दूसरी किस्त
अच्छा दादा अब दूसरा सवाल – लोग कहते हैं कि एक सफल आदमी के पीछे एक नारी का हाथ होता है। मैंने सुना है कि आपके जीवन में सरिता भाभी और आपकी बाल सखा शिवकुमारी, जिसने बाद में नाचने गाने को व्यवसाय के रूप में अपनाया, इन दोनों का काफी योगदान रहा है।
हां – हां , वह नाचने वाली जाति से थी ही। एक बेड़िया जाति होती है। उनकी लड़कियां नाचती गाती हैं । हमारे गांव में उनका एक ही घर था। उसी में वह शिवकुमारी थी । वह हमसे दो-तीन साल बड़ी होगी। उससे हमारा परिचय शुरुआत में 14-15 साल में हो गया था।…और पता नहीं उससे कैसी अभिन्न मित्रता हो गई। उस 15-16 साल की उम्र में तब तो नाचना वगैरह वह सीख रही थी । वह यंग थी। उधर हमारा खेत था तो कभी-कभार हम उधर चले जाते थे । ऐसे देखते – देखते मुलाकात हो गई । फिर इतनी अभिन्नता हो गई कि हम आज तक मित्र हैं। अब तो मुलाकात नहीं होती है। मैं खुद 68 – 69 साल का हो गया हूं। वह 72 – 73 की हो गई । अब सालों- साल मुलाकात नहीं होती है । वह मुंबई में रहती है। वहां उनकी बेटियां नाचने गाने का काम करती हैं, लेकिन हमारी अभिन्नता उसी तरह से है। हम लोग चाहे जब भी मिलेंगे तो तनिक भी भेद नहीं रहेगा, जैसे बाप- बेटी या भाई-बहन आपस में मिलते हैं तो कोई अंतर नहीं होता है, जैसे मां- बेटी मिलती हैं तो उनके बीच समय का अंतराल कोई मायने नहीं रखता है कि उनका प्रेम छीज जाएगा। उसी तरह से शिवकुमारी और हमारा हमारी मित्रता है। एक बार और किसी ने पूछा था तो मैंने कहा था , ” देखिए, स्त्री और पुरुष की वह मित्रता, जिसमें शरीर इनवाल्व न हो, यानी काम भावना इनवाल्व न हो तो वह उच्च कोटि की मित्रता है। एक तो ब्लड रिलेशन होता है। जैसे भाई- बहन, पिता पुत्री का संबंध है, मां- बेटे का संबंध है। ये जो संबंध है, इनके अलावा जो संबंध बनते हैं , उसमें शरीर कहीं न कहीं शामिल होता है। पर जहाँ पर शरीर शामिल नहीं है तो मैं यह कहता हूं कि यह मित्रता की चरम सीमा है। इसे उद्दात्त सीमा कही जाएगी, जिसमें एक स्त्री और पुरुष की मित्रता में शरीर कोई मायने नहीं रखता। शरीर दखल नहीं देता । स्त्री और पुरुष समान आयु वर्ग के हों और उनमें शरीर का कोई स्थान नहीं हो, तो ऐसी मित्रता उच्चतम कोटि की मित्रता कहलाएगी । मेरी और शिवकुमारी की मित्रता को आप इसी श्रेणी में रख सकते हैं।
उन्होंने आपकी आर्थिक सहायता भी की थी दादा ?
उन्होंने मेरी आर्थिक सहायता की थी , मानसिक बल बढ़ाया था हमारा। वह जानती थी कि गांव में मेरा कोई सहायक नहीं है। गांव में मेरे कुछ दुश्मन हो गए थे । ऐसे हालात में उसने मुझे संबल दिया और सलाह देकर मेरी मदद करती रही वह। मैं जब रेलवे की पहली नौकरी ज्वाइन करने के लिए गया तो उसी के कंबल और अटैची लेकर गया था। मेरे पास कंबल और अटैची नहीं थे उन दिनों। उन्हीं से पैसे लेकर हम गए थे। उसने कहा कि जब तक तनख्वाह नहीं मिलेगी कहां से गुजारा होगा ? इस प्रकार बयान नहीं किया जा सकता है कि हमारे बीच अभिन्नता कैसे है। हमारी जब पत्नी आई तो लोगों ने कहा ,” तुम अपने पति को संभालो। यह तो पतुरिया के पीछे पागल है। उसके हाथ का खाता – पीता है । उससे नजदीकी है। उसे मना करो , नहीं तो तुम्हारी जिंदगी बेकार हो जाएगी ।
हमारी श्रीमती जी ने कहा, “ठीक है , हम तो अभी तक नहीं थे। अब हम आए हैं तो हम देखेंगे भाई कि कौन है, क्या है ? ” और फिर मेरी श्रीमती जी से भी उनकी दोस्ती हो गई। जब वह आई तो वह इनसे भी मिलने के लिए आई । अब तो इनकी और उनकी उसी तरह से दोस्ती है जैसे मेरी और शिवकुमारी की है। हमारे बीच इतनी गाढ़ी मित्रता है कि जब मेरी पहली बेटी हुई तो मेरी पत्नी ने उसका प्रयाग में मुंडन कराने के लिए मन्नत मांगी थी। मेरी बेटी का मुंडन कराने के लिए शिवकुमारी मेरी पत्नी को लेकर प्रयाग गई। मैं नहीं गया था । मैंने कहा, ” भाई , मेरा मुंडन में विश्वास नहीं है । मुंडन कराना हो तो यहीं नाऊ को बुलाकर कराओ । यदि जाना ही हो तो मैं शिवकुमारी से कह देता हूं । वह चली जाएगी। ” मैंने शिवकुमारी से कह दिया , ” ले जाइए उसका मुंडन करा लाइए ।” वह उसी तरह से गई, जैसे बड़ी बहन छोटी बहन की बेटी का मुंडन कराने के लिए ले जाती है। आज भी इन दोनों में बहुत नजदीकी है । आज तक इन दोनों में मतभेद का कोई मौका ही नहीं आया । मैं उनके यहां खाता – पीता था ।