Friday, April 19, 2024
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मां की कविताएं उन किताबों में से गुम होती चली गईं जिन्हें छिपाकर दहेज के साथ ले आई थीं-1

पहला हिस्सा  मैं जब भी यहां, अपने मायके कलकत्ता आती हूं,  इस कमरे के बिस्तर के इस किनारे पर जरूर लेटती हूं- जहां मां लेटा करती थीं क्योंकि यहां से सामने रसोई दिखती है। रसोई में पकता खाना, वहां हो रहे सब क्रिया-कलाप यहां लेटकर दिखाई देते हैं ….. और बिस्तर के ठीक सामने लगे […]

पहला हिस्सा 

मैं जब भी यहां, अपने मायके कलकत्ता आती हूं,  इस कमरे के बिस्तर के इस किनारे पर जरूर लेटती हूं- जहां मां लेटा करती थीं क्योंकि यहां से सामने रसोई दिखती है। रसोई में पकता खाना, वहां हो रहे सब क्रिया-कलाप यहां लेटकर दिखाई देते हैं ….. और बिस्तर के ठीक सामने लगे ड्रेसिंग टेबल के लंबे आईने में दाहिनी ओर के कमरे का डाइनिंग टेबल और वहां आते जाते लोगों को भी देखा जा सकता है।

अब पलंग के इस किनारे पर मां की जगह मैं हूं और जब कभी आईने में अचानक अपने चेहरे पर निगाह चली जाती है तो चौंक जाती हूं क्योंकि मुझे अपने चेहरे पर अपनी मां का अक्स दिखाई देने लगता है। मां अब खिड़की पर लगे परदे के पार वाली दीवार पर लगी तस्वीर में रहती है और जब-जब मैं यहां इस घर में आती हूं तो वे मेरी आंखों में उतर कर अपने इस बहुत प्यारे घर संसार को देखती हैं।

मां की जान बसती थी इस घर में। घर के रख रखाव, साफ सफाई में – मजाल कि कहीं धूल का एक कण भी रह जाए। शरीर में ताकत दिन पर दिन कम होती जा रही थी पर सुबह उठकर मां की कसरत यही थी। हाथ में झाड़न लिए जब तक थक कर निढाल न हो जाएं, अपने घर की धूल झाड़ते रहना। मां को देखकर काम करने वाले भी घर सफाई में मुस्तैदी दिखाते और घर हमेशा चमकता रहता।

[bs-quote quote=”उस दिन की चीखें इसी कमरे के, इसी बिस्तर के आसपास की दीवारों में भीतर तक समा गईं थीं – हमेशा-हमेशा के लिए। कभी दीवारों से बाहर नहीं आई। आज भी वे चीखें दीवारों में चिनी हुई वहीं बैठी हैं। …और मेरे बिस्तर पर लेटते ही वे दीवारों से निकल निकल कर मेरे सिरहाने आकर बैठ जाती हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

… और मां की जान बसती थी अपने बच्चों में। उन बच्चों में कम जो दुनियावी नजर में सफल हैं, उन बच्चों में ज्यादा, जो किसी वजह से जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट गए और आगे बढ़ने वाले भाई-बहनों ने उन्हें रुक कर नहीं देखा। मां वैसे बड़ी मजबूत कलेजे वाली थीं। किसी बच्चे की हड्डी टूट गयी और हाथ कलाई से नीचे झूलने लगा या किसी बच्चे का खेलते खेलते घुटना लहूलुहान हो गया या सिर फट गया और टांके लगवाने डॉक्टर के पास ले जाना पड़ा तो वे बगैर हिम्मत खोए फटे माथे से खून बहते बच्चे के सिर पर दुपट्टा बांधकर गोद में उठाए रिक्शा लेकर अकेली अस्पताल के लिए चल पड़तीं । पर पिता या पांच बेटों में से कोई बेरुखी से बात करता या डांट फटकार देता तो उन्हें अपने आंखों से बहती गंगा-जमुना को भीतर कस कर बांध लेने में जो मशक्कत करनी पड़ती थी, वह अन्ततः उनके नाजुक से दिल को कमजोर करती चली गयी क्योंकि उनके जिगर का वह हिस्सा बड़ा नाजुक था जो बार-बार अपने पति और अपने बेटों से हलाल होता रहता था। इतना कि आखिर डॉक्टर ने कहा कि मां की बाई पास सर्जरी नहीं हो सकती- नसें बहुत पतली हो गई हैं। बस, आप इन्हें कोई सदमा न दें वर्ना यह भुरभुरे कागज सी देह है, जरा सा झटका बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी। पर इतने लंबे-चौड़े परिवार में ऐसा एहतियात मेरे समेत किसी ने न बरता कि वह बेशकीमती भुरभुरा कागज सही सलामत रहे। मुझे तो उनके जाने के बाद पता चला कि डॉक्टर ने यह कहा था।

