विषयक प्रगतिशील लेखक संघ दिल्ली इकाई द्वारा गालिब ऑडिटोरियन माता सुन्दरी रोड दिल्ली में दिनांक 8 से 9 अगस्त. 2022 तक दो दिवसीय विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन किया गया। जिसके अन्तर्गत सम सामयिक विषयों पर देश के जाने माने साहित्यकारों, कवियों द्वारा व्यापक विचार विमर्श किया गया।
इस कार्यक्रम के अध्यक्ष मण्डल मे विभूति नारायण राय, सुखदेव सिरसा, राजेन्द्र राजन, राजेन्द्र शर्मा, थे। उद्घाटन वक्तव्य पी. साईनाथ का बहुत प्रभावी रहा। स्वागत रामशरण जोशी और संचालन मिथिलेश द्वारा किया गया । पी. साईनाथ ने बहुत से अहम मुद्दों पर बात की। शुरुआत उन्होंने लेखकों और पत्रकारों की समाज के प्रति जिम्मेदारी से की।
साहित्यकार और पत्रकार सदा से ही अपनी लेखनी समाज की प्रतिष्ठा और नीति-नियम के अनुसार अपना पावन कर्तव्य बड़ी कर्मठता से निभाते रहे हैं| इतिहास गवाह है कि साहित्यकार और पत्रकारों के लेखन ने, न केवल यूरोपीय पुनर्जागरण में अपनी महत्वपूर्ण और सशक्त भूमिका निभाई है वरन् भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। वर्तमान में अनेक प्रकार की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-भौगो
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स्वतंत्र पत्रकारों और लेखकों की भूमिका का महत्व बताते हुए साईनाथ ने कहा कि चूंकि अंबानी अपने विज्ञापनों के जरिए मीडिया पर सीधा नियंत्रण रखते हैं ऐसे में कोई भी असमानता की बात नहीं कर रहा है। “सिर्फ स्वतंत्र पत्रकार और लेखक ही इस बारे में लिख सकते हैं।”
संघ परिवार आजादी की लड़ाई से गायब रहा, इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हुए अंतः उन्होंने सिविल सोसायटी, लेखकों और पत्रकारों को एक वैकल्पिक कार्यक्रम तैयार करने की बात कही । उन्होंने कहा कि लेखकों की बुनियादी जिम्मेदारी है कि वे असमानता के बारे में लगातार लिखें।
प्रथम सत्र मे गम्भीर विषय पर चर्चा क्या-क्या तोड़ता है बुलडोजर पर साहित्यकारों का चिन्तन मनन और बुलडोजर संस्कृति के खतरो पर प्रभावी विचार प्रस्तुत किये गये। वक्ताओं ने कहा कि जब सरकारें तानाशाही और निरंकुशता के रास्ते पर चलने लगती हैं तो समाज मे डर और भय का वातावरण बन जाता है। इस तरह के वातावरण मे सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक विचलन तेजी से बढता है। ऐसे समय मे सच बोलना, लिखना और अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा होता है। समाज को एक विशेष एजेण्डे पर चलने, सोचने को मजबूर कर दिया जाता है। समाज पर ऐसी कूसंस्कृती का प्रभाव बहुत ही हानिकारक होता है। ऐसे मे प्रगतिगामी ताकतो, लेखको, साहित्यकारो, कवियों और कलाकारो की भूमिका और जिम्मेदारी बढ़ जाती है। डर और भय के माहौल मे जीने वाले समाज का विकास कदापि नही हो सकता । लेखको बुद्धिजीवियों को अपने लेखन के जरिये हाशिये पर पड़े समाज को जगाने की जिम्मेदारी को निभाना पड़ेगा।
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प्रथम सत्र के अध्यक्ष मण्डल मे असगर वजाहत, विश्वनाथ त्रिपाठी, अवधेश प्रधान, जय प्रकाश कर्दम थे। अध्यक्ष मण्डल के अलावा वक्ताओं मे प्रो. अपूर्वानन्द और सबा नक़वी रहे। स्वागत और संचालन डा० संजय श्रीवास्तव ने किया ।
