Friday, March 29, 2024
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दीवारों में चिनी हुई चीखें -3

तीसरा और अंतिम हिस्सा  उन दिनों नूं रानियां ( बहूरानियां ) सिर्फ कहने को रानियां थीं, औकात दासियों से बदतर थी। अपनी मर्जी से कोई फैसला लेने की इजाज़त उन्हें नहीं थी। घर में टाइम बेटाइम कितने भी मेहमान आ जाएं, खाना एक डेढ़ घंटे में तैयार करना पड़ता था। तब आज की तरह होटलों […]

तीसरा और अंतिम हिस्सा 

उन दिनों नूं रानियां ( बहूरानियां ) सिर्फ कहने को रानियां थीं, औकात दासियों से बदतर थी। अपनी मर्जी से कोई फैसला लेने की इजाज़त उन्हें नहीं थी। घर में टाइम बेटाइम कितने भी मेहमान आ जाएं, खाना एक डेढ़ घंटे में तैयार करना पड़ता था। तब आज की तरह होटलों से पका पकाया खाना मंगवाने का रिवाज नहीं था। आखिर घर में औरत होती किसलिए है, बाहर जाकर मर्द कमाकर लाता है तो इसीलिए न कि खाना समय पर मिले, ढंग का मिले और जितने बंदे नजर आएं, सबको मिले। क्या मजाल कि खाने के वक्त कोई आ जाए और रसोई से थाल सज कर न आए। घर में औरत होने का मतलब ही था – रसोई के अक्षय पात्र का कभी खाली न होना। मां, जो शादी से पहले अपनी सधी हुई खूबसूरत हस्तलिपि में कविताएं लिखती थीं, अपनी सारी रचनात्मकता या तो हम बहनों के लिए बचे खुचे डिजाइनदार कपड़ों की फ्रिल वाली फ्रॉक सिलने में या सोया आलू, गोभी और मूली के परांठे और तंदूरी लच्छेदार रोटी को उंगलियां चाट चाट कर खाने लायक बनाने में तलाशरही थीं। ये लजीज परांठे उन दिनों यानी 1956-57 में पापा के मित्र राजेंद्र यादव ने भी हर रविवार की दुपहर खाए थे। एक गृहिणी की तृप्ति मां के चेहरे से झलकती थी। साड़ियों के बॉर्डर पर खुद आंककर या कई बार बगैर डिजाइन बनाए भी मां ने ऐसी खूबसूरत कशीदाकारी की थी कि एहतियात से रखी हुई उन साड़ियों को आज भी जब मैं पहनती हूं, सब पूछते हैं कि ऐसी ऑरगैन्डी पर ऐसी कढ़ाई तो कभी देखी नहीं। …… वे क्रोशिए की झालरें बनाने का काम भी ऐसे डूबकर करती थीं जैसे कोई इबारत लिख रही हों ।

धीरे धीरे मौसा और पापा के बीच की बर्फ पिघली और उन्होंने पहले की तरह पंडित इब्राहिम के कबाब खाकर अंग्रेजी सिनेमा देखने जाना शुरू कर दिया। मौसा घर की सीढ़ियां नहीं चढ़ते, नीचे से ही पापा को छोड़ गाड़ी घुमाकर चले जाते। आखिर एक दिन मां ने मौसा को घेरघार कर बुलवाया और पूछा – हम दोनों बहनों को आपस में न मिलने देने की क्या कौल उठा रखी है। तोष  को बच्चों के पास आने दो, जिंदगी भर आपका एहसान मेरे सिर रहेगा।

अगली बार मौसा आए तो पापा को लेकर चले गए और मौसी को मां के पास छोड़ गए।

एक डेढ़ साल बाद दोनों बहनें मिल रही थीं। मौसी जिस तरह आकर मां के कलेजे में दुबक कर पूरा गला खोलकर जैसे चिंघाड़कर रोईं, उन चीखों ने घर की दीवारों को भी हिला दिया था। शादी के बाद वह रईस घर की बहूरानी पहली बार अपने भीतर का सबकुछ बाहर निकालकर रख रही थी। मैं उन चीखों को कभी नहीं भूली। वे चीखें दिमाग के एक कोने में जड़ें जमाकर बैठ गई थीं जिनका मतलब आज समझ पा रही हूं । …. और यह भी नहीं भूली कि जब मैंने मां से पूछा कि तोष मासी को क्या हुआ है, मां ने कहा – उसे अपनी बेटी याद आ गई है। उस चार तल्ले के चढ़ाई वाले मकान में, जहां तीसरे तल्ले पर मौसी का परिवार रहता था, मौसी की दूसरी बेटी डेढ़ दो साल की ही थी जब बाल्कनी की दीवार पर फलांग कर नीचे देखने की कोशिश में तीसरे तल्ले से गिर कर गुजर गई थी।

