Saturday, July 27, 2024
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अपने निर्णयों में अधिकतम जनपक्षधरता वाले नेता थे मुलायम सिंह यादव

मुलायम सिंह यादव आज हमारे बीच से चले गए और यह भी सत्य है कि उनके जैसा धरतीपुत्र कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। आज के दौर मे उनकी कमी बेहद खलेगी। वह बहुत समय से बीमार चल रहे थे और शरीर साथ नहीं दे रहा था फिर भी उनकी उपस्थिति समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओ […]

मुलायम सिंह यादव आज हमारे बीच से चले गए और यह भी सत्य है कि उनके जैसा धरतीपुत्र कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। आज के दौर मे उनकी कमी बेहद खलेगी। वह बहुत समय से बीमार चल रहे थे और शरीर साथ नहीं दे रहा था फिर भी उनकी उपस्थिति समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओ मे बेहद जोश भर देती थी। आज 82 वर्ष की अवस्था में एक निजी अस्पताल में उनका निधन हो गया। उनके निधन की खबर से देश भर के उनके प्रशंसकों में शोक की लहर दौड़ गई है।

मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक जीवन बेहद संघर्ष वाला था। एक बात यह भी कही जा सकती है कि वह समाजवादी विचारधारा में डाक्टर राम मनोहर लोहिया के सच्चे उत्तराधिकारी थे। वह पहली बार 1967 से जसवंतनगर सीट से संयुक्त समाजवादी पार्टी के टिकट पर विधान सभा के लिए चुने गए। 1975 तक वह लगातार विधायक रहे और आपातकाल के दौरान 18 महीने जेल की सजा भी काटी। आपातकाल के विरोध का समय भी समाजवादी धारा के लोगों के एक साथ आने का समय था और इस आंदोलन का नेतृत्व जय प्रकाश नारायण ने किया। इस दौर में भी बहुत से नेता अन्य पार्टियों सेआए। 1977 में उत्तर प्रदेश में विपक्ष की सरकार बनी तो राम नरेश यादव मुख्यमंत्री बन गए। यह वह दौर था जब चरण सिंह बहुत सशक्त नेता थे और उत्तर प्रदेश में उनकी तूती बोलती थी। राम नरेश यादव एक सधे हुए नेता माने जाते थे और उन्होंने मंत्रिमंडल मे मुलायम सिंह यादव को कृषि और पशुपालन विभाग दे दिया। जनता पार्टी की सरकार ठीक से चल नहीं पाई और 1980 में मुलायम सिंह यादव चरण सिंह के साथ लोकदल में रहे। केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में काँग्रेस ने सत्ता में वापसी कर ली थी और उत्तर प्रदेश मे भी काँग्रेस ने एक नए व्यक्ति विश्वनाथ प्रताप सिंह पर अपना दांव लगाया।

मुलायम सिंह यादव लोकदल के अध्यक्ष बने और 1982 में तत्कालीन सरकार द्वारा डकैत विरोधी अभियान चलाए जाने के कारण पिछड़े वर्ग के लोगों पर हो रहे अत्याचार के प्रश्न को उन्होंने बहुत सशक्त तरीके से उठाया। दरअसल, यह वह समय भी था जब धीरे धीरे उन्होंने स्वयं को स्थापित करना शुरू किया। चरण सिंह अपने अंतिम दौर में थे और लोकदल पर हेमवती नंदन बहुगुणा अपनी पैठ बना रहे थे। देवी लाल भी एक्टिव थे। 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में विपक्ष की हालत खस्ता हो गई और बड़े-बड़े धुरंधर चुनाव हार गए। हेमवती नन्दन बहुगुणा, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी सभी चुनाव हार गए थे। उनकी दलित मजदूर किसान पार्टी में नए नेतृत्व की तलाश हो रही थी और अजीत सिंह को भी मनाया जा रहा था। मुलायम सिंह यादव ने राजनीति में कभी भी अपने से सीनियर नेताओ का साथ नहीं छोड़ा। वह बहुगुणा और चंद्रशेखर के बहुत नजदीक रहे।

