बीता 10 अगस्त, 2021 सामाजिक न्याय के लिहाज़ से संभवतः 2021 का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन रहा। इस दिन आरक्षण को लेकर कुछ ऐसी बातें हुई हैं, जो सामाजिक न्याय के अध्याय में कुछ नए पन्ने जोड़ सकती हैं। 10 अगस्त को लोकसभा में 127वें संशोधन के जरिये ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) जातियों की पहचान करने और सूची बनाने का राज्यों का अधिकार फिर से बहाल करने का प्रस्ताव भारी बहुमत से पास हो गया। इसी दिन संसद में कोर्ट द्वारा निर्दिष्ट आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा टूटने के लक्षण दिखे। उसी दिन सपा मुखिया अखिलेश यादव का मंडल, आरक्षण और जाति जनगणना पर वह अभूतपूर्व बयान आया जिसे सुनने के लिए सामाजिक न्यायवादी वर्षों से तरस रहे थे। उसी दिन 10 अगस्त को ही संघ की ओर से आरक्षण पर एक ऐसा अभूतपूर्व बयान आया, जिसे सुनने के बावजूद लोगों को विश्वास नहीं हो रहा है।
“अपने राजनीतिक संगठन के जरिये देश पर शासन कर रहे संघ ने मुख्यतः बहुसंख्य वंचितों की सापेक्षिक वंचना से चिंतित होकर ही ऐसा बयान दिया है और सापेक्षिक वंचना के खतरे से पार पाने के लिए वह बहुजनों के हित में कुछ सकारात्मक कदम उठा सकता है। इसलिए वंचित वर्गों के बुद्धिजीवियों को चाहिए उसके बयान का मखौल उड़ाने के बजाय आरक्षण पर संघ का टेस्ट लें और जल्दी से लेना शुरू करें।”
उस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाहक दत्तात्रेय होसबोले ने आरक्षण पर एक बेहद अहम बयान दिया, जिसे सुनकर आरक्षण के खात्मे से भयाक्रांत ढेरों लोगों ने राहत की सांस ली होगी। उन्होंने कहा कि संघ आरक्षण का प्रबल समर्थक है और जबतक समाज का एक विशेष वर्ग असमानता का अनुभव करता है तब तक इसे जारी रखना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि भारत का इतिहास पिछड़े व दलितों के इतिहास के बगैर अधूरा है। वे सामाजिक परिवर्तन में अग्रणी रहे हैं। उन्होंने आरक्षण को सकारात्मक कार्रवाई का जरिया बताया। यह बातें उन्होंने गुरु प्रकाश पासवान और सुदर्शन रामाबद्रन द्वारा लिखी गयी पुस्तक मेकर्स ऑफ़ मॉडर्न दलित हिस्ट्री के विमोचन के लिए इंडिया फाउंडेशन की ओर से दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में आयोजित कार्यक्रम में कही। आरक्षण की बात करते हुए उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा कि वह और उनका संगठन आरएसएस ‘आरक्षण के पुरजोर समर्थक हैं। सौहार्द व सामाजिक न्याय हमारे लिए राजनीतिक रणनीतियां नहीं हैं। ये दोनों हमारे लिए आस्था की वस्तु हैं।’ उन्होंने भारत के लिए आरक्षण को एक’ ऐतिहासिक जरुरत’ बताया व कहा कि यह तबतक जारी रहना चाहिए, जब तक समाज के एक वर्ग विशेष को असमानता का अनुभव होता है। आरक्षण और समन्वय साथ-साथ चलना चाहिए। संघ के सरकार्यवाह होसबोले ने यह भी कहा कि सामाजिक बदलाव का नेतृत्व करने वाली विभूतियों को ‘दलित नेता’ कहना अनुचित होगा, क्योंकि वे पूरे समाज के नेता थे।’ अंत में उन्होंने जोरदार तरीके से कहा,’ जब हम समाज के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हैं तो निश्चित रूप से आरक्षण जैसे कुछ पहलू सामने आते हैं। मेरा संगठन और मैं दशकों से आरक्षण के प्रबल समर्थक हैं.जब कई परिसरों में आरक्षण विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे, तब हमने पटना में आरक्षण के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया और एक संगोष्ठी आयोजित की।’