…..और होता है ना भाई, वह बड़ी बिरादरी की नहीं है । शेड्यूल ट्राइब में है। उनके यहां नहीं खाना चाहिए, लेकिन मैं तो उनके यहां खाता- पीता था ही। मैंने ऐसा कभी नहीं किया कि उनके यहां नहीं खाएंगे, कि इससे हम छुआ जाएंगे । यह सब बहुत छोटी बातें हैं। ऐसी बातें दूर-दूर तक हमारे दिमाग में नहीं थी। आप जो कहते हैं कि आदमी की सफलता में किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है तो मुझे संभालने में उनका बहुत बड़ा हाथ है। मुझे संभालने में, साहस देने में ।
[bs-quote quote=”देखिए, स्त्री और पुरुष की वह मित्रता, जिसमें शरीर इनवाल्व न हो, यानी काम भावना इनवाल्व न हो तो वह उच्च कोटि की मित्रता है। एक तो ब्लड रिलेशन होता है। जैसे भाई- बहन, पिता पुत्री का संबंध है, मां- बेटे का संबंध है। ये जो संबंध है, इनके अलावा जो संबंध बनते हैं , उसमें शरीर कहीं न कहीं शामिल होता है। पर जहाँ पर शरीर शामिल नहीं है तो मैं यह कहता हूं कि यह मित्रता की चरम सीमा है। इसे उद्दात्त सीमा कही जाएगी, जिसमें एक स्त्री और पुरुष की मित्रता में शरीर कोई मायने नहीं रखता। शरीर दखल नहीं देता । स्त्री और पुरुष समान आयु वर्ग के हों और उनमें शरीर का कोई स्थान नहीं हो, तो ऐसी मित्रता उच्चतम कोटि की मित्रता कहलाएगी । मेरी और शिवकुमारी की मित्रता को आप इसी श्रेणी में रख सकते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
एक बात और देखिए जो और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है । गांव में मेरा घर गिर गया था। गांव में कच्चा घर मिट्टी का बनता है ना! तो मेरा कच्चा घर मिट्टी का बन रहा था । उसे ठेका दे दिया गया था लेबर को। गांव में एकाध मेरे विरोधी थे। उन्होंने लेबर को भड़का दिया । एक बार मैं पैसा नहीं दे पाया सही समय पर । दो-चार दिनों की देर हो गई । इसी में उन लोगों ने लेबर को भड़का दिया कि यह तुम्हारा पैसा मार जाएंगे। यह सब कहने से वे भड़क गए और भाग गए । उन्होंने काम नहीं किया । बरसात आ जाती तो मिट्टी की जो दीवारें उठी थी , वह ढह जाती है , बेकार हो जाती ।…… तो शिव कुमारी खुद आई , उनकी एक बुआ लगती थी, उनसे उम्र में थोड़ी बड़ी थी, उनको लेकर आ गई। उन्होंने हमारे घर की गड़ही से गीली मिट्टी का बोझा उठाकर मेरे घर की दीवार खडी कर दी। वह पैसे लेने के लिए नहीं आई । उस समय तो वह नाचती-गाती थी। यह बात है, जब हमारा घर बना था 72 की। 71 के दिसंबर में मेरा घर गिर गया था । उस समय मैं 18 वर्ष का था । वह 20- 25 वर्ष की रही होंगी। उस समय नाचने गाने का उसका अपना काम जरूर छूट गया होगा। उस समय उसने हमारे यहां इतनी मेहनत का किया । उसे उतनी मेहनत करने की आदत ही नहीं थी भाई। सुकुमार घर की थी। नाचना गाना करती थी। छाया में रहना , नाचना- गाना उसका काम था। वह कठिन मेहनत का काम थोड़े ही करती थी ? वह धूप का काम, खेती का काम नहीं करती थी । लेकिन वह हमारे यहां आई। जैसे लोग कहते हैं कि पंचतत्व से यह शरीर बना है।.. तो हमारा घर भी पांच महिलाओं के सहयोग से बना था। उसमें एक शिवकुमारी है, एक शिवकुमारी की बुआ है। उनका नाम भक्तिन था। एक नंदलाल की मां है । नंदलाल यादव है। वही मेरी कहानी कसाईबाड़ा के अधरंगी हैं। …. तो नंदलाल की मां लंबी-चौड़ी थी, लोग उनको हाथी कहते थे। तो हाथी आई, शिव कुमार की मां आई , शिवकुमारी आई, भक्तिन आई , मेरी मां और मेरी श्रीमतीजी भी थीं । इन पाँच महिलाओं ने मिलकर डेढ़ महीने तक काम किया, मिट्टी ढोया, तब जाकर मेरा घर बना था । तो इस स्तर की मदद उसने की थी मेरी। पैसे – कौड़ी से तो मदद की ही थी। जब मेरे पास बहुत पैसे नहीं थे , उस समय उसने इस तरह से हमारी मदद की।……. और मेरी श्रीमतीजी भी उसको बड़ी बहन के रूप में मानती हैं अभी तक । ……..