प्रख्यात उपन्यासकार-नाटककार असगर वजाहत ने देश में बढ़ती नफरत, अपराध और असहिष्णुता पर जोर देते हुए कहा विकास एक बहुआयामी तत्व है। यह न केवल आर्थिक संवृद्धि का एक प्रश्न है, अपितु एक सामाजिक एवं राजनीतिक प्रक्रिया है जो लोगों को जीवन की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए अभिप्रेरित करती है और विकास प्रक्रिया में उन्हें सहभागी बनाती है। विकास अंततः आत्मनिर्भरता, समानता, न्याय एवं संसाधनों का एकसमान वितरण है तथा लोकतंत्र के बारे में बताता है। असहिष्णुता, घृणा और अपराध की बढ़ती घटनाओं से राष्ट्र के आर्थिक विकास को गंभीर नुकसान पहुंचता है। सामाजिक समरसता बढ़ाने के लिए देश में बढ़ती असहिष्णुता, सामाजिक अस्थिरता, घृणा-अपराध, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, नैतिक पहरेदारी, जाति और धर्म आधारित हिंसा और कई अन्य तरह की असहिष्णुता दूर नहीं किया गया तो आर्थिक विकास प्रभावित होगा। कुछ समूह देश में नफरत की भावनाओं को फैला रहे हैं और भीड़ कानून को अपने हाथ में ले रही है। यह न केवल चिंता की बात है, बल्कि इससे देश कमजोर ही होगा। इस तरह की घटनायें राष्ट्रीय एकता, अखंडता तथा साम्प्रदायिक सौहार्द के खिलाफ है।
प्रो. अपूर्वानंद ने सांप्रदायिकता पर जोर देते हुए कहा कि आज जिस तरह पूरी दुनिया में इस्लाम के प्रति डर और नफ़रत का माहौल बना है, उससे भारत में भी राष्ट्रवाद के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। भारतीय मुसलमानों की मुश्किलों की शुरुआत 2014 के आम चुनावों में बीजेपी की जीत से नहीं हुई थी. ये तो काफ़ी पहले से ही हो गई थी।
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भारत के तरक़्क़ीपसंद संवैधानिक वादों की चमक तो बहुत पहले ही फीकी पड़ने लगी थी। जाति और धर्म के नाम पर समाज में दरारें खुले तौर पर दिखने लगीं थीं। ये दरारें समाज में पहले से ही थीं। 2014 में सरकार बदलने के बाद से देश का माहौल पूरी तरह से बदल गया है। आज मुसलमानों की बात होती है, तो उनके बच्चों के स्कूल छोड़ने से लेकर आमदनी घटने की फ़िक्र का ज़िक्र नहीं होता। बल्कि आज उनकी जान और आज़ादी की हिफ़ाज़त और उनके लिए इंसाफ़ मांगने की बात होती है।
2014 के बाद से मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरे अपराधों की कई घटनाएं सामने आई हैं। मुसलमानों को पीटकर मार डालने, ऐसी घटनाओं के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर प्रचारित करने और इस पर पूरी बेशर्मी से जीत की ख़ुशी मनाने की घटनाएं बढ़ी हैं।
लोगों पर बसों, ट्रेनों में इसलिए हमले हुए हैं क्योंकि वो मुसलमान थे या मुसलमानों जैसे दिखते थे। लोगों को इसलिए मारा-पीटा गया कि कुछ लोगों को ये शक हो गया कि वो गाय का मांस ले जा रहे थे। भारत में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा कोई नई बात नहीं। लेकिन ऐसी घटनाओं का आम हो जाना और सरकार का पूरी तरह ख़ामोशी अख़्तियार कर लेना, नई बात है। पहले जो घटनाएं इक्का-दुक्का हुआ करती थीं, वो अब रोज़मर्रा की बातें हो गईं हैं। मुसलमानों के ख़िलाफ़ सत्ताधारी बीजेपी के नेताओं और मंत्रियों की नफ़रत भरी बयानबाज़ी आम बात हो गई है। अब ऐसे बयानों से न तो झटका लगता है और न ही ये चौंकाते हैं। ऐसा लगता है कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ सारे विकल्प खुले हुए हैं। इतिहास की किताबें नए सिरे से लिखी जा रही हैं। इतिहास की खुली लूट-सी मची है. बादशाह अच्छे थे या बुरे, इसका फ़ैसला इस बात पर हो रहा है कि वो मुसलमान थे या नहीं। मुसलमान नौकरी मांगें, इंसाफ़ मांगें, मॉल में जाएं, ट्रेन में सफ़र करें, जींस पहनें या अपने मुसलमान होने की खुली नुमाइश करें हर चीज में डर का साया है। मुसलमानों का अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग करना भी उनके लिए ख़तरनाक हो सकता है। वो सोशल मीडिया पर ट्रोल हो सकते हैं। भीड़ उन पर हमला कर सकती है। ऐसे कई सवाल और तथ्य प्रो.अपूर्वानंद ने सामने रखे।
