदस्ती से ईश्वरीय सत्ता में विश्वास के लिए बाध्य करना भी आवश्यक है। जब तक कोई व्यक्ति इतनी हिम्मत नहीं दिखाता, बेचारा ईश्वर लोगों के दिमाग में जगह नहीं बना पाता। बावजूद इसके उसे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान कहा जाता है। कैसी मूर्खता है!

ईश्वर की कहानी, वस्तुतः मूर्ख व्यक्ति की कल्पना है। इस कल्पना ने मनुष्य के चिंतन-सामर्थ्य को अवरुद्ध कर दिया है। कुछ ऐसे ही जैसे बालक हाथों में मशाल लेकर घर को आग लगा दे; और उसमें पूरा शहर जलकर खाक हो जाए, ईश्वर के विचार ने मनुष्यता की विचारशीलता को व्यवहारतः नष्ट कर दिया है। कुछ लोग ईश्वर का वर्णन ‘नमःशिवायं’ के रूप में करते हैं। ‘नमःशिवायं’ का अर्थ है- शून्य अथवा अंतरिक्ष। यह एमएल पिल्लई, तथा थिरू वी.का. जैसे शैव विद्वानों द्वारा की गई व्याख्या की है। बावजूद इसके वे लंबे समय से मूर्तियों को पूजते आए थे, बाद में उन्होंने खुद को बदला है।

पेरियार और गाँधी एक साथ

मैं नहीं समझता कि मनुष्य को ईश्वर की आवश्यकता क्यों है, विशेषकर तब जब कोई ईश्वरीय शक्तियों पर अखंड विश्वास न करता हो। रीति-रिवाजों की खातिर सामान्यतः हर कोई यह कहता है कि प्रत्येक वस्तु सीधे ईश्वर की रचना है। मगर वास्तविक जीवन में, प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म क्या हैं, प्रकृति क्या है? चमत्कार क्या हैं, और दुर्घटनाएं क्या हैं- जैसे मामलों को अलग-अलग करके देखता है।

यहां तक कि जो लोग मानते हैं कि जो भी करता है, सिर्फ ईश्वर करता है, वे भी सुरक्षात्मक कदम उठाने से बाज नहीं आते। यदि हर वस्तु ईश्वरीय रचना है तब कैसे कोई नास्तिक ईश्वर के अस्तित्व को नकार सकता है?

दूसरे, यदि यह सच है कि ईश्वर सर्वव्यापी है, तब वह स्वयं प्रकट होकर अपनी उपस्थिति का प्रमाण क्यों नहीं देता। आस्थावान लोग इन महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक सवालों पर विचार करने से कतराते हैं।

ईसाई कहता है कि परमेश्वर ने मनुष्य को प्रज्ञावान बनाया है। उस ज्ञान की मदद से ही मनुष्य को परमेश्वर की प्रतीति करनी चाहिए। जब हम उनसे यह पूछते हैं कि जो ईश्वर उनके विवेक के अनुसार पूर्णतः स्पष्ट है, वह हमारे ज्ञान की कसौटी पर खरा क्यों नहीं उतरता- तब वे कहते हैं कि नास्तिक लोग पापी हैं, इस कारण वे ईश्वर तक नहीं पहुंच सकते।

इन पापियों को किसने रचा है? यदि इन्हें ईश्वर ने ही रचा है तब उसने इन्हें पापी क्यों बनाया है? यदि ईश्वर ने पापियों की रचना नहीं की है, तब उनका निर्माण किसने किया है? यदि हम ये प्रश्न करते हैं तो वे कहते हैं कि उसके लिए शैतान या राक्षस जिम्मेदार रहे हैं। अपने उत्तर में वे इससे अधिक कुछ कहने के इच्छुक नहीं होते। इसलिए कि वे जो कह रहे हैं, उसे स्वयं ही नहीं समझ पाते। जड़वादी मुस्लिमों के बारे भी यही सच है।

जहां तक हिंदुओं का संबंध है, उसमें त्रिमूर्तियां हैं, जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और शिव कहा जाता है। इनके अलावा काली, कथवानारायण, मदुरैवीरन, करुप्पनन, अलवार, नयानमार, मृतात्माएं, मूर्तियां, पक्षियों के चित्र, वृक्ष, जानवर, गाय का गोबर तथा दूसरी अनेक वस्तुएं हैं, जिन्हें ईश्वर के रूप में पूजा जाता है।

मैं इतने सारे देवताओं के नाम क्यों गिना रहा हूं? यदि यह सच है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो यह कितना हास्यास्पद है कि वह खुद को किसी सुनिश्चित रूपाकार में अभिव्यक्त करने में नाकाम रहता है। क्या ईश्वर इतना दुर्बल, निर्वीय और अयोग्य है?

इस दुखद स्थिति के बावजूद ऐसे लोग हैं जो पिछले जन्म, अगले जन्म, भाग्य, धर्म, स्वर्ग और नर्क की बातें करते हैं। उनकी बातें मुझे पागलों और शराबियों की बकबक जैसी लगती हैं।

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मनुष्य जीवन से मृत्यु तक काफी कष्ट भोगता है। इन कष्टों के साथ-साथ ये देवता, अंधविश्वासी धारणाएं जैसे भाग्य, स्वर्ग, नर्क उसके जीवन पर कहर बरपाते रहते हैं। असल में वे मानव-मस्तिष्क के लिए यंत्रणाकारी होते हैं। जीवित प्राणी अभी तक यह समझने में असमर्थ रहे हैं कि वे दुख, दर्द, अनेकानेक चिंताओं और आपदाओं से क्यों पीड़ित हैं। समस्त जीवित प्राणियों में केवल मनुष्य को विवेकवान माना जाता है।

चूंकि मनुष्य तर्क-शक्ति से संपन्न है- वह दूसरे प्राणियों की अपेक्षा अधिक कष्ट भोगता है। इसका वास्तविक कारण घृणास्पद ईश्वर है।

यदि हम साझा भोजन और मिल-जुलकर बराबर काम करें तो ईश्वर की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। उस अवस्था में ईश्वर का कोई काम नहीं है।