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यही है आरक्षण पर संघ का वह बयान जिसे सुनकर लोग चकित हुए बिना न रह सके। खुद मुझे भी इस पर भारी विस्मय हुआ। ऐसे में मैंने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए फेसबुक पर एक पोस्ट डालकर संघ की ओर से आरक्षण के समर्थन में आये जबरदस्त बयान का निहितार्थ जानने का प्रयास किया। इस पर विद्वान मित्रों की जो राय आई वह संघ समर्थकों के लिए निश्चय ही सुखद नहीं होगी। चर्चित सामाजिक कार्यकर्त्ता कामेश्वर कामती के अनुसार ‘यह बयान उत्तर प्रदेश चुनाव को ध्यान में रखकर जारी किया गया है’। इससे आगे बढ़कर उन्होंने कहा है,’आरएसएस से संस्कारित व्यक्ति मोदी जैसा ही झूठा होता है। हमें बस उसके बयान का उपयोग करना है, उसके इरादे पर यकीन कभी नहीं करना। होसबोले 2022 और 2024 के लिए जुमले फ़ेंक रहा है।’ मशहूर शिक्षाविद सुब्रतो चटर्जी ने इसे ,’ विशुद्ध फ्रॉड’ करार देते हुए लिखा है,’ आप भी कहाँ इन दो मुहें लोगों की बातों में फँस जाते हैं। ये तो सरकारी उपक्रम और सरकारी नौकरियों को जान बूझकर ख़त्म कर रहे हैं ताकि आरक्षण का लाभ नौकरियों में वंचित समूहों को न मिले सके।’ मोहन सिंह का उत्तर रहा,’ निहितार्थ है कि अबतक 15 लाख नहीं मिले। दो करोड़ नौकरियां भी नहीं मिलीं और फिर भी शिकारी ने नया दाना डालकर अपना जाल बिछाया है अगले चुनाव के लिए। अब शिकार को समझना कि दाना चुगने की बेवकूफी में फंसता है या कुछ अन्य विकल्प की तलाश करता है’। मोहन सिंह के उत्तर पर कमेन्ट करते हुए प्राख्यात आलोचक कर्मेंदु शिशिर ने कहा है,’जी, इस पर विश्वास? भूलकर भी नहीं!’ बीएचयू की प्रोफ़ेसर उर्वशी गहलौत के मुताबिक संघ के बयान के पीछे,’ केवल वोट बैंक है’। एडवोकेट आरआर बाग़ का कमेन्ट है,’ आरक्षण रहे मगर हम उसका निजीकरण करते रहेंगे। आरएसएस ये नही कहेगा कि हम असमानता दूर करेंगे या निजी क्षेत्र में भी आरक्षण लागू करेंगे। रमेश राम का कहना है,’ ये बहुत बड़े शातिर लोग हैं. इन की बातों पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।’
सोशल एक्टिविस्ट देवेश चौधरी ने निहितार्थ बताते हुए लिखा,’ ये आरएसएस का दोमुंहापन है, अपने कोर वोटर को संदेश है कि ऐसा कुछ नहीं है और बहुजनों को संदेश है कि आरएसएस बदल रहा है, अगर इनकी कथनी-करनी में समानता होती तो ये अपने पूर्व सरसंघचालक नफरत के सौदागर माधव सदाशिव गोलवलकर की बंच ऑफ़ थाट्स का बहिष्कार करते।’ एससी अम्बा का कमेन्ट है,’हमारे सीधे-सादे बहुजन भी आरएसएस के झूठे प्रचारतंत्र में फँस कर उसकी झूठी अफवाहों का प्रचार करने लगते हैं! मनुवादियों को अच्छा ख़ासा प्रचार मिल जाता है..! मनुवादियों का खिलौना बन जाते हैं..! भारत श्रेष्ठ बहुजन पत्रकार दिलीप मंडल ने लिखा ,’आरएसएस कह रहा है कि वह पिछड़ी जातियों के आरक्षण का समर्थक रहा है. आरएसएस के नंबर- 2 होसबोले का बयान आया है. लेकिन मेरी लाइब्रेरी बता रही है कि आरएसएस झूठ बोल रहा है. 3 दिसंबर, 1978 को उस समय के चीफ बाला साहब देवरस ने आर्थिक आधार की मांग उठाकर, पिछड़ी जातियों के आरक्षण का विरोध किया था’।
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तो निष्कर्ष यही है कि प्रायः शत-प्रतिशत लोगों के हिसाब से संघ के दूसरे नंबर के सर्वोच्च पदार्धिकारी होसबोले ने आरक्षण पर अपना बयान 2022 और 2024 के चुनाव को ध्यान में रखकर उछाला है और आरक्षण के खात्मे के लिए निजीकरण का सैलाब पैदा करने वाला संघ आरक्षण का समर्थक है, यह बात झूठ है. जहाँ तक मेरी खुद की राय का सवाल है, वह फेसबुक पर सक्रिय विद्वानों से काफी अलग है। हालाँकि मैं भी मानता हूँ कि होसबोले का बयान 2022 और 2024 के चुनाव से प्रेरित है। लेकिन तमाम राजनीतिक दलों की गतिविधियाँ और उनके बयान ही चुनाव को ध्यान में रखकर जारी किये जाते हैं। इसलिए देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के मातृ संगठन का बयान भावी चुनाव से प्रेरित होगा, इसमें कौन बड़ी बात है। बावजूद इसके मेरा मानना है कि संघ के अभूतपूर्व आरक्षण समर्थन बयान के पीछे मुख्यतः तीन कारण पूंजीभूत हुए हैं। पहला, प्रायश्चितबोध, दूसरा, हिन्दू राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य के पूर्ति की आश्वस्ति और तीसरा सापेक्षिक वंचना का भय!
