शब्द बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। यदि शब्द न हों तो कितनी समस्याएं हों। बचपन में यह ख्याल तब आता था जब पापा के साथ मैं गांव के राधे बड़का बाबू की चाय की दुकान पर जाता था। हालांकि वहां जाने का एक उद्देश्य मेरा भी होता था और पापा का भी। मेरा उद्देश्य यह कि सुबह-सुबह मुझे चाय और निमकी अथवा चाय-डंडा बिस्कुट मिल जाया करता था। पापा का मकसद होता था अखबार में छपी खबरों के बारे में जानना। इस तरह हमदोनों का उद्देश्य पूरा होता था। यह लगभग रोज की बात थी। उन दिनों शब्दों के बारे में यह विचार आया था कि शब्द बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और यदि शब्द न हों तो कितनी समस्याएं हों। आज भी मैं यही मानता हूं। हालांकि अब मेरी इस सोच में थोड़ा विस्तार भी हुआ है। विस्तार इस मायने में कि अनेक शब्दों को हटाए जाने का पक्षधर हूं। उदाहरण के लिए राष्ट्रपति शब्द। यह पितृसत्ता का शब्द है और वर्चस्ववाद का द्योतक है। दूसरी बात यह कि मैं कुछ नये शब्द जोड़े जाने के पक्ष में भी हूं। फिर चाहे वह फ्रेंच के शब्द हों, जर्मन के शब्द हों या फिर दुनिया के किसी और मुल्क की भाषा के। हिंदी का विस्तार करना है तो उसे सीमाएं लांघनी ही होंगी। इसके अलावा इस देश के भाषा वैज्ञानिकों को भी नये शब्द इजाद करने होंगे।
भाषा वैज्ञानिकों से एक बात याद आयी कि इस देश में कबीर और जोतीराव फुले, दोनों अलहदा भाषा वैज्ञानिक रहे। कबीर तो लगभग अपनी हर रचना में भाषा को अपने हिसाब से परिष्कृत करते हैं। उनके पदों को पढ़ें तो ऐसा लगता है जैसे उनके हाथ में कलम नहीं, छेनी और हथौड़ा है, जिसके सहारे वह उन शब्दों को नयी धार देते हैं, जिन्हें द्विज वर्ग या तो जबरन थोप देना चाहता है या फिर शूद्र-अतिशूद्रों का शब्द मानकर विलोपित कर देना चाहता है।
जांच का काम पुलिस और निष्कर्ष पर पहुंचने का काम अदालतों का है। मैं तो आज की सुबह के बारे में सोच रहा हूं और बगल के सड़क से गुजर रहे मजदूरों को देख रहा हूं। ये दिल्ली जल बोर्ड के गैर-पंजीकृत मजदूर हैं। इनके हाथों में और कंधे पर औजार हैं। ये सभी रोज रात के अंधेरे में लौटते हैं। मैं भी इन्हें लौटते हुए कम ही देख पाता हूं।
‘विलोपित कर देने’ से एक और बात याद आयी। कबीर ने एक शब्द गढ़ा था– बिगूचन। यह कमाल का शब्द है और सामान्य तौर पर इसका उपयोग कबीर ‘विलोपित कर देने’ के संबंध में ही करते हैं। वे अपने कई पदों में इसका उल्लेख करते हैं कि कैसे समाज का ऊंचा तबका बिगूचन करता रहता है। अब यह अनायास ही समझा जा सकता है अगर हम बिगूचन के पर्यायवाची शब्दों के बारे में सोचें। चूंकि मैं भाषा के मामले में अल्पज्ञ हूं तो मुझे तो इसका कोई पर्यायवाची शब्द नहीं मिलता। कुछ शब्द होंगे भी तो वह तथाकथित देवताओं के पास होंगे।
कबीर के जैसे ही जोतीराव फुले भी कमाल के शब्दकार थे। 1873 में जब उन्होंने गुलामगिरी की रचना की तो उन्होंने जमकर प्रयोग किये। अनेक नये शब्दों को न केवल गढ़ा बल्कि द्विजों के शब्दों को नया आयाम भी दिया। उनका एक शब्द है- ‘नारसिंह’। फुले इस शब्द का उपयोग विष्णु के नरसिंह अवतार के लिए करते हैं। वाकई यह फुले का अदम्य साहस ही था, जिन्होंने पूरी कहानी को पलट दिया था। वे नरसिंह अवतार को नारसिंह अवतार की संज्ञा देते हैं और बताते हैं कि विष्णु औरतों का रूप धारण करने में माहिर था। पहले भी अमृत वितरण के समय उसने मोहिनी का रूप धरा था और हिरण्यकशिपु की हत्या करने के समय भी उसने औरत का ही रूप धारण किया था। वह औरत के वेश में हिरण्यकशिपू के कक्ष में दाखिल हो गया था और उसने अपने हाथ में बघनखा पहन रखा था। वह एक खंभे की ओट में छिपा था और जब मूलनिवासी शासक हिरण्यकशिपु आराम करने अपने कक्ष में गया और अपने पलंग पर सो गया तो विष्णु ने सोये अवस्था में बघनखा से उसपर हमला किया। अचानक हुए इस हमले में हिरण्यकशिपु अपना बचाव न कर सका और मारा गया।
