कल का दिन बेहद खास रहा। खास कहने के पीछे कोई व्यक्तिगत कारण नहीं है। वैसे भी जब आदमी तन्हा हो तो व्यक्तिगत कारणों का संकट बना रहता है्, क्योंकि खास कारणों के लिए खास लोगों की आवश्यकता होती है। लेकिन कई बार गैर-व्यक्तिगत कारण भी बेहद खास होते हैं। कल एक साथ कई बातें हुईं। एक तो सुप्रीम कोर्ट में सोशल मीडिया को लेकर जिरह। वाकई यह खास रहा। सुप्रीम कोर्ट को चिंता करनी ही चाहिए कि इस देश में सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर क्या कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है। अखबारों को इसके लिए चिंता करनी चाहिए कि फर्जी खबरें सोशल मीडिया पर कैसे लिख दी जाती हैं। (मैं यह नहीं कहूंगा कि फर्जी खबरें प्रकाशित करने का अधिकार केवल अखबारों को मिले)
बड़ी शानदार बहस थी। देश की सबसे बड़ी अदालत इस बात पर चिंता व्यक्त कर रही थी। चिंता के केंद्र में सवाल रहा कि धार्मिक भेदभाव फैलाने वाली खबरों पर रोक लगायी जाय। भारत सरकार की ओर से महान्यायवादी तुषार मेहता दलील दे रहे थे। उनकी दलील तो इतनी शानदार थी कि मन में यह विश्वास पक्का हो गया कि अब विभिन्न पार्टियों के आईटी सेल वालों के दिन तो लदने वाले हैं। मैं तो अमित शाह के उस बयान को भी अब महत्वपूर्ण नहीं कहूंगा जो एक बार उन्होंने 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले पटना से प्रकाशित अखबारों के बड़े पत्रकारों को दावत देते समय कहा था। उनका कहना था कि कुछ भी करिए लेकिन खबर में भाजपा को जगह दें। हालांकि मैं उस भोज में शामिल नहीं था। मुझे तो बुलाया ही नहीं गया था। मैं तब बड़े अखबार का बड़ा पत्रकार था भी नहीं।
[bs-quote quote=”देश की सबसे बड़ी अदालत इस बात पर चिंता व्यक्त कर रही थी। चिंता के केंद्र में सवाल रहा कि धार्मिक भेदभाव फैलाने वाली खबरों पर रोक लगायी जाय। भारत सरकार की ओर से महान्यायवादी तुषार मेहता दलील दे रहे थे। उनकी दलील तो इतनी शानदार थी कि मन में यह विश्वास पक्का हो गया कि अब विभिन्न पार्टियों के आईटी सेल वालों के दिन तो लदने वाले हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैं तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कसूरवार नहीं मानता जो अखबारों का महत्व मापने के लिए शब्दों के बजाय स्केल का इस्तेमाल करते-करवाते हैं। उनके लिए शब्द से अधिक मायने यह रखता है कि अखबारों ने उनके पक्ष की खबरों के लिए अपने पन्ने का कितना वर्ग सेमी स्पेस दिया है और कहां दिया है। विपक्ष की खबरों का प्लेसमेंट में नीतीश कुमार की मर्जी से तय होता है।
जाहिर तौर पर सुप्रीम कोर्ट को यह सब नहीं सोचना चाहिए। अखबार अखबार होते हैं और सोशल मीडिया सोशल मीडिया। अखबार वालों के पास पैसा होता है, पॉवर होता है, हुकूमत होती है, विज्ञापन होता है। और तो और उनके पास प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया नामक एक संस्थान भी है जो रोजाना इतना सक्रिय रहता है कि कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है। सुप्रीम कोर्ट से भी अधिक सक्रिय। सीबीआई तो खैर सीबीआई है लेकिन बात सक्रियता की होगी तो प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को पहला स्थान मिलना ही चाहिए। उसके जिम्मे अखबारों के इथिक्स की जवाबदेही है और वह अपनी इस जवाबदेही का निर्वहन शानदार तरीके से कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी सोशल मीडिया के लिए एक आयोग जैसा बनाने की बात कल कही है। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि यह आयोग बना तो देश में क्रांति हो जाएगी और देश की छवि को बट्टा नहीं लगेगा।