तोष मौसी

घर में अपने पति और पांच बेटे यानी छह मर्दों के नाज़-ओ-नखरे, अनुशासन झेलती और एक अर्द्धविक्षिप्त बेटी को बेबसी से निहारती, अकेली औरत मां ने अपने को खुद ही इन भावनात्मक धक्कों से सहेज संभाल कर रखने की भरपूर कोशिश की ……पर एक दिन अपने दामाद के सांत्वना भरे दो शब्दों और कंधों पर हल्की सी छुअन से मां ऐसे धाड़ें मार-मार कर रोईं जैसे बरसों का दबा हुआ दुख उनकी छाती से फूट-फूट कर बाहर आ रहा हो। मां की उन चीखों में अचानक बिजली की कौंध सी शामिल हो गई थीं – बरसों पहले सुनी मौसी की चीखें। ऐसे ही एक बार मेरी इकलौती तोष मौसी अपनी बड़ी बहनजी के कलेजे में दुबक कर चिंघाड़ कर रोयी थीं जैसे घर में कोई मौत हो गई हो। उस दिन उन चीखों ने मुझे दहला दिया था। तब भी, और आज भी उन्हें याद करके, सीने में कुछ नसें सिकुड़ने सी लगती हैं।

उस दिन की चीखें इसी कमरे के, इसी बिस्तर के आसपास की दीवारों में भीतर तक समा गईं थीं – हमेशा-हमेशा के लिए। कभी दीवारों से बाहर नहीं आई। आज भी वे चीखें दीवारों में चिनी हुई वहीं बैठी हैं। …और मेरे बिस्तर पर लेटते ही वे दीवारों से निकल निकल कर मेरे सिरहाने आकर बैठ जाती हैं।

‘भाबी जी, यह कोई बात है भला? आप जब आते हो, तो मुझे और इंदु को हाथ में रुपए पकड़ा कर जाते हो। अब तो हमलोग बड़े हो गए हैं । बीजी दे देती हैं न!’ मैं अपनी नानी – जिन्हें मां, मासी, मामा से लेकर हम सब बच्चे भाबी जी ही कहते थे – को वापस रुपए पकड़ा देती।

मां इशारा करतीं – रख ले। हम फिर नानी से उलझते -‘भाबी जी, देने ही हैं तो फिर दिल खोलकर दो, इतने कम क्यों, थोड़े और दो ना !’ फिर हम दोनों बहनें नानी का पल्लू पकड़ लेते – ‘आज का दिन और रुक जाओ ना भाबी जी।’

‘मेरी सब सम्ज आता है कुड़ियों, छेड़ती हो मैनूं। तेरी मां बड़ी पैसे वाली है पर मैं धी के घर रोटी खाकर क्यों सिरे पाप चढ़ाऊं। बस, इत्ते ई बथेरे।  फड़ लै !’ नानी अपनी मौलिक पंजाबी मिश्रित हिन्दी भाषा में हम बच्चों से बात करतीं और हम दोनों बहनें शरीफ बच्चों की तरह नानी से नोट लेकर अपनी बीजी के हाथ पकड़ा देते।

