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आदिवासी समाज का राष्ट्रपति, ज़रूरत या सियासत

देश को पहली बार आदिवासी समाज से राष्ट्रपति मिलने जा रहा है, मीडिया में इसे भारतीय जनता पार्टी के एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में दिखाया जा रहा है और सोशल मीडिया में भी अमूमन लोग इस क़दम का स्वागत कर रहे हैं। जो लोग मोदी सरकार के मुखर आलोचक हैं वो भी एक आदिवासी […]

देश को पहली बार आदिवासी समाज से राष्ट्रपति मिलने जा रहा है, मीडिया में इसे भारतीय जनता पार्टी के एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में दिखाया जा रहा है और सोशल मीडिया में भी अमूमन लोग इस क़दम का स्वागत कर रहे हैं। जो लोग मोदी सरकार के मुखर आलोचक हैं वो भी एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने पर ख़ुश हैं।

एक बात बहुत साफ़ होनी चाहिए कि हम जिस संसदीय लोकतंत्र में जी रहे हैं, इसके सियासत का कोई भी रूप आज सहृदय फ़ैसले नहीं लेता, ले ही नहीं सकता। किसी भी संसदीय दल का कोई फ़ैसला हो या किसी फ़ैसले पर किसी दल की ख़ामोशी, समर्थन या विरोध हो, ये उनकी सियासत से तय होता है। भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगियों द्वारा आदिवासी समाज के सदस्य को देश का राष्ट्रपति बनाने की घोषणा को भी इसी रूप में देखना चाहिए।

हिन्दुत्व की सियासत भारत की सभी संस्कृतियों को हिन्दुत्व के अन्दर समेट रही है, इसके लिए वो संस्कृतियों को विकृत भी कर रही है और संस्कृति के विभिन्न प्रतीकों पर अपना दावा भी पेश कर रही है। यही नहीं जिन संस्कृतियों को वो निगल नहीं पा रही है उनके प्रति बेहद आक्रामक है, जैसे ईसाइयत या इस्लाम के प्रति। हालांकि इन दोनों धर्मों के अनुयायी सांस्कृतिक स्तर पर अरब, फिलिस्तीन या यूरोप के बजाय भारतीय ज़्यादा हैं, लेकिन इनकी भारतीयता ऐसी भी नहीं है कि हिंदुत्व इन्हें निगल जाये। आदिवासी समाज के धर्म, उनकी संस्कृति भले ही अतिप्राचीन हो, लेकिन उनके प्रतीक ऐसे हैं कि हिन्दुत्व आसानी से उन्हें निगल सकता है, इसकी कोशिश वनवासी कल्याण परिषद् लगातार कर भी रहा है।

जिस वक़्त आप ये लेख पढ़ रहे हैं आदिवासी इलाकों में सुरक्षा बलों की भारी तैनाती है और सदियों पुराना एक जंगल जिसमें लाखों पेड़ हैं, उन्हें अडानी समूह न काट पाए, इसके लिए जनता आन्दोलन कर रही है, लेकिन साफ़ दिखाई दे रहा है कि सत्ता जनता को ‘सबक़’ सिखा देगी और देश के ‘विकास’ को सुरक्षित करेगी।

आदिवासी बहुल इलाकों में भारतीय जनता पार्टी और इनके विभिन्न सहयोगी संगठनों के सामने दो बड़े उद्देश्य हैं। एक तो आदिवासी समाज को बृहत्तर हिन्दू पहचान के अन्दर लाना, ये काम दलितों के साथ काफी हद तक हो चुका है, लेकिन आदिवासी समाज अभी भी इससे इनकार कर रहा है। हालांकि ये इनकार भी लगातार कमज़ोर हो रहा है। पिछले कुछ सालों में आदिवासी जो इसाई बन चुके हैं, उन पर उन आदिवासियों ने हमले किये हैं जो खुद को हिन्दू मान चुके हैं। इसी तरह देश के कई राज्यों में मुसलमानों पर हमलों में भी आदिवासियों की सहभागिता नज़र आई है। इसलिए ये तो स्पष्ट है कि आदिवासियों की ‘अलग पहचान’ को मिटाने की कोशिशें लगातार सफल हो रही हैं।