कल की ही बात है। छत्तीसगढ़ के कोंडागांव जिले के गिरोला विकासखंड (यूपी वाले तहसील और बिहार वाले प्रखंड समझें) के बुंदापारा गांव में एक सरकारी हाईस्कूल है। उस स्कूल के एक शिक्षक हैं चरण मरकाम। वे आदिवासी हैं। उन्होंने देश की शान में बट्टा लगा दिया। उन्हें भूपेश बघेल सरकार के तंत्र ने निलंबित कर दिया है। इस आदिवासी शिक्षक के ऊपर आरोप है कि उन्होंने छात्रों को कृष्ण के बारे में भ्रामक जानकारी दी और उन्हें कृष्ण जन्माष्टमी नहीं मनाने को कहा। उनके खिलाफ जो आरोप तंत्र ने लगाया है, उसके अनुसार ऐसा कर चरण मरकाम ने लोगों की भावनाओं को आहत किया है और यह छत्तीसगढ़ सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1965 में निहित प्रावधानों के खिलाफ है।
दरअसल, भावनाएं बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। मेरे एक साथी रहे लोकेश सोरी। अब वे नहीं हैं। वर्ष 2017 में छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के पखांजूर थाने में उन्होंने अपनी भावनाओं को लेकर मुकदमा दर्ज कराया था। उनका कहना था कि दुर्गा के उपासक जब दुर्गा के द्वारा महिषासुर को मारते हुए दिखाते हैं तो उनकी भावनाएं आहत होती हैं। रावण वध के आयोजनों से भी उनकी भावनाएं आहत होती हैं। इसलिए उनका मुकदमा दर्ज किया जाय। लेकिन आदिवासी आदिवासी होते हैं। उनकी भावनाएं आहत होती हों तो हों, तंत्र को इससे फर्क नहीं पड़ता है। उसे तो फर्क पड़ता है जब कोई हिंदू धर्म के ग्रंथों में लिखे ‘अटल सच’ के बारे में कुछ लिखे। यह फर्क भी तब पड़ता है जब लिखनेवाला गैर ब्राह्मण हो। ब्राह्मण हो तो वह कुछ भी लिख सकता है।
कमाल की बात हुई कल। दरअसल, मेरे पास एक किताब पहुंची। किताब का शीर्षक है – नारद पंंचरात्र। ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में पूरी निष्ठा से स्थापित और भारतीय तंत्र द्वारा सत्यापित भारत के सबसे पहले पत्रकार नारद के संबंध में यह पहली एक्सलूसिव किताब है। अमूमन मैं ऐसी किताबों को अवरोह क्रम में पढ़ता हूं जो सत्य पर आधारित होती हैं। सत्य मतलब वह जिसे भारत सरकार का तंत्र सत्य माने। मेरे और किसी और के मानने से सत्य सत्य नहीं होता।
तो हुआ यह कि सत्य पर आधारित नारद पंचरात्र को पीछे से पढ़ने के क्रम में एक जगह आकर मैं रूक गया। प्राच्य प्रकाशन, वाराणसी (उत्तर प्रदेश जहां कि योगी आदित्यनाथ की महानतम सरकार है) द्वारा प्रकाशित इस किताब के पृष्ठ संख्या 153 के एकदम शुरुआत में ही एक श्लोक है। इस श्लोक ने मुझे एक महान सत्य से परिचित कराया। यह श्लोक है –
कृत्यास्त्रियं समाह्य ता अचुश्च क्रमेण च।
रोधयामासुरिष्टां तां सुगोप्यामपि योषित:।। 105
संस्कृत को लेकर मेरी समझ बहुत अच्छी नहीं है। वजह यह कि मैं इसे भारतीय भाषा नहीं मानता। सुप्रीम कोर्ट को भी मेरी इस मान्यता से आपत्ति नहीं होगी कि यह केवल ब्राह्मण वर्ग की भाषा है। लेकिन पत्रकार तो पत्रकार होता है। उसे बहुत कुछ जानना-समझना चाहिए, इसलिए संस्कृत भी पढ़ ही लेता हूं। तो मैंने यह समझा है कि इसमें कृत्या कामिनी नामक कोई औरत है जिसे कुछ और स्त्रियां अपने पास बुलाकर समझा रही हैं कि स्त्रियों को अपने सर्वप्रिय और इष्ट उद्देश्यों को हमेशा गुप्त रखना चाहिए।