और हमारी श्रीमती जी भी देखिए ! स्कूल नहीं गई थी । पढ़ाई- लिखाई नहीं जानती थी। हमारे यहां आई पहली बार और इसको पता चला कि किताब पढ़ कर के बहुत अच्छी नौकरी मिल जाती है।…. तो उन्होंने कहा , ” खेती-बाड़ी का सब काम तो मैं ही कर डालूंगी। मैं पूर भी चला लूंगी । हल जोतने के अलावा खेती का सब काम मैं कर लूंगी ।…. यदि छांव में बैठकर और चार किताबें पढ़कर के नौकरी मिल सकती है, तो वही सब करिए और छोड़िए यह सब काम मेरे जिम्मे ।….और ले जाइए मेरा गहना गुरिया, इन्हें बेचकर अपनी किताबें खरीद लाइए।…। तो इनकी प्रेरणा से मैं फिर पढ़ने लगा। पहली नौकरी रेलवे की हुई। नौकरी में नियुक्त हुआ। यहां रहते- रहते और आगे की प्रेरणा भी इन्हीं से मिली। … और भी उन्होंने कहा पढ़ने के लिए और इन्हीं की प्रेरणा से मेरा पीसीएस में सिलेक्शन हुआ ।
इतना ही नहीं , उन्होंने खुद भी पढ़ना शुरू किया, सारा काम करके।….. तो ऐसे समझिए कि अब यह हिंदी पढ़ लेती हैं । उपन्यास पढ़ लेती हैं। अभी हावर्ड फास्ट का विद्रोही पढ़ रही है। कितनी दर्जनों ऐसे ही चर्चित किताबें, मैला आंचल, गोदान वगैरह पढ़ चुकी है। हां, अंग्रेजी का भी एबीसीडी जान लेती है। कहीं अंग्रेजी में बी.. ए ..एन… ए.. आर… ए.. एस लिखा हुआ है, तो जोड़ करके बनारस पढ़ लेती हैं।…और अकेले चाहे कोलंबो से आना हुआ , चाहे ऑस्ट्रेलिया के बगल में न्यूजीलैंड से आना हुआ, चाहे इंडिया भरके डोमेस्टिक स्थानों पर, अकेले आती- जाती हैं। जहां जरूरत होती है ,लोगों से पूछ लेती है। कोई हिचक नहीं, लेकिन उन्होंने पूरी तरह से अपने को साध लिया है। अब इन्हें कोई नहीं कह सकता है कि यह काम नहीं कर सकती है। ”
पता नहीं दादा किसने किसको ज्यादा प्रभावित किया है ?