मनुष्य आज गुलामी, दुख-दैन्य और परेशानियों से घिरा है, क्योंकि उसके हित धर्म के नाम पर धोखा देने वाले, ताकतवर धार्मिक प्रपंचियों के हाथों में हैं।

एक ओर तो मनुष्य की औसत जीविता, आने वाले 50 वर्षों में, 100 साल तक पहुंचने वाली है। वह पक्के तौर पर होना है। कुछ देशों में मनुष्य की औसत आयु 67-74 वर्ष तक पहले ही पहुंच चुकी है। हमारे अपने देश में 1950 में मनुष्य की औसत जीविता 32 वर्ष थी। 1940 में साक्षरता-प्रतिशत मात्र 9 था। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री कुमार स्वामी कामराज के प्रयासों से साक्षरता अनुपात तेजी से बढ़कर 50 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। इसके कारण ईश्वर के प्रति आस्था में संतोषजनक रूप से कमी आई है। इसलिए मैं कहता हूं कि लोगों के ईश्वर के प्रति विश्वास में जैसे-जैसे गिरावट होगी, वे निरंतर बुद्धिमान होते जाएंगे। यदि हमारी स्त्रियां अपने जीवन में स्वाधीनता का आनंद ले पाती हैं, समाजवाद को तीव्र गति से विस्तार मिलता है- तब मनुष्य की बुद्धिमत्ता तथा उसकी जीविता भी उसी अनुपात में बढ़ती जाएगी।

आज प्रदेश में द्रविड़ मुनेत्र कझगम (डीएमके) की सरकार है। वे नास्तिक हैं। यदि वे अपनी सदस्य संख्या कुछ लाख और बढ़ा पाते हैं- तो वे मजबूती तथा स्थायी रूप से सरकार में बने रहेंगे।

पृथ्वी पर मानवजीवन को आहत करने वाली समस्त मूर्खतापूर्ण अवधारणाओं में, ईश्वर का विचार सबसे आगे है। दुनिया के प्रचलित धर्मों तीन धर्म ऐसे हैं, जिन्हें महत्त्वपूर्ण माना गया है। वे हैं- ईसाई, इस्लाम और हिंदू धर्म। तीनों में पहले दो धर्मों का ऐतिहासिक महत्त्व है। जहां तक तीसरे धर्म का संबंध है, यह वह धर्म है जिसे धीरे-धीरे ऊटपटांग विचारों की मदद से गढ़ा गया है। यह ऐसा धर्म है जिसे सही मायने में लोगों पर, उनकी आंखों में धूल झोंकने की मंशा से, थोपा जाता है। इसे अनेक विश्वासों का मिश्रण भी कहा जा सकता है। ‘हिंदुत्व’ संज्ञा इसने बहुत बाद में, बाकी दोनों धर्मों के फैल जाने के बाद ही प्राप्त की थी।

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आरंभ में, कुछ समय के लिए यह वैदिक धर्म के रूप में ख्यात था। उसके बाद इसे आर्य धर्म कहा गया। तदनंतर इसे ब्राह्मण धर्म कहा जाने लगा। अंततः इसको हिंदू धर्म की संज्ञा से नवाजा गया।

दुनिया में ईसाइयत सबसे बड़ा धर्म है। इसके सर्वाधिक अनुयायी हैं। उसके बाद इस्लाम का नंबर आता है। इस्लाम के अनुयायी, ईसाई धर्म के अनुयायियों की तुलना में मात्र तीन-चौथाई हैं। जबकि हिंदू धर्म के अनुयायियों की संख्या, दुनिया के विभिन्न देशों में मौजूद इस्लाम में विश्वास रखने वालों की तुलना में आधी है।

इन तीन प्रमुख धर्मों के अलावा एक और धर्म भी है, जिसे बौद्ध धर्म कहा जाता है। इस धर्म का अपना कोई ईश्वर नहीं है। बावजूद इसके उनके कुछ विश्वास और परंपराएं हैं जिनका वे पालन करते हैं। जहां तक अनुयायियों की संख्या है, बौद्ध धर्म का नंबर ईसाई धर्म के बाद आता है। यह धर्म मुख्यतः चीन, बर्मा, थाईलेंड और श्रीलंका में फैला हुआ है। यदि हम बौद्ध धर्म को किसी दूसरे नाम से पुकारना चाहें तो इसे ‘ज्ञानमय धर्म’ कहा जा सकता है। क्योंकि ‘बुद्धि’ के मायने ही ज्ञान है। जहां बाकी सभी धर्मों का कोई न कोई भगवान है, बौद्ध धर्म का कोई ईश्वर नहीं है। यह इसलिए है क्योंकि किसी भी ज्ञानकेंद्रित धर्म में ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। यही कारण है कि बौद्ध धर्म को प्रबुद्धता धर्म कहा जाता है।

बावजूद इसके बौद्ध मतावलंबी और विद्वान लोग भी बौद्ध धर्म को ज्ञानाधारित धर्म नहीं मानते, क्यों?

किसी भी धर्म की उन्नति के लिए आवश्यक है कि उसका एक ईश्वर हो तथा लोग उसमें विश्वास करें। इनके अलावा संबंधित उसके अनुयायियों द्वारा उससे जुड़ी अतार्किक रूढ़ियों तथा अनर्गल आख्यानों के प्रति अंधा विश्वास भी आवश्यक है।

इस कसौटी के अनुसार यदि कोई बौद्ध धर्म पर विचार करे, तो उसे महज जीवन-पद्धति कहा जा सकता है। वह इसी तरह के विचारों का प्रचार-प्रसार करता है।

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बावजूद इसके सभी धर्मानुयायी ईश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी कुछ ऐसे धर्म हैं जिनमें केवल एक ईश्वर है। कुछ अन्य ऐसे भी धर्म हैं जिनमें एकाधिक ईश्वर हैं। यद्यपि उपर्युक्त तीन प्रमुख धर्मों के अनुयायी एकल ईश्वर तथा देवताओं में विश्वास रखते हैं- तथापि उनके ईश्वर संबंधी प्रत्ययों में एकरूपता कायम है।

