आज़ादी के अमृत महोत्सव के समय भी मुसहर एक दंतकथा बने हुए हैं। बोलचाल में उनको लोग बन (वन) का राजा कहते हैं और स्वयं को वे बनवासी कहते हैं लेकिन जहाँ वे बसे हुए हैं वहां से उन्हें उजाड़ने में राजस्व और वन विभाग को ज्यादा समय नहीं लगता। पिछले ही साल वाराणसी के करसड़ा गाँव में पहले बिना नोटिस दिए उनकी बस्ती पर बुलडोजर चला और बाद में उनके नाम पर दर्ज रकबे को बंजर के खाते में दर्ज कर लिया गया। आज उस ज़मीन पर अटल आवासीय विद्यालय बन रहा है और उजाड़े गए मुसहरों को सहदो-महदो पुल के नीचे नाले में बसने को मजबूर कर दिया गया है जिसके ठीक ऊपर 44 हजार वोल्ट का हाईटेंशन तार गुजर रहा है। सच में उन्हें मौत के नीचे धकेल दिया गया है लेकिन वे क्या कर सकते हैं? चंदौली जिले की नौगढ़ तहसील के नुनवट गाँव के मुसहर भी दूसरी जगहों के मुसहरों की ही तरह हैं। वे इस बात से खुश हैं कि उनके पास कई प्रकार के कार्ड हैं। लाल कार्ड यानी गरीबी रेखा के नीचे वाला राशन कार्ड, पीला कार्ड यानी आयुष्मान योजना का कार्ड, ई-श्रम कार्ड, जॉब कार्ड आदि। आयुष्मान कार्ड के पीछे लिखे नियम और शर्तों के अनुसार यह कार्ड सरकार द्वारा नामित अस्पतालों में मान्य होगा और इससे पाँच लाख तक के इलाज की सुविधा है। मनरेगा में उन्हें काम मिलता है लेकिन साल भर में कभी भी दो महीने से ज्यादा नहीं मिलता।
नौगढ़ से लौटकर अपर्णा
इस बार नौगढ़ की यात्रा में ग्राम्या संस्थान की बिंदु सिंह, नीतू और सुरेन्द्र यादव के साथ वहां के कई गाँवों में मैं भी गई थी। अभी तक मैंने केवल नौगढ़ का नाम ही सुना था और देवकीनंदन खत्री के उपन्यास में इसके किले के बारे में थोड़ा-बहुत आभास था हालांकि अब तक किले की एक ईंट तक न दिखी थी। कस्बे को ज़रूर देखा और बाज़ार की चहल-पहल में उतरकर पान लिया। बिंदु सिंह ने पान की बड़ी तारीफ़ की थी इसलिए सुरेन्द्रजी ने तालाब के किनारे वाली गुमटी से पान बंधवाया। सबसे पहले हमारा कार्यक्रम औरवाटांड जाकर नौगढ़ बांध देखने का बना। वहां से लौटकर नुनवट मुसहर बस्ती में लोगों से मिलना था।
मुसहर समुदाय को नहीं पता कि वह आदिवासी हैं या दलित, लेकिन वह अपने आपको बनवासी मानता है। दलित होने को वह अपमानजनक समझता है। जबकि उत्तर प्रदेश में वह दलित कैटेगरी में परिगणित है। इसलिए दलितों में परिगणित सभी जातियों में जो राजनीतिक चेतना और अधिकारबोध है वह इसमें नहीं दीखता।