….नहीं , मुझे तो इन्होंने ही प्रेरित किया। मैंने इनको नहीं प्रेरित किया। मेरी प्रेरणा से नहीं हुआ यह। ये स्वत: प्रेरित हैं । इनका एक इंटरव्यू छपा था । मंच का एक विशेषांक निकला था, जिसमें दिनेश कुशवाह ने इनका एक इंटरव्यू लिया था । एकमात्र ही इंटरव्यू छपा है इनका ,जो बहुत अच्छा है ।
वह अंक है मेरे पास दादा ।
…..तो ये स्वयं प्रेरित है । अभी सवेरे 4:45 पर इनको टहलने निकलना है, तो निकलना है। आंधी तूफान आवे, पानी बरसता रहे , छाता लेकर चली जातीं हैं, लेकिन जो तय कर लिया तो उसे कर लेती है।….तो हमारी प्रेरणा नहीं है इनको । और ये महिलाएं तो हमारी जिंदगी की प्रेरक है। इन दोनों के बगैर मैं यहां तक नहीं पहुंच सकता था ।
बहुत अच्छा दादा !….और एक सवाल कि फैशन के तौर पर या प्रतिबद्धता के रूप में लोग दलित विमर्श करते हैं, स्त्री विमर्श करते हैं या वर्ण भेद या वर्ग संघर्ष की बात करते हैं । बहुत लोग स्लोगन या नारे के रूप में अपनी बात को रखते हैं साहित्य में । आपको पढ़ता हूं तो के आपके यहां किस्सा में रच – बस कर ये बातें सहज ढंग से आ जाती हैं। लगता ही नहीं कि कहीं से आरोपित है, कि जानबूझकर आपने उनको दिखाया है।… जैसे कि ‘ ख्वाजा ओ मेरे पीर ‘ में नाना वफादार हैं ठाकुर के। उनके लिए वे अपनी शहादत तक देते हैं, लेकिन उसी ठाकुर का बेटा जब दबंगई पर उतर आता है तो नाना जी का बेटा ठाकुर का प्रतिरोध करता है । पुरजोर प्रतिरोध करता है । वह अपने इस संघर्ष में विजय हासिल करता है । उसे देख कर भाग खड़ा होता है ठाकुर , यानी आप बोलते नहीं हैं, लेकिन प्रेरित करते हैं कि प्रतिरोध करो। प्रतिरोध नहीं करोगे तो जीत हासिल नहीं होगी । उसी तरह से मामी की जो पीड़ा है, वह मामी की केवल पीड़ा नहीं है। वह संपूर्ण नारी जाति की पीडा है । केसर की पीड़ा संपूर्ण नारी जाति की पीड़ा है। आपने संपूर्ण नारी जाति की नियति को दिखाया है । इस तरह के अनुभवों को किस्सा के ताने-बाने में आप कैसे बुन पाते हैं ? अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं।
रचना प्रक्रिया के बारे में बताना तो बहुत मुश्किल है। यह हो जाता है । अपने आप हो जाता है, मतलब करने से नहीं होता , सोचने से नहीं होता , बल्कि लिखते – लिखते वह हो जाता है। अगर वह स्वयं ना हो तो मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है कि मैं उसे लिख डालूँ। आप लिखते हैं और वह चीजें आ जाती हैं।
किसी कैरेक्टर को खड़ा करने में आपके पास जो कौशल है, यह एक विशिष्ट कौशल है आपका। आपको महारत हासिल है इसमें।
हां , करैक्टर में कहीं ना कहीं उसका अक्स होता है। उसी को थोड़ा साफ करके थोड़ा झाड़- पोंछ करके उसको खड़ा कर देता हूं।
नहीं, बहुत ही स्वभाविक रूप से आप करैक्टर को खड़ा करते हैं।
हां , यह तो है। लिखते समय मैं संवेदनात्मक रूप से जुड़ जाता हूँ, क्योंकि जब मैं लिखता रहता हूं तो स्वयं मेरी आंखों से आंसू गिरते हैं। जब भी कोई दर्द वाली कहानी लिखता हूं तो मेरे आंसू गिरते हैं। लेकिन वह कैसे बन जाता है यह कुछ स्पष्ट नहीं है , उसे कैसे बताया जाए। उस तरह के चरित्र को आप देखे होते हैं । उसी में जब आप जी रहे होते हैं तो उसका जो दर्द है , उसका कुछ हिस्सा आपके लेखन में आता रहता है।…. तो वही कहा जाता है कि अच्छा बन गया ।
अच्छा , आपकी उसी कहानी का जिक्र करूंगा ख्वाजा ओ मेरे पीर में मामी द्वारा आपने इतनी महत्वपूर्ण बात कहलवा दी है , “यदि किसी मर्द से बेटा पाने की राह दुनिया ने रुंध ना रखी होती तो मैं इतनी दूर तक दौड़कर क्यों जाती ?” यह मामी का सवाल नहीं है, बल्कि स्त्री अस्मिता का सवाल है । उसी तरह से कुच्चि अपनी कोख के लिए पंचों के सामने तर्कों को रखती है, और अपनी बात को रखने के लिए खड़ी हो जाती है।… तो नारी अस्मिता के सवाल को अपनी दृष्टि में रखकर आपने लिखा है या सहज रूप से आपकी रचना में ये बातें आ गई हैं।