वे लोग जो भगवान के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं, वे उसे मनुष्य के रूप में महसूस करते हैं। अनेक ईश्वर मानव-स्वरूप हैं। उनका चाल-चलन, गुण तथा दूसरे कृत्य भी मनुष्यों जैसे ही हैं। बस उनमें मानवोचित गुण अधिक मात्रा में मौजूद हैं। लेकिन मनुष्य को अपने विचारों को कर्म के माध्यम से निश्चित परिणति तक पहुंचाना पड़ता है। यद्यपि ईश्वर भी मनुष्य जैसा ही है, किंतु उसमें अपने विचारों को तत्क्षण कार्यरूप देने की क्षमता कहीं अधिक बताई जाती है। मनुष्य और ईश्वर में यही एकमात्र अंतर है। मनुष्य और ईश्वर दोनों एक जैसे हैं। दोनों मानवीय प्राणी जैसे हैं। दोनों सामान्य मानवीय गुणधर्मों का पालन करते हैं। सिवाय इसके कि ईश्वर में वही गुण मनुष्य की अपेक्षा अधिक मात्रा में मौजूद हैं- दैवीय गुणों को सर्वोच्च और महान नहीं कहा जाता।

जीसस क्राइस्ट को ईश्वर के ‘कुमारन’ (पुत्र) के रूप में थोपा गया है।

पैगंबर मोहम्मद ईश्वर का ‘संदेशवाहक’ बताया जाता है।

इसी तरह मनुष्य के भी ‘कुमारन’ (पुत्र) और संदेशवाहक होते हैं।

अंतर बस इतना है कि मनुष्य इन्हें अपने दैनिक जीवन में प्राप्त कर लेता है।

ईश्वर ऐसे लोगों का भला करता है, जो भले काम करते हैं। जो लोग बुरे हैं, उन्हें वह दंडित करता है।

इसी तरह मनुष्य उन लोगों के साथ अच्छे से पेश आता है, जो उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं। जो उसे नुकसान पहुंचाता है, उसे वह भी नुकसान पहुंचाता है।

ईश्वर अपने कार्यों पर ज्यादा सोच-विचार नहीं करता। वह तत्क्षण कदम उठाता है। लेकिन मनुष्य अपने विचारों पर अमल करते समय तनाव-ग्रस्त रहता है।

कहा जाता है कि मनुष्य यदि अपने अपराधों की क्षमा मांगे तो ईश्वर उसे क्षमा कर देता है। इसी तरह मनुष्य भी पछतावा करने वालों को माफ कर देता है।

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ईश्वर कुछ लोगों को माफ करने से इनकार कर देता है; तथा बदले में उन्हें उनके अपराध के लिए दंडित करता है। इसी तरह मनुष्य भी कुछ लोगों की माफी को अस्वीकार कर, प्रतिकार-स्वरूप उनपर कहर बरपाता है।

इस तरह हम पाते हैं कि मनुष्य के सभी गुण ईश्वर में भी आभासित होते हैं। भगवान जो भी करता है, मनुष्य भी उसका अनुसरण करता है।

मनुष्य आपराधिक कृत्य करता है।

ईश्वर का भी आपराधिक कृत्यों में अपना हिस्सा रहता है।

मनुष्य के पास दंड देने के लिए जेल है।

परमात्मा के पास नर्क।

आदमी दंड देता है, ईश्वर भी दंड देता है।

मनुष्य दूसरे प्राणियों को मारता है, भगवान भी मनुष्य सहित दूसरे प्राणियों की हत्या करता है।

मनुष्य भूख और गरीबी का मूक-दृष्टा बना रहता है। ईश्वर भी लोगों को आपदाग्रस्त देख, चुप्पी साधे रहता है।

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यहां तक कि वे लोग भी जो बहुदेववाद में विश्वास रखते हैं, ईश्वर की एकेश्वरवादी समझ से अलग नहीं हो पाते। मनुष्य ने अपने विकारों और दुर्गुणों को भी ईश्वर में समाहित कर लिया है। अर्वाचीन काल में मनुष्य असभ्य, निर्दयी, पत्थरदिल, मूर्ख और चरित्रहीन था। जब उसने देवताओं की परिकल्पना की तो, तब स्वाभाविक रूप से ईश्वरीय प्रतिरूपों को मनुष्य के अच्छे और बुरे आचरण का प्रतीक बना लिया।

उदाहरण के लिए आरंभ में ब्राह्मण एकेश्वरवाद की परिकल्पना से दूर रहा, क्योंकि वह पर्वत कंदराओं में रहता था। यही कारण है कि उसने ऊपर देवलोक में रहने वाले अनेक देवगणों की संकल्पना की। ये देवता भी मनुष्य के विकारों से मुक्त नहीं थे। बड़ी आसानी से उसने मानवीय गुणों को विभिन्न देवताओं की विशेषता मान लिया। अपने सरल स्वभाव में वह उन्हें अलग-अलग नामों से पुकारता था। उसने लोगों को उन देवताओं में विश्वास करना सिखाया। लोग उन देवताओं पर विश्वास करें इसके लिए उनमें ऐसे गुणों की संकल्पना की, जिनसे मानव-मस्तिष्क में  भय उपजता हो।

शैव मतावलंबी देवताओं को ‘रुद्र’ और ‘दुर्गा’ बताते हैं। यूरोप में आदिवासी लोग देवताओं को पितृदेव और मातृदेवी बताते थे। हमारे यहां भी शैव ‘अम्मन देवता’ (मातृ देवी) तथा ‘अप्पन देवता’ (पितृ देवता) कहते हैं। कहा जाता है कि इन देवताओं के पास भाला, तलवार जैसे घातक हथियार होते हैं; तथा वे जंगली जानवरों जैसे चीता, सांड आदि के रूप में विचरण करते हैं। वे ईश्वर के ऐसे ही डरावने प्रतिरूपों की अराधना करते थे।