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दरअसल, शब्दों को गढ़ना और इजाद करना वैसे ही है जैसे हमारे वैज्ञानिक कोई आविष्कार करते हैं। यह न तो इतना आसान होता है और ना ही नामुमकिन। सबके पीछे आवश्यकता होती है और विज्ञान होता है। ऐसे ही शब्द हैं। हर शब्द के पीछे आवश्यकता और समाज विज्ञान होता है।
खैर, आज तो मैं कबीर के शब्द ‘बिगूचन’ के बारे में सोच रहा हूं। कितनी सारी बिगूचनें इस देश में फैलायी जा रही हैं। एक बिगूचन है हर घर तिरंगा। मुझे तो राजा ढाले की याद आ रही है, जिन्होंने 1970 के दशक में दलित पैंथर के गठन में अहम भूमिका का निर्वहन किया था और देश की आजादी के 25 साल पूरे होने के मौके पर पूरे देश में जब खुशियां मनायी जा रही थीं, तब राजा ढाले ने अपने एक आलेख में तिरंगा और एक दलित स्त्री की अस्मत के बीच में तुलना की थी। तब भी जो तत्कालीन केंद्रीय हुकूमत थी, बिगूचन फैला रही थी और आज की हुकूमत भी बिगूचन फैला रही है। एक उदाहरण और कि नुपूर शर्मा का महिमामंडन करने का बिगूचन फैलाया जा रहा है। हर दूसरे-तीसरे दिन नुपूर शर्मा को लेकर कोई न कोई खबर दिल्ली से प्रकाशित अखबारों के पहले पन्ने पर होती ही है। आज की खबर है कि वह कोई आतंकी संगठन के निशाने पर थीं/ हैं। यूपी पुलिस ने सहारनपुर से एक नौजवान को गिरफ्तार किया है, जिसकी तस्वीर अखबारों ने यह मानते हुए छाप दिया है कि पुलिस जो कह रही है, वही सत्य है, वही शिव और वही सुंदर है।
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हो सकता है कि पुलिस जो कह रही है, वह सच हो और यह भी हो सकता है कि जांच के दौरान मामला वैसा ना भी हो। चूंकि हाल के वर्षों में कई सारे मामले अदालतों द्वारा गलत ठहराए गए हैं। लेकिन मैं सोच रहा हूं उस नौजवान के बारे में, जिसकी तस्वीर अखबार के पहले पन्ने पर प्रकाशित कर दी गई है और बिना अदालती आदेश के उसे अपराधी और आतंकी साबित कर दिया गया है। आनेवाले समय में यदि अदालत ने उसे निर्दोष पाया तो क्या होगा? क्या पुलिस उसके साथ हुए अन्याय की भरपाई कर सकेगी?
तो मुझे लगता है कि यह भी एक तरह का बिगूचन ही है। खैर जो हो, जांच का काम पुलिस और निष्कर्ष पर पहुंचने का काम अदालतों का है। मैं तो आज की सुबह के बारे में सोच रहा हूं और बगल के सड़क से गुजर रहे मजदूरों को देख रहा हूं। ये दिल्ली जल बोर्ड के गैर-पंजीकृत मजदूर हैं। इनके हाथों में और कंधे पर औजार हैं। ये सभी रोज रात के अंधेरे में लौटते हैं। मैं भी इन्हें लौटते हुए कम ही देख पाता हूं।
एक कविता कल रात में सूझी थी–
तुम रखो अपना देश
इस देश को अपनी बपौती माननेवालों
और गाते रहो
अपनी मर्जी के गीत
फहराते रहो झंडा
हमारे पास रहने दो
हमारा घना जंगल
हमारे हंसते पहाड़
खिलखिलाती नदियां
और हमारे हरे-भरे खेत।
पेड़ों को साक्षी मान
हम गाएंगे अपने तराने
नाचेंगे हम अपनी ताल पर
हम पूजेंगे अपने पुरखे।
तुम पूजते रहो अपने पत्थर
मानते रहो पाखंड कि
इस जनम के बाद भी है
कोई तुम्हारा अजर-अमर राम
और बजाते रहो शंख कि
यह देश तुम्हारा है
और तुम इसके भाग्यविधाता हो।
हां, हमारे पास रहने दो
हमारा घना जंगल
हमारे हंसते पहाड़
खिलखिलाती नदियां
और हमारे हरे-भरे खेत।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।