मुकेश ने कबीर की परंपरा में मगहर का प्रकाशन चुना

मुसाफिर बैठा

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मुकेश मानस का 50 से कम की उम्र में हमारे बीच न रहना जीवन की अनिश्चितता और शरीर की नश्वरता को नज़दीक से बता गया है। बीमारी से जकड़े मुकेश मृत्यु से पहले इधर, कृत्रिम सांस, वेंटिलेटर पर भी रहे, लिवर एवं कई अन्य रोगों की गम्भीर गिरफ्त में थे, जिससे वो उबर न सके।

मुझे मुकेश मानस की इस आकस्मिक मृत्यु की खबर पहले पहल डॉ जयप्रकाश कर्दम की फ़ेसबुक पोस्ट से मिली। और फिर अनिता भारती, प्रो श्यौराज सिंह बेचैन, डॉ रजतरानी मीनू, डॉ नामदेव आदि की फ़ेसबुक पोस्ट भी नोटिफिकेशन के अनुसरण में पढ़ने को मिले। फिर तो अनेक दलित, गैरदलित साहित्यकार एवं अन्य मित्रों की फ़ेसबुक पोस्ट एवं टिप्पणियाँ पढ़ने को मिली जो मुकेश की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने वाली थीं।

मुकेश से मेरी शुरुआती पहचान दूरस्थ मोड की ही हुई। हमने एक दूसरे को पत्र पत्रिकाओं में पढ़कर जाना। मुझे याद है कि एक बार टेलीफोन से हुई बातचीत में उन्होंने मेरे नाम, मुसाफ़िर बैठा, के यूनिकनेस एवं विरोधाभासी होने का संकेत भी किया लेकिन वे मुसाफ़िर और बैठा की कथित असंगति के लिए सामने से प्रश्नाकूल नहीं हुए; नहीं तो कुछ बेहूदे लोग मेरे नाम और सरनेम की संगति पर आपत्तिजनक कमेंट कर बैठते हैं, वैसे लोग भी जिनके नाम कथित देवी देवताओं के नाम पर होते हैं और उन्हें यह अस्वाभाविक नहीं लगता। लोग दरअसल, प्रायः लकीर के फकीर होते है, अपना विवेक और मस्तिष्क भरसक ही खर्च करते हैं, परंपरा से चले आ रहे सही गलत ज्ञान को लेकर चलने के आदी होते हैं।

मुकेश की इस आकस्मिक मृत्यु पर फ़ेसबुक पर तीन चार टिप्पणियां मुझे किंचित आलोचनात्मक दिखी हैं अथवा आलोचना का सूत्र लिए दिखी हैं। मोहनदास नैमिशराय ने अपना शोक व्यक्त करते हुए यह कहा है कि मुकेश मानस के लेखन में दलित अस्मिता एवं दलित चेतना नहीं दिखती।

मुकेश की इस आकस्मिक मृत्यु पर फ़ेसबुक पर तीन चार टिप्पणियां मुझे किंचित आलोचनात्मक दिखी हैं अथवा आलोचना का सूत्र लिए दिखी हैं। मोहनदास नैमिशराय ने अपना शोक व्यक्त करते हुए यह कहा है कि मुकेश मानस के लेखन में दलित अस्मिता एवं दलित चेतना नहीं दिखती। यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है और गौरतलब है। दलित समुदाय से आने मात्र से कोई दलित लेखक नहीं कहला सकता, दलित साहित्य का एक महत्वपूर्ण निकर्ष अथवा बिंदु यह भी है और नैमिशराय जी का कथन उससे जुड़ता है। खैर, यह विस्तार में जाने का मौका नहीं है। इसी क्रम में बता दूं कि दिल्ली में दलित लेखकों के कई संगठन हैं और शायद, स्थानिक दलित लेखक इन संगठनों से भी विधिवत नहीं जुड़े हुए हैं, भले ही इन संगठनों एवं इनमें शामिल लेखकों से इन्हें परहेज नहीं हो। दिल्ली के कुछ लेखकों ने मुकेश मानस को स्मरण करते हुए उनसे बहुत नजदीक से जुड़े होने की बात भी कही है। हीरालाल राजस्थानी एवं हेमलता महिश्वर की टिप्पणियां कुछ इसी तरह की थीं। तो किसी ने मुकेश मानस को दलित लेखक के रूप में याद कर प्रगतिशील लेखक के रूप में उन्हें स्मरण किया।

वैसे, मुकेश मानस, चाहे दलित चेतना की कसौटी पर सीधे-सीधे खरे न उतरते हों लेकिन दलित सरोकार तो उनके स्पष्ट थे। उनकी पत्रिका ‘मगहर’ तो दलित समेत प्रगतिशील साहित्य का एक मंच ही था। किंवदंती है कि कबीर द्वारा मृत्यु की हिंदू अवधारणा को निगेट करने के लिए मरने के समय स्वर्गदायक काशी से नरककारक मगहर जाने का चुनाव किया गया था। ख़ुद पत्रिका का नाम ‘मगहर’ कबीर की इसी क्रांतिकारी विचार के मेल में रखा गया प्रतीत होता है। और डॉ तेज सिंह के मरने पर उन्हें अंबेडकरवादी आलोचक करार देते हुए पत्रिका का स्मृति अंक निकालना भी मुकेश के दलित चेतना एवं सरोकार से संबद्ध करता है। बहरहाल, अब मैं चाहूंगा कि मुकेश अपने पीछे जो सृजन संसार छोड़ गए हैं, उसपर कोई आलोचनात्मक काम भी कर सकूं।

बाद वाली भेंट कोई ढाई वर्ष पहले हुई थी, तब मैं अपनी आंखों के इलाज के क्रम में गया था। मुकेश ने मुझे अपने घर पर बुलाया, हालांकि मैं उनके घर न जा सका क्योंकि वहाँ जाता तो कुछ अन्य काम सधने में दिक़्क़त होती। वे अपने फ्लैट से निकल कर कार से आ पहुंचे, जहां उन्होंने मुझे इंतजार करने को कहा था।

मुकेश मानस से दिल्ली में कम से कम दो बार मेरी भेंट है। हमारा प्लान मोहनदास नैमिशराय से उनके घर पर मिलने का था। रास्ते में ही उन्होंने एक और लेखक, हिंदी-मराठी कवि, शेखर को ले लिया और हम तीनों नैमिशराय से मिले। वापसी में हम एक थियेटर में भी गए जहाँ एक संगीत का कार्यक्रम था।

रजनी तिलक के जीवन पर आधारित पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर सूरज बड़त्या और मुकेश मानस

मुकेश ने अपने संपादन की पत्रिका ‘मगहर’ का भारी-भरकम ‘अम्बेडकवादी आलोचक डॉ तेज सिंह’ स्मृति अंक निकाला था, जिसकी अतिथि संपादक रजनी अनुरागी थीं। मुझसे भी इन दोनों ने जोर देकर लिखवाया।

नैमिशराय जी से मिलने के दौरान मुकेश से एक अच्छी भेंट तो हो गयी थी लेकिन उनसे मिल-बैठकर बात करने की तीव्र भूख तो उससे जगी ही थी। अब इस भूख को मारने के अलावा चारा ही क्या है! वैसे भी, समय में ऐसी ताक़त होती है कि वह सभी तरह के भूख-प्यास को पचा देता है, उन्हें भूलने को हमें बाध्य कर देता है! यही जीवन सत्य है, विषम और क्रूर सत्य!

डॉ. मुसाफ़िर बैठा जाने माने कवि हैं और पटना में रहते हैं।

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