अभिव्यक्ति के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकारों में रखा गया है। इस अधिकार के कारण ही देश में साहित्य, मीडिया, थियेटर व सिनेमा आदि का अस्तित्व है। हालांकि यह हमेशा से सवाल रहा है कि अभिव्यक्ति की परिभाषा क्या हो? खैर, यह एक बड़ा सवाल है और इस सवाल की जद में पूरा का पूरा भारतीय समाज शामिल है। जाहिर तौर पर जातिवाद, पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद इसकी बुनियाद में है। फिलहाल तो मैं भगवाधारी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर (पूर्व में आतंकी घटना की आरोपी) का बयान देख रहा हूं जो दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता ने प्रकाशित किया है। फिल्मकार प्रकाश झा और उनके कलाकारों के साथ बजरंग दल के उन्मादियों द्वारा मारपीट की घटना के बाद प्रज्ञा ठाकुर ने बयान दिया है कि फिल्मकारों को मध्य प्रदेश में शूटिंग से पहले अपनी पटकथा सरकार को दिखानी होगी। उन्होंने यह भी कहा है कि यदि भारत में रहना है तो सनातनी धर्म का सम्मान करना होगा।
ऐसी ही बात मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र ने कही है जो कि प्रकाश झा की जाति से आते हैं। उन्होंने प्रकाश झा व उनके कलाकारों के पीटे जाने को विवाद की संज्ञा दी है। उनका कहना है कि सरकार अब इस विवाद के बाद एक स्थायी दिशा-निर्देश जारी करने जा रही है कि यदि किसी को अपनी फिल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश में करनी है तो उन्हें पहले अधिकारियों को पटकथा दिखानी होगी। अधिकारी तय करेंगे कि शूटिंग की अनुमति दी जाय अथवा नहीं।
मुझे लगता है कि अब इस लड़ाई का थोड़ा-सा विस्तार हुआ है। पहले यह लड़ाई केवल मीडियाकर्मियों और साहित्यकर्मियों तक सीमित थी। कल तो प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भी अपना विरोध प्रकट किया है। हालांकि इसने अपने विरोध पत्र में बजरंग दल का नाम लेने से भी परहेज किया है, जो कि इसके डर का परिचायक है।
[bs-quote quote=”बहरहाल, मैं प्रज्ञा सिंह ठाकुर के इस बयान के बारे में सोच रहा हूं कि भारत में रहना है तो सनातन धर्म का सम्मान करना होगा। उनके इस बयान में विरोधाभास है। कल ही मैं ऋग्वेद को पढ़ रहा था। इस वेद की ऋचाएं प्रज्ञा सिंह ठाकुर को पढ़नी चाहिए। इन ऋचाओं में सम्मान के जैसा क्या है, इसका भी उन्हें अहसास होगा। वेदों से अधिक गंध तो पुराणों में है। ब्रह्मावैवर्त पुराण का अध्ययन प्रज्ञा सिंह ठाकुर को अवश्य करनी चाहिए ताकि वह समझ सकें कि रासलीला का अर्थ क्या है?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
कुल मिलाकर सवाल यह है कि प्रकाश झा को अब समझ में आया होगा कि जंगलराज की परिभाषा क्या होती है? वैसे समझ तो तभी आ गयी होगी जब उन्हें लात-मुक्के से पीटा गया और उनके उपर स्याही फेंकी गयी। लेकिन उन्हें यह जरूर लगा होगा कि भाजपा की सरकार में बैठे उनके शुभचिंतक उनका पक्ष लेंगे। लेकिन नरोत्तम मिश्र और प्रज्ञा ठाकुर का बयान उन्हें लात-मुक्कों के प्रहार से अधिक पीड़ादायक महसूस हुआ होगा। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि प्रकाश झा बेहतरीन फिल्मकार रहे हैं। वे विवादों से भयभीत नहीं होते। वे अपनी आलोचनाओं का सामना करने को तैयार रहते हैं।