उन दिनों, वे पार्वती को भू-देवी, वरुण को जलदेवता, पवनदेवता को वायु का देवता, अग्निदेव को अग्नि का देवता, आकाशवाणी को आकाश का देवता तथा सूर्य को सूर्य भगवान तथा चंद्रमा को चंद्र देवता, यम को मृत्यु का देवता, ब्रह्मा को सृष्टि रचयिता, विष्णु को सृष्टि पालक तथा शिव को संहार का देवता मानते थे। ऐसे ही दूसरे देवता भी थे। इंद्र को उन्होंने सभी देवताओं का राजा स्वीकार किया था। उसे ‘देवेंद्र’ भी कहा जाता था।

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सभी पुरुष देवताओं की पत्नियां भी थीं। देवियों के पति थे। कुछ देवताओं के बेटे-बेटियां भी थे। महत्त्वपूर्ण यह है कि इन सभी में जो सामान्य गुण नजर आता है वह यह कि इनमें से एक भी देवी या देवता उच्चतम सद्गुणों से युक्त, ईमानदार अथवा श्रेष्ठ चरित्र से युक्त नहीं था। उन्होंने अधम और दुर्गुणों से युक्त मनुष्यों की तरह ही देवताओं की रचना की। इन देवताओं के दुष्कर्मों की कोई कोई सीमा नहीं थी। जिन निकृष्टतम, हास्यास्पद और बुरे से बुरे गुणों की कल्पना हम कर सकते हैं, वे सभी इन देवताओं में प्रमुखता से मौजूद थे। ये सब लोगों द्वारा अनंतकाल से, पूजे जा रहे देवताओं के रूप में ढल चुके थे। यहां तक कि आज भी, कहा जाता है कि जो भी इन ईश्वरों की अभ्यर्थना करता है, उस पर दरियादिली से आशीर्वाद लुटाया जाता है।

ईश्वर क्या है? ईश्वर के महान लक्षण क्या हैं? लोग आज भी इसे समझने में असमर्थ हैं। इन ईश्वरों के समस्त दुर्गुणों, बुरी आदतों और तमाम कमजोरियों के बावजूद, लोग आज भी इनकी पूजा करते हैं। फिर भी हम बस सुनते हैं कि देवता श्रेष्ठतम और महान गुणों से लैस हैं। जबकि अपने जीवन में हम वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहीं देखते हैं।

सामान्य तौर पर, मनुष्य को सर्वाधिक मूर्ख ईश्वर के विचार द्वारा  बनाया गया है। मुझे नहीं मालूम मनुष्य की ऐसी अज्ञानता का पर्दाफाश करने के लिए अभी तक कोई क्यों आगे नहीं आया है। यहां कि पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोग भी इस मामले में आलसी हैं। यदि हम दुनिया के पहले दार्शनिक के बारे में जानना चाहें, तो हम कह सकते हैं कि वह केवल गौतम बुद्ध थे। यही हमारा इतिहास हमें बताता है। उनके बाद हम कहना चाहेंगे, पश्चिम के सुकरात थे। उनके दार्शनिक विचारों को भली-भांति नहीं समझा गया।

आज पूरा विश्व आधारहीन और मूर्खतापूर्ण उपदेशों का अनुगामी बना हुआ है।

अपने स्वार्थ के कारण शासन-प्रशासन सब ब्राह्मणों के अधीन हो चुके हैं। प्रत्येक ब्राह्मण खुद बुरी शक्तियों के अधीन है। उसका ध्यान केवल इस पर केंद्रित रहता है कि उसे जन्म के आधार पर श्रेष्ठतम माना जाए। उसी उद्देश्य के लिए वह ईश्वर का सरंक्षण करता है। आज भी वह किसी भी गुणधर्म के मामले में, दूसरों से ऊपर उठने के लिए तैयार नहीं है। उसे मानवीय मूल्यों और सभ्यता के उच्चतम मापदंडों को जीवन में उतारकर दूसरों से श्रेष्ठतर दिखने कतई चिंता नहीं है।

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इसी तरह, वे लोग जो ईश्वर में उच्चतम गुणों का वास मानते हैं, कहते हैं कि ईश्वर सर्वोच्च है। परंतु वे ऐसे किसी सद्गुण को सिद्ध करने के लिए आगे नहीं आते, जो ईश्वर में मनुष्यों से ज्यादा हो।

किसी भी धर्म के लिए ईश्वर, स्वर्ग, नर्क, दैवी शक्तियों, अवतारों, धर्म-प्रमुखों, पुजारियों, प्रतीकों और जातीय पहचानों का होना आवश्यक है। इनके अभाव में कोई धर्म दुनिया में टिक ही नहीं सकता। हिंदू धर्म के लिए ये भी पर्याप्त नहीं हैं। हिंदुत्व को असंख्य देवता, तरह-तरह के स्वर्ग, अलग-अलग नर्क, मुश्किलात, तरह-तरह के मठ तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के गुरुजी वगैरह चाहिए। प्रसार हेतु ऐसे भक्त भी चाहिए जो ईश्वरीय साक्षात द्वारा, मोक्ष प्राप्त कर चुके हों। वैष्णव और शैव संप्रदाय हिंदुत्व की शाखाएं हैं, सो उनके साथ भी ऐसा ही है। उनके नामों में अंतर हो सकता है, परंतु जहां तक उनके काम करने का ढंग है, वह लगभग एक जैसा है। लगता यही है जैसे एक ने दूसरे की नकल की है।

उदाहरण के लिए, वैष्णव संप्रदाय में रामायण का वही महत्त्व है जो शैव संप्रदाय में स्कंदपुराण का है।

बताया जाता है कि विष्णु द्वारा लक्ष्मी के साथ संभोग रामायण का कारण बना था। इसी तरह शिव और पार्वती के संभोग को स्कंदपुराण का आधार बताया जाता है। मुझे इसे कुछ और स्पष्ट करना चाहिए।

