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सवाल केवल दैनिक भास्कर का नहीं है डायरी (23 जुलाई, 2021)

प्रारंभिक दिनों में कंप्यूटर साइंस के पीछे की यह अवधारणा बेहद सटीक लगती थी कि कंप्यूटर ही वह यंत्र है जो दुनिया को बदल सकता है। आज भी मैं इस बात पर कायम हूं। कंप्यूटर ने हर विचारधारा मानने वाले व्यक्ति की सहायता की है। सभी विचारधारा वालों ने अपने-अपने हिसाब से अपनी सूचनाओं को […]

प्रारंभिक दिनों में कंप्यूटर साइंस के पीछे की यह अवधारणा बेहद सटीक लगती थी कि कंप्यूटर ही वह यंत्र है जो दुनिया को बदल सकता है। आज भी मैं इस बात पर कायम हूं। कंप्यूटर ने हर विचारधारा मानने वाले व्यक्ति की सहायता की है। सभी विचारधारा वालों ने अपने-अपने हिसाब से अपनी सूचनाओं को संग्रहित किया है और उसका विस्तार किया है। कंप्यूटर साइंस ने दुनिया भर के अखबारों को नयी ताकत दी। भारत भी कोई अपवाद नहीं है।

कंप्यूटरों ने हुक्मरानों की भी बड़ी मदद की है शासन-प्रशासन चलाने में। पैगासस जासूसी प्रकरण तो एकदम ताजा उदाहरण है। इस संबंध में कल जो नयी सूची आयी है, वह भी हैरान करनेवाली है। भारत सरकार ने अनिल अंबानी के फोन की जासूसी करवायी। सीबीआई के पूर्व अधिकारियों की जासूसी भी करायी गयी है।

[bs-quote quote=”इस क्रम में यह दर्ज करना जरूरी है कि स्वयं को दलित-बहुजन हितैषी बताने वाले कुछ लोगों ने कल खुशियां मनायी। वे इस बात से खुश थे दैनिक भास्कर के उपर आयकर का छापा मारा गया। उनके मुताबिक दैनिक भास्कर जातिवादी अखबार है और केवल द्विजों की बात करता है। उनके दावों में सच्चाई है। लेकिन हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि हिंदी अखबारों के चरित्र के बदलने की अभी तो शुरुआत हुई है। यदि शुरुआत में ही इस बदलाव को बहुसंख्यक वर्ग खारिज करने लगेगा तो निश्चित तौर पर बदलाव की प्रक्रिया बाधित होगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मैं यह सोच रहा हूं कि यदि इस देश में मीडिया नहीं होती तो क्या होता?

दो दिनों पहले मुंबई के फिल्म उद्योग से जुड़े एक साथी का फोन आया। उनकी बातों में निराशा थी। वे इस बात से परेशान थे कि भारत सरकार सिनेमेटोग्राफ एक्ट, 1952 में एक संशोधन लाने जा रही है। इस संशोधन के पारित होने में कोई शक नहीं है क्योंकि सरकार के पास संसद में बहुमत है और दूसरी बात यह भी कि फिल्म जगत में रीढ़दार लोग पहले की तरह नहीं रह गए हैं। मेरे साथी के अनुसार, सिनेमेटोग्राफ एक्ट, 1952 के अनुच्छेद 5(बी)(1) में संशोधन का प्रस्ताव है। इसके तहत अब केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड अंतिम निर्णायक नहीं होगा। मतलब यह कि देश में कौन सी फिल्म दिखायी जाएगी, इसका निर्धारण सेंसर बोर्ड के हाथ में नहीं रह जाएगा। हालांकि सेंसर बोर्ड के पास प्रमाणपत्र देने का अधिकार बना रहेगा। परंतु, फिल्म दिखायी भी जाएगी, यह तय भारत सरकार करेगी। यहां तक कि यदि कोई फिल्म थियेटर में चल रही हो तब भी भारत सरकार उसे वापस ले लेगी।

मित्र से बातचीत के दौरान यह बात तो स्पष्ट थी कि मौजूदा सरकार हर क्षेत्र को अपने नियंत्रण में चाहती है। फिर इसके लिए उसे कानून को तोड़ना-मरोड़ना क्यों न पड़े।