[bs-quote quote=”माना जाता था कि कविताएं शविताएं लिखने वाली लड़की किसी के प्रेम में पड़ गई है और दक़ियानूसी तौर तरीकों वाले घरानों में प्रेम सात तालों में बंद लड़की के लिए वर्जित था। मां की कविताएं धीरे-धीरे उन किताबों में से गुम होती चली गईं जिन्हें वे छिपाकर अपने दहेज के सामान के साथ ले आई थीं। शायद इसीलिए उन्हें मेरा लिखना इतना पसंद था कि गॉल ब्लैडर के असहनीय दर्द में पेट दबाकर वह पूरे कुनबे के लिए रोटियां बेल रही होतीं पर मुझे कभी आवाज़ नहीं देतीं अगर उस वक्त मैं अपने लिखने की मेज़ पर कागज़ और कलम लेकर जुटी होती।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

नानी का यह बन्दोबस्त नया था। पहले जब भी वह हमारे घर रहने आतीं तो अपनी रोटियां रुमाल में बांधकर लातीं। …और रात होने से पहले-पहले अपने घर वापस लौट जातीं। बीजी उन्हें बहुत समझातीं ‘बेटी के घर रोटी खाने से बाबाजी के दुआरे हिसाब नहीं देना पड़ेगा, आप चुपचाप दो रोटियां खा लिया करो। अब जमाना बदल गया है।’ पर नानी का जमाना बदलने में अभी देर थी। वे भड़क जातीं ।

‘अरे, मुझे किसी का डर पड़ा है। मैं तां अपने मारे नहीं खाती। मेरा दिल गवाही नहीं देता।’ …. खैर, फिर उनके नाती नातिनें ज्यादा बीमार-शीमार पड़ने लगे तो उनके दिल ने गवाही देनी शुरू कर दी। रात को रुक जाने के लिए घर की पकी दाल रोटी उन्हें खानी ही पड़ती थी क्योंकि बाहर का खाना उन्हें हजम नहीं होता था। अपनी बेटी के साथ उन्होंने एक कॉन्ट्रैक्ट किया कि वे जितनी बेला खाना खाएंगी, उसके नगद पैसे हाथ में थमाकर जाएंगी, तभी बेटी के घर का रोटी का निवाला उनके पेट में जाएगा वर्ना पुराना सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा – रोटी के टेम वो घर लौट जाया करेगी। मां को हां कहना ही पड़ा। कम से कम नानी टिककर एक दो रात रह तो सकती थीं। हम बच्चे थोड़े बड़े हो गए तो यहीं वो मासी के साथ करने लगीं। मासी के बच्चे – चार बेटियां और एक बेटा छोटे थे और उन्हें भी नानी की जब तब जरूरत पड़ती रहती थी। नानी के हमारे घर रुकने से घर की रौनक बढ़ जाती थी। उनके साथ हम भी सिर हिला हिलाकर जपुजी साहब या सुखमनी साहिब का पाठ करते –

जह महा भइयान दूत जम दलै

तह केवल नाम संगि तेरे चलै

जहं मुसकल होवै अति भारी

हरि को नाम खिन मांहि उबारी ।

मां, जिन्हें हम बीजी कहते थे, का जन्म लाहौर के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। मेरे नाना सरदार थे। मां अपनी भाबो और बापू की खास लाड़ली बेटी थीं क्योंकि उनसे पहले नानी की तीन संतानें पैदा होने से पहले ही गुजर गई थीं। जब मां पैदा हुईं तो परनानी ने नवजात बच्ची को माथे से छुआ कर कहा – तेरे ही नांव वाहेगुरू! मां का नाम ही वाहेगुरू पड़ गया। उसके बाद नानी के एक बेटा और एक बेटी और हुए। मां से आठ साल छोटी बहन का नाम रखा गया – सतनाम। मेरी मौसी सतनाम कौर। मां और मौसी के बीच मेरे मामा थे जो मां से चार साल छोटे थे और मौसी मां से आठ साल छोटी थी। मौसी अपनी बड़ी बहन को ‘भैंजी’ कहकर बुलाती थीं पर दर्जा मां का ही देती थी। मां की गोद में ही मौसी पली बढ़ी थीं।