बॉलीवुड में रीढ़दार फिल्मकारों में उनकी गिनती की जा सकती है। खासकर उनकी फिल्म ‘दामुल’(1986) और ‘मृत्युदंड’(1997), इसका उदाहरण हैं कि कैसे उन्होंने विपरीत दिशा में जाकर फिल्में बनायीं। लेकिन फिल्मकार हो या कोई साहित्यकार, वह जड़ नहीं रहता है। वह आगे बढ़ता रहता है। आगे बढ़ने की दिशा भी वह खुद तय करता है। प्रकाश झा राजनीति करना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने अपनी फिल्मों का उपयोग किया। लेकिन उन्हें इसका लाभ नहीं मिला।
बहरहाल, मैं प्रज्ञा सिंह ठाकुर के इस बयान के बारे में सोच रहा हूं कि भारत में रहना है तो सनातन धर्म का सम्मान करना होगा। उनके इस बयान में विरोधाभास है। कल ही मैं ऋग्वेद को पढ़ रहा था। इस वेद की ऋचाएं प्रज्ञा सिंह ठाकुर को पढ़नी चाहिए। इन ऋचाओं में सम्मान के जैसा क्या है, इसका भी उन्हें अहसास होगा। वेदों से अधिक गंध तो पुराणों में है। ब्रह्मावैवर्त पुराण का अध्ययन प्रज्ञा सिंह ठाकुर को अवश्य करनी चाहिए ताकि वह समझ सकें कि रासलीला का अर्थ क्या है?
मैं तो प्रकाश झा से यह उम्मीद रखता हूं कि वह अपनी रीढ़ को मजबूत करें और इस लड़ाई को लड़ें। हिंदू धर्म जिसे प्रज्ञा सिंह ठाकुर सनातन धर्म कह रही हैं, के मूल ब्रह्मा के उपर एक फिल्म बनाने का साहस करें, जिसमें वह यह जरूर दिखाएं कि कैसे ब्रह्मा ने अपनी बेटी के साथ व्यभिचार किया और विरोध करने वाले अपने बेटे नारद को आजीवन मौगा बने रहने का शाप दिया था। संभव है कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर को सनातन धर्म की सड़ांध का अहसास होगा और यह भी कि इस दुनिया के संचालन में इश्क की अहम भूमिका है।
इश्क से एक बात याद आयी। कल ही एक कविता जेहन में आयी–
दुनिया को चाहिए एक मार्क्स
लेकिन वह नहीं,
जिसने कहा था-
दुनिया के मजदूरों एक हो।
शर्त यह है कि
नया वाला मार्क्स अलहदा हो
वह ओवरकोट भी पहने
और ठेहुने से उपर तक लंगोट भी।
नये मार्क्स को गढ़नी होगी
रोटी की नई परिभाषा
उसे याद रखना होगा कि
रोटी की सुलभ उपलब्धता
अर्थशास्त्र का पहला मौलिक सिद्धांत है।
और आवश्यक है कि
वह बंदूक के ट्रिगर दबाने से अधिक
आंखों की भाषा समझने में माहिर हो।
हां, नये मार्क्स के लिए जरूरी है कि
वह इश्क करे
और उसके इश्क के गीत
युगांडा से लेकर फिलीस्तीन
और क्यूबा, मास्को होते हुए
दिल्ली, इस्लमाबाद, लंदन और
अमरीका के कैपिटल हिल तक गुनगुनाए जाएं
क्योंकि बिना इश्क के कोई
मार्क्स नहीं बन सकता।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।
भाई नवल किशोर जी को इतनी अच्छी सामयिक परिचर्चा के लिए साधुवाद!!!
आपने जिस तरह दो टूक बात की है वह निश्चित रूप से एक उम्मीद जगाती है । यह उम्मीद कि प्रजातंत्र के मौलिक अधिकारों को बचाने के लिए आप जैसे जुझारू लोगों की कमी नहीं है। मंगल कामनाएं