शहरों में अपनी जगह बनाती ग्रामीण और कस्बाई लड़कियों के संघर्ष

नीलम स्वर्णकार

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छोटे शहरों, गांवों और कस्बों से जाने कितने तरह के संघर्ष से जूझती लड़कियां आंखों में बड़े-बड़े सपने लिए शहर आती हैं। पढ़ती हैं, जॉब करती हैं। सीमित शिक्षा और अवसरों के बाबजूद अपनी राह बनाती हैं।

शहर जाकर जिंदगी आसान हो जाएगी यह सोचकर आई लड़कियों का सामना शहर के नए किस्म के तूफानों से होता है। अपने आसपास के दमघोंटू वातावरण से तो पीछा छूट जाता है पर शहर में तालमेल बैठाती लड़कियों को तमाम तरह के नए अनुभवों से गुजरना पड़ता है। अपनी सारी डिग्रियां और हुनर समेटे ये लड़कियां बड़े शहरों के माहौल में तालमेल बैठाने की जद्दोजहद से गुजरती हैं।

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भारतीय समाज के ज्यादातर घरों का माहौल लड़कियों के लिए बेहद क्रूर है। यहां इक्कीसवीं सदी में भी बहुत से घरों में लड़कियों को आगे पढ़ाना अच्छा नहीं समझा जाता। पांचवीं और आठवीं तक पढ़ाकर घर बैठा दिया जाता है। ऐसे में शहर भेजने की बात तो बहुत दूर की है। जो लड़कियां इन सबसे लड़कर आगे बढ़ने का प्रयास करती हैं उन्हें घरवालों के गुस्से के साथ-साथ पड़ोसी और रिश्तेदारों के तानों का भी सामना करना पड़ता है। हर दिन उन्हें कोसा जाता है और घर की अन्य लड़कियों से भी दूर रहने को कहा जाता है कि वे भी तुम्हारी तरह चार अक्षर पढ़कर बिगड़ जाएंगी।

वे जब-जब घर आती हैं तब बार-बार उन पर पढ़ाई व जॉब छोड़ने और शादी करने का दवाब डाला जाता है। गरीबी और पितृसत्ता में फंसी इन लड़कियों को बहुत कुछ झेलना पड़ता है।

नए शहर में नई चुनौतियां

शहर में आकर नई चुनौतियां शुरू होती हैं। वहां के माहौल में सामंजस्य बैठाने से लेकर पढ़ाई पर फोकस करने और जॉब ढूंढने की मुश्किलें। जॉब मिल जाए तो टिके रहने का प्रेशर।

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कार्यस्थल पर अक्सर उनकी बोली/ भाषा, कपड़े, व्यवहार, जाति/ धर्म, स्थान आदि का मजाक उड़ाया जाता है। उन्हें अलग-थलग महसूस कराया जाता है। उनसे जितना काम लिया जाता है उसके अनुरूप उतना भुगतान भी नहीं किया जाता। सैलरी काटने के तमाम तरह के रूल और रेगुलेशंस होते हैं। कई सर्वे के अनुसार महिलाएं कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव और यौन उत्पीड़न झेलती हैं। लड़की/ महिला होने की वजह से उनके टैलेंट, हौसले और प्रतिभा को इग्नोर किया जाता है।

उन्होंने मुझे डॉक्युमेंट्स के लिए बहुत ज्यादा परेशान किया। कभी एक बार में नहीं बोलते थे कि ये सारे डॉक्युमेंट्स ले आओ। एक जमा करती तो दूसरे की मांग करते। मेरे पास जो भी रुपए थे उनमें से ज्यादातर तो ऑटो/टेंपो के किराए में लग जाते थे क्योंकि ऑफिस बहुत दूर था। जब वहां जाती तो देर तक बैठकर इंतजार करती रहती। कोई क्लियर नहीं बताता था कि मेरा चयन हो गया है या नहीं। हमेशा कन्फ्यूजन में रखते। महीनों उन्होंने मुझे इसी तरह दौड़ाया।

शहर में चार पैसे कमाने की, अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद में लगी ये लड़कियां मजाक, शोषण, भेदभाव, उत्पीड़न और नौकरी की असुरक्षा का डर झेलकर और ओवरवर्क करके भी टिकी रहती हैं। इस से उनके शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और काम करने के तरीके पर बहुत बुरा असर पड़ता है।

