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आरक्षण मजाक का विषय नहीं है जज महोदय (डायरी 22 अक्टूबर, 2021)

समाज को देखने-समझने के दो नजरिए हो सकते हैं। फिर चाहे वह दाता और याचक के नजरिए से देखें या फिर श्रमजीवी और परजीवी के नजरिए से। संसाधन रहित के नजरिए से या फिर संसाधनवान के नजरिए से। कहने का मतलब यह है कि नजरिए दो ही हो सकते हैं। तीन नजरिए नहीं हो सकते। […]

समाज को देखने-समझने के दो नजरिए हो सकते हैं। फिर चाहे वह दाता और याचक के नजरिए से देखें या फिर श्रमजीवी और परजीवी के नजरिए से। संसाधन रहित के नजरिए से या फिर संसाधनवान के नजरिए से। कहने का मतलब यह है कि नजरिए दो ही हो सकते हैं। तीन नजरिए नहीं हो सकते। वर्गीय चेतना ने तीसरा नजरिया भी लाने की कोशिशें की हैं, लेकिन भारत में अभी तक यह असफल ही है। यह तीसरा नजरिया है मिडिल क्लास के नजरिए का। या कहिए कि एक नए वर्ग का नजरिया। यह नजरिया ऐसा है कि इस नजरिए को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि अनाज की कीमतें कितनी बढ़ गई हैं, दवाओं की कीमतों में कितने की वृद्धि हुई है, पेट्रोल-डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं या नहीं। इस वर्ग मे सबसे अधिक हिस्सेदारी नौकरी पेशा वालों और उन व्यवसायियों की है, जिन्होंने अपने घर की पुश्तैनी जमीनें बेचीं और जो रकम प्राप्त हुई, उसका उपयोग व्यवसाय में लगाया है। इस तरह यह वर्ग श्रमजीवी भी है और परजीवी भी। श्रमजीवी इस मामले में कि यह वर्ग श्रम करता है और परजीवी इस मामले में कि यह वर्ग वह श्रम नहीं करता जो इस देश के किसान व मजदूर करते हैं। इनके श्रम के लिए एक खास परिभाषा है। इनके श्रमाधिकारों को संरक्षित करने के लिए कानून भी है।

मेरे सामने सुप्रीम कोर्ट के सबसे महंगे वकीलों में से एक राजीव धवन की किताब है। किताब अंग्रेजी में है और इसका शीर्षक है– रिजर्व्ड। इसके प्राक्कथनकार सुप्रीम कोर्ट के ही एक और बड़े नामी वकील फली एस. नरीमन हैं। अपने प्राक्कथन में नरीमन बताते हैं कि आजादी के बाद से लेकर अबतक (किताब में 60 सालों तक) सबसे अधिक निराश सरकारी तंत्र ने किया है। उनका कहना है कि संविधान ने जो जिम्मेदारियां तंत्र को दी, उनके अनुपालन में तंत्र द्वारा शिथिलता बरती गयी है और इसके कारण ही संवैधानिक प्रावधानों का जो असर देश में होना चाहिए था, नहीं हुआ है।

नरीमन आरक्षण को अपने प्राक्कथन के केंद्र में बहुत बाद में लाते हैं। आरक्षण के पहले वह लोकतंत्र की बात करते हैं। नागरिक सुविधाओं की बात करने के बाद उन्हें याद आता है कि आरक्षण भी एक सवाल है और इसी सवाल के उपर यह किताब लिखी गयी है। फिर वह संसाधनों के असमान वितरण का मामला उठाते हैं और यह उम्मीद जताते हैं कि इस किताब (राजीव धवन द्वारा लिखित किताब) में इस विषय पर चर्चा की जाएगी। राजीव धवन ने अपनी किताब की भूमिका में यह कहा है कि संसद में सबसे अधिक गंभीर चर्चा जिन मुद्दों पर हुई है, उनमें आरक्षण भी एक है। हालांकि कई बार संसद के फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट में व्यापक विमर्श हुआ है और सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण व लोकोपयोगी (राजीव धवन के हिसाब से इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार मामला, 1993 में क्रीमीलेयर का सिद्धांत) न्यायादेश सुनाया है।

