जैसे नैतिक बातों का ईजाद सभ्यता के साथ हुआ,वैसे ही गालियाँ और अपशब्द कहने की शुरुआत भी सभ्यता के आने के साथ हुई होगी। इसका कोई लिखित इतिहास है नहीं इसीलिए इसे अनुमान से कहा जा सकता है। मन जब खुश हो तो चहकता है,बोलता-बतियाता है,वैसे ही नाराजगी या गुस्सा आने पर अनेक लोगों के मुंह से गालियाँ झरती हैं। समाज में पितृसत्ता हावी है इसीलिए सभी गालियाँ स्त्रीसूचक होती हैं और ये गालियाँ पुरुष ही नहीं बल्कि स्त्रियाँ भी देती हैं।
हमारा देश आजादी का 75वां जश्न मना रहा है। भारत सरकार ने इसे अमृत महोत्सव कहा है और मैं हूं कि अमृत के बारे में सोच रहा हूं। बचपन में अमृत का मतलब केवल एक ही होता था और वह था करीब आधा लीटर भैंस का दूध। चूंकि मेरा जन्म मवेशीपालक परिवार में हुआ है तो मेरे घर में भैंसें पाली जाती थीं और मेरे मम्मी-पापा उसके दूध को अमृत ही कहते थे। बाद में जब हिंदू ग्रंथों को पढ़ा तब जाना किअमृत भैंस के दूध को नहीं कहते। अमृत तो एक खास तरह का द्रव होता था, जिसके पान से आदमी जन्म और मृत्यु के चक्र से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त हो जाता था। हालांकि ग्रंथों में यह भी कहा गया है कि जो अमृत समुद्र मंथन में हासिल हुआ, उसे छल से देवताओं ने अपने बीच ही वितरित कर लिया।
खैर, मैं भी भारत सरकार के अमृत महोत्सव को इसी रूप में लेता हूं कि 14-15 अगस्त, 1947 को सत्तारूपी अमृत जो हासिल हुआ, उसे इस देश के देवताओं यानी ऊंची जाति के लोगों ने आपस में बांट लिया। फिर चाहे वह शासन-प्रशासन में भागीदारी हो या फिर संसाधनों पर अधिकार। रही बात गरीब और उपेक्षित जातियों की तो उनके हिस्से रोज-रोज का संघर्ष है और गालियां हैं।
व्यक्तिवाचक गालियों के केंद्र में महिलाएं होती हैं। इनमें मां, बेटी और बहन शामिल है। पत्नी को लगाकर गालियां देते मैंने आजतक नहीं सुना है। इसकी भी कोई न कोई वजह जरूर होगी। परिवार के स्तर पर भी सबसे अधिक गालियां सुननेवाला पत्नी का भाई होता है। उसके लिए तो हिंदी में एक खास शब्द ही है– साला, स्साला, स्साले।