अध्यक्ष मण्डल से अवधेश प्रधान जी ने कहा की सवाल यह है कि डर पैदा करने, सत्ता दिखाने और राजनीतिक प्रभुत्व बनाए रखने के लिए बुलडोजर के इस्तेमाल का विचार कहां से आया? इतिहास के पन्ने पलटने से यह स्पष्ट होता है कि मानव इतिहास में बुलडोजर का पहला राजनीतिक प्रयोग हिटलर ने जर्मनी में किया था। क्या सरकार बुलडोजर का भय पैदा कर अपने विरोधियों को चुप कराना चाहती है? क्या यह मुद्रास्फीति, बेरोजगारी, आर्थिक कमजोरी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे प्रमुख मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने की कोशिश करती है? उद्देश्य जो भी हो, इतिहास ने दिखाया है कि जिसने भी दमन और सत्ता के प्रतीक के रूप में बुलडोजर का इस्तेमाल किया, उसका राजनीतिक भविष्य न केवल बुलडोजर बन गया, बल्कि उसका कोई नाम नहीं है। भाजपा को इन उदाहरणों से सीख लेनी चाहिए। सरकार को बुलडोजर का उपयोग करने के बजाय विवेकपूर्ण तरीके से कार्य करना चाहिए और संविधान के अनुसार कानून का शासन स्थापित करना चाहिए। यह सरकार और जनता दोनों के लिए अच्छा है।
सबा नक़वी ने एक मार्मिक कहानी के जरिए भारत के मुस्लमान की दशा बताई। उन्होंने बताया कि किस तरह ये डर का कारोबार खड़ा किया गया है। अब बोलने से लोगों को डर लगता है कि कहीं कोई बोलने पर जेल न भेज दें। भारत में मुसलमानों के बीच हाशिये से बहिष्कार के साथ अपमान की भावना, जो कि मीडिया और सोशल मीडिया द्वारा बढ़ाई जा रही है, भारत के भविष्य के लिए अच्छी तस्वीर पेश नहीं करती है। अभी भी इस राजनीतिक और नैतिक रसातल की ओर पतन को थाम लेने का समय है। हालांकि एक बार जब हिंसा का चक्र शुरू हो जाता है, तब कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता है कि यह हमें कहां ले जाएगी।
भोजनाविराम के बाद दूसरा सत्र अपरान्ह 3.00 बजे से काव्य पाठ का रहा। इस सत्र के अध्यक्ष, वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना रहे। उन्होंने कविता पाठ के साथ -साथ आज के कवियों, लेखकों और पत्रकारों की जिमीदारियों और उनकी मौजूदा स्थिति पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा की साहित्यकारों का दायित्व है कि वह वर्तमान परिस्थितियों की सापेक्षता में साहित्य सृजन का कार्य करे और अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में अन्तश्चेतना जाग्रत करे। समाज में विद्यमान विसंगतियों, असमानताओं और विद्रूपताओं का निरूपण कर जनमानस में इनके प्रति सजगता विकसित करे। और साथ ही समाज को सही दिशा दिखाने हेतु एक आदर्श चरित्र की संयोजना करे और इस प्रकार समाज के बहुविध विकास में सहयोगी बने। नरेश सक्सेना जी ने जो कविताएं सुनाई उनके शीर्षक कुछ इस प्रकार हैं – दरवाजा, शिशु, कांक्रीट तथा इस बारिश में।
इस बारिश में / नरेश सक्सेना
जिसके पास चली गई मेरी ज़मीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गई
अब जो घिरती हैं काली घटाएँ
उसी के लिए घिरती है
कूकती हैं कोयलें उसी के लिए
उसी के लिए उठती है
धरती के सीने से सोंधी सुगन्ध
अब नहीं मेरे लिए
हल नही बैल नही
खेतों की गैल नहीं
एक हरी बूँद नहीं
तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं,
कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए
जिसकी नहीं कोई ज़ामीन
उसका नहीं कोई आसमान ।
संचालन राजीव कुमार शुक्ल ने किया। प्रमुख कवियों में कृष्ण कल्पित, सविता सिंह, विनीत तिवारी, संध्या नवोदिता, वन्दना चौबे, नूतन आनन्द, अविनाश मिश्र, नोमान शौक़ (उर्दू), सुरजीत जज (पंजाबी), नेहल शाह ने सम सामयिक विषयो पर अपने अपने काव्य पाठ से श्रोताओ में चेतना का संचार किया।
समकालीन हिंदी कविता का परिदृश्य बिना कृष्ण कल्पित के पूरा नहीं होगा। उनकी कविताएँ अक्सर समय की धूल से उठती हैं और संदिग्ध महानताओं पर पसर जाती हैं। उन्होंने ३ कविता सुनाई जिसके शीर्षक कुछ इस प्रकार हैं – किसान आंदोलन, पथ पर न्याय तथा सुनो प्रधानमंत्री।
दूसरे दिन के तीसरे सत्र का प्रारम्भ 09 अगस्त 2022 का विषय “युद्ध कोई विकल्प नही है, अन्तिम भी नही!” इस सत्र के अध्यक्ष मण्डल मे के०एन० काबरा, गौहर रज़ा, अर्जुमन्द आरा, रविन्द्रनाथ राय थे। मुख्य वक्ता सिद्धार्थ वर्धराजन के साथ ही अन्य वक्ताओं में विभूति नरायण राय, राजाराम भादू थे। स्वागत वक्तव्य प्रेमचन्द्र गाँधी और संचालन अनीस अंकुर ने किया।
मुख्य वक्ता सिद्धार्थ वरदराजन ने रूस यूक्रेन मे चल रहे युद्ध पर व्यापक प्रकाश डालते हुये कहा कि युद्ध किसी देश काल, समाज में किसी भी दशा में कोई हल नही निकाल सकता है। दुनियाँ में धनाड्य देशो के पुँजीपतियों, सामंतवादी ताकतो द्वारा इस तरह का माहौल तैयार किया और कराया जाता है, जिससे उनका व्यवसाय फली भूत होता रहे। सिद्धार्थ वरदराजन ने अपने भाषण को रूस – यूक्रेन, भारत – चीन और भारत – पाकिस्तान तीन चरणों में बांटकर विस्तार से समसामयिक परिदृश्य को विस्तार से समझाया।
प्रख्यात साहित्यकार विभूति नारायण राय ने कहा कि किसी भी काल खण्ड या देश के लिये युद्ध कोई विकल्प हो ही नही सकता। युद्ध मे हमेशा आम नागरिक तबाह और बर्बाद होता है। सत्ता लोलुप शासक वर्ग एवं धनाड्य वर्गों के साम्राज्य की रक्षा हेतु युद्ध की परिस्थितियाँ तैयार की जाती है। बम की संस्कृती से हजारो वर्षो मे विकसित मानव समाज गर्क मे जा सकता है। इस तरह की संस्कृती से विकृति मानसिकता की संस्कृती से समाज का भला कदापि नही हो सकता है।
भारतीय वैज्ञानिक ‘ गौहर रज़ा ‘ ने पर्यावरण संकट एवं बम की तबाही पर जोर दिया और हिरोशिमा परमाणु विस्फोट को याद करते हुए कहा 6 अगस्त 1945 पहली बार मानवता पर दुनिया का सबसे घातक हथियार चलाया गया था। इस दिन अमेरिका ने जापान पर परमाणु बम से हमला किया था। हजारों जापानी नागरिक तत्काल काल के गाल में समा गये। पूरी दुनिया महाविनाश का तमाशा देखती रह गई और मानव समाज एटम बम की विनाशलीला देख कराहता रहा। इसके बाद 9 अगस्त को फिर वहीं धमाका नागासाकी में सुनाई दिया। फिर लाखों लोग मौत की नींद सो गये। विनाश देख जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। एटम बम के धमाके ने दूसरा विश्व युद्ध तो खत्म कर दिया। लेकिन पूरी दुनिया एटम बम की ताकत को निहारती रही। युद्ध की समाप्ती के साथ यह भी तय हो गया कि अब युद्ध का फैसला तोप और टैंक नहीं करेंगे। दुनिया में उसी की ताकत का बोलबाला होगा जिसके पास ज्यादा से ज्यादा एटम बम होगा। ताकत और हथियार जमा करने की इसी अंधी दौड़ ने दुनिया को ऐसे युग में धकेल दिया जिसमे हर कोई परमाणु बम से युक्त होने के बेताब दिख रहा है।
