बचपन से ही नामों को लेकर बड़ा कंफ्यूजन रहा है। मेरे जेहन में अक्सर यह बात रहती रही है कि नामों का निर्धारण कैसे किया जाता है। कल भी एक नाम को लेकर सोच रहा था। नाम था – जोतीराव फुले। वे 19वीं सदी में भारत के बड़े नायक रहे। उन्होंने इस देश के बहुसंख्यकों की मुक्ति का सपना देखा और अपने तरीके से उसे साकार करने की कोशिश भी की। अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ मिलकर लड़कियों के लिए स्कूल खोले। 1873 में उनके द्वारा लिखी गयी किताब गुलामगीरी एक नजीर ही है। मैं उनके नाम के बारे में सोच रहा था। उनका नाम हिंदी में अलग-अलग तरीके से लिखा जाता है। मसलन, जोतीराव फुले, जोतिराव फूले, ज्योतिराव फुले, जोतिबा फुले, जोतीबा फुले और जोतीराव गोविंदराव फुले।
नामों से ही एक बात याद आयी। बचपन में जब यह सवाल आया था कि नाम कैसे धरे (निर्धारित) जाते हैं, तब मेरे सामने मेरे दादा थे। उनका नाम था – रूचा राय। कई बार वे खुद को रूचा गोप भी बोलते थे। उनका एक नाम और था – शीतल राय। यह सवाल इसलिए भी आया था क्योंकि बचपन में सब मुझे यही सिखाते थे कि मेरा नाम क्या है, मेरे पिता का नाम क्या है, दादा का नाम क्या है, गांव का नाम क्या है आदि। सवाल भी मेरे परिजन करते और फिर जवाब भी वही देते। कई बार मैं भी जवाब दे देता था। मेरे जवाब देने पर मेरे परिजन खुश हो जाते थे। आजकल भी यही होता होगा। बच्चों को नाम बताए जाते होंगे
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नामों का एक फायदा होता है। मेरे साथ भी हुआ। एकबार मैं खो गया था। यह कहानी उस वक्त की है जब मेरे गांव ब्रह्मपुर में बाजार नहीं लगता था। बाजार का मतलब केवल दो ही था। एक मंगलवार तथा शनिवार को फुलवारी में लगने वाला बाजार और दूसरा रविवार तथा गुरूवार को चितकोहरा में लगने वाला बाजार। घर के लिए आवश्यक वस्तुओं की खरीद तब मां इन्हीं दोनों बाजारों से करती थी। जब कभी वे बाजार जातीं, मैं उनके साथ जाने की जिद करता। कभी-कभी ले भी जाती थीं। असल में बचपन में मैं मोटा था और मुझे गोद में लेकर पैदल एक कोस चलकर चितकोहरा बाजार जाना मां के लिए कष्टकारी रहता होगा। मां इसलिए भी मुझे नहीं ले जाना चाहती थी। जब कभी मुझे ले जातीं, तब लौटते समय उनके माथे पर घर का सामान और गोद में मैं रहता।
लेकिन वह बचपना था मेरा। इतना होश कहां था कि मेरी मां को कितना बोझ उठाना पड़ता है। मुझे तो बस बाजार जाने का शौक रहता था। वहां चितकोहरा में लालमोहन मंदिर के पास के एक होटल में निमकी-घुघनी खाना या फिर चंद्रकला खाना मुख्य कारण होता था। कभी-कभार मां कोई खिलौना खरीद देती तो लगता जैसे दुनिया जीत ली हो।
तो एकबार हुआ यह कि मां को चितकोहरा बाजार जाना था। मां ने चालाकी की। वह अकेले बिना किसी को कुछ कहे निकल गईं। लेकिन हमदोनों भाई भी कम न थे। मां के पीछे-पीछे निकल पड़े। करीब एक किलोमीटर दूर जाने के बाद हमदोनों ने मां को ‘धप्पा’ कहा। ‘धप्पा’ हम लुका-छिपी खेलने के दौरान कहते थे जब हम खोजनेवाले को उसके खोजने से पहले पकड़ लेते। उस दिन मां ने तो पहले हमदोनों को खूब डांटा लेकिन करती भी क्या। हम तो उनके ही दुलारे थे।
[bs-quote quote=”नाम तब भी दिलचस्प होते थे और आज भी होते हैं। आज ही दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के दूसरे पन्ने पर क्लासीफाइड्स देख रहा हूं। इसमें अनेक लोगों का विज्ञापन है जिसमें उन्होंने अपने नाम को बदले जाने या फिर नाम में सुधार की बातें कही हैं। मुझे लगता है कि इस पन्ने पर जितने लोगों के विज्ञापन हैं, उतनी ही कहानियां होंगी। सारी कहानियां दिलचस्प होंगी। एक महिला ने अपने विज्ञापन में कहा है कि उसका अपने पति से तलाक हो गया है। अदालत ने उनके तलाक को मंजूरी दे दी है। अब उनकी बेटी अपने पिता के सरनेम के बदले अपने नाना के सरनेम से जानी जाएगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अब हम तीन जने हो गए। मैं मां की गोद में और भैया पांव-पैदल। रास्ते में भैया को इमरजेंसी हुई। इमरजेंसी मतलब शौच के लिए जाना पड़ा। इतने में एक चावल व्यापारी अपनी साइिकल पर चावल लादकर चितकोहरा बेचने जा रहा था। मां उनको जानती थी। मां ने उन्हें कहा कि मेरे बच्चे को (मुझे) साइकिल पर बिठा लें। उन्होंने मना नहीं किया। भैया के कारण मां को देरी हुई। उस परिचित व्यापारी ने मुझे बलम्मीचक मोड़ पर हरि दादा की दुकान पर बिठा दिया और आगे निकल गए। उन्होंने सोचा होगा कि मां जब आएगी तो मुझे देख लेगी। उधर मां को लगा कि व्यापारी मुझे लेकर चितकोहरा बाजार गए होंगे तो वह सीधे बाजार गयी। वहां न तो मैं था और ना ही वह व्यापारी। मां को कितना कष्ट हुआ होगा तब?