[bs-quote quote=”भारतीय संविधान में आरक्षण को सुधारात्मक पहल कहा गया है। अंग्रेजी में कहें तो अफर्मेटिव एक्शन। यह बेहतर समाज के निर्माण की दिशा में किया गया पहल है। यह किसी खास जाति व समुदाय को विशेष अवसर उपलब्ध कराने जैसा नहीं है। जैसे कि कोई भी व्यक्ति पैसे खर्च कर भारतीय ट्रेनों में जगह विशेष सुविधाएं प्राप्त कर लेता है या फिर कोई केवल अपने पास पैसे होने की वजह से महंगे से महंगे रेस्तरां व बार में दारू के मजे ले सकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मैं आज इन बातों की चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आरक्षण एक ऐसा शब्द बनाकर रख दिया गया है कि कोई भी किसी भी रूप में इसकी व्याख्या कर देता है। अब केरल हाईकोर्ट के एक जज को ही देखिए। इनका नाम है– न्यायाधीश दीवान रामचंद्रन। कल इन्होंने अपनी मजलिस में कहा कि शराब के ठेकों के बाहर समानता है और कोई भी अपने लिए आरक्षण की मांग नहीं करता। मजे की बात तो यह कि उनके इस अजीबोगरीब मौखिक टिप्पणी को दिल्ली में जनसत्ता अखबार ने भी प्रकाशित किया है।

अब जरा उस मसले पर विचार करते हैं जिसके संदर्भ में न्यायाधीश दीवान रामचंद्रन ने उपरोक्त टिप्पणी की है। दरअसल, केरल हाईकोर्ट के बगल में शराब का ठेका है, जहां मय के दीवानों की जमघट लगी रहती है। चूंकि केरल में कोरोना को लेकर भौतिक दूरी का ध्यान रखा जाता है तो कतारें लंबी हो जाती हैं और ये लंबी कतारें न्यायाधीश दीवान रामचंद्रन को अच्छी नहीं लगतीं। इसलिए कल उन्होंने राज्य सरकार को कहा है कि वह शराब की दुकानों की संख्या बढ़ा दें। दुकानें अधिक होने से भीड़ कम हो जाएगी।

[bs-quote quote=”न्यायाधीश दीवान रामचंद्रन। कल इन्होंने अपनी मजलिस में कहा कि शराब के ठेकों के बाहर समानता है और कोई भी अपने लिए आरक्षण की मांग नहीं करता। मजे की बात तो यह कि उनके इस अजीबोगरीब मौखिक टिप्पणी को दिल्ली में जनसत्ता अखबार ने भी प्रकाशित किया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

वैसे देखें तो न्यायाधीश महोदय के विचार को सही माना जा सकता है। लेकिन यह कहना कि शरब के ठेकों के बाहर समानता है और वहां किसी को आरक्षण की दरकार नहीं, एक तरह से संविधान प्रदत्त आरक्षण पर व्यंग्य है। रेलवे में सीटों का आरक्षण, रेस्तरां और बार आदि में टेबुलों का आरक्षाण संविधान प्रदत्त आरक्षण से बिल्कुल अलग है। मुमकिन है कि न्यायाधीश महोदय ने मजाक में उपरोक्त टिप्पणी की हो, परंतु न्यायाधीश को मजाक नहीं करना चाहिए। उसके कहे का मतलब होता है।

भारतीय संविधान में आरक्षण को सुधारात्मक पहल कहा गया है। अंग्रेजी में कहें तो अफर्मेटिव एक्शन। यह बेहतर समाज के निर्माण की दिशा में किया गया पहल है। यह किसी खास जाति व समुदाय को विशेष अवसर उपलब्ध कराने जैसा नहीं है। जैसे कि कोई भी व्यक्ति पैसे खर्च कर भारतीय ट्रेनों में जगह विशेष सुविधाएं प्राप्त कर लेता है या फिर कोई केवल अपने पास पैसे होने की वजह से महंगे से महंगे रेस्तरां व बार में दारू के मजे ले सकता है।

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आरक्षण का सवाल बेहद गंभीर सवाल है और मुझे लगता है कि सरकारी तंत्र के अलावा अदालतों को भी यह बात समझ लेनी चाहिए। हल्की टिप्पणियां आपकी साख को कम करेंगीं। समाज में इसका दुष्प्रभाव भी होगा।

बहरहाल, जब बात शराब की हो तो मिर्ज़ा ग़ालिब का याद आना आवश्यक है। जज महोदय के लिए शराब की शान में प्रस्तुत है यह शेर–

ख्याल-ए-वल्व-ए-गुल से खराब है मैकश,

शराबखाने के दीवार-ओ-दर में खाक नहीं।

हुआ हूं इश्क की शारतगरी से शर्मिन्द:,

सिवाए हसरत-ए-तामीर, घर में खाक नहीं।

 

 नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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