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वर्ग विभाजन के साये में पनपी एक खूबसूरत प्रेम कहानी है ‘सर’

आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर, नौकरानी का दर्जा दिया जाता है। ज्यादातर घरेलू कामगार वंचित समुदायों और निम्न आय वर्ग समूहों से आते हैं, इनमें से अधिकतर पलायन कर रोजगार की तलाश में शहर आते हैं। उन्हें अपने काम का वाजिब मेहनताना नहीं मिलता है और सब कुछ नियोक्ताओं पर निर्भर होता है जो की अधिकार का नहीं मनमर्जी का मामला होता है। घरेलू कामगारों को कार्यस्थल पर गलत व्यवहार, शारीरिक व यौन-शोषण, र्दुव्यवहार, भेदभाव एवं छुआछूत का शिकार होना पड़ता है। आम तौर पर नियोक्ताओं का व्यवहार इनके प्रति नकारात्मक होता है। इस पृष्ठभूमि में क्या रत्ना और अश्विन के लिए इन सबसे पार पाना, एक दूसरे से प्रेम करना और अपने नियमों के अनुसार जीना संभव है?

वर्ग विभाजन के विषय पर आधारित फ़िल्में हमेशा से ही भारतीय सिनेमा का एक प्रमुख आकर्षण रही हैं जिसमें एक अमीर और एक गरीब का प्रेमी जोड़ा अपने वर्गीय दायरे को पीछे छोड़ते हुए प्यार में पड़ जाता है। देवदास, बॉबी, मैंने प्यार किया और राजा हिंदुस्तानी जैसी हिंदी फिल्मों का एक लंबा सिलसिला है जो इसी सिनेमाई फार्मूले पर आधारित रही हैं। लेकिन रोहेना गेरा की फिल्म क्या प्यार काफी है?

‘सर’ इन सबसे अलग है जो इस विषय को बहुत ही यथार्थवादी तरीके से गहराई और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है। ‘सर’ वर्ग विभाजन के साए में एक नाजुक प्रेम कहानी को पेश करती है जिसे बिना किसी बनावटीपन के बहुत संजीदगी के साथ डील किया गया है। स्वाभाविकता इसकी सबसे बड़ी खासियत है जो इसे सरलीकरण और अतिरेकत दोनों से बचाती है। अभी तक कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अवार्डों से नवाजी जा चुकी है। इस फिल्म का साल 2018 में कान्स फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर हुआ था, दो साल बाद नवम्बर 2020 में इसे कोविड के साए में भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज किया गया, इसके एक महीने बाद इसे नेटफ्लिक्स पर रिलीज किया गया।

फिल्म की कहानी बहुत सीधी और सरल है। कहानी के केंद्र में रत्ना (तिलोत्तमा शोम) नाम की एक घरेलू नौकरानी है जो मूलतः महाराष्ट्र के किसी गांव से है, उसकी कम उम्र में शादी हो गयी थी लेकिन दो साल बाद पति के मौत से वो विधवा हो जाती है और काम के तलाश में मुम्बई आ जाती है। कहानी के दूसरे छोर पर अश्विन (विवेक गोम्बर) है जो अमीर है और पेशे से आर्किटेक्ट है, लेकिन वह मूल रूप से एक लेखक है, अश्विन कुछ साल पहले अमरीका से पढ़ाई करके लौटा है।

तमाम विभिन्नताओं के बावजूद इन दोनों किरदारों में कुछ समानताएं भी हैं जो इस कहानी के बनने का
कारण भी। जैसे भावनात्मक रूप से अश्विन का हाल भी कुछ रत्ना जैसी ही है। हाल ही में उसकी अपनी प्रेमिका के साथ मंगनी टूट गयी है क्योंकि उसका किसी और लड़के के साथ अफेयर हो जाता है। इसकी वजह से रत्ना की तरह उसके भी जीवन में एक खालीपन का दौर चल रहा है।