खैर, मैं भी स्वादिष्ट कष्ट से जुझ रहा था। हो यह रहा था कि हरि दादा मुझे चुप कराने के लिए मुझे मिठाइयां खिला रहे थे। कभी वे सेव-निमकी देते तो कभी कुछ और। मैं एक मिनट खाता और चार मिनट तक रोता रहता। सब मुझसे मेरा नाम पूछते और मैं रोता रहता।
परिणाम अच्छा रहा। मां ने पापा को फोन कर दिया था। पापा ने मुझे आखिरकार खोज ही लिया।
तो उस दिन इस बात की अहमियत समझ में आयी कि नाम याद रखना क्यों जरूरी है। यदि मैंने हरि दादा को नाम बता दिया होता तो मुमकिन था कि वह मुझे घर भिजवा देते।
खैर, यह तो बचपन की बात थी। नाम तब भी दिलचस्प होते थे और आज भी होते हैं। आज ही दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के दूसरे पन्ने पर क्लासीफाइड्स देख रहा हूं। इसमें अनेक लोगों का विज्ञापन है जिसमें उन्होंने अपने नाम को बदले जाने या फिर नाम में सुधार की बातें कही हैं। मुझे लगता है कि इस पन्ने पर जितने लोगों के विज्ञापन हैं, उतनी ही कहानियां होंगी। सारी कहानियां दिलचस्प होंगी। एक महिला ने अपने विज्ञापन में कहा है कि उसका अपने पति से तलाक हो गया है। अदालत ने उनके तलाक को मंजूरी दे दी है। अब उनकी बेटी अपने पिता के सरनेम के बदले अपने नाना के सरनेम से जानी जाएगी।
यह कहानी बड़ी दिलचस्प लग रही है। वजह यह कि सामान्य तौर पर भारत में महिलाओं के नाम में पुरूषों की बड़ी भूमिका रही है। कुछ महिलाएं शादी के बाद पति का सरनेम इस्तेमाल करती हैं। मेरे घर में ऐसा नहीं है। महिलाएं शादी के पहले ‘कुमारी’ और बाद में ‘देवी’ बन जाती हैं। मेरी पत्नी, जिनका ओरिजनल नाम विजयालक्ष्मी है, शादी के बाद विजयालक्ष्मी देवी हो गयी। मैंने ऐतराज व्यक्त किया। फिर सोच-विचार के बाद हमदोनों ने एक नाम तय किया- रीतू। मेरे लिए भी नामों पर विचार किया गया, लेकिन चलन में नहीं आ सका क्योंकि मेरे नाम नवल में उतनी समस्याएं (मात्राएं) नहीं थीं, जितनी कि विजयालक्ष्मी में। देवी तो खैर वैसे भी अतिरिक्त बोझ ही था।
तो मैं कहानी की बात कर रहा था। जनसत्ता में प्रकाशित उस व्यक्तिगत विज्ञापन से मैं यह महसूस कर रहा हूं कि वह महिला कितनी सशक्त होंगी, जिन्होंने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अपनी बेटी को उसके पिता के सरनेम से मुक्त किया। लेकिन अपने पिता का सरनेम क्यों दिया? क्या महिलाओं को सरनेम की आवश्यकता है?
मैं सोच रहा हूं कि आज के परिवेश के हिसाब से उन्हें इसकी आवश्यकता है। वजह यह कि महिलाएं अब जाकर अपनी पहचान बनाने लगी हैं। लेकिन यह बहुत आंशिक स्तर पर हो रहा है। लेकिन मैं नाउम्मीद नहीं हूं। आनेवाले समय में जब शिक्षा का असर बढ़ेगा, महिलाएं सशक्त होंगी और उनकी पहचान उनके पति या फिर पिता के आसरे नहीं होगी।