[bs-quote quote=”मौसी गहरी नींद सो गई थीं। सारी जिंदगी मौसा जी के कहने पर चलती रही थीं। उनकी तर्जनी का इशारा समझती थीं। मौसा जी की तर्जनी उठी और मौसी की आंखें नीची। उनका कहा सिर माथे लेती रहीं। अब बगावत पर उतर आई थीं। उनकी शांत मुख मुद्रा कह रही थी – अपने भैणजी – अपनी मां – से मिलने से अब नहीं रोक पाओगे मुझे।

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बगैर कुछ समझे बूझे भी मैने मौसी के गाल पोंछे और उन्हें पुचकारा तो वे मुझसे लिपट कर भी खूब रोईं और बोलती रहीं – ‘सुधे, मैंनू नां रोक। मैंनूं जी भर के रो लैन दे !’ मौसी ने मुझे कभी सुधा नहीं कहा। हमेशा सुधे या सुधी कहती थीं। ऐसा रोना और ऐसी चीखें तब समझ में नहीं आई थीं, आज समझ में आती हैं कि इस तरह से एक औरत तभी रोती है, जब वह अपने सामने अपने सारे सपनों को मरते हुए देख रही होती है और कुछ कर नहीं पाती। ऐसी चीखें एक औरत की लाचारी और बेबसी के मुहाने से अपने आप फूट निकलती हैं।

कुछ देर बाद जब मौसा उन्हें घर लिवा जाने के लिए आए तो उनके पूछने पर कि हमारी बेगम की आंखें क्यों सूजी हुई हैं, मां ने कहा – ‘इसके पेट में बड़ा सख्त दर्द हो गया था’

मौसा ने व्यंग्य से मासी से कहा – ‘क्यों तेरी भैणजी ने अज्ज कुछ ज्यादा ही खातिरदारी कर दी ? …..’

खैर , इसके बाद सब सामान्य हो गया। पहले की तरह आना-जाना, मिलना – बैठना। शादी ब्याह में एक जैसे जड़ाऊ गहने बनवाना। सारे बच्चों की शादियां हो गईं। पोते पोतियों, दोहते दोहतियों से घर भर गया। पर दोनों बहनों को दिल का रोग लग गया। मां को कुछ ज्यादा, मौसी को कुछ कम। दोनों के नाजुक दिलों ने अपने अपने पतियों और बच्चों से कुछ कम झटके नहीं खाए थे।

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दोनों परिवारों ने अपने अपने हिस्से के दुख झेले जिसके चलते पापा अपने गुरु गंगेष्वरानंद जी की बताई लीक पर चलकर अपने घर की छत पर बने मंदिर में चारों वेद की प्रतिष्ठा कर रोज सुबह शाम वेदपाठ करने लगे और पूरी तरह शाकाहारी हो गए और मौसा भी कलकत्ता की अपनी सारी जमीन जायदाद बेचकर राधास्वामी की संगत में व्यास जाकर बस गए। उनका पूरी तरह शाकाहारी हो जाना हमारे लिए एक धक्के से कम नहीं था। मां व्यास जा नहीं सकती थीं। कलकत्ता से बाहर जाने के नाम पर वह सिर्फ मेरे पास बम्बई आती थीं। मौसी की दो बेटियां कलकत्ता में थीं, एक अमेरिका में। कलकत्ता की अपनी दोनों बेटियों से मिलने जब भी मौसी मौसा व्यास से कलकत्ता आते, मां पापा उछाह से भर जाते ।