यह मेरे मन में कुछ पहले से चल रहा था कि भाई स्त्री की कोख तो उसकी अपनी है और इसी पर उसका अधिकार नहीं है। पुरुष जिससे चाहता है उसी के साथ उसको संबद्ध कर देता है । उसी से वह बच्चे ले सकती है । वह बच्चा किसी और से नहीं ले सकती। यह बात मेरे दिमाग में ख्वाजा ओ मेरे पीर लिखने के पहले एक बार आई थी, जब कथा देश में मैं और मेरा समय में मैं लिख रहा था । यह छपा था 72- 73 में कथादेश पत्रिका में । तब मेरे मन में इस तरह की बात आई थी । जब मैं ख्वाजा ओ मेरे पीर लिखने लगा तो मामी की ओर से यह बात आई । मामी यह बात कहती है। उसके मुंह से यह बात निकलती है कि मुझे लड़के की जरूरत है। मामा अपना घर छोड़ चुके हैं । हमारे आगे पीछे कोई नहीं सहारा देने वाला । मुझे सहारा चाहिए। एक बेटा चाहिए। उस बेटे के लिए मैं उनके पास जाती हूं कि मुझे एक बेटा मिल जाए । मुझे एक सहारा मिल जाए। इनका तो कोई सहारा है नहीं।…… तो वह कहती है कि दुनिया ने किसी भी पुरुष से बेटा पाने की राह रूंधी ना होती, तो मैं उनके पास दौड़कर क्यों जाती ? यही अपने यहां किसी से ले लेती। यह जो डायलॉग है इस पर मैंने सोचा कि मेरी कोई कहानी होनी चाहिए। यह तो ग्यारह में छपी थी ख्वाजा ओ मेरे पीर , फिर 15 में मेरी कहानी कुच्ची का कानून आई, जिसमें इसी मुद्दे पर यह कहानी है । इसी बात को लेकर वह खड़ी हो जाती है। ख्वाजा ओ मेरे पीर में यह बात निकली , फिर 14 – 15 में , यानी इतनी देर तक सोचते – सोचते मुझे भी हिम्मत हो गई। मेरे मेरा विचार परिपक्व हो गया कि इस बात को कहा जाना चाहिए। कथा के रूप में कहा जाना चाहिए ।…..इस कहानी को जब मैं लिख चुका था तो एक घटना मुझे मिली ससुराल में। एक विधवा स्त्री ने अपने दो बेटे पैदा किए थे । उसने कहा था, ” मेरे आगे पीछे कोई नहीं है। मेरे ससुर भी मर गए, मेरा हस्बैंड भी मर गया। अब हम दो विधवाएं हैं अपने घर में। कोई भी पुरुष नहीं है घर में । हमारा जीवन कैसे कटेगा ? ” अपनी सास की अनुमति से उसने दो बेटे पैदा किए।….. और फिर मैं तब उनसे मिलने गया। 84 साल की है वे। मेरी पत्नी ने कहा, मेरे गांव में ऐसी घटना हुई थी। उनकी बड़ी बहन ने बताया था उन्हें।….. तो मैंने कहा , ” चलिए , देखते हैं । “….तो मुझे और हिम्मत हुई कि इस बात को कहा जा सकता है। इधर मैंने जब तक कहानी को फाइनल किया तब तक मैं उनको देख चुका था। ”
….. कुछ लोगों का विरोध इसी बिंदु पर है कि ऐसा कौन सा गांव है ,जहां एक स्त्री अपनी कोख के लिए इतने पुरजोर ढंग से अपनी बात रख सकती है ? क्या उसे चांप चढ़ा कर मार नहीं दिया जाएगा ? इतनी दबंग औरत को बर्दाश्त कर लेंगे लोग ?
लोगों को क्या बताएं कि मेरे पास उनका फोटो है। उनका वीडियो है । उनका गाया हुआ गाना है। वह सब मैंने ले लिया और उनको नहीं बताया , क्योंकि वह हमारी श्रीमती जी की भाभी लगती है। उनके रिश्ते की है वे । पत्नी अपने मायके गई तो उनसे मिलने ,…..तो मैं भी चला गया उनके साथ। उनसे मिलने पर मैंने देखा कि वे ऐसा कर चुकी है ।……..और आज लोग सोचते हैं, किस गांव में यह संभव है ? तो इस संसार में ऐसा कर चुके हैं लोग। कहते हैं ट्रुथ इस स्ट्रेंजर देन फिक्शन। ट्रुथ फिक्शन से ज्यादा स्ट्रेंजर होता है । सच्चाई जो है कथा से भी आगे की चीज हो जाती है ।”
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इन सवालों के साथ मेरी भी शंका दूर हुई। आप यह बताइए कि आपकी कौन – कौन सी कहानियों पर फिल्म बनी है ? एक तो मैं तर्पण जान रहा हूं । तिरिया चरित्तर जान रहा हूं।….. और ऐसी कौन सी कहानियां है ?