एक कहानी में बताया गया है कि दिन के समय कुछ ऋषिगण विष्णु से मिलने पहुंचे थे। लगता है उस समय विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ बिस्तर में थे। बिलकुल, वह दिन का ही समय था। द्वारपालों ने, जिन्हें पता था कि उस समय विष्णु, लक्ष्मी के साथ क्या कर रहे हैं- ऋषियों को विष्णु के अंतःकक्ष में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी। नाराज होकर ऋषिगणों ने द्वारपालों को शाप दे दिया। कहा जाता है कि रामायण का जन्म उस अभिशाप से छुटकारा पाने की कोशिश का परिणाम था।

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इसी प्रकार, निरंतर ध्यान-मग्न रहने वाले शिव के बारे में भी कहा जाता है कि वे अपनी पत्नी पार्वती के साथ सौ वर्षों से भी अधिक समय तक संभोगरत थे। इससे इंद्रलोक के देवता पार्वती को लेकर बहुत चिंतित थे। वे सोचते थे कि पार्वती के गर्भ में पहुंचा शिव का वीर्य बड़ा कहर बरपाएगा। इसलिए उन्होंने सोचा कि संभोग-क्रिया के पूरा होने से पहले ही, शिव-पार्वती को अलग-अलग करना, उनका प्राथमिक और सबसे जरूरी कर्तव्य है। किसी तरह वे अपनी कोशिशों में कामयाब हुए। लेकिन शिव के लिंग से उत्सर्जित वीर्य ने कई अकथनीय भद्दे प्राणियों की रचना की। अंत में शिव पुत्र कार्तिकेय के रूप में एक और देवता का जन्म हुआ। कुछ लोगों का विश्वास है कि कार्तिकेयन का जन्म राक्षसों पर विजय पाने के लिए ही हुआ था।

राम के जन्म के लिए देवताओं ने महाविष्णु की प्रार्थना की थी।

कार्तिकेय के जन्म के लिए देवताओं ने महादेव की अभ्यर्थना की थी।

राम ने राक्षसों को मारा था, कार्तिकेय ने असुरों की हत्या की थी।

जिन दिनों राम राक्षसों को मारने में लगे थे, किसी कारणवश राक्षसों की संख्या अचानक बढ़ने लगी। कार्तिकेय जब असुरों के साथ युद्धरत होकर उनका संहार कर रहे थे, बताते हैं कि उनकी संख्या भी अकस्मात बढ़ने लगी थी।

राम की पत्नी सीता एक गोद ली हुई कुँवारी कन्या थी। इसी तरह कार्तिकेय की पत्नी वल्लीदेवी भी दूसरे कुल से लाई गई थी।

शैवों और वैष्णवों में अनेक समानताएं हैं। ये कहानियां भी परस्पर मिलती-जुलती हैं।

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यहां तक कि वैष्णव संप्रदाय के आचार्यों तथा शैव संप्रदाय के नयानमारों की कहानियां भी परस्पर संबद्ध हैं। उनके बीच कोई बड़ा और वास्तविक अंतर नहीं है। उनके जीवन, रहन-सहन का ढंग, मोक्ष प्राप्ति के उनके रास्ते एक-दूसरे से लगभग मेल खाते हैं।

भक्त लीला नाम की पुस्तक, जो वैष्णवों का पौराणिक ग्रंथ है तथा शैव संप्रदाय के पौराणिक ग्रंथ पेरियापुराणम के कथ्य में भी लगभग समानता है।

यदि वैष्णवपुराण में एक कुम्हार की कथा संकलित है तो शिवपुराण में भी एक कहानी का पात्र भी कुम्हार है। वैष्णव पात्र का नाम गोराकंबर था। शैव कथा में आए कुम्हार को थिरुनीलाकंदर कहा जाता था। उनकी कहानियों के बीच भी साम्य है। गोरा कंबर के अपनी पत्नी के साथ संबंध अच्छे नहीं थे।

थिरुनीलाकंदर के संबंध भी अपनी पत्नी के साथ खराब थे। गोराकंबर तथा उसकी पत्नी के बीच सुलह कराने वाले महाविष्णु थे। इसी तरह थिरुनीलाकंदर तथा उसकी पत्नी के बीच परमशिव ने सुलह कराई थी।

वैष्णव कृति में शोक्कामेला नामक एक अछूत की कहानी है, शैव ग्रंथ में नंदनार नाम के अछूत की कथा शामिल है। शोक्कामेला के सपनों में विष्णु आते थे। नंदनार को सपने में परमशिव दिखाई पड़े थे। शोक्कामेला को विष्णु के दर्शन हुए थे, नंदनार ने शिव के दर्शन किए थे।

वैष्णवों तथा शैवों के पौराणिक ग्रंथों के अध्ययन से जो बात पूरी तरह साफ नजर आती है, वह यह कि उन सभी में ब्राह्मण की भूमिका को हमेशा ऊपर रखा गया है। बाकी जातियों को नीचा और घृणा-योग्य दिखाया गया है। घृणास्पद जाति-प्रथा को दोनों में सुरक्षित रखा गया है।

जब तक कोई इन कहानियों का गहन अध्ययन, अनुसंधान न करे, हम साफ तौर पर यह नहीं कह सकते कि इनमें से किसने, दूसरे से कितना ग्रहण किया है। मैं इस काम को अपने लिए उपयुक्त नहीं मानता। इसके अलावा शैव संप्रदाय केवल दक्षिण भारत में प्रभावी है। उत्तर भारत में इसका असर बहुत विरल है। वहां, केवल वैष्णव संप्रदाय आगे बढ़ रहा है। उत्तर भारत जब आप स्वयं को वैष्णव बताएंगे, तभी कोई आपको शाकाहारी मान सकता है।

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धार्मिक पुस्तकों में, देवताओं तथा उनके भक्तगणों की कहानियां परस्पर मिलती-जुलती हैं। यह तभी संभव है जब वे एक-दूसरे की नकल या अनुसरण करें। अन्यथा, वैष्णवों और शैवों दोनों को एक-दूसरे से मिलकर इन मिलती-जुलती कहानियों को गढ़ने का षड्यंत्र रचना चाहिए था।