कार्यस्थल पर इनसे बैल की तरह काम लिया जाता है और बात-बात पर पैसे काटे जाते हैं। महंगाई इतनी कि किराए और खाने के बाद जो थोड़े बहुत पैसे बच पाते हैं उसी में पूरा महीना निकालना होता है। अच्छी शॉपिंग और मनोरंजन तो दूर की बात है। जो है उसी में किसी तरह गुजारा होता है।

लड़कियों की ज़ुबानी

मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के एक छोटे-से गांव हिनाई की प्रेमलता आर्मो से जब मैंने उनके अनुभवों के बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि जिस जगह से वे आती हैं वहां मूलभूत सुविधाओं का बेहद अभाव है। बिजली, पानी, सड़क जैसी चीजों के अभाव में जिंदगी बेहद कठिन होती है। खासकर लड़कियों और महिलाओं की।

“मेरे माता पिता छोटे किसान हैं। बचपन में मेरी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाई, क्योंकि स्कूल की हालत बहुत खराब थी। बारिश में पानी और कीचड़ भरा रहता था।

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मैंने अपने पिता से कहा कि मेरा दाखिला किसी शहर के स्कूल में करा दीजिए। मेरे दादाजी और परिवार के बाकी लोग इसके खिलाफ थे लेकिन फिर भी पापा ने मेरा साथ दिया और मेरा दाखिला शहर के एक स्कूल में करवाया। स्कूल 40 किलोमीटर दूर था तो स्कूल जाने के लिए मुझे और पापा को पहले 10 किलोमीटर पैदल चलना होता था फिर एक नाला पार करना पड़ता था तब वहां से एक बस पकड़ कर स्कूल जाती थी। बरसात में जब बाढ़ आ जाती थी तो कभी तैरकर और कभी पापा के कंधों पर बैठकर नाला पार करती थी। पापा ने ब्लॉक में आवेदन करके ये समस्या बताई तब मुझे छात्रवास में रहने का मौका मिला। मैंने पढ़ाई और स्कूल में होने वाली हर गतिविधि पूरे मन से की और इस तरह मैंने आठवीं पास की।

घर की आर्थिक स्थिति और खराब होती जा रही थी, फीस भरना बहुत मुश्किल था। पर मैंने कहा कि मुझे आगे पढ़ना ही है तो मेरी पढ़ाई के प्रति इतनी ज़िद देखकर किसी तरह पापा ने बारहवीं तक मेरी फीस भरी।

लेकिन इसके बाद कॉलेज में एडमिशन के लिए घर में बिल्कुल भी पैसे नहीं थे फिर भी मैंने शहर जाने का फैसला किया और मेरे माता-पिता ने मेरा साथ दिया।

कुछ महीने मैं घर पर रही पर ऐसे कब तक चल सकता था। मैं फिर से शहर आ गई। कुछ दिन अपनी एक सहेली के साथ रही और जॉब ढूंढी। चूंकि मैंने ग्रेजुएशन कंप्लीट नहीं किया था तो कोई मुझे नौकरी देने को तैयार नहीं था। मुझे अंग्रेजी भी नहीं आती थी। कहीं बात बनते भी दिखती तो लोग मेरे कपड़ों की वजह से जज करते कि ये क्या कर पाएगी।

शहर आकर पैसे कमाना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। मैंने एक कंपनी में डायरेक्ट सेलिंग का बिजनेस शुरू किया पर उसके लिए भी पैसे चाहिए थे। जहां मैं रहती थी वहां खाने-पीने तक की कोई व्यवस्था नहीं थी। पर मन में जुनून सवार रहता था कि पढ़ना है, कुछ करना है। कराते में ब्लैक बेल्ट लेना है, सिंगर भी बनना है।

वहां काम करते हुए मैं ट्रेनर बन गई और लोगो को सेलिंग सिखाने लगी। पर कमाई बहुत ही कम थी। इतनी कि कभी-कभी पांच रुपए की नमकीन खाकर तो कभी भूखी सो जाती थी। कहीं बाहर जाना हो तो अच्छे कपड़े पहनने के लिए दूसरी लड़कियों से लेने पड़ते थे। थोड़े और पैसे कमाने के लिए मैं रात को कागज के लिफाफे बनाती थी और सुबह आसपास की दुकानों पर बेच देती थी।