“संघ सत्ता पर काबिज अपने राजनीतिक संगठन के जरिये मनु के लॉ को लागू करने में सफल न हो, पर विनिवेशीकरण,निजीकरण, लैटरल इंट्री इत्यादि के जरिये शक्ति के समस्त स्रोत प्रायः इच्छित परिमाण में उच्च वर्णों के हाथ में सौंपने में सफल हो चुका है।”
जहां तक प्रायश्चितबोध का प्रश्न है, संघ के संचालक भी हाड़-मांस के बने हैं, इसलिए उनमें भी अपने अमानवीय कृत्य को लेकर अनुसोचना/प्रायश्चित का भाव पनप सकता है। संघ के लोगों को इस बात का इल्म होगा कि वे जिस हिन्दू-धर्म के ठेकेदार बने हुए हैं, उसकी प्राणाधार वर्ण-व्यवस्था मुख्यतः शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षिक –धार्मिक) के बंटवारे की व्यवस्था रही है, जिसमें स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता तथा कर्म-संकरता (प्रोफेशनल मोबिलिटी) की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप भिन्न-भिन्न पेशे/कर्म चिरकाल के लिये भिन्न-भिन्न वर्णों के लिए निर्दिष्ट होकर रह गए। इससे वर्ण-व्यवस्था एक आरक्षण ने व्यवस्था का रूप, जिसे हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहा जाता है, अखित्यार करने के लिए अभिशप्त हुई। हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत हिन्दू-ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे द्विज समुदायों के लिए आरक्षित होकर रह गये।
हिन्दू आरक्षण में होसबोले की भाषा में जिन दलित-पिछड़ों के बगैर भारत का इतिहास अधूरा है, उनके हिस्से में शक्ति के स्रोतों का एक बूँद भी नहीं आया। उनके हिस्से में आई सिर्फ तीन उच्चतर वर्णों की सेवा। वह भी पारिश्रमिक रहित। वे हिन्दू आरक्षण में आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे। कृषि के प्राचीन उपकरणों के सहारे वे फसल उगाकर राष्ट्र का पेट भरते रहे, पर उत्पादित फसल पर अधिकार उनके मालिकों, तीन उच्चतर वर्णों का रहा। आधुनिक भारत में संघ की भाषा में सामाजिक बदलाव का नेतृत्व करने वाली विभूतियों (फुले, शाहूजी, पेरियार और डॉ आंबेडकर) के प्रयासों से स्वाधीन भारत में जब वंचितों को आरक्षण मिला, इसे लागू करने वाले सुविधाभोगी वर्ग के लोग पहले तो ‘पदों के लिए उम्मीदवार उपलब्ध नहीं है’ के नाम पर वंचितों को आरक्षण से महरूम करते रहे. बाद में ‘पदों के लिए योग्य उम्मेदवार नहीं हैं’ बताकर आरक्षण को व्यर्थ किया जाता रहा और मंडल के बाद यह कर आरक्षण से वंचित किया जाता रहा कि ‘आरक्षित पदों के योग्य उम्मीदवार तो हैं,पर स्वीकार योग्य नहीं हैं।’
स्वाधीन भारत में यहां का प्रभुवर्ग जहाँ तरह-तरह की तिकड़में भिड़ाकर‘सामाजिक परिवर्तन में अग्रणी रहे’ लोगों को आरक्षण से वंचित करने का कुचक्र रचते रहे, वहीं 24 जुलाई, 1991 को ग्रहीत नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर उनके खिलाफ प्रायः खुला युद्ध ही छेड़ दिया गया, जिसके फलस्वरूप संघ से निकले भाजपा के वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी को 5 अगस्त, 2018 को यह घोषणा करनी पड़ी,’सरकारी नौकरियां ख़त्म हो गयी हैं, इसलिए आरक्षण का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है’। अब जो आरक्षित वर्ग प्रायः भूमिहीन स्थिति में है, जो जन्मगत कारणों से व्यवसाय-वाणिज्य से इस तरह बहिष्कृत है कि जाति का परिचय देकर चाय-पकोड़े की दुकान तक नहीं खोल सकता एवं जिसके मुख्यधारा से जुड़ने का प्रधान स्रोत आरक्षण था, उस आरक्षण को नवउदारीकरण की नीति के जरिये कागजों की शोभा बनाकर दलित-वंचितों को जिस स्टेज