धरती पर बहुत-सी जैविक वस्तुएं जैसे घास, वनस्पतियां, पौधे, जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े, पक्षी, और पशु हैं। उनमें केवल मनुष्य ही है जो ईश्वर में विश्वास करने के लिए बना है। दूसरे सभी जैविक प्राणी खाते-पीते, बड़े होते और संतति को जन्म देकर मर जाते हैं। ठीक ऐसे ही जैसे मनुष्य करता है।

जन्म, जीवन, मृत्यु और गायब हो जाने में मनुष्य तथा दूसरे जैविक प्राणियों में कोई अंतर नहीं है। अंतर केवल जन्म के समय दिखाई पड़ता है। जिन्होंने जैविक प्राणियों के उद्भव पर शोध किया है, उन्होंने साफ तौर पर लिखा है कि मनुष्य तथा दूसरे जैविक प्राणियों के जीवन में लगभग समान पहचान और समरूपता है। जैविक प्राणियों में, केवल मनुष्य ही ऐसा है जिसे प्रकृति से सोचने-समझने की शक्ति प्राप्त हुई है। उसी ज्ञान का प्रभाव बाद के वर्षों में मानव-मस्तिष्क पर पड़ा है। परिणामस्वरूप मानव-समाज अपनी इच्छाओं औरडरों का शिकार बनता गया, जिसने उसके जीवन में तरह-तरह के दुख और परेशानियों को जन्म दिया है।

मनुष्य की इच्छाओं, डरों तथा अज्ञान ने ही उसे ईश्वर का दास बनाया है। ईश्वर के प्रति मानव जाति में जन्मा विश्वास ही ज्ञान और विवेक के लाभों की उपेक्षा का कारण बनता आया है। वही मानव-प्रजाति को अतार्किकता और विचारहीनता की और ले जाता है। मुश्किलों तथा परेशानियों से घिरा मनुष्य, अंततः पूजा-पाठ के चक्कर में पड़ जाता है।यदि ईश्वर के कुविचार ने मानव-मस्तिष्क में प्रवेश न किया होता तो अब तक मानव-सभ्यता विकसित होकर बहुत आगे बढ़ चुकी होती।

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सच तो यह है मनुष्यता को चिंताओं, मुश्किलों और दुखों से मुक्त होना चाहिए। चाहे जिस अवस्था में हो, आज आप मनुष्य को उसकी चिंताओं और दुखों से परे नहीं ले जा सकते। आज हर मनुष्य चिंताओं से घिरा है। उन लोगों के लिए जो नास्तिक हैं, जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखते, उन्हें सबकुछ प्राकृतिक लगता है। यदि कोई मानता है कि ईश्वर महज कल्पना है, उसे दुखों और कठिनाइयों की चिंता नहीं करनी पड़ती, ऐसे लोग ही वास्तविक इंसान(ज्ञानी) हैं। उस अवस्था को प्राप्त करना और सबकुछ त्याग देना, आसान बात नहीं है। मनुष्य ज्ञान अर्जित कर सकता है। वह सच्चा त्यागी हो सकता है, बावजूद इसके वह फिसल सकता है, गलती कर सकता है, क्योंकि वह दूसरे लोगों के बीच(समाज) में है।

मनुष्य की, चिंताओं और क्लेशों से मुक्त होने की अवस्था ही वास्तविक मोक्ष है। इसलिए ऐसे लोगों को, जो स्वयं त्याग की प्रतिमूर्ति कहते हैं, उन्हें ईश्वर में कभी विश्वास नहीं हो सकता। मनुष्य की ईश्वर में जितनी अधिक आस्था होगी, वह दूसरों पर उतना ही बड़ाबोझ होगा। ऐसे मनुष्य की इच्छाओं और कामनाओं का कोई अंत नहीं होगा।

आजकल लोग ईश्वर की पूजा क्यों करते हैं? साधारणतः ईश्वर के प्रति आस्था निजी समस्याओं के कारण उत्पन्न होती है। व्यक्ति चाहे बुद्धिमान हो या न हो, ईश्वर से कुछ न कुछ उम्मीद अवश्य रखता है। उन इच्छाओं की पूर्ति की प्रत्याशा में वह ईश्वर के प्रति अपने सघन विश्वास को कायम रखता है।

यहां तक कि ऐसे लोग भी जो दावा करते हैं कि सबसे मुक्त हो चुके हैं—स्वर्ग की चाहत रखते हैं। मैं कहना चाहूंगा कि ऐसे लोग अपनी पीठ पर मौजूद तीसरी आंख की पूजा करने वाले लोगों की तरह हैं।

इच्छाओं की पूर्ति की चाहत ने ही भक्ति, प्रार्थना, आस्था, पूजा तथा दूसरे धार्मिक रीति-रिवाजों ने जन्म लिया है। यदि आपकी सचमुच कोई इच्छा या कामना नहीं है तो आपका ईश्वर से भला क्या लेना-देना? इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ईश्वरीय आस्था विशेषकर उन लोगों में बहुत गहरी और संज्ञेय होती है, जो गलतियां करते हैं, धोखा देते हैं, अवैध तथा गैर-कानूनी धंधे करते हैं। समाज में ठगी, धोखादड़ी करने वाले, तथा लालची और कृपण प्रवृत्ति के लोग ही धूमधाम और तड़क-भड़क के साथ ईश्वर-भक्ति का नाटक करते हुए नजर आते हैं।

एक कैदी के रूप में जेल जाने का मुझे दस बार से ज्यादा का अनुभव है। मैंने देखा था कि हत्यारे और साधारण कैदी अपनी कोठरियों में देवता की तस्वीर लगाए रहते थे। कुछ के पास धार्मिक पुस्तकें भी थीं। राजमुंदरी जेल में मैं एक हत्या की सजा भुगत रहे कैदी के संपर्क में आया था। वह प्रातःकाल स्नान करके रोजाना आधा घंटे तक पूजा करता था। वह एक टांग पर खड़ा रहता था। साथ में कुछ गाता भी था। वस्तुतः जेल में आने से पहले वह पढ़ा-लिखा, धनवान आदमी था। जब मैंने उससे पूछा कि वह क्या कर रहा था, क्यों ऐसा करता था, तो उसने उत्तर दिया कि वह जेल से जल्दी छूटना चाहता है।