कंपनी में खूब मेहनत करके मैंने खुद के अंडर में 20-30 लोगो की टीम बनाई और थोड़ा पैसा आने ही लगा था कि कोविड की वजह से सरकार ने लॉकडाउन लगा दिया। मुझे घर आना पड़ा। इस वक्त मुझ पर क्या गुजरी मैं बता नहीं सकती।

कुछ महीने मैं घर पर रही पर ऐसे कब तक चल सकता था। मैं फिर से शहर आ गई। कुछ दिन अपनी एक सहेली के साथ रही और जॉब ढूंढी। चूंकि मैंने ग्रेजुएशन कंप्लीट नहीं किया था तो कोई मुझे नौकरी देने को तैयार नहीं था। मुझे अंग्रेजी भी नहीं आती थी। कहीं बात बनते भी दिखती तो लोग मेरे कपड़ों की वजह से जज करते कि ये क्या कर पाएगी।

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एक महीने तक ये सब चलता रहा।

फिर एक एनजीओ के जरिए एक घर में मुझे होमकेयर की नौकरी मिली। उनके घर में मुझे 24 घंटे काम करना था। घर के सारे काम जैसे खाना बनाना, कपड़े, झाड़ू पोंछा, बर्तन, सफाई सब कुछ करना होता था। मैं रात को 12 बजे सोने जाती थी। और उसमें भी बीच में कोई आ गया तो चाय-नाश्ता बनाकर देना होता था।

मैने एक महीने तक उनके यहां काम किया और सैलरी मिलने बाद वो काम छोड़ दिया। उन पैसों से अपने लिए एक कमरा किराए पर लेकर अपने किए गैस चूल्हे और अन्य सामान की व्यवस्था की।

और इसके साथ ही कॉलेज में BPES (बैचलर ऑफ फिजिकल एजुकेशन) में एडमिशन लिया। लेकिन कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद पता चला कि वहां तो पढ़ाई ही नहीं होती। मैने टीचर्स से लेकर प्रिंसिपल तक सबको शिकायत की कि आप पढ़ाइए लेकिन मेरी कोई बात नहीं सुनी गई।

इसके बाद मैने कलेक्ट्रेट, कमिश्नर, शिक्षा विभाग, CM हेल्पलाइन सब जगह लिखित शिकायत की कि आज तक मेरे कॉलेज में एक भी क्लास नहीं लगी और न ही मुझे कोई छात्रवृत्ति मिली। लेकिन मेरी कहीं सुनवाई नहीं हुई।

मेरे सहपाठी ऐसे परिवारों से थे जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी उन्होंने मेरा साथ देने की बजाय दो टूक कह दिया कि हमें पढ़ाई से कोई मतलब नहीं बस डिग्री मिलनी चाहिए। इस सबसे निराश होकर मैंने दूसरे विश्वविद्यालय में निवेदन किया कि आप मुझे क्लास में पढ़ने की अनुमति दें तो वे मान गए।

चूंकि मुझे स्कॉलरशिप नहीं मिली थी थी तो पहले वर्ष की फीस मैंने तीन परसेंट ब्याज पर उधार लेकर भरी। और आज मैं सेकेंड ईयर में हूं जिसकी फीस मेरे कुछ साथियों ने मिलकर भरी है।

मैंने कराते अकादमी भी ज्वाइन कर ली है।

अभी भी बहुत दिक्कतें हैं। चार महीने से मेरे पास कोई नौकरी नहीं है और इसलिए पैसे बचाने के लिए मुझे कॉलेज और कराते अकादमी पैदल या लिफ्ट लेकर जाना पड़ता है। कमरे से कॉलेज की दूरी 10 से 12 किलोमीटर है और अकादमी की 15 किलोमीटर है। मुझे कॉलेज जाने के लिए कुछ घंटे पहले निकलना पड़ता है।