आदिवासियों की अलग पहचान के मुद्दे पर उनके साथ कोई भी संसदीय दल खड़ा हुआ नज़र नहीं आता, यही नहीं विभिन्न दलों में आदिवासी समाज के जो नेता लम्बे समय तक नज़र आते रहे वो भी आदिवासियों की अलग पहचान पर कुछ किये नहीं या कर ही नहीं पाए, लेकिन कम या ज़्यादा, आदिवासी समाज से उनके अलग धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान को बचाये रखने की बात लगातार होती रही है, ये आवाज़ें कब तक बनी रहेंगी और बेलगाम हिन्दुत्व के सामने कब तक टिक पायेंगी, ये भविष्य बताएगा।

किसी भी देश में जब किसी समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान मिटती है या मिटाई जाती है तो वो देश अपनी धरोहरों के मामले में थोड़ा ग़रीब हो जाता है। भारत के आदिवासी समाज के पास भारत की सबसे प्राचीन भाषा, कला, साहित्य और प्राचीनता की निशानियाँ हैं, जिनका अस्तित्व अब ख़तरे में हैं। कई आदिवासी जातियां एक नस्ल के रूप में भी ख़तरे में हैं। अफ़सोस भारत की इस धरोहर को बचाने की कोई कोशिश कहीं से होती हुई नज़र नहीं आ रही है जबकि हिन्दुत्व इन्हें निगलने की न सिर्फ़ कोशिश कर रहा है बल्कि उसकी कोशिशें लगातार कामयाब भी हो रही हैं।

ये एक मानवीय प्रश्न है कि हम किसी मानवीय समूह को उसकी भाषा, उसकी परम्परा, उसकी पहचान और उसके धर्म के साथ, अपनी ओर से बिना कोई बदलाव किये या ऐसे किसी बदलाव की मांग किये, स्वीकार क्यों नहीं कर सकते! हिन्दुत्व की सियासत भारत में एक मात्र हिन्दुत्व की पहचान चाहता है और हर वो पहचान मिटा देना चाहता है जिसे ये निगल नहीं सकता। हिन्दुत्व को अगर इसमें सफ़लता मिलती है तो ये भारत की अपूरणीय क्षति होगी।

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आदिवासी समाज से हिन्दुत्व की सियासत का विरोध पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है, आदिवासी पहचान को बनाए और बचाए रखने की कोशिशें न सिर्फ़ लगातार जारी हैं बल्कि देश के भीतर और बाहर इन कोशिशों को समय समय पर समर्थन भी मिलता रहता है, ऐसे में आदिवासी समाज से आया हुआ एक व्यक्तित्व जो देश का राष्ट्रपति भी होगा, अगर हिन्दुत्व की सियासत के साथ लगातार खड़ा रहे तो क्या इससे हिन्दुत्व की सियासी ताक़त बढ़ेगी? इस प्रश्न पर विचार करना बहुत से सवाल भी खड़े करेगा और कई सवालों का ज़वाब भी देगा।

कुछ लोगों को लग रहा है कि इससे आदिवासी समाज का विकास होगा या उनके विकास पर सरकार का ध्यान जायेगा या उनके विकास पर सरकार को ध्यान देना होगा। इस तरह सोचने वालों को देखना चाहिए कि जिस वक्त एक मुसलमान देश का राष्ट्रपति था उसी वक़्त मुसलमान विरोधी दंगे या क़त्लेआम कई दिनों तक बेरोकटोक चलते रहे, देश का राष्ट्रपति मुसलमान था, इससे उन्हें कोई मदद नहीं मिली, हाँ दुनिया को ये सन्देश जरूर दिया गया कि भारत में मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव नहीं होता, ‘देखिये देश ने अपना राष्ट्रपति भी एक मुसलमान को बनाया है।’ मुसलमान राष्ट्रपति से मुसलमानों को लाभ हुआ, हानि हुई या उनकी अवस्था पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा, इस पर आप विचार कीजिये, कई अनकहे प्रश्न जिनमें कुछ अनुत्तरित भी हैं, आपको नज़र आयेंगे।

