मंच पर एक जादूगर प्रकट होता है। पब्लिक जमकर ताली बजाती है।
जादूगर अपने झोले से टोंटी निकालता है। पब्लिक ताली बजाती है।
जादूगर उस टोंटी को वापस झोले में रख देता है। उसमें हाथ डाल कर कुछ बोलता है। और जब हाथ बाहर निकालता है, तो एक मूर्ति निकलती है।
पब्लिक ताली बजाती है।
‘ये जादूगरी का खेल कब तक चलेगा!’ मेरा मित्र मुझसे पूछता है।
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‘जब तक पब्लिक ताली बजाती रहेगी!’ मैं जवाब देता हूँ।
‘बाहर जादूगर मिले, तो उससे मैं एक बात पूछूं!’ मित्र कहता है।
‘क्या!’ मैं पूछता हूँ।
‘टोंटी की जगह उसने पानी क्यों नहीं निकाला!’ वह कहता है।
‘झोले से पानी कैसे निकालता… वह तो आप प्लास्टिक बोतल में बंद है… मुश्किल काम है!’ मैं कहता हूँ। मगर वह मेरी नहीं सुनता है।
‘ये जादूगर मूर्ति की जगह चॉक, पेंसिल, कलम, किताब भी निकाल सकता था!’ वह कहता है।
‘ये तो जादूगर की क्षमता पर निर्भर करता है।’ मैं उत्तर देता हूँ।
‘नहीं मित्र…जादूगर सक्षम तो हैं! उसका खेला देखकर पता चलता है! हम कितनी देर से इसे ही देख रहे हैं!’
‘फिर!’ मैं पूछता हूँ।
‘सारा खेल नियत का है!’ वह मुझे देखता हुए कहता है।
तभी जादूगर झोले में रोटी डालता है और उसके अंदर से भभूत निकाल देता है।
पब्लिक ताली बजाती है।
‘तुम ताली क्यों नहीं बजा रहे!’ मैं मित्र से पूछता हूँ।
‘ताली तो मैं तब बजाता जब भभूत डालकर रोटी निकालता!’ मित्र जवाब देता है।
‘तुम यार सोचते बहुत हो!’ मैं उलाहना देता हूँ।
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‘यह अच्छी बात है या बुरी!’ वह पूछता है।
‘नहीं जानता!पर इतना जानता हूँ कि इस आदत के चलते तुम इस खेल का मजा लेने से महरूम रहोगे!’ मैं खीजकर कहता हूँ।
मित्र मुझे देखता है और मैं जादूगर को देखने लगता हूँ …
जादूगर एक कबूतर की गर्दन उमेठता है। उसका दिल निकाल कर अपनी हथेली पर रखता है। मुट्ठी बंद करता है। कुछ बुदबुदाता है। फिर जोर से न जाने क्या बोलता है। हथेली खोलता है। अब उसकी हथेली पर दिल की जगह पत्थर है।
पब्लिक ताली बजा रही है और मैं भी…
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ऐसा बहुत कुछ जिसे हम पत्रकारिता समझ कर देख-पढ़ रहे हैं दरअसल..
मैं अपने मित्र को देखता हूँ। वह स्तब्ध बैठा हुआ है। मेरा मित्र मुझे काठ का लगता है।
‘कोई प्रतिक्रिया करो…प्रतिक्रिया… नहीं तो लोग तुम्हें मरा हुआ समझेंगे!’ मैं ताली बजाते हुए उससे कहता हूँ ।
‘बस!!! जिंदा होने की बस इतनी ही पहचान है! यही एक सबूत है…यही एक प्रमाण है…’ वह कहता।
‘मैं कुछ समझ नहीं पाता हूँ और बोल देता हूँ, ‘मतलब!!!’
‘मामला संवेदनशील है न! इसलिए तुम नहीं समझोगे! तुम खेला का मजा लो!’ वह कुछ रूखे ढंग से कहता है।
मैं उसकी पीठ पर एक हल्की-सी चपत लगाता हूँ और अगले आइटम का बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगता हूँ…
अनूप मणि त्रिपाठी युवा व्यंग्यकार हैं और लखनऊ में रहते हैं।
अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…
बढ़िया सामयिक और चुभता व्यंग्य। धारदार शैली और सटीक प्रतीक। बधाई।
[…] खेला अभी चालू है… […]