आप देख सकते हैं कि वैष्णव, शैव, इस्लाम, ईसाई धर्म से जुडे़ अनेक भ्रष्ट लोग नियमित पूजा-पाठ, आरती आदि करते हैं। कुछ भी हो, वे ईश्वर को भूलने, उसे याद न करने की गलती नहीं करेंगे। मैं उन लोगों के धंधे के बारे में ज्यादा नहीं कहना चाहता जो खूब दिखावे के साथ पूजा-पाठ करते हैं।

यह उनकी इच्छाओं और अतृप्त कामनाओं के अलावा कुछ नहीं हैं। यही उनकी ईश्वरीय आस्था के लिए जिम्मेदार हैं।मगरकिसी भी रूप में ईश्वरीय सत्ता में विश्वासदूसरों का मददगार बनने में उपयोगी नहीं हो सकता।

 प्रश्नोत्तर –

परमेश्वर के बारे में लोगों में प्रचलित सामान्य दृष्टिकोण क्या हैं?

अधिसंख्यक लोगों का विश्वास है कि ईश्वर ने समस्त वस्तुजगत की रचना की है।

 उसके बाद?

वे आगे कहते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञाता, सर्वदृष्टा और सर्वव्यापी है।

 ईश्वर के आचरण के बारे में लोगों का क्या विचार है?

वे कहते हैं कि वह न्यायकर्ता और पवित्र है।

इसके अलावा?

वह दयालु भी है, वे कहते हैं।

 क्या लोग सोचते हैं कि ईश्वर सदैव दयाभाव रखता है?

नहीं, जैसे-जैसे समाज के ज्ञान और अनुशासन की वृद्धि होती है, वे ईश्वर को कृपालु और ऐसा ही सोचने लगते हैं।

कृपया विस्तार से बताएं?

आदिम समाज में ईश्वर एक चोर था। अरबों का भगवान तानाशाह था। यहूदियों का ईश्वर जंगबाज। ईसाइयों का परमात्मा साधारण लोगों को जो छोटे-मोटे अपराध करते हैं—दंड देने वाला था।

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ईश्वर के बारे में आपके अन्य विचार क्या हैं?

ईश्वर को मनुष्य के विचारों, अभिव्यक्तियों तथा कार्यों पर नियंत्रण रखने वाला बताया जाता है।

क्यों?

यदि हम कुछ ऐसा करें जो ईश्वर को खुश करता हो, वह हमें आशीर्वाद देगा। यदि हम उसे अप्रिय लगने वाला कोई काम करते हैं, तो वह दंडित करेगा।

भगवान के लिए कौन-सा नाम उपयुक्त है?

विभिन्न स्थानों के लोग ईश्वर को अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। ग्रीकवासियों के लिए वह जीयस है, रोम वालों के लिए जोव, पारसियों के बीच उसका नाम अहुरमज्द है, हिंदू उसे ब्रह्मा कहते हैं, ईसाई उसे जेहोवा कहकर बुलाते हैं, मुस्लिमों का परमेश्वर अल्लाह है।

कोई और नाम?

सर्वशक्तिमान, सुखदाता, परमात्मा, नित्यशक्ति, प्रकृति, विष्णु(वैद्यलिंगम) आदि।

 क्या लोगों ने ये सब नाम किसी एक ईश्वर को दिए हैं?

नहीं, कुछ लोग उसेव्यक्ति के रूप में संबोधित करते हैं, कुछ खास विचारों को, कुछ विशिष्ट नियमों को। कुछ लोगों के अनुसार वह अज्ञेय है।

क्या सबलोग एक ही ईश्वर में विश्वास रखते हैं?

लोग एक ईश्वर के साथ अनेक ईश्वरों में भी विश्वास रखते हैं।

 क्या एक से अधिक ईश्वर भी हो सकते हैं?

लोग सामान्यतः अनेकेश्वरवादी हैं।

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उन्हें क्या कहा जाता है?

मुख्यतः आस्थावादी

कुछ बहुदेववादी लोगों के नाम बताइए?

हिंदू, मिस्रवासी, ग्रीक और रोमन

एकेश्वरवादियों के नाम?

यहूदी, ईसाई और मुसलमान

क्या वे सब मूलतः एकेश्वरवादी हैं?

नहीं, मूलतः सभी लोग बहुदेवों में विश्वास रखते हैं।

बहुदेवता कौन से हैं?

सूर्य, चंद्र, आत्मा, प्रेत, जानवर, वृक्ष, पर्वत, पत्थर, नदियां, दैत्य वगैरह।

 आप ऐसा क्यों कहते हैं?

लोग उनकी पूजा करते हैं, उनके लिए मंदिर बनवाते हैं, उनकी मूर्तियां गढ़ते हैं तथा उनके लिए पूजा-पाठ करते हैं।

 क्या लोग मानते हैं कि इन सभी देवताओं में एक जैसी शक्ति है?

विद्वान लोग कहते हें कि ये सब एक परमात्मा के अधीन, उसके सहायक हैं।

अज्ञानी कौन है?

वे लोग जो सोचते हैं कि कुछ अधिक शक्तिशाली, कुछ महज कमजोर, कुछ सिर्फ सुंदर और कुछ मात्र बुद्धिमान थे?

 उन्होंने ईश्वर को क्यों गढ़ा था?

आदिम मनुष्य चीजों से डरने वाले बच्चे की तरह था। जो भी उसको नया दिखाई पड़ता, वह उससे भयभीत होने लगता था। उसने कल्पना की थी कि कुछ ऐसा भी है जिसे वह देखने-समझने में असमर्थ है। वह कमजोर और निस्सहाय था। वह किसी से संरक्षण और सहायता चाहत रखता था।

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मनुष्य स्वभावतः दूसरों का साथ चाहता है। नई और अनजान चीजों से स्वयं को सुरक्षित महसूस करने के लिए उसने देवताओं को गढ़ा।नैतिकता भी देवताओं की रचना के पीछे प्रेरणा बनी थी।

कैसे?