तर्पण है , तिरिया चरित्तर है, कसाईबाड़ा है, सिरी उपमा जोग है और भरतनाट्यम है। ”
एक और बात है , जब तिरिया चरित्तर पर फिल्म बन रही थी तो आपने बताया था कि आप उसकी मेकिंग से बहुत नाराज थे। विमली की मां को जिस तरह से बॉब कट हेयर में दिखाया गया है, ऐसा गांव में होता नहीं है।
देखिए ,बिमली की मां गांव में हरिजन है , एक दलित स्त्री है, 50 – 52 की हो गई है उसकी मां । गांव में खाने-पीने का अभाव रहता है।….. तो 50 -55 की स्त्री बूढ़ी लगने लगती है और उन्होंने लंबी चौड़ी, हट्टी कट्टी और बॉब कट हेयर वाली औरत को लाकर खड़ा कर दिया है। गांव में बॉब कट…..! उत्तर प्रदेश में औरतें ऐसा नहीं करती है। वह भी दलित की औरत। आज की लड़की हो तो वह ऐसा कर भी सकती है ,जो स्कूल जाती हैं , कॉलेज जाती हैं।
…..यानी फिल्म की अपनी एक सीमा है दादा, जो कथाकार की कल्पना को पूरा का पूरा यथार्थ रूप नहीं दे पाता है।
दरअसल बासु चटर्जी को गांव का उतना अनुभव नहीं था। जब गांव में उसकी शूटिंग हुई तो मैं उनके साथ था, लेकिन बाकी शूटिंग मुंबई में पूरी हुई। नसीरुद्दीन शाह जो विसराम बना है, उसे डेढ़ -दो हजार का कुर्ता पहना दिया गया। अब जो गांव में रहता है, उसे 100 – 200 का कुर्ता भले ही नसीब हो जाए। उसे इतना चमकीला और भड़कीला कुर्ता पहना दिया गया, जो उसे सूट नहीं करता है। उसी तरह से उसकी मां नहीं सूट करती है। एक बात और यहां एक बकरी उसमें है। उसे लेकर वह चराने के लिए जाती है । यहां जो बकरी है , डेढ़ – दो साल की है। वहां बकरी नहीं मिली तो उन्होंने 6 महीने का एक बच्चा डाल दिया, जो अभी 1 फीट ऊंचा भी नहीं है। बकरी को ले जा रही है चराने के लिए तो डेढ़ फीट ऊंची है और जब लौट रही है तो वह छोटी हो जा रही है । एक चीज और जो मैंने बासु को बताया । हम बहुत शर्मिंदा है उस पर। हमने कहा,” यह बताइए यह कैसे हो गया ? ”
अरे भाई बकरी नहीं मिली वहां ।
मैंने कहा, ” आपने देखा वह बकरी ही है ? आप जाइए उसे पीछे से देखिए । वह बकरा है। ” ( ठहाके का समवेत स्वर)…. देखिए लेकर के जाएगी बकरी और लौटते – लौटते वह बकरा हो जाएगा ?
मैंने यह बात वहां पर कही थी। तो ओमपुरी ने कहा था, इंडिया टुडे के इंटरव्यू में यह बात आई है, कि शिवमूर्ति जी क्या चाहते हैं कि हम लोग उनके गांव में जाकर शूटिंग के लिए महीनों बैठे रहे ? ऐसा नहीं हो सकता । मैंने कहा, ” ऐसा नहीं हो सकता है तो ठीक है । जहां शूटिंग करना चाहें कर लें, लेकिन अपने आंख- कान खुले रखते तो आप समझ पाते कि कहां गड़बड़ हो रही है ?”….. तो इस तरह से मैं उससे बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं था उस जमाने में । उस जमाने में काफी विवाद उस पर उठा था। ”
यह कब की बात है दादा ?
यह 94 की बात है। 94 में फिलम बनी है। तर्पण में भी बहुत ज्यादा संतुष्ट होने वाली बात नहीं है । कहानी से और आगे की चीज नहीं ले पाए हैं , यह और बात है , लेकिन कहानी के साथ – साथ चले हैं। तर्पण की डायरेक्टर लेडीस है। इनकी पहली या दूसरी डायरेक्शन की फिल्म है। फिर भी अच्छा काम किया है। अब आएगी तो देखा जाएगा।
इतनी सफलताओं के बावजूद आप कहते हैं, कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं लेखक नहीं हूं ।
हां , कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं लेखक नहीं हूं । सचमुच में लगता है । मैं जब भी लिखने लगता हूं , कोई नई कहानी तो मुझे लगता है कि मुझे कुछ नहीं आता है। एकदम नए सिरे से शुरू करता हूं। शुरुआत कैसे करूं ? इसका अंत कैसे करूं ? सारी स्थिति वैसी ही हो जाती है जैसे शुरुआत में होती थी ।
…..यानी हर कहानी आपके लिए पहली कहानी होती थी ।
यही समझिए आप, हर कहानी पहली कहानी होती है ।…..और दूसरे मैं कभी-कभी लिखता हूं , जैसे तीन तीन साल से पहले मेरी कोई कहानी नहीं आती है। इधर जब से रिटायर किया हूं , दो साल हो गया।…. नहीं तो 3 साल से पहले कुछ नहीं आता था ।…..तो साल भर में एक कहानी नहीं आवे तो किस बात के लेखक है ? जब नौकरी में था तो मैं एक महीने की छुट्टी लेता था तब । 15 दिन घूमने निकल जाता तो 15 दिन में कहानी लिखता था।…. तो इसे क्या कहा जाए ? मैं तो लेखक अपने को नहीं मानता हूं ।
दादा, अब तो एक उपन्यास लिख रहे हैं ?