“आज के दौर मे ‘कम्यूनिकेशन’ को बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है और मोदी के आने के बाद सबको लगता है कि जो लोग ‘अच्छा’ फेंकते है उनकी राजनीति में संभावनाएँ अच्छी होती हैं लेकिन मुलायम सिंह यादव की लोकप्रियता ने यह साबित किया है कि राजनीति में जुमले वाली भाषा से अधिक आपकी व्यावहारिकता होती है। उनके पास कार्यकर्ताओं की वह फौज थी जो उनके लिए आज भी लड़ने-भिड़ने को तैयार थी। कोई भी पार्टी बिना कार्यकर्ताओं के सम्मान के नहीं चल सकती। मुलायम सिंह यादव उस पीढ़ी के नेता थे जिनका घर असल में कार्यकर्ता का घर होता था और बहुत महत्वपूर्ण पदों पर होते हुए भी उनके पहनावे और बातचीत में गाँव की मिट्टी की खुशबू झलकती थी।”

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के माहौल ने विपक्ष की हालत खराब कर दी थी लेकिन इसी दौर में 1987 से राजीव सरकार मे वित्तमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पूँजीपतियों के प्रति जो अभियान चलाया वह जनता में एक संकेत भेज रहा था। काँग्रेस और राजीव गांधी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे और वी पी अंततः पार्टी से बाहर हुए और उन्होंने जनमोर्चा बनाया था जो बाद में जनता दल के रूप में बदल गया। मुलायम सिंह यादव और अन्य साथियों ने जनता दल में शामिल होने का निर्णय किया। 1989 के चुनावों में मे केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। यह वह दौर था जब भाजपा ने राम मंदिर आंदोलन शुरू कर दिया लेकिन मुलायम सिंह यादव ने उसे सख्ती से दबाया। विश्वनाथ प्रताप और मुलायम सिंह यादव दोनों को ही मीडिया ने हिन्दू विरोधी करार दे दिया। नवंबर 1990 में जब चंद्रशेखर ने जनता दल से अलग होकर काँग्रेस के सहयोग से केंद्र में सरकार बनाई तो मुलायम सिंह यादव ने अपनी सरकार बचा ली क्योंकि काँग्रेस ने उत्तर प्रदेश में उनके घटक दल को समर्थन दे दिया।

विश्वनाथ प्रताप सिंह, ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत और मुलायम सिंह यादव

मुलायम सिंह यादव बहुत समझदार नेता थे लेकिन अपने साथियों के लिए वह चार कदम आगे चल सकते थे। बहुत बार उनके इमोशन उनके राजनैतिक कौशल पर हावी हो गए जिसके कारण उनको राजनैतिक नुकसान भी हुए। 1990 में जब भाजपा ने राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से नाता तोड़ा तो यह मण्डल रिपोर्ट के बाद का समय था और संघ और भाजपा ने अयोध्या आंदोलन शुरू कर दिया। साफ तौर पर यह पिछड़े वर्ग की भागीदारी के लिए बनाए गए मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को स्वीकार कर लेने के फैसले के खिलाफ था। न ही चंद्रशेखर, और न देवीलाल इसके समर्थक थे, इसलिए उस समय विपक्षी खेमे में जाने से मुलायम सिंह यादव को नुकसान हुआ और साथ ही साथ मण्डल की लड़ाई कमजोर पड़ गई।