नानी कभी-कभी अपना पेट खोलकर दिखाती थीं – देख, कितने बड़े बड़े चीरे लगे थे – तीनों बच्चों के लिए। उस जमाने में सीजेरियन ऑपरेशन खासे प्रिमिटिव तरीके से किए जाते थे। नानी का पेट देखकर वाकई लगता था जैसे किसी नौसिखिए कसाई ने किसी भोथरे छुरे चाकू से नानी के पेट के मांस को बेरहमी से काट-कूट कर, फिर बड़े सूए से गूंथ-गांथ कर सिल दिया है ।

 

मां के जमाने में पंद्रह सोलह साल में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। अपने तीन भाई बहनों में से सिर्फ मेरी मां पढ़ाई में काफी ज़हीन थीं। लाहौर की वैदिक पुत्री पाठशाला से हिन्दी में प्रभाकर (वही प्रभाकर की डिग्री जिसे हिन्दी के अग्रज आदरणीय रचनाकार विष्णु प्रभाकर ने अपने नाम का हिस्सा बना लिया था) प्रथम श्रेणी में पास कर चुकी थीं और साहित्य रत्न (जो एम. ए. की कक्षा के बराबर था ) कर रही थीं। पढ़ाई के दौरान वे कविताएं लिखा करती थीं और किताबों के बीच छिपाकर रखती थीं। और कोई चारा भी नहीं था उन दिनों एक लड़की का कविता लिखना उसके आवारा होने का प्रमाण था। माना जाता था कि कविताएं शविताएं लिखने वाली लड़की किसी के प्रेम में पड़ गई है और दक़ियानूसी तौर तरीकों वाले घरानों में प्रेम सात तालों में बंद लड़की के लिए वर्जित था। मां की कविताएं धीरे-धीरे उन किताबों में से गुम होती चली गईं जिन्हें वे छिपाकर अपने दहेज के सामान के साथ ले आई थीं। शायद इसीलिए उन्हें मेरा लिखना इतना पसंद था कि गॉल ब्लैडर के असहनीय दर्द में पेट दबाकर वह पूरे कुनबे के लिए रोटियां बेल रही होतीं पर मुझे कभी आवाज़ नहीं देतीं अगर उस वक्त मैं अपने लिखने की मेज़ पर कागज़ और कलम लेकर जुटी होती। बाद में उनके एक साथ तीन गंभीर ऑपरेशन हुए थे – गॉल ब्लैडर, हर्निया और अपेंडीक्स का !

मां अपनी आठ साल छोटी बहन को बहुत लाड़ करती थीं। यह बहन थी ही इतनी खूबसूरत कि सभी उसे बहुत लड़ियाते थे। मां को अपनी बहन से शिकायत थी तो यही कि जहां मां समय मिलते ही किताबों में डूबी रहती थीं, बहन को पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी। जब तक मां की शादी नहीं हुई, बहन को सातवीं तक मां ने जोर जबरदस्ती पढ़ाया और वह कक्षा में पास भी हो गईं पर जैसे ही मां की शादी हुई और मां लाहौर से कलकत्ता आ गई, बहन ने पढ़ना-वढ़ना छोड़ कर सिलाई- कढ़ाई शुरू कर दी

[bs-quote quote=”आखिर डॉक्टर ने कहा कि मां की बाई पास सर्जरी नहीं हो सकती- नसें बहुत पतली हो गई हैं। बस, आप इन्हें कोई सदमा न दें वर्ना यह भुरभुरे कागज सी देह है, जरा सा झटका बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी। पर इतने लंबे-चौड़े परिवार में ऐसा एहतियात मेरे समेत किसी ने न बरता कि वह बेशकीमती भुरभुरा कागज सही सलामत रहे। मुझे तो उनके जाने के बाद पता चला कि डॉक्टर ने यह कहा था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”Apple co-f” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