दरअसल, फिल्मों को भी मैं मीडिया का सशक्त हिस्सा मानता हूं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर कोई हैरानी नहीं हुई जब मेरे मित्र ने सिनेमेटोग्राफ एक्ट, 1952 में उपरोक्त संशोधन की बात कही। हालांकि आश्चर्य जरूर हुआ कि भारत सरकार ने जल्दबाजी नहीं दिखायी। मौजूदा भारत सरकार की जो प्रवृत्ति है, उसके हिसाब से तो यह पहले हो जाना चाहिए था।

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अखबारों को लेकर भी सरकार ने अपने तेवर सख्त कर लिये हैं। कल ही हिंदी के बड़े अखबार दैनिक भास्कर के 30 से अधिक दफ्तरों पर आयकर विभाग का छापा मारा गया। इस खबर को कुछेक अखबारों को छोड़ दें तो लगभग सभी ने अपने पहले पृष्ठ पर जगह दी है। भास्कर समूह ने तो पहले पन्ने पर आठ कॉलम में इस छापेमारी की जानकारी दी है और इस भावना की अभिव्यक्ति की है कि वे सरकार के आगे झुकेंगे नहीं। सच लिखेंगे। दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता ने भास्कर समूह के उपर सरकारी हमले की खबर को सम्मानजनक स्पेस दिया है। वहीं दैनिक हिन्दुस्तान के लिए खबर में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का बयान महत्वपूर्ण है कि एजेंसियां अपना काम करती हैं और इसमें सरकार का कोई दखल नहीं। हिन्दुस्तान के इस रवैये से एक बात तो साफ है कि मुख्यधारा की मीडिया जिसे मैं मुट्ठी भर लोगों की मीडिया कहता हूं, उनमें छटपटाहट है। यह छटपटाहट जिस वजह से है, उसके मूल में समाज में हो रहा बदलाव है। यह बदलाव दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों में जागृत हो रही चेतना के कारण है।

[bs-quote quote=”भारत सरकार सिनेमेटोग्राफ एक्ट, 1952 में एक संशोधन लाने जा रही है। इस संशोधन के पारित होने में कोई शक नहीं है क्योंकि सरकार के पास संसद में बहुमत है और दूसरी बात यह भी कि फिल्म जगत में रीढ़दार लोग पहले की तरह नहीं रह गए हैं। मेरे साथी के अनुसार, सिनेमेटोग्राफ एक्ट, 1952 के अनुच्छेद 5(बी)(1) में संशोधन का प्रस्ताव है। इसके तहत अब केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड अंतिम निर्णायक नहीं होगा। मतलब यह कि देश में कौन सी फिल्म दिखायी जाएगी, इसका निर्धारण सेंसर बोर्ड के हाथ में नहीं रह जाएगा। हालांकि सेंसर बोर्ड के पास प्रमाणपत्र देने का अधिकार बना रहेगा। परंतु, फिल्म दिखायी भी जाएगी, यह तय भारत सरकार करेगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज हो यह रहा है कि हिंदी अखबारों के पाठकों में सबसे अधिक हिस्सेदारी बहुसंख्यक वर्ग की है। सोशल मीडिया के जरिए वह अखबारों की पोल भी खोलते रहते हैं। उनके अंदर इस बात को लेकर बेचैनी है कि उनके मुद्दों को जगह क्यों नहीं दी जाती है। अखबारों को अपने रूख में बदलाव करना पड़ा है। इससे उनकी मार्केटिंग भी संबद्ध है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अभिव्यक्ति का अधिकार हर हाल में सुनिश्चित हो।

लेकिन इस क्रम में यह दर्ज करना जरूरी है कि स्वयं को दलित-बहुजन हितैषी बताने वाले कुछ लोगों ने कल खुशियां मनायी। वे इस बात से खुश थे दैनिक भास्कर के उपर आयकर का छापा मारा गया। उनके मुताबिक दैनिक भास्कर जातिवादी अखबार है और केवल द्विजों की बात करता है। उनके दावों में सच्चाई है। लेकिन हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि हिंदी अखबारों के चरित्र के बदलने की अभी तो शुरुआत हुई है। यदि शुरुआत में ही इस बदलाव को बहुसंख्यक वर्ग खारिज करने लगेगा तो निश्चित तौर पर बदलाव की प्रक्रिया बाधित होगी।