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फ़िलहाल देश का राष्ट्रपति दलित समाज का एक व्यक्ति है, दलित समाज पर हो रहे जातिगत अत्याचार में क्या इससे कमी आयी? क्या आरक्षण पर डाका डालने की कोशिशों में कोई कमी आयी, क्या दलितों को किसी भी तरह का कोई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक लाभ हुआ? इन प्रश्नों पर सोचने और उत्तर तलाशने का जिम्मा मैं आपको सौंपता हूँ। हाँ, दलित समाज को इसका गुरूर ज़रूर हुआ कि उनके समाज का एक व्यक्ति राष्ट्रपति बन पाया, हो सकता है कि वो उन ताकतों के प्रति कृतज्ञ भी हुए हों जिन्होंने उनको गर्व अनुभव करने का अवसर दिया। इसका एहसास इससे भी होता है हिन्दुत्व की छतरी के नीचे दलितों की संख्या लगातार बढ़ रही है।

आदिवासी समाज में जिस दूसरे उद्देश्य को पूरा करने की चुनौती भाजपा सहित सभी संसदीय दलों के सामने है वो है पूंजीपतियों के काम को उन इलाकों में आसान बनाना। इत्तेफ़ाक से आदिवासी जिन इलाक़ों में रहते हैं, उन इलाक़ों में खनिज सम्पदा भरपूर है, यहाँ सोना है, हीरा है, रेड डायमंड है, नीलम है, लोहा है, एलुमिनियम, माइका, टिन और भी बहुत कुछ है। आदिवासी इलाकों के चप्पे-चप्पे में दौलत का अम्बार है। ये दौलत पूंजीपतियों को हर हाल में चाहिए।

इस दौलत को हासिल करने का दो तरीका है, पहला ये कि आदिवासियों और पर्यावरण का पूरा संरक्षण करते हुए इन्हें हासिल करना, लेकिन इससे इन खनिजों से बनने वाले उत्पाद की लागत बहुत ज़्यादा बढ़ जाएगी। दूसरा तरीका है कि आदिवासी या तो वो जगह खाली कर दें या उन्हें बलपूर्वक वहां से उजाड़ दिया जाये साथ ही पेड़, पर्वत, जल और जंगल की परवाह किये बिना सिर्फ़ दौलत को हासिल करने की कोशिश की हो।

जिस वक़्त आप ये लेख पढ़ रहे हैं आदिवासी इलाकों में सुरक्षा बलों की भारी तैनाती है और सदियों पुराना एक जंगल जिसमें लाखों पेड़ हैं, उन्हें अडानी समूह न काट पाए, इसके लिए जनता आन्दोलन कर रही है, लेकिन साफ़ दिखाई दे रहा है कि सत्ता जनता को ‘सबक़’ सिखा देगी और देश के ‘विकास’ को सुरक्षित करेगी।

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हालात कहते हैं कि खनिजों को हासिल करने के लिए आदिवासियों को उजाड़ा जायेगा। जाहिर सी बात है इसके लिए वो तैयार तो होंगे नहीं तो उनका दमन होगा, आज जो वहाँ सुरक्षा बलों का लवाज़मा तैनात है वो आदिवासियों के लिए नहीं बल्कि पूँजीपतियों के लिए तैनात किया गया है। कल जब आदिवासियों की लाशें गिरेंगी, उनके घरों पर बुलडोज़र चलेंगे, महिलाओं से बलात्कार किया जायेगा, तब अगर देश के सर्वोच्च पद पर आसीन कोई कहे कि ‘न कोई घुसा है, न किसी कि बलात्कार हुआ है, न किसी कि हत्या हुई है, न किसी को उजाड़ा गया है’ तो इसका असर बहुत दूर तक होगा, ख़ासकर उन पर जो मानवाधिकारों को लेकर ‘हल्ला’ मचाते रहते हैं।

अंत में, मेरी ये दिली ख्वाहिश है कि मेरी आशंका निर्मूल साबित हो, आदिवासी समाज का राष्ट्रपति आदिवासियों के विकास का कारण बने और देश में ख़ुशहाली हो. काश सच में कोई होता जो दुवाएं सुनता और उन्हें पूरी भी करता!

सलमान अरशद स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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