में पहुंचा दिया गया है, उसकी कल्पना करके किसी किसी भी संवेदनशील मानव समुदाय व संगठन में प्रायश्चित का भाव पनप सकता है, खासतौर से यदि वह कहीं से खुद को इसके लिए जिम्मेवार समझता हो तो। और इसमें कोई शक नहीं कि आरक्षित वर्गों की दशा निहायत ही कारुणिक बनाने में संघ के राजनीतिक संगठन की विराट भूमिका है। प्रायश्चितबोध के बाद संघ के आरक्षण समर्थक बयान के पीछे दूसरा कारण हिन्दू राष्ट्र के इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति है। कोई माने या न माने हिन्दू राष्ट्र निर्माण के पीछे संघ का प्रधान लक्ष्य हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु-जंघे) से जन्मे लोगों के हाथों में शक्ति के समस्त स्रोत सौंपना और अम्बेडकरी संविधान के बजाय के मनु के लॉ के हिसाब से समाज को परिचालित करना है। संघ सत्ता पर काबिज अपने राजनीतिक संगठन के जरिये मनु के लॉ को लागू करने में सफल न हो, पर विनिवेशीकरण,निजीकरण, लैटरल इंट्री इत्यादि के जरिये शक्ति के समस्त स्रोत प्रायः इच्छित परिमाण में उच्च वर्णों के हाथ में सौंपने में सफल हो चुका है। अतः एक ऐसे समय में जबकि नितिन गडकरी के शब्दों आरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह गया, हिन्दू राष्ट्र के असल लक्ष्य को हासिल करने के बाद आरक्षण समर्थन में उतरने में कोई दिक्कत नजर न आ रही हो। होसबोले के आरक्षण समर्थन बयान के पीछे मुझे तीसरा कारण वंचितों में पनपती सापेक्षिक-वंचना (रिलेटिव डिप्राइवेशन) का भाव नजर आ रहा है। मंडलोत्तर भारत में जिस तरह आरक्षित वर्गों के खिलाफ नवउदारीकरण को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सारा कुछ सुविधाभोगी वर्गों के हाथ में सौंपने के काम हुआ, इससे वंचित वर्गों में सापेक्षिक वंचना का वह भाव शिखर को छूता दिख रहा है, जो क्रांति की आग में घी का काम करता है। शासक वर्गों ने अपने वर्गीय-हित में नीतियां बनाकर बहुसंख्य वंचितों में वंचना का जो भाव भरा है, उससे शासक समुदाय खुद संकट में घिर गया है। ऐसे में उपरोक्त तीन खास कारणों से आरक्षण के समर्थन में अभूतपूर्व बयान जारी किया है।
मुझे लगता है अपने राजनीतिक संगठन के जरिये देश पर शासन कर रहे संघ ने मुख्यतः बहुसंख्य वंचितों की सापेक्षिक वंचना से चिंतित होकर ही ऐसा बयान दिया है और सापेक्षिक वंचना के खतरे से पार पाने के लिए वह बहुजनों के हित में कुछ सकारात्मक कदम उठा सकता है। इसलिए वंचित वर्गों के बुद्धिजीवियों को चाहिए उसके बयान का मखौल उड़ाने के बजाय आरक्षण पर संघ का टेस्ट लें और जल्दी से लेना शुरू करें। इसके लिए जरुरी है आरक्षित वर्गों के बुद्धिजीवी/ एक्टिविस्ट विभिन्न सेक्टरों में नौकरियों का बैकलॉग भरने, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग परिवहन इत्यादि में आरक्षण के लिए संघ प्रमुख के समक्ष ज्ञापन दें। तमिलनाडु के तर्ज पर देश भर के मंदिरों में आरक्षित वर्गों के पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि के लिए ज्ञापन दें। अगर संघ इन मांगों पर सकारात्मक रुख अपनाता है तब तो इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता। अगर नहीं अपनाता है तब उसके बयान की कलई खुल जाएगी। इसके लिए जरूरी है 2022 के यूपी चुनाव के पहले ही संघ का आरक्षण पर टेस्ट ले लिया जाय।
बहुजनों का अधिकार है। उसे स्वयं नेतृत्व करना चाहिए। बोलने और समर्थन पर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है।
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