यह समय अभिव्यक्ति के अधिकार के सवाल पर दृढ़तापूर्वक खड़े होने की आवश्यकता है। यह केवल दैनिक भास्कर और उत्तर प्रदेश के स्थानीय न्यूज चैनल भारत समाचार के पक्ष में खड़े होने का सवाल नहीं है।

मेरी अपनी मान्यता है कि बोलने का अधिकार दुश्मनों को भी रहना चाहिए। हमें ऐसे दुश्मन नहीं चाहिए जो बोलते नहीं हों। जबतक वे बोलेंगे नहीं, तबतक हम उनकी रणनीति के बारे में कैसे जानेंगे। थोड़ी देर के लिए हम यह मान भी लें कि दैनिक भास्कर तथाकथित रूप से द्विजों का अखबार है तो भी इसमें गलत क्या है। उन्हें अपने हिसाब से बात करने दिया जाना चाहिए। यदि वे हमारे तथाकथित महान नेताओं का अपमान करते हैं तब भी इसमें नुकसान द्विज वर्गों का ही है। हालांकि वे ऐसा करते नहीं हैं। वे हमारे महान नेताओं को महान बनाते और मानते भी हैं। जैसे यह कि उत्तर प्रदेश में कोई भी अखबार बसपा प्रमुख मायावती के बयान को छापने से इन्कार नहीं कर सकता। अखिलेश यादव का बयान भी सभी के लिए महत्वपूर्ण है। बिहार में लालू प्रसाद के बयानों के लिए अखबारों के पास हमेशा स्पेस रहता है। अखबारों के लिए ऐसा करना उनकी मजबूरी है। यदि वे इन नेताओं का बयान नहीं छापेंगे तो इसका असर सीधे उनके व्यवसाय पर पड़ेगा।

इन सबसे अलग यह कि यह समय अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए खड़े होने का समय है। दलित बहुजनों के तीसमारखानों को यह समझना चाहिए कि इस देश में ब्राह्मण वर्ग बने रहेंगे। उन्हें तोपों से उड़ाया नहीं जा सकता और ना ही उन्हें देश निकाला दिया जा सकता है। यह समय पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुसंख्यक वर्गों की हिस्सेदारी बढ़ाने की है। ताकि यह देश समतामूलक देश बन सके। मैं तो “जाति का विनाश” को एक आधार ग्रंथ मानता हूं। डॉ. आंबेडकर इसमें ब्राह्मणों के धर्म को डायनामाइट से उड़ाने की बात कहते हैं। लेकिन वे कभी भी ब्राह्मणों की हत्या की बात नहीं कहते। वे जिस समाम की परिकल्पना करते थे, उसमें सभी थे और सभी अपनी विविधताओं और समान अधिकार के साथ।

कल एक कविता जेहन में आयी। संदर्भ अभिव्यक्ति का अधिकार ही है।

सुनो हुक्मरान !

सुनो हुक्मरान !

हम जानते हैं सबब

तुम्हारे खौफ का,

कुछ भी नहीं है ऐसा

जिसे तुमने छिपाया और

हम वाकिफ नहीं।

 

हमें साफ-साफ दिखता है

खौफ तुम्हारी बंदूकों की नलियों में

और वे तोपें जो

तुमने अपने किले के आगे लगा रखी हैं,

उसमें बारूद की जगह

तुम अपना खौफ भरते हो।

 

हमें सब सुनाई देता है

तुम्हारा रोना, चीखना और

अपना भय छिपाने को हंसना

फिर चाहे तुम लाख प्रयास करो

हम जानते हैं

सबब तुम्हारे खौफ का।

 

किले में रहकर

तुम हमारी झोंपड़ियों से डरते हो

भरपेट खाकर

तुम हमारी भुखमरी से डरते हो

और तुम्हें डर है कि

करोड़ों हाथ जो खाली हैं

कहीं तुम्हारी गर्दन न मरोड़ दें।

 

लेकिन तुम्हारा डर गैर वाजिब नहीं

जल-जंगल-जमीन के दावेदारों से

तुम्हारा डर गैर वाजिब नहीं।

 नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

गाँव के लोग
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