11 दिसंबर 1999 – मां अपने दामाद के साथ कलकत्ता से आ रही हैं, सुनकर मैं चौंकी थी। कोई तैयारी नहीं थी मां की। बस, 10 दिसम्बर की रात यूं ही मैंने मां से कहा – हम पवई में अपना नया घर देखने जा रहे हैं, आप भी इनके साथ क्यों नहीं आ जाते? मां आ नहीं सकती थीं, मुझे मालूम था। दो महीने पहले ही मां अस्पताल से लौटी थीं और सबको मना कर दिया था कि सुधा को मेरी बीमारी के बारे में मत बताना, बेकार परेशान होगी। अस्पताल से लौटकर मुझे बताया तो मैंने डांटा था कि मुझे बताया क्यों नहीं। मां की एक ही बात – तू इतनी दूर बैठे कुछ कर तो सकती नहीं, फिर बताना क्या। अब आ गई हूं न। और ठीक हूं। मां ने कहा और मैंने मान लिया। यही कहतीं – बस, ईश्वर से यही मनाती हूं कि मुझे किसी का मोहताज न बनाए, अपने हाथ पैर चलते फिरते मुझे उठा ले, जैसे तेरी नानी गई। मुझे किसी से सेवा नहीं करवानी।

12 दिसम्बर को हमने नए घर में छोटा सा हवन करवाया। मां साथ बैठीं। पर इस बार मां बहुत चुप चुप थीं। तीन दिन तक लगातार वह जनसत्ता में लिखे मेरे कॉलम वामा की कतरनें पढ़ती रहीं।  ‘हेल्प’ में आए कई केसेज के बारे में सुनती रहीं। मेरे लिखे हुए को सराहती रही। मेरे हाथ पकड़ कर कहा – अब लिखना कभी मत छोड़ना जैसे पहले इतने साल छोड़ दिया था। मां ने संकेतों में कुछ बातें कीं – कभी अपने बारे में बताउंगी तुझे, मैंने क्या कुछ नहीं झेला। मां की आंखें लगातार पनियाती रहीं। मैंने एक बार डांट भी दिया – अब अतीत में जीना छोड़ो, बच्चों को लेकर जो गलतियां हो गईं, उन्हें अनहुआ नहीं किया जा सकता, आगे की सोचो। मां कैसे भूल सकती थीं। बच्चे ही तो उनकी जान थे। उन्हें बरबादी की कगार पर खुली आंखों से देख नहीं पा रही थीं। मैंने भी उन्हें ज्यादा कुरेदा नहीं।

13, 14 और 15 को वह धीरे-धीरे घिसटती सी मेरे साथ साथ हर उस जगह जाती रहीं, जहां-जहां मैं उन्हें ले गई – नये घर के लिए माहिम में किचन का फर्नीचर पसंद करने, परदे के कपड़े देखने …। 15 की रात हमलोगों ने आठ बजे खाना खाया और बाकी खाना ढँक कर रख दिया। मां ने दस बजे के करीब खाना खोलकर देखा और मुझे कहा -‘ये तूने क्या घास फूस जैसा खाना रख दिया है, गुंजन टमाटर नहीं खाती तो क्या जरूरी है कि घर के सारे बंदे टमाटर खाना छोड़ दे। खाने का कोई रूप रंग तो हो।’

फूलगोभी आलू की सब्जी और चावल का डोंगा उन्होंने उठाया और बड़े प्यार से चावलों के लिए कढ़ाही में एक चम्मच देसी घी में अतिरिक्त जीरे हींग का बघार देकर बारीक बारीक टमाटर काट कर भूने। गोभी आलू की सब्जी में भी ऐसा ही छौंक लगाया और अपने लाड़ले दामाद के लिए सब्जी और चावलों की रंगत बदल दी। कमरा मसालों की महक से गमकने लगा। उनका लाड़ला दामाद रात देर से लौटा और प्रेम से खाना खाकर टी.वी. देखने बैठ गया।