[bs-quote quote=”ब्रह्म ही सत्य है, मानने वाले भारतीय तंत्र को उसका ब्रह्म मुबारक। रही बात भावनाओं की तो भावनाएं केवल उनकी आहत होती हैं, जिनके पास ताकत होती है। गांव-घर में कहावत भी है। गरीब की जोरू सभी की भौजाई। यदि भारतीय महिलाएं ताकतवर होतीं तो उनकी भावनाएं भी आहत होतीं और यह मुमकिन था कि वे ऐसे सारे ग्रंथों को जलाकर राख कर देतीं, जिनमें उनकी अस्मिता को तार-तार किया गया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मेरा माथा ठनका। दो वजहों से ठनका। एक तो यह कृत्या कामिनी का मतलब क्या है और दूसरा यह कि अभी तक सुप्रीम कोर्ट की नजर इस किताब पर क्यों नहीं गयी। यह किताब तो भारतीय संविधान में निहित समानता का खुल्लमखुल्ला विरोध करती है। इस बारे में तो खैर सुप्रीम कोर्ट विचार करे। मैं तो कृत्य कामिनी को लेकर जिज्ञासु था कि कृत्या का मतलब क्या है। अवरोह क्रम में पढ़ने का नुकसान यही होता है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात आदमी पहले पढ़ लेता है। इस पूरे प्रसंग की शुरुआत पृष्ठ संख्या 143 पर होती है। किताब के मुताबिक ब्रह्मा अपने दरबार को संसद की संज्ञा देते थे। एक बार अपने संसद में उन्होंने सुव्रता और पतिव्रता महिलाओं को बुलाया। बाकी सारे देवी-देवता तो पहले से ही थे। स्त्रियों ने ब्रह्मा से संसद में बुलाए जाने का कारण पूछा और यदि कोई कार्यभार देने की मंशा है तो देने का अनुरोध किया। उनके अनुरोध पर संज्ञान लेते हुए ब्रह्मा ने उनसे कहा –
गृहीत्वा मदनाग्निं च मैथुने सुखदायकम्।
विश्चे च योषित: सर्वा: शश्वतकामा भवंतु च।। 46
अब इसका मतलब यह- ब्रह्मा कहते हैं कि मैथुन में सुखदायक मदनाग्नि ग्रहणकर संसार में समस्त स्त्रियां निरंतर कामवासना वाली हो जााएं।
बड़ी गूढ़ बात है इसमें। भारतीय तंत्र को इसका अवलोकन करना चाहिए। ब्रह्मा के कथन पर स्त्रियों ने जो कहा है वह तो बेहद कमाल का है। श्लोक संख्या 48-51 में वे जो कहती हैं, उसका भावार्थ है कि हे ब्रह्मा, आपके होने पर धिक्कार है। आपको परमेश्वर ने व्यर्थ ही बनाया है। मोहिनी के शाप तथा अपने पुत्र के शाप के कारण आप पहले से अपूज्य हैं। कामाग्नि की ज्वाला में पहले से ही स्त्री और पुरुष दोनों दु:सह रूप से जलते हैं। इस अग्नि का एक हिस्सा पुरुषों में और तीन हिस्सा स्त्रियों में होता है। यदि आपने हम स्त्रियों में और अधिक कामाग्नि स्थापित की तो हम सभी स्त्रियां आपको भस्म कर देंगी।
खैर, ज्यादा विस्तार में नहीं जाता हूं। संक्षेप में यह कि सुव्रता और पतिव्रता स्त्रियों से गाली-बात सुनकर निराश होने के बाद ब्रह्मा अपने अंदर की कामाग्नि को शांत नहीं कर पा रहे थे। महादेव उन्हें सलाह देते हैं कि आप स्वयं एक एक स्त्री को जन्म दें और उसके अंदर अपनी अग्नि डाल दें। ब्रह्मा ने महादेव की बात मान ली और एक सुंदर स्त्री का निर्माण किया। उस स्त्री को कृत्या कामिनी की संज्ञा दी गयी है। उसके सौंदर्य का जो वर्णन किया गया है, वह तो हार्ड पोर्न में भी नजर नहीं आता।
तो हुआ यह कि ब्रहा ने अपनी अग्नि कृत्या कामिनी के अंदर डाल दी। इसके उपरांत वह स्त्री कामाग्नि में जलने लगी। उसने ब्रह्मा के संसद में हर देवता के सामने अनुरोध किया कि कोई उसकी अग्नि को बुझा दे। लेकिन सारे देवताओं ने हाथ खड़े कर लिए। जब वह अश्विनी कुमार के पास गयी और उसने कहा कि स्त्रियों को लज्जा करनी चाहिए तो वह कहती है –
अश्विनीजीवच: श्रुत्वा कामार्ता तमुवाच सा।
कामार्तानां क्व लज्जा क्व भयं मानमेव च।। 75
मतलब यह कि काम की अग्नि में जल रही महिला को लज्जा कैसी और कैसा भय?
बहरहाल, ब्रह्म ही सत्य है, मानने वाले भारतीय तंत्र को उसका ब्रह्म मुबारक। रही बात भावनाओं की तो भावनाएं केवल उनकी आहत होती हैं, जिनके पास ताकत होती है। गांव-घर में कहावत भी है। गरीब की जोरू सभी की भौजाई। यदि भारतीय महिलाएं ताकतवर होतीं तो उनकी भावनाएं भी आहत होतीं और यह मुमकिन था कि वे ऐसे सारे ग्रंथों को जलाकर राख कर देतीं, जिनमें उनकी अस्मिता को तार-तार किया गया है।
खैर, कल मैं देवदारों के बारे में सोच रहा था। एक कविता जेहन में आयी –
तुम संग रहो
जब देवदार हों
और हो
सूरज के खौफ को
खारिज करता
हमारा अपना चांद।
नवल किशोर कुमार फारवर
[…] […]