6 दिसंबर1992 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार के नेतृत्व में बाबरी मस्जिद का ध्वंश हुआ। केंद्र की नरसिम्हाराव सरकार ने प्रदेश सरकार को बर्खास्त कर दिया। 1993 में चनावों से पहले ही मुलायम सिंह यादव ने चंद्रशेखर के साथ अपना राजनैतिक नाता तोड़ लिया और समाजवादी पार्टी की स्थापना की। यहाँ उन्हें समझ आ गया कि अब उन्हें दलित-पिछड़े वर्गों की राजनीति करनी ही पड़ेगी। सामान्यतः मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी तथाकथित बड़ी जातियों को अपमानित नहीं किया। उनके साथ और नजदीक के लोगों में अधिकांश सवर्ण, विशेषकर ब्राह्मण, थे, लेकिन बसपा के साथ उनका गठबंधन बेहद महत्वपूर्ण था। हालांकि वह बेमेल ही था क्योंकि जैसा कि मैंने कहा, समाजवादी पार्टी का ढांचा और विचार बसपा की तरह अम्बेडकरवादी नहीं था। यह एक हकीकत थी कि जब मुलायम सिंह यादव और मान्यवर कांशीराम एक साथ आए तो देश भर में दलित-पिछड़े वर्ग के लोगों में आशा की नई किरण जागृत हुई लेकिन दोनों पार्टियों में तनाव बढ़ाया जा रहा था जिसके फलस्वरूप दोनों का गठबंधन टूटा और इतनी बड़ी दरार पड़ गई कि उसे भरना मुश्किल हो गया। दोनों ही पार्टियों में ब्राह्मणों को अपनी ओर रखने की होड लग गई और दुर्भाग्यवश पिछड़ों के आरक्षण का प्रश्न ‘विकास’ के मॉडल में पीछे चला गया।

 

मुलायम सिंह यादव, मान्यवर कांशीराम और मायावती के साथ

श्री मुलायम सिंह यादव इन्द्र कुमार गुजराल और देवगौड़ा की सरकार में केन्द्रीय रक्षा मंत्री थे और उनके कार्य की बहुत सराहना भी की गई। मुलायम सिंह यादव की राजनीति की बहुत विश्लेषण होंगे और उनसे हम सभी अपने-अपने मतभेद रख सकते हैं। लेकिन मैं यह कह सकता हूँ कि वह दिल से काम करते थे और जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओ से रिश्ते बनाकर रखते थे। नेताजी उस दौर में उभरे जब पहली पीढ़ी के नेता निकल रहे थे। वह दौर था सभी पक्ष-विपक्ष के नेताओ की पढ़ने और संवाद करने की आदत थी। अंबेडकर, नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश, नरेंद्र देव आदि सभी बहुत पढ़ने वाले लोग थे। ये विचारक भी थे और जनता से लगातार संवाद करते थे। 1965 के दौर के बाद के नेताओ में  समाजवाद, गाँधीवाद, अम्बेडकरवाद और वामपंथी ध्रुव के लोग थे और अधिकांश के पास पढ़ने का ज्यादा समय नहीं था लेकिन वे जन सरोकारों से जुड़े थे और किसी भी अन्याय के खिलाफ खड़े होते थे। नेताजी मुलायम सिंह यादव से कोई भी कार्यकर्ता कभी भी मिल सकता।  वैसे ही जैसे मानयवर कांशीराम ने पूरे देश में साइकिल यात्रा कर अम्बेडकारी आंदोलन को एक नई दिशा दी, जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं को सम्मान दिया। राजनीति में रिश्ते निभाना एक बेहद महत्वपूर्ण बात होती है।

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आज के दौर मे ‘कम्यूनिकेशन’ को बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है और मोदी के आने के बाद सबको लगता है कि जो लोग ‘अच्छा’ फेंकते है उनकी राजनीति में संभावनाएँ अच्छी होती हैं लेकिन मुलायम सिंह यादव की लोकप्रियता ने यह साबित किया है कि राजनीति में जुमले वाली भाषा से अधिक आपकी व्यावहारिकता होती है। उनके पास कार्यकर्ताओं की वह फौज थी जो उनके लिए आज भी लड़ने-भिड़ने को तैयार थी। कोई भी पार्टी बिना कार्यकर्ताओं के सम्मान के नहीं चल सकती। मुलायम सिंह यादव उस पीढ़ी के नेता थे जिनका घर असल में कार्यकर्ता का घर होता था और बहुत महत्वपूर्ण पदों पर होते हुए भी उनके पहनावे और बातचीत में गाँव की मिट्टी की खुशबू झलकती थी। वे किसी भी कार्यकर्ता के शादी-विवाह, मुंडन, या परिवार में किसी के निधन पर हमेशा जाते। बहुत से लोगों को ये खराब लगता हो लेकिन राजनीतिक व्यक्ति के लिए विचारधारा अगर महत्वपूर्ण होती  है तो शायद उससे अधिक उसकी व्यवहारकुशलता और जनसंपर्क महत्वपूर्ण होता है और नेताजी की सफलता ने यह साबित किया कि राजनीति में लोगों के साथ आपका व्यवहार आपके वाकपटुता से बेहद अधिक महत्वपूर्ण होता है।