अठारह साल पूरे होने पर मां की शादी हिन्दू पंजाबी घर में हुई जहां फेरों के वक्त ही दुल्हन का नाम बदल दिया जाता था। वाहेगुरू कौर नाम की ऊंची पेशानी वाली तेजस्वी कन्या का नाम उनके दूल्हे ने बड़े प्यार से रखा – वीणादेवी। पर नानी के मुंह पर यह नाम कभी नहीं चढ़ा। हमारी नानी मां को अपने रहने तक वाहेगुरू ही बुलाती रही और गुरु ग्रंथ साहेब का पाठ करती रहीं। कहतीं कि तेरी मां को पुकारने के बहाने उस दाता का नाम भी तो जबान पर आता है। अपनी बेटी को रब्ब की भेंट मानतीं। शायद इसीलिए उस दाता ने मां में अपना एक छोटा सा प्रतिरूप रख छोड़ा था, जो हमें भी जब-तब दिखाई दे जाता था।

दूसरी बेटी यानी हमारी मौसी बला की खूबसूरत थी। तीखे नैन नक्ष वाली गोरी चिट्टी लड़की। नाक की कोर और दोनों गालों पर ललाई लिए हुए वह किसी पहाड़न या कश्मीरन होने का धोखा देती थीं।

मौसी के पंद्रह साल की होते न होते उनके ब्याह के लिए रिश्ते आने शुरू हो गए। सभी रिश्ते नाना मामा के रुतबे से कहीं बहुत ऊपर  के खानदानों के थे। उनमें से एक जो पुराने खानदानी रईस थे, के छह बेटों में से सबसे बड़े बेटे के रिश्ते के लिए हामी भर दी गई।

मां ने अपनी मां से सवाल तलब किया – ‘भाबी जी, आप तो कहते थे कि बेटी ब्याह कर लाओ, तो अपने से नीचे घर की और अपनी बेटी दूजे घर विदा करो, तो भी अपने से नीचे घर में ( यानी दोनों ही ओर अपना पलड़ा भारी रहे ) पर अब क्या हो गया?’

भाबी जी ने कहा – ‘देख, तू पढ़ाई में ‘हुशियार’ थी, तुझे पंजाब नैशनल बैंक में चालीस रुपए महीने की नौकरी वाला, कलास में हमेशा अव्वल आने वाला मुंडा मिल गया। अपनी सतनाम के पास तो वो गुर नहीं, फिर भी रब्ब ने सोहणा मुहांदरा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी तो इसकी झोली में यह रिश्ता आया है तो उसी दाता की मेहर है’ मौसी के लिए यह रिश्ता स्वीकार करने की दलील यह दी गई कि इसकी किस्मत में ही बड़े ऊंचे खानदान में बसना लिखा है तो विधि के लेख को कौन टाल सकता है भला।

इन खानदानी रईसों का पीतल और लोहे का पुश्तैनी कारोबार था। शादी में सबने लड़के को देखा तो लड़का था भी उच्चा – लंबा, फौलादी। अखाड़े के पहलवान से कम नहीं। रंग भी थोड़ा सा सांवला। उधर मौसी बेहद नाजुक जान। रंग ऐसा कि गाल में उंगली रखो तो ललाई में उंगली के दबाने से सफेद निषान उभर आए।

मां की शादी के सात साल बाद मौसी की शादी हुई। मौसी भी सरदारों के घर नहीं ब्याही और फेरों के वक्त उनका नाम बदलकर संतोष रख दिया गया। संतोष का संक्षिप्त संस्करण – तोष – नाम झट नानी के मुंह भी चढ़ गया। बल्कि सभी मौसी को तोष या तोषी ही बुलाते। हमें तो बहुत बाद में पता चला कि तोष मासी का पैदाइशी नाम ‘सतनाम’ था। तो वाहेगुरु वीणादेवी बनी और सतनाम संतोष !

क्रमश:

sudha arora

 

 

 

 

सुधा अरोड़ा जानी-मानी कथाकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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