एक बात बता देना ज़रूरी है कि इस पहली यात्रा में नौगढ़ आने का अहसास बहुत अद्भुत था। चुनार के रास्ते अहरौरा आते हुए भगौतीदेई गाँव में लगे दर्जन भर क्रशरों और काटे जा रहे पहाड़ों का दृश्य भयावह और उदास करनेवाला था। क्रशरों के किनारे गिट्टियां-रोड़ियाँ पहाड़ी की तरह जमा थीं लेकिन प्रकृति के बनाये पहाड़ क्षत-विक्षत, नंगे और डरावने लग रहे थे। इसी उदासी में अहरौरा घाटी भी निकली लेकिन कोई कुतूहल न हुआ। मधुपुर फ्लाईओवर से बायीं ओर नौगढ़ की सड़क पर मुड़ गए। ग्रामीण इलाका मुझे हमेशा अपनी ओर खींचता है। जैसा कि बिंदु सिंह ने बताया था कि नौगढ़ अपना कोई सानी नहीं रखता ठीक वैसा अनुभव होने लगा। ग्राम्या संस्थान, लालतापुर पहुंचकर लगा सचमुच नौगढ़ कुछ अलग है। मैं तुरंत ही भागकर छत पर पहुँची। दूर चारों ओर पहाड़ियां दिख रही थीं। सामने विशाल जंगल और मैदान थे। कुछ ही देर में मैं भूल गई कि बनारस भी कोई शहर है। लंच लेकर निकले तो धूप कम होने लगी थी। यहाँ से नौगढ़ क़स्बा ग्यारह किलोमीटर दूर है। वहां से हमें नौगढ़ बाँध और झरना देखने जाना था और वापसी में नुनवट मुसहर बस्ती में लोगों से मिलना था।
आज आठ अगस्त है और जंगल में स्थित औरवाटांड गाँव में घरों और झोपड़ियों पर बाँस की टहनियों में लगे तिरंगे लहरा रहे थे। मैंने पूछा कि गाँव-गाँव तिरंगा कैसे पहुंचा। साथ चल रहीं नीतू सिंह ने कहा कि प्रधान के अलावा और कौन देगा। सबको ऊपर से आदेश आया है कि ज्यादा से ज्यादा तिरंगा लगवाओ।
नुनवट की मुसहर बस्ती
नुनवट मुसहर बस्ती सड़क के उत्तरी और दक्षिणी दोनों छोरों पर बसी है। दोनों ओर की कुल आबादी ग्राम्या संस्थान के स्थानीय कार्यकर्ता कल्याण यादव के अनुसार एक सौ अस्सी लोगों की है। जिस तरफ हम आए हैं इस बस्ती को बंधा पर मुसहर बस्ती कहते हैं। दूसरी बस्ती उत्तर की ओर है। ये लोग कर्मठ चुआं से चलकर वहां आये हैं जहाँ पानी का कोई बंदोबस्त नहीं है।
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इस बस्ती में अमूमन सबके घर कच्चे हैं। लेकिन पहले ही घर के दरवाजे पर मिट्टी में एक लता की आकर्षक आकृति उकेरी गई है। यह इनका स्वाभाविक कलाबोध है जिसमें प्रकृति प्रेम खुलकर अभिव्यक्त हुआ है। जैसे ही मैंने अपना कैमरा निकाला तभी एक महिला घर के अंदर से निकली और मुझे देखने लगी। पूछा- ‘कहाँ से आवत हऊ?’ अब मैं थोड़ी-थोड़ी भोजपुरी समझने लगी हूँ और मैंने भी भोजपुरी में जवाब दिया- ‘एही बनारस से हो।’ वह भी मुस्कराई लेकिन तभी एक और महिला घर के भीतर से आई और कहने लगी – ‘फोटो काहें खींचत हऊ? का हमहन के आवास मिली?’
मैंने पूछा – ‘गाँव में शौचालय नहीं बना है क्या?’ उस औरत ने तनिक गुस्से में कहा – ‘आवास मिलल नाहीं त पैखाना का होई, जंगल हौ तौ।’
लेकिन फिर वह भी दरवाजे में खड़ी हो गई और पास खेल रहे बच्चे भी वहां आकर उनके पास दुबक गए और फोटो के लिए मुस्कराने लगे।
बच्चों से मैंने पूछा – ‘स्कूल जाते हो?’ उन सबने गर्दन हिलाई लेकिन उनकी माँ ने कहा – ‘कहाँ जात हउवन स्कूल। पढ़ाई होत ही ना हौ त का करिहन !’