हां, तो इस उपन्यास को 5 साल में हम लिख डालेंगे,…तो समझिए इसको मैंने जस्टिफाई किया ।
…अंतिम सवाल दादा , अक्सर लोग कहते हैं कि कहानियों में गांव का नाम तो होता है, उसमें गांव दिखता नहीं है, लेकिन आपकी कहानियों में खेरी, कौनी , सांंवा, मिट्टी के घरौंदे, यह सब चीजें स्वाभाविक रूप से आती है। गांव की भूखमरी , वहां का संघर्ष जीवंत रूप में आपके गांव में आता है। यह अनुभव आपके पास कहां से आया ?
देखिए , क्योंकि मैं गांव में रहा। उसको देखा सुना। उसी से जुड़ा हुआ रहा। मैं अकेला ही हूं तो खेती मुझे देखना ही है। गांव में खेती की समस्या , मजदूर ना मिलने की समस्या से जुड़ा हूँ, इसलिए लिख पा रहा हूं। लेकिन ऐसा कह नहीं पाता कि बिल्कुल आज का जो गांव है, मैं उससे उसी रूप में जुड़ा हुआ हूं । मैं वहां कभी-कभी जाता हूं। 12 महीने में 1 महीना मेरा गांव में बीतता है। कभी 8 दिन , कभी 10 दिन , कभी 12 दिन, कभी 5 दिन ,कभी 2 दिन । चूंकि वहां से रिश्ता बना हुआ है। मुझे वहीं से लेवर लेना है । वही के बाजार में सामान बेचना है। वहीं के बाजार से सामान खरीदना है।…. तो वह सारा ताना-बाना जो उस समय की नब्ज पर अपने हाथ रख जाता है। यदि खाली शहर में रहना होता और गांव की कहानी लिखता तो उसमें वह बात नहीं होती। जो गांव में नहीं रहते हैं , उसके लिए बहुत मुश्किल होता है ।…..लेकिन जो बहुत ज्यादा जीनियस हो, वह कर ले तो यह बहुत बड़ी बात है। आंख ओट , पहाड़ ओट होता है । यदि गांव छूट गया और आंखों के सामने नहीं दिखाई दे रहा है , तो धीरे-धीरे वह भी विस्मृति में चला जाता है । हमारा अभी वहां आना जाना रहता है , इसलिए विस्मृति में वह नहीं गया है और इतिहास की चीज वह नहीं हुआ है। हमारी कहानियों में भी गांव उतना कहां आ पाया है ? हम और ज्यादा जानते। हम यदि जुड़े होते। हम वहीं रात – दिन रहे होते तो जितना आया है, इससे और अच्छा आता। इसलिए नहीं कहा जा सकता कि जितना आया है, बहुत अच्छा है । लेकिन और ज्यादा जानकारी होती तो और अच्छा होता। कुछ और अच्छा लगता।
आपके मन में यह कसक है तो जाहिर है कि बाद में यह बात और भी बेहतर ढंग से आएगी।
हां ,…..और एक बात है कि आपकी उसमें रुचि हो । आप की दृष्टि भी हो । आप उस से वास्ता रखे हैं। आप उसमें विचरण करें। नहीं तो बहुत सारे लोग गांव में ही रहते हैं। वही- वही देखते हैं , लेकिन उनकी रुचि नहीं है लिखने में।…. तो उन्हें वह चीजें नहीं दिखती है । किसी चीज में आपकी रुचि हो जाती है। जैसे, हमारे यहां गांव में एक टेंपो है । टेंपो कुत्ता है। कहीं दौड़े जा रहे थे , तो उसका एक पैर अचानक कट गया।…. तो अब तीन टांग से ही दौड़ते हैं ।….तो हम जब जाते हैं तो बहुत खुश होते हैं। मतलब जितना शरीर को तोड़- मरोड़ करके, पूंंछ को हिला कर के, कां- कू करके अपना प्यार प्रदर्शित करना होता है, सबसे पहले वही मिलने आते है।….. और मेरे कपड़े को गंदा कर डालते है, मिट्टी लगा देते हैं , लेकिन मुझे उसका इस तरह से प्रेम प्रदर्शन अच्छा लगता है । मैं उसे कहता हूं कि बैठिये , इस तरह से बैठिए । ….. तो उसी तरह से फोटो खींचा लेते हैं । अपना जीभ निकाल देते हैं। दूसरा कोई कह सकता है , क्या कुत्ते को गले से लगाए हुए हैं ? कपड़ा गंदा कर देता है। दूसरे किसी को आपत्ति हो सकती है। ”
अपने समय के एक बड़े कथाकार से बात करना अच्छा लग रहा है।
बड़े कथाकार नहीं हैं हम। मैं ऐसा अपने को कभी नहीं मानता हूं ।