6 अगस्त को हिरोशिमा पर जो एटम बम गिराया गया था वो महज 4.3 टन वजन वाला था। उस बम का नाम लिटिल बॉय रखा गया था। एक तरह से कहे तो यह सिर्फ एक परीक्षण भर था। लेकिन इसने इतनी तबाही मचाई थी जिसका किसी ने अंदाजा भी नहीं लगाया था। जहां धमाका हुआ था वहां का तापमान 10 लाख सेंटीग्रेड पलभर में पहुंच गया था। जहां बम फटा वहां से सेंटर स्थित एक कंक्रीट इमारतों को छोड़ बाकी सभी चीजे गायब हो गईं। आज कई देशों के पास सैकड़ों टन वजनी एटम बम मौजूद है, जो भयंकर तबाही मचा सकती है। एटम बम और हाइड्रोजन बम ऐसे खतरनाक हथियार है जो शहर को ही नहीं एक राज्य तक को खत्म कर सकते हैं। हालत ये है कि आज इंसान की ही बनाई चीज इंसान का निशान मिटाने की ताकत रखती है। कहा जाता है कि अगर तीसरा विश्व युद्ध होता है और उसके परमाणु हथियार चलते हैं तो इतना विनाश होगा कि उसे देखने के लिए शायद मानव सभ्यता ही न बचे।
चतुर्थ और अन्तिम सत्र 3.00 बजे अपरान्ह से प्रारम्भ हुआ जिसमे समकालीन तथा साहित्य मे ‘प्रतिरोध’ विषय पर समग्र चर्चा केन्द्रित रही। चर्चा मे उदय प्रकाश, शिवमुर्ति, अखिलेश, वीरेन्द्र यादव, शरण कुमार लिमांले, खुर्शीद अकरम (उर्दू) राजकुमार व रूपा सिंह ने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किया।
शरण कुमार लिम्बाले ने अपने भाषण में कहा कि एक समय पर आकर हमने यह महसूस किया कि साहित्य में हम तो कहीं हैं ही नहीं। इसके बाद हमने अपना साहित्य लिखना प्रारंभ किया जिसे प्रगतीशील आंदोलन ने सराहा और प्रोत्साहित किया।
अध्यक्षीय भाषण में शिवमूर्ति जी ने वर्तमान में देश की स्थिति पर प्रकाश डाला तथा किसान आंदोलन से सीख लेने की बात कही। उन्होंने कहा किसान-आंदोलन ने हमारे लोकतंत्र को बचा लिया है। इतिहास का यह सबक एक बार फिर सही साबित हुआ कि फासीवाद का नाश मेहनतकश वर्गों के प्रतिरोध से ही होता है। शहीद भगत सिंह के विचार और बलिदानी परम्परा, डॉक्टर आंबेडकर के संवैधानिक मूल्य और गांधीवादी सत्याग्रह की प्रेरणा इनका सबसे बड़ा सम्बल बनी। किसान आन्दोलन सरकार के लिए भी एक सबक है। बहुमत के नशे में किसी को आन्दोलनजीवी, ख़ालिस्तानी और आतंकवादी करार देने से समस्या कम नहीं होगी, बल्कि और बढ़ेगी। लोकतंत्र में सरकार के पास संवाद सबसे बड़ा हथियार होता है और यह उसकी लोकप्रियता का पैमाना भी होता है। कारपोरेट-फासीवादी स्टेट के गठजोड़ को विजयी चुनौती देने वाला यह आंदोलन हमारे देश के आंदोलनों के इतिहास में एक अलग मुक़ाम हासिल कर चुका है। इस सत्र का संचालन अणुशक्ति सिंह ने किया । अन्त मे विनीत तिवारी ने सभी के प्रति आभार व्यक्त किया।
प्रगतिशील लेखक संघ के इस दो दिवसीय आयोजन के संयोजक ज्ञान चन्द बागड़ी थे जिसमें दिल्ली और आस पास के जागरूक नागरिक और बौद्धिक वर्गों के लोग अच्छी संख्या मे जुटे और पूरे आयोजन से प्रभावित हुये। कार्यक्रम के सार स्वरूप सबने मांना कि भारत के वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक परिदृष्य मे लेखको साहित्यकारो, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी चुनौती पूर्ण है। वर्तमान परिवेश मे सभी प्रगतिगामी लेखको रचनाकारों को एकजुट होकर सत्य और असत्य की पहचान कर मुंशी प्रेमचन्द्र जैसे लोगो की परम्परा का वाहक बनना पड़ेगा। तभी हम एक स्वस्थ राष्ट्र और बेहतर समाज बना पायेंगे।
दो दिवसीय साहित्य समागम के कर्ता धर्ता प्रगतिशील लेखक संघ दिल्ली के अध्यक्ष रामशरण जोशी, महासचिव फरहत रिजवी और आयोजन समिति के संयोजक ज्ञान चन्द बागड़ी की भूमिका काबिले तारीफ़ रही।