इसी प्रकार से दोनों का एक ख़ास सपना रहा है, रत्ना का ख्वाब एक फैशन डिजाइनर बनने का था जो जल्दी शादी और वर्गीय सीमाओं के चलते पूरा नहीं हो सका है। अश्विनी को भी अपने भाई के बीमार होने की वजह से न्यूयार्क से वापस आकर अपने बिल्डर परिवार के काम में लगना पड़ता है जबकि वो एक लेखक बनना चाहता है और इसके लिए अपना अधूरा उपन्यास पूरा करना चाहता है।

रत्ना अश्विन के अपार्टमेंट में रहते हुए मेड (घरेलू नौकरानी) के तौर पर फुल टाईम काम करती है, अश्विन की गर्लफ्रेंड के चले जाने के बाद अब इस घर में यहीं दोनों अकेले हैं। इसी माहौल में समानांतर लेकिन पूरी तरह से अलग जीवन जीने वाले ये दोनों लोग एक-दूसरे में रुचि लेने लगते हैं और फिर धीरे-धीरे उन दोनों के बीच असंभव-सा लगने वाला आकर्षण बढ़ने लगता है। इन दोनों के बीच का यह आकर्षण स्वभाविक मानवीय संबंधों के आधार पर परवान चढ़ता है और कहानी एक अनोखे भोलेपन और मिठास के साथ आगे बढ़ती है।

फिल्म का मूल विषय प्यार है, लेकिन दो विभिन्न वर्गीय पृष्ठभूमि से आये लोगों के बीच का प्यार इसे सामाजिक रूप से एक वर्जित प्रेम कहानी बनाती है। भारत में प्यार करना एक मुश्किल काम है, अपने दायरे से बाहर जाकर प्यार करना तो खतरनाक भी साबित हो सकता है। धर्म, जाति और वर्गीय दीवारों ने प्यार और शादी की एक हद तय कर रखी है जिससे बाहर निकलना एक जोखिम भरा काम है। हमारे मुल्क में घरेलू कामगारों की स्थिति वर्गीय विभाजन को समझने का एक आईना है।

सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत यहां आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर, नौकरानी का दर्जा दिया जाता है। ज्यादातर घरेलू कामगार वंचित समुदायों और निम्न आय वर्ग समूहों से आते हैं, इनमें से अधिकतर पलायन कर रोजगार की तलाश में शहर आते हैं। उन्हें अपने काम का वाजिब मेहनताना नहीं मिलता है और सब कुछ नियोक्ताओं पर निर्भर होता है जो की अधिकार का नहीं मनमर्जी का मामला होता है। घरेलू कामगारों को कार्यस्थल पर गलत व्यवहार, शारीरिक व यौन-शोषण, र्दुव्यवहार, भेदभाव एवं छुआछूत का शिकार होना पड़ता है। आम तौर पर नियोक्ताओं का व्यवहार इनके प्रति नकारात्मक होता है। इस पृष्ठभूमि में क्या रत्ना और अश्विन के लिए इन सबसे पार पाना, एक दूसरे से प्रेम करना और अपने नियमों के अनुसार जीना संभव है? अगर इन दोनों के बीच प्यार पनप भी जाता है तो क्या बाकी का समाज इसे स्वीकार करने के लिये तैयार है?

निर्देशक रोहेना गेरा इस फिल्म के जरिये अमीर-गरीब के बीच प्रेम को लेकर बनाई गयी हिंदी फिल्मों की अवधारणा का खंडन करती है बल्कि उसके स्थान पर एक नयी अवधारणा को पेश भी करती हैं जहाँ प्यार का मतलब साझा स्वीकृति और एक दूसरे के व्यक्तिगत आकांक्षाओं का सम्मान है। फिल्म प्यार के कारण अमीर-गरीब होने के अंतर को जबरिया पाटने की कोशिश नहीं करती है बल्कि यहां प्यार का मतलब दूसरे व्यक्ति की खोज के साथ खुद की खोज भी है।