यदि हम अमर होते, अपरिहार्य मृत्यु से सामना न करना पड़ता तो हमें ईश्वर की कतई आवश्यकता नहीं थी। मृत्यु और पुनर्जन्म की अवधारणा ने, जीवन-मृत्यु की कारक सत्ता की खोज में मनुष्य को ईश्वर की कल्पना के लिए प्रेरित किया। बाकी जीवों, जैसे पशुओं की ओर देखिए, चूंकि उन्हें मृत्यु के बारे में कोई बोध नहीं है, इसलिए वे ईश्वर के बारे में विचार करना आवश्यक नहीं समझते।

क्या देवताओं की संख्या बढ़ रही है?

नहीं, यह घट रही है।

क्यों?

मनुष्य के ज्ञान में जैसे-जैसे वृद्धि होगी, वह खुद को स्वयं सुरक्षित रखने के बारे में अधिकाधिक आश्वस्त होता जाएगा।

क्या बुद्धिमान लोगों के देवता, अज्ञानी लोगों के देवताओं से कम हैं?

बिलकुल, केवल असभ्य लोग ही अधिक देवताओं को पूजते हैं।

एकेश्वरवादियों के बारे में बताइए?

एकेश्वरवादी आजकल बहुसंख्यक हैं।

क्या नास्तिक भी हैं?

हां, कुछ लोग हैं।

वे किसी ईश्वर में विश्वास क्यों नहीं करते?

वे मानते हैं कि ईश्वर में आस्था रखना समाज के हितों के लिए हानिकारक है।

क्या ईश्वर की सत्ता को सिद्ध नहीं किया जा सकता?

कुछ कहते हैं, हां, कुछ कहते हैं-ना, लेकिन अभी तक किसी ने सिद्ध नहीं किया है।

ईश्वर को सिद्ध करने वाले कौन-से कारण हैं?

कार्य-कारण सिद्धांत। कुछ लोग कहते हैं कि प्रत्येक कार्य का कारण होना चाहिए। इसी तरह वे तर्क  देते हैं कि इस सृष्टि का भी कोई न कोई कर्ता होना चाहिए। यदि ऐसा ही है तो ईश्वर की रचना का कोई कारण क्यों नहीं होना चाहिए? उस ईश्वर को किसने बनाया है?

 क्या वह स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकता?

अगर ऐसा है तो यह सिद्धांत आरंभ में ही खारिज हो जाता है। यदि ईश्वर स्वतंत्र हो सकता है, तो  संसार क्यों नहीं?

अगर हम यह कल्पना करें कि ईश्वर की उत्पत्ति का भी कोई न कोई कारण है तो क्या बिगड़  जाएगा?

उस अवस्था में हमें दूसरे कारणों की खोज के लिए आगे बढ़ना होगा, जिसका कोई अंत न होगा।

कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर संपूर्ण है, आपका क्या विचार है?

यदि ईश्वर सचमुच संपूर्ण हो तो इसे अनुभवजन्य होना चाहिए तथा उसके बारे में हमारी स्मृति का निश्चित आकार होना चाहिए। परंतु ऐसा नहीं है। हमने केवल उसके संपूर्ण होने का भाव पैदा किया है। इससे मनुष्य को यह लगता है कि वह अपूर्ण तथा ईश्वर संपूर्ण है। इसके अलावा संपूर्णता एक  गुण है। यह आवश्यक नहीं कि एक बड़ा शहर समुद्र के भीतर केवल इसलिए समाया हुआ हो कि हमें यह विश्वास; अथवा ऐसी प्रतीति होती है।

बंगालोर के पुट्टन्ना शेट्टी टाउन हॉल में जनसभा को संबोधित करते हुए ई.वी. रामास्वामी

कृपया विस्तार से बताएं?

लोगों की आरंभिक धारणा थी कि यह पृथ्वी चपटी है। वह विश्वास सार्वत्रिक नहीं हो सकता था, क्योंकि किसी भी कालखंड में पृथ्वी चपटी नहीं थी। कुछ लोग समय बताने वाली घड़ी की तुलना भगवान से करते हैं। वे कहते हैं कि जैसे घड़ी हमारे सामने है, ठीक ऐसे ही सर्वनियंता भी होना चाहिए।ऐसे ही यदि यह संसार है तो उसका निर्माता भी होना चाहिए; और वह निर्माता ईश्वर है।

आपका क्या विचार है?

हम घड़ी के बारे में सबकुछ जानते हैं, लेकिन दुनिया के बारे में सब नहीं जानते। आगे बढ़कर हम कह सकते हैं कि घड़ी का एक निर्माता होना चाहिए। परंतु यह नहीं कह सकते कि जो भी दृश्यमान है, उसने ईश्वर को दुनिया रचने के लिए बाध्य किया। उस आधार पर कोई भी दुनिया के निर्माता को सिद्ध नहीं कर सकता।

तब संदेह निवारण के लिए आप क्या सुझाव देंगे?

मनुष्य को सदैव गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। हमें बलपूर्वक विश्वास करना सिखाया गया है। हमें अध्ययन करना चाहिए, महसूस करना चाहिए उसी के बाद किसी भी वस्तु और प्रत्येक वस्तु में विश्वास करना चाहिए। हमें मुक्त और साहसपूर्ण चिंतन की अनुमति होनी चाहिए।

मनुष्य तर्कशील प्राणी है। वह चिंतन-मनन के सामर्थ्य से युक्त हैं। उसे सोचने-विचारने का अवसर मिलना ही चाहिए। यही समस्त सत्यों को जानने का मार्ग है।

(पेरियार द्वारा 1973  में दिए गए चर्चित भाषण का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद. स्रोत : के. वीरामनी द्वारा संकलित,  दि कलेक्टिड वर्क आफ पेरियार, दि पेरियार सेल्फ रेस्पेक्ट प्रोपेगेंडा इंस्टीट्यूटशन, चैन्नई।)

अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप

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