अपने में मगन इन लोगों की वास्तविक समस्या क्या है
आगे बस्ती के बीचोबीच अनेक लोग जुट गए। कुछ महिलाएं भी आ बैठीं। दो चारपाइयाँ रख दी गईं। हम लोग चारपाई पर बैठे। बस्ती के लोग ज़मीन पर ही बैठ गए। तेजबली, भाईलाल, श्यामलाल, कमलेश, रामनरेश, शिवकुमार, गोबिंद, फेंकू, रामचंदर, मकसूदन और जितेन्द्र के अलावा एक लड़की कविता वहां मौजूद थे। पूछने पर कविता ने बताया कि वह स्कूल जाती है लेकिन थोड़ी ही दूर खड़ी उसकी माँ ने कहा कि नहीं जा पाती। अजीब बात है बच्चे कुछ और जवाब देते हैं और माएँ कुछ और ही कहती हैं।
कैसे जीवन चल रहा है? इस सवाल पर भाईलाल ने कहा- मनरेगा का जॉब कार्ड है लेकिन उतना काम ही नहीं है। पत्ते के सीजन में पत्ते तोड़ते हैं। आजकल यह जो पेड़ लगाए गए हैं उसमें भी काम करते हैं।’ उन्होंने सड़क के किनारे तिकोने घेरे में लगाए गए पेड़ों की ओर इशारा किया। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के एक मंत्री गिरीश चन्द्र यादव आकर इसका उद्घाटन कर गए थे। इसमें आम, अमरूद, महुआ, शीशम और सागौन के पौधे लगे हैं। बरसात हो नहीं रही है इसलिए टैंकर से पानी आता है। उम्मीद है कि पौधे सूखेंगे नहीं।
पत्ते तोड़ने का एक सीजन होता है जब हर व्यक्ति काम करता है। भाईलाल ने बताया कि सौ गड्डी का एक सौ पचपन रुपये मिलते हैं। एक गड्डी में पचपन पत्ते होते हैं। यानी साढ़े पाँच हज़ार पत्तों का मूल्य एक सौ पचपन रुपये मिलता है। श्यामलाल बताते हैं कि अगर एक दो पत्ता कम हो गया तो उसे नहीं लिया, फेंक दिया। इसलिए हमलोग पचपन की जगह साठ ही बांधते हैं ताकि कम न हो।
पत्ते तोड़ना, छाँटना और गड्डी बनाना बहुत मेहनत का काम है। पूरा परिवार दिन भर में बमुश्किल सौ-डेढ़ गड्डी पत्ते तोड़ सकता है। बच्चे पत्तों को छाँटकर गड्डियाँ बनाते हैं और बाँधते हैं। इस प्रकार एक परिवार दो सौ-ढाई सौ रुपये कमा पाता है। फेंकू कहते हैं कि ‘पत्ते छाँटना भी मेहनत का काम है। एकसार पत्ते हों। उनमें छेद न हो और फटे न हों।’ लेकिन यह हमेशा नहीं होता। तीन-चार महीने में यह काम ख़त्म हो जाता है।
फिर क्या करते हैं? शिवकुमार और भाईलाल ने साथ-साथ बताया कि ‘फिर क्या मैडमजी, बस हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। कभी नरेगा कभी वन विभाग में कुछ मिल जाता है।’
कोई इच्छा और आकांक्षा नहीं। किसी तरह से दिन बिता लेने वाले इस समुदाय को लगता है कि सरकार मुफ्त अनाज और पेंशन दे दे तो जीवन चल सकता। अभी इनके कच्चे मकान को देखकर लगता है कि लम्बे समय तक यह सुविधा उन्हें मिलती रहेगी।