[bs-quote quote=”मां, जो शादी से पहले अपनी सधी हुई खूबसूरत हस्तलिपि में कविताएं लिखती थीं, अपनी सारी रचनात्मकता या तो हम बहनों के लिए बचे खुचे डिजाइनदार कपड़ों की फ्रिल वाली फ्रॉक सिलने में या सोया आलू, गोभी और मूली के परांठे और तंदूरी लच्छेदार रोटी को उंगलियां चाट चाट कर खाने लायक बनाने में तलाशरही थीं। ये लजीज परांठे उन दिनों यानी 1956-57 में पापा के मित्र राजेंद्र यादव ने भी हर रविवार की दुपहर खाए थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तभी कलकत्ता से फोन आया कि मेरी छोटी बहन आई.सी.यू. में दाखिल है। उसे एस्थमा का अटैक आया है। सर्दियों में बहन को दमे का एकाध अटैक आता ही था। कोई नई बात नहीं थी। हम अपने अपने काम में लगे रहे। मां थोड़ी देर बाल्कनी से बाहर देखती रहीं, फिर बेचैन सी टहलने लगीं। उनके दामाद ने उन्हें अपने पास टी.वी. देखने के लिए बिठा लिया। मां कुछ देर बैठीं, किसी से कुछ बोलीं नहीं। उन्हें बार बार बाथरूम जाना पड़ रहा था और अचानक उल्टियां शुरू हो गईं। मां सीना दबाकर बैठी रहीं, बोलीं – ऐसा दर्द तो मुझे कभी नहीं हुआ। काफी देर ऐसे ही आंखें मीचे सीना थामे बैठी रहीं, अचानक तीन बार स्पष्ट उच्चारते हुए बोलीं – ओम् नमो भगवते वासुदेवा! ओम् नमो भगवते वासुदेवा! ओम् नमो भगवते वासुदेवा!……. इसके साथ ही उनके दात भिंच गए और मुंह एक ओर को टेढ़ा होने लगा। मां को डायबटीज थी और यह सायलेंट अटैक था, साथ ही पैरालिटिक स्ट्रोक भी।

मेरी छोटी बेटी गुंजन ने और मैंने उनके ठंडे पड़ते हाथों और तलवों को गर्म करने की कोशिश की। हमने अपने फैमिली डॉक्टर को बुलाया और उसने फौरन एम्बुलेन्स बुलवाई और होली फैमिली नर्सिंग होम, जो हमारे घर के नजदीक था और नामी अस्पताल था, में मां को न डालकर उन्हें किसी हार्ट स्पेशल आराधना नर्सिंग हेम में डाल दिया जहां सभवतः उसे मरीज भेजने का ज्यादा प्रतिशत कट मिलता था। मां ने एम्बुलेंस में लगातार मेरा एक हाथ कस कर पकड़ रखा था और दूसरे हाथ से ना ना का इशारा कर रही थीं। साफ था कि वह अस्पताल ले जाने से मना कर रही थीं। मां समझ रही थीं कि वे जा रही हैं। अस्पताल में डॉक्टरों के असंवेदनशील हाथों से होकर जाना नहीं चाहती थीं पर उनकी शायद यही नियति थी। जिन बच्चों के लिए सारा जीवन हलकान होती रहीं, उन्हें अपनी तबीयत से जरा भी परेशान करना नहीं चाहती थीं। आधी रात को कलकत्ता खबर की। वे 16 दिसंबर की सुबह 5.45 पर आराधना नर्सिंग होम से चुपचाप लंबी यात्रा पर चली गईं। वह एक अलग त्रासद कथा है। फिर कभी। पापा ने सुबह छह बजे की फ्लाइट ले ली थी पर जब तक वे बम्बई पहुंचे, मां जा चुकी थीं।

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मां का पार्थिव शरीर लेकर 16 दिसम्बर 1999 की शाम की फ्लाइट से हम कलकत्ता रवाना हुए। मौसी मौसा को व्यास फोन करके खबर दी जा चुकी थी। रात को अंत्येष्टि के बाद जैसे ही पापा घर पहुंचे, व्यास से मौसी का फोन था। काफी देर तक मौसी फूट फूट कर रोती रहीं, फिर बोलीं – जीजाजी, भैणजी नू टोर आए? बहनजी को विदा कर आए – मेरी मां फेर चली गई ….मौसी ने कहा – जीजाजी, मैं आवांगी …।

दूसरी सुबह फिर रोते हुए मौसी का फोन आया -‘जीजाजी, मैं आना चाहती हूं पर … ये नहीं मान रहे ….’

फोन मौसा जी के हाथ में था – ‘देख लुभाया, इसे समझा। कड़ाके की ठंड है यहां। इस कड़कती ठंड में पहले दिल्ली जाना ….फिर फ्लाइट लेकर कलकत्ते पहुंचना ….इसके जाने से भैणजी तो लौटने वाले नहीं ….’