अलग वर्गीय पृष्ठभूमि और मालिक-मेड (घरेलू नौकरानी) का रिश्ता होने के बावजूद दोनों के बीच पारस्परिक सम्मान का रिश्ता है। हमारी अधिकतर फिल्मों में महिलाओं को अक्सर कमजोर, सेक्स के रूप में चित्रित किया जाता है लेकिन ‘सर’ की नायिका रत्ना कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से होने के बावजूद एक मजबूत किरदार है। अपने निजी जीवन में नायक अश्विन के मुकाबले अधिक मजबूत और परिपक्व है। अश्विन भी एक व्यक्ति के तौर पर रत्ना और उसके श्रम का सम्मान करता है, उससे कभी बदतमीजी नहीं करता और हर काम के बात उसे शुक्रिया जरूर कहता है। जब अश्विन के पिता को उन दोनों के रिश्ते के बारे में पता चलता है तो अश्विन के पिता का पहला सवाल होता है कि ‘क्या वो अपनी नौकरानी के साथ सो रहा है?’  इसपर अश्विन का जवाब होता है कि नहीं, लेकिन मुझे उससे प्यार हो गया है।  जाहिर है उनके प्रेम में एक स्थायित्वपन जो शारीरिक आकर्षण से कही अधिक है और यही वो भाव है जो उन्हें एक दूसरे को वर्गीय दीवार को मिटा कर एक इंसान के तौर पर देखने का मौका देता है।

यह फिल्म सिनेमा के असली ताकत का एहसास कराती है, फिल्म में संवादहीन दृश्यों और मौन का बहुत खूबसूरती से उपयोग किया गया है, फिल्म संवादों से अधिक दृश्यों और भावों से कहानी को व्यक्त करती है। ‘सर’ उन चुनिन्दा फिल्मों में से एक है जिसे देखने के बाद आप पर लम्बे समय तक इसका असर बरकरार रहता है साथ ही यह एक ऐसी फिल्म है जिसे पूरी तरह से समझने और सराहना करने के लिए एक से अधिक बार देखना जरूरी है।

‘सर’ में तिलोत्तमा शोम, विवेक गोम्बर, गीतांजलि कुलकर्णी जैसे उम्दा कलाकारों ने काम किया है।  तिलोत्तमा शोम जिन्हें हम 2001 में आई मीरा नायर की फिल्म ‘द मॉनसून वेडिंग’ में देख चुके हैं यहां अपने अभिनय के चरम पर दिखाई देती हैं। इसी प्रकार से विवेक गोम्बर ने अश्विन के किरदार को सादगी भरे जादूगरी से निभाया है। विवेक को इससे पहले हम चर्चित मराठी फिल्म ‘कोर्ट’ में वकील के किरादर में देख चुके हैं।

निर्देशक रोहेना गेरा ने इस फिल्म के माध्यम से हमारे सामने अपने असीमित सिनेमाई संभावनाओं के साथ पेश होती हैं। उनकी शरुआत 2003 में ‘जस्सी जैसी कोई नहीं’ सीरियल के पटकथा लेखक के तौर पर हुयी थी। साल 2014 में वे ‘व्हाट्स लव गॉट टू विद इट’ नाम की चर्चित डॉक्यूमेंट्री बना चुकी है। जो पारंपरिक अरेंज मैरिज में प्यार की तलाश थी। 2002 में गुजरात दंगों के बाद वे घृणा बंद करो ‘एक भारतीय के खिलाफ अपराध सभी भारतीयों के खिलाफ अपराध है’ जैसी सन्देश देती हुयी विडियो भी बना चुकी हैं, जिसमें अमिताभ बच्चन, मकबूल फ़िदा हुसैन, जाकिर हुसैन, सचिन तेंदुलकर, शबाना आज़मी, तब्बू, अनुपम खेर, रवीना टंडन, आशुतोष गोवारिकर जैसे लोग शामिल थे।

जावेद अनीस
जावेद अनीस
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और और विभिन्न मुद्दों व विषयों पर लिखते हैं। भोपाल में रहते हैं।

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