नुनवट ग्राम सभा में सड़क के उत्तरी और दक्षिणी दोनों छोरों पर बसे सत्तर परिवारों को अभी तक तेरह को आवास मिले हैं। इधर (बंधा अर्थात दक्षिणी छोर) के भाईलाल और श्यामलाल के नाम पर भी आवास है लेकिन ये लोग वहां जाने को तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि उधर हमको अच्छा नहीं लगता। छोटे-छोटे दो कमरे हैं जबकि यहाँ तो खुलकर रह रहे हैं। बस एक यही दिक्कत है कि वन विभाग उन्हें यहां से हटाना चाहता है और कई बार उनसे हटने को कह चुका है लेकिन यहाँ के लोग उस ओर बिलकुल नहीं जाना चाहते।
उधर, जंगल है जबकि इधर काफी दूर तक मैदान दिखाई पड़ता है। इस खाली मैदान में ये लोग खेती करते हैं। उन्हें कुछ महीनों के लिए धान मिल जाता है। वहां जाने पर इस जगह खेती करना मुश्किल है। दूसरे, वे कहते हैं कि जो आवास उनको मिला है वह बिलकुल आरामदेह नहीं है।
फ़िलहाल ये लोग उन आवासों में जाने को राजी नहीं हैं। यह जगह नौगढ़-औरवाटांड मुख्य मार्ग से लगी हुई है। बेशक आने-जाने का कोई सार्वजनिक साधन नहीं है, लेकिन सीधे नौगढ़ से जुड़ाव कम बड़ी बात नहीं है।
मांगने पर कई लोगों ने अपने-अपने कार्ड दिखा दिए, लेकिन एक बुजुर्ग तेजबली ने कहा कि ‘मेरी पेंशन बंद हो गई है।’ नीतू ने तुरंत नेट पर चेक किया तो खाता आधार से लिंक नहीं मिला। उन्होंने कहा कि ‘जाकर पहले खाते में आधार जुड़वाइए।’
ब्लॉक पर पता चला कि हजारों लोगों के खाते से आधार लिंक नहीं है। पचास रुपये लेकर सहज जनसेवा केंद्र वाले जोड़ रहे हैं। नौगढ़ के खंड विकास अधिकारी सुदामा सिंह यादव बिंदु सिंह से कहते हैं – ‘बहुत लोगों का आधार अभी जुड़ा नहीं है। जो लोग यहाँ रह रहे हैं उनका जुड़वा दे रहा हूँ। मैं नहीं चाहता कि उन गरीबों से कोई पचास रुपये ऐंठ ले। आप भी जिन गाँवों में काम कर रही हैं वहां के लोगों से आधार का फोटो और मोबाइल नंबर भेजने को कहिये।’ उन्होंने किसी सम्बंधित व्यक्ति का नंबर भी दे दिया।
भागीदारी के बारे में कुछ नहीं जानते लेकिन द्रौपदी मुर्मू अपनी बिरादरी का मानते हैं
क्या आरक्षण या भागीदारी के बारे में जानते हैं? इस सवाल पर सब मुस्कराए लेकिन उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था। मैंने पूछा कि सरकार के अनाज के अलावा जो दलितों के लिए स्पेशल प्लान है उसकी ओर क्यों नहीं ध्यान देते? उन्हें शिक्षा में आगे बढ़ना, उन्नत कामों, व्यवसाय-व्यापार में जाना और अपने जीवनस्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करना चाहिए। अगर वे ऐसा करते हैं तो उन्हें भागीदारी का संवैधानिक लाभ मिल सकता है। लेकिन उनको ऐसी किसी बात की जानकारी नहीं थी।
भाईलाल स्मार्ट व्यक्ति हैं और बाहर से आये किसी भी व्यक्ति से बात करने में उनमें कोई झिझक नहीं दिखती। मैंने पूछा- ‘क्या आप कभी यह नहीं सोचते कि आपके समुदाय में जो कौशल है उसका फायदा उठाकर आप अपने साथ अपने पूरे समुदाय का जीवन बेहतर बना सकते हैं?’