मुलायम सिंह यादव ने नए नेता बनाए, युवाओं को भागीदारी दी और कभी भी कोई जातिगत कटुता नहीं पाली। उन्होंने अपने रिश्तों को बेहद महत्व दिया। इसी काराण बहुत बार ऐसे रिश्ते उनके लिए बोझ भी बन गए लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। 1967 में अपना पहला चुनाव जीते नेताजी ने पहली बार मुख्यमंत्री का पद 1989 में हासिल किया जो यह दिखाता है कि उनकी प्रारम्भिक राजनीति कैसी थी। समाजवादी धारा की बुनियाद पर बनी अपनी राजनीति में उन्होंने सत्ता के साथ समझौता नहीं किया, हालांकि बाद में सत्ता की राजनीति के लिए उन्होंने व्यवहारिकता को अधिक महत्व दिया जिसके कारण उनपर विचारधारा से हटने के भी आरोप लगे। अखिलेश यादव को 2012 में मुख्यमंत्री के सवाल पर बहुत लोग सहमत नहीं थे लेकिन नेताजी ने यह देखा कि अखिलेश ने बेहद मेहनत की थी और समाजवादी रथ में पूरे प्रदेश का भ्रमण किया था। वह रिश्तों को नहीं तोड़ना चाहते थे इसलिए अपने परिवार में हर एक को जोड़ के रखते थे और कहीं न कहीं फिट कर देते थे। मैं यह कह सकता हूँ ऐसे बहुत कम नेता हैं जो इस प्रकार से अपने कार्यकर्ताओ को ध्यान रखते हैं। आजकल तो पार्टियाँ और नेतृत्व आईएएस लोगों की सलाहों पर चलता है, लेकिन मैं यह कह सकता हूँ कि मुलायम सिंह यादव उन नेताओं में थे जो अपने साथियों की सलाह को ही प्रमुखता देते थे और समय-समय पर उन्हें उनकी गलतियों के लिए आगाह भी करते रहते थे।

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मुलायम सिंह यादव एक पक्के राष्ट्रवादी थे और हिन्दी के विषय में अपने गुरु लोहिया के विचारों पर चलते थे। उन्होंने बहुत से साहित्यकारों का सम्मान भी किया हालांकि इनमें से अधिकांश का न तो समाजवादी पार्टी और न ही समाजवादी विचारधारा से कोई लेना-देना था, लेकिन यह बात है कि मुलायम सिंह यादव ने कोई जातिवादी राजनीति नहीं की। चाहे उन्होंने राजनीतिक में कई बार गलत निर्णय लिए हों लेकिन उन्होंने राजनीति में हमेशा से ही दोस्ती, मित्रता और कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता दी। हालांकि सामाजिक प्रश्नों पर वह उतने मुखर नहीं थे जैसे लालू यादव हैं लेकिन सांप्रदायिकता और किसानों, मजदूरों के सवालों को उन्होंने बेहद संजीदगी से लिया और उसके लिए वह जीवन भर  लड़ते रहे। अपने जीवन में इतने बड़े पदों पर पहुँचने के बाद भी मुलायम सिंह यादव अपनी जमीन से जुड़े रहे। उनकी भाषा में सहज मिठास और अपनापन था। उनके निधन से देश की राजनीति में जमीन से जुड़े एक युग का अवसान हो गया है।

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