आपकी एक कहानी पढ़ी थी मैंने ,’बनाना रिपब्लिक ‘ । वह कहानी मुझे बहुत प्रभावित कर रही थी । उसमें यूनिवर्सिटी से कुछ क्रांतिकारी लड़के गांव में आते हैं और शोषित दलित लोगों के बीच चेतना लाते हैं। उन्हें चुनाव में खड़ा करते हैं , लेकिन अंत में वे चुनाव हार जाते हैं। ऐसी स्थिति में पाठकों के मन में बड़ी निराशा कर घर कर जाती है ।
देखिए ! वह टोली आई है और टोली समीकरण बना रही है । वे जो समीकरण बना रहे हैं और गांव का जो समीकरण है, उनको अभी उतना आत्मसात करने की स्थिति में वे नहीं है । वह जो ठाकुर इतना दंद- फंद लगा रहा है । जीतने के लिए खिला रहा है, पिला रहा है, भंडारा कर रहा है, दारू पिला रहा है ,….तो गांव का आम वोटर बिकने के लिए तैयार है। उसकी मानसिकता अभी उस तरह नहीं तैयार हो पाई है। वैसी स्थिति में भी गरीब दलितों की पार्टी दूसरे नंबर पर आई है ।…..और मात्र पांच वोट से हार गई है । इस तरह से पांच वोट की हार कोई हार नहीं है। सैद्धांतिकी वाले लोग अगर हारे हैं तो केवल पांच वोट से हारे हैं। जो वहां का माहौल है, उसमें केवल पांच वोट से हारना एक विजय की तरह है। विजय तो ऐसा है भाई , जिसको ज्यादा मिला वह विजयी हुआ।….. लेकिन मैं कहता हूं, यह भी एक विजह है, क्योंकि सारे छल- छद्म के बावजूद , फर्जी वोटिंग के बावजूद वे जीते हैं, तो केवल 5 वोट से जीते हैं । यह जीत हार के बराबर है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले लड़के जो उन्हें तार्किकता दे रहे हैं, वह उन्हें समझ में नहीं आ रही है। वहां जगुआ जैसे लोग ही जीतेंगे , जो ठाकुर को भी उल्लू बना दे रहा है । वह बैनामा के कागज पर अपनी औरत के पैर का अंगूठा लगा देता है । उनको भी मूर्ख बना दे रहा है और दूसरों को भी मूर्ख बना रहा है। देखिए कितना शातिर है जग्गू । वह ठाकुर को भी धता बता देता है। अंत में जीतता है वह। उसके दरवाजे पर नहीं जाता है वह । केवल मान सम्मान के लिए उसको जाना चाहिए था । जीत तो गया ही है । उतना भी नहीं हुआ। तो शातिर लोग थे ये दोनों, इसलिए 5 वोट से जीत गए।…. तो इसे मैं जीतना नहीं कहूंगा। यह कहना है मेरा।
हां, संघर्ष का परिणाम हर समय जीत ही नहीं होता। यह पांच वोट की हार से प्रेरणा तो मिलती ही है कि थोड़ा सा और प्रयास किया जाए तो इन विरोधी स्थितियों पर विजय पाई जा सकती है।
ख्वाजा ओ मेरे पीर कहानी का पात्र मामा और उनके गीत बहुत याद आते हैं भाई साहब। उस कहानी को तो वहीं समाप्त हो जाना चाहिए था, जहां से मामी ढिबरी की रोशनी में हाथ हिलाती हुई उनको विदा करती है और जीप चांदनी रात में आगे बढ़ जाती है।
हां, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मामाजी आजीवन परिवार से विरक्त रहे। उन्होंने देख लिया कि उनकी पत्नी की जिंदगी में अब वे कोई बदलाव नहीं ला सकते हैं। उन मीठी यादों में केवल अब बाकी जीवन गुजारा जा सकता है। वे फिर जीवन में लौटते हैं और फगुआ गाते हैं –
धन धरती वन बाग हवेली ,
चंचल नयन नार अलबेली ।
भवसागर के जल धुली जइहै,
तोरे मनमा के रंग दिलवा रे,
पपीहरा प्यारे ।
जीवन में इतना दुख देखने और भोगने के बाद भी मामा हारते नहीं हैं। उनके अंदर जीवन राग बचा हुआ है
अच्छा इंटरव्यू है शिव मूर्ति जी की जिंदगी का उतार-चढ़ाव और उनके व्यवहार का मूल्यांकन बहुत ही संजीदगी से किया गया है उम्मीद है कि भविष्य में इससे बेहतर इंटरव्यू किया जा सकता है।
डा लाल रत्नाकर