वे मेरी ओर देखते हुए अनमने भाव से बोले – ‘नाहीं मैडमजी। हम ई सब तो नाहीं सोचे। लेकिन क्या करें?’
‘सरकार की अनेक योजनाएँ हैं। लेकिन उन सबका लाभ ऊपर के लोग संस्था और कम्पनी बनाकर ले रहे हैं। फिर वे ही लोग आप के यहाँ आते हैं और तरह-तरह की बातें करके आपको भरमाते हैं। लेकिन वह हक़ तो आपका है कि आप लोग स्वयं अपने समाज को ऊपर उठाने के लिए आगे बढ़ें आप कोशिश करें तो क्यों नहीं कर सकते? आप जानते हैं कि आपके मुसहर समाज में कितने कारोबारी हैं? कितने वकील हैं? कितने पुलिस अधिकारी या कितने नेता हैं?’
इस पर गोबिंद ने कहा कि ‘अभी जो राष्ट्रपति है ऊ भी तो मुसहिने न है।’
‘नहीं वे आदिवासी हैं। मुसहर दलित हैं।’ इस पर भाईलाल ने सिर खुजलाते हुए कहा – ‘हमको तो लोग इहे बताए कि तोर बिरादर के औरत राष्ट्रपति हो गई है। लेकिन मैडमजी हम लोग तो बनबासी हैं न। हम कैसे दलित हो सकते हैं?’
दलित होने में अपमान लगता है और आदिवासी गिने नहीं जाते
मुसहर समुदाय को नहीं पता कि वह आदिवासी हैं या दलित, लेकिन वह अपने आपको बनवासी मानता है। दलित होने को वह अपमानजनक समझता है। जबकि उत्तर प्रदेश में वह दलित कैटेगरी में परिगणित है। इसलिए दलितों में परिगणित सभी जातियों में जो राजनीतिक चेतना और अधिकारबोध है वह इसमें नहीं दीखता।
आरएसएस की पत्रिका पांचजन्य ने बहुत पहले वीर वनवासी विशेषांक निकाला था लेकिन उसमें मुसहरों के बारे में कुछ नहीं था। भील नायक तांत्या से लेकर बिरसा मुंडा और अन्य बहुत से आदिवासी नायकों को हिन्दू नायक के रूप में स्थापित किया गया था। संघ ने वनवासी सेवा आश्रम बनाया और मुसहर सहित जंगलों में रहने वाले अनेक समुदायों को वनवासी कहना शुरू किया। उनके आदर्श पूर्वजों के रूप में शबरी माता और मध्यकालीन राणा प्रताप को प्रचारित किया। नौगढ़ और चंदौली की अनेक मुसहर बस्तियों में बात करने से वे अपने ‘इतिहास’ का ऐसा ही बखान करते हैं।
अपने को वनवासी मानकर मुसहर कड़ी मशक्कत के साथ जीवन निर्वाह करके यथास्थिति में पड़े हुए हैं। उनमें किसी भी तरह से अपने हालात को बदलने की अन्तःप्रेरणा नहीं दिखती। वनवासी कहकर मुसहर उन संवैधानिक अधिकारों से दूर कर दिए गए हैं जो उन्हें मिलने चाहिए। उनका समाज शिक्षा की दृष्टि से बहुत पीछे है लेकिन उन्हें आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए नए कामों को दिया जाता तो निश्चित ही उनकी अगली पीढ़ियों का विकास होता। वे आजीविका के लिए नए पेशे में शामिल होते और शिक्षा, स्वास्थ्य और रहन-सहन के मानकों पर बराबरी का दर्जा पाते।
जब सदियों से लोग वंचना के शिकार बनाये जाते हैं तो वे अपनी बेहतरी का रास्ता भी अपने हालात में ही ढूंढते हैं। मुसहरों ने जंगलों में अपने जीवन को सहज बना लिया और आज़ादी का अमृत महोत्सव आ जाने के बावजूद सरकार ने उन्हें मुख्यधारा से नहीं जोड़ा। आज जब इस देश में शिक्षा सर्वाधिक महँगी और मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं की पहुँच से भी बाहर होती जा रही है तो ऐसे समाजों के शिक्षित होने के बारे में क्या सोचा जा सकता है जो उपभोक्ता हो ही नहीं पाए हैं। जो आर्थिक रूप से इतने अक्षम हैं कि अपने परिवार के लिए भोजन भी नहीं खरीद सकते वे बच्चों की शिक्षा के लिए क्या सोच सकते हैं?