पापा ने मौसी को समझाया – ‘देख तोषी, जिसने जाना था, वो चली गई, तू अपने को परेशान मत कर।’

मौसी से कुछ बोला नहीं गया। बस, वे फोन पर रोती रहीं। फोन रखते हुए बोलीं – ‘पर मेरा आने का मन था जीजाजी, ये नहीं मान रहे …’

ब्यास। रविवार, 19 दिसम्बर 1999, जिस दिन मां का चौथा था, तोष मौसी सुबह उठीं। नहा धो लिया। रसोई में जाकर चाय बनाई। कलकत्ता से उनकी बड़ी बेटी रीता और दामाद व्यास आए हुए थे और उन्हें सुबह दिल्ली के लिए निकलना था जिनके साथ मौसी भी कलकत्ता आना चाहती थीं अपने भैणजी के चौथे में। चाय बनाकर बेटी दामाद को उठाया – उठो, निकलने का टाइम हो रहा है, चाय पी लो। सबके हाथ में चाय का कप थमाया। अपना कप साथ की तिपाई पर रखा। एक घूंट भरा। तभी अरदास की आवाज कानों में पडी। बेटी दामाद ने देखा – पूरब दिशा की ओर सिर झुकाए मां बैठी है। शायद अरदास कर रही है। चाय का कप बगल में पड़ा है। कुछ देर वैसे ही रहीं तो बेटी ने हिलाया – ‘बीजी, सो गए क्या?’ मौसी हिली नहीं। सिर एक ओर को लुढ़क गया। सब ताकते रह गये।

मौसी गहरी नींद सो गई थीं। सारी जिंदगी मौसा जी के कहने पर चलती रही थीं। उनकी तर्जनी का इशारा समझती थीं। मौसा जी की तर्जनी उठी और मौसी की आंखें नीची। उनका कहा सिर माथे लेती रहीं। अब बगावत पर उतर आई थीं। उनकी शांत मुख मुद्रा कह रही थी – अपने भैणजी – अपनी मां – से मिलने से अब नहीं रोक पाओगे मुझे। मैं कलकत्ता नहीं जा रही। उनसे वहीं मिलूंगी जाकर जहां वे गई हैं। जहां से मुझे चाय बनाने के लिए आवाज नहीं दे पाओगे ….

मृत्यु ही दोनों बहनों के लिए मोक्ष थी। मोक्ष में ही उनका त्राण था। मां जाना नहीं चाहती थीं। या जाने से पहले कम से कम मुझे बहुत कुछ बताना चाहती थीं। वह मुंह बंद रख कर ही चली गईं। छोटी बहन चुपचाप अपनी बड़ी बहन के पीछे पीछे साथ हो लीं। इस बार – शायद ज़िन्दगी में पहली बार उसने अपने पति से इजाज़त नहीं ली। पूछा तक नहीं कि मैं चली जाऊं क्या?

सुबह आठ बजे फोन आया – मौसी नहीं रहीं। सुबह कब कैसे अटैक आया। पता ही नहीं चला। 5.45 पर चली गईं। ठीक वही समय जब चार दिन पहले मां चली गई थीं।

मां के चौथे पर गुरुद्वारे से रागी बुलाए गए थे जिन्होंने ऐसी बानियां सुनाई कि सबके रोंगटे खड़े हो गए। ऐसी रस पगी बानियां मैंने पहले कभी नहीं सुनी थीं। वे वाहेगुरु और सतनाम के एक होने को श्रद्धांजलि दे रही थीं। जब जब सतनाम श्री वाहेगुरु कहा जाता, मेरी आंखों के सामने दोनों बहनें आकर खड़ी हो जातीं।

दस साल बाद आज भी मां और मौसी – दोनों मेरी आंखों के सामने हैं जब मैं ये पंक्तियां लिख रही हूं। दस साल लग गए मुझे इसे लिखने में। मैं जानती हूं, इस घर की अब मेरे सिरहाने आकर नहीं बैठेंगी। मैंने इसे लिखकर उनका तर्पण जो कर दिया है।

(2010 में हंस में पूर्व प्रकाशित )

sudha arora

 

 

 

 

सुधा अरोड़ा जानी-मानी कथाकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

गाँव के लोग
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