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देवरिया जिले के मुसहरों से जब मैंने बात की तो वे भी ऐसे ही थे। उनमें कोई असंतोष नहीं था। सरकारी आवास के साथ दो बिस्वा ज़मीन का पट्टा मिल जाने से वे खुश थे। वे बदलते हुए हालात को लेकर डरते नहीं बल्कि उनको लगता है कि सरकार हमेशा उनको राशन देती रहेगी तो चिंता किस बात की। इसीलिए वे अपने बच्चों के स्कूल के बारे में भी नहीं सोचते।
मलवाबर मुसहर बस्ती में आठवीं कक्षा के बाद ड्रॉपआउट की दर बहुत ज्यादा है। खाने के लिए जब कुछ नहीं होता तो कुकुत्था नदी से निकाले गए घोंघे से काम चल जाता है। पीने के लिए कच्ची शराब और गप्प मारने के लिए पूरा दिन पड़ा हुआ है। नौगढ़ में भी उनके वही हालात हैं और सोनभद्र में भी। उनके हालात इतने बुरे हैं कि वे किसी प्रतिरोध की स्थिति में नहीं हैं। ऊपर से देखने पर लगता है कि वे खुश हैं।
वास्तविकता यह है कि अब तक समाज और अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रह रहे मुसहर समुदाय का हिंदूकरण तेजी से किया गया है। उन्हें बताया गया है कि राम के वन गमन के समय उनकी पूर्वज माता शबरी ने उन्हें बेर खिलाया था। बस इतनी जानकारी बहुत है। दांग जिले के आदिवासियों को यही समझाकर सांप्रदायिक संगठनों ने उन्हें दंगाई बना डाला तो इनको यह बताकर भाजपा ने अपना पक्का वोटर बनाया है। बाकी चीजों के बारे में सोचने का मौका अभी नहीं आया है।
[…] मुसहर समुदाय को नहीं पता वह आदिवासी है… […]
सन 2016 में प्रमोशन लेकर मैं नौगढ़ ब्लाक के परिषदीय विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद का निर्हवहन कर रहा हूं। मेरे सेवित ग्राम पंचायत में भी इस समुदाय के लोग रहते हैं और वर्तमान में इसी समुदाय से एक लोग ग्राम प्रधान भी हैं लेकिन काफी मशक्कत और जागरूक करने के बाद भी शिक्षा पर ध्यान नहीं देते हैं। जीवंत लेख है ।मैने भी जो नौगढ़ को देखा है बिलकुल वहीं लेख में है।
[…] मुसहर समुदाय को नहीं पता वह आदिवासी है… […]
यथार्थपरक रिपोर्टिंग। यह बिलकुल सत्य है कि मुसहर समुदाय की आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक दशा अत्यंत दारुण और भयावह है। चूंकि इनके पास बड़ी संख्या में वोट बैंक नहीं है इसलिए इनका विकास किसी भी राजनैतिक दल के एजेंडे में नहीं है। इन्हें सभी दल पशुवत और त्याज्य मानते हैं। अच्छी और वस्तुपरक रिपोर्टिंग के लिए अपर्णा जी को बधाई।