कॉलेज के पास कमरा नहीं ले सकती क्योंकि अब मेरे छोटे भाई मेरे पास रहकर पढ़ते हैं जिनका स्कूल यहां से पास ही है तो जब तक मैं ठीक से जीवनयापन करने लायक पैसे नहीं कमा लेती तब तक मुझे इसी तरह पैदल और लिफ्ट लेकर जाना पड़ेगा और किसी भी तरह करके फीस, कमरे का किराया और खाने-पीने के लिए पैसे बचाने होंगे। देखिए…जिंदगी आगे क्या गुल खिलाती है। कुछ जगह जॉब के लिए अप्लाई किया है, कुछ जगह इंटरव्यू दिए हैं देखते हैं कहां काम मिल पायेगा। मेरा संघर्ष जारी है।

इसी मुद्दे पर अपने अनुभव पूछे जाने पर यूपी के आजमगढ़ की लिपि दत्ता बताती हैं कि ‘लड़कियों के लिए तो हर जगह दिक्कतें हैं। छोटे शहर हों या बड़े सभी जगह हमें ज्यादा फाइट करनी पड़ती है। मैं जब नौकरी ढूंढने निकली तो सबसे पहले तो मुझे मेरे कपड़ों को लेकर असहज कराया गया। मेरी डिग्री न देखकर वे मुझे कपड़ों से जज करते थे।

उन्होंने मुझे डॉक्युमेंट्स के लिए बहुत ज्यादा परेशान किया। कभी एक बार में नहीं बोलते थे कि ये सारे डॉक्युमेंट्स ले आओ। एक जमा करती तो दूसरे की मांग करते। मेरे पास जो भी रुपए थे उनमें से ज्यादातर तो ऑटो/ टेंपो के किराए में लग जाते थे क्योंकि ऑफिस बहुत दूर था। जब वहां जाती तो देर तक बैठकर इंतजार करती रहती। कोई क्लियर नहीं बताता था कि मेरा चयन हो गया है या नहीं। हमेशा कन्फ्यूजन में रखते। महीनों उन्होंने मुझे इसी तरह दौड़ाया।

घर से जो पैसे लेकर आई थी वो भी खत्म होने को थे। इसके बाद लॉकडाउन लग गया। आने-जाने के रास्ते बंद हो गए। मुझे टेंशन होने लगी कि मेरे पास तो अब ज्यादा पैसे भी नहीं बचे हैं और जिस जगह मैं रहती हूं वो ऐसी जगह है कि अगर मैं यहां कोविड या भूख से मर भी जाऊं तो किसी को पता नहीं चलेगा। अकेली लड़की किसी से मदद भी मांगे तो लोग फायदा उठाने की पहले सोचते हैं। मैं रोज सोचती थी घर कैसे जाऊं तभी मुझे पता चला कि पापा के एक दोस्त मेरे शहर जा रहे हैं तो इस तरह मुझे घर जाने का मौका मिल गया।

मैं घर तो आ गई लेकिन नौकरी की फिक्र बराबर बनी रहती। मैं जब भी जॉब के लिए कॉल करती वे हमेशा कुछ न कुछ बहाना बनाकर टाल देते। फिर एक दिन उन्होंने कह दिया कि दूसरी जॉब की तलाश कर लो.. हम तो लॉकडाउन खुलने के बाद ही कुछ बता पाएंगे। बाद में मुझे पता चला कि उन्होंने मेरी जगह किसी परिचित को जॉब पर रख लिया।

अब साल भर पहले ही मुझे नई नौकरी मिली है। यहां मैं ही सबसे कम उम्र की हूं। मुझसे बड़े सभी लोग मुझे एक्स्ट्रा काम देकर चले जाते हैं और क्रेडिट खुद ले लेते हैं।

मेरे एक सीनियर जो उम्र में मुझसे काफी बड़े हैं वे अक्सर मुझसे द्विअर्थी संवाद करते हैं। मुझे इग्नोर करना पड़ता है।

हां, मुझे पता है कि उनका ये व्यवहार यौन उत्पीड़न की केटेगिरी में आता है। सन 2013 में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न अधिनियम को पारित किया गया था। जिन संस्थाओं में दस से अधिक लोग काम करते हैं, उन पर यह अधिनियम लागू होता है लेकिन क्या बोलूं मैं… नौकरी का सोचकर गुस्से को कंट्रोल करती हूं। लैंगिक उत्पीड़न कानून के होने के बाबजूद मैं उनके व्यवहार को अनदेखा करने पर विवश हूं।

इसके अलावा मुझे जब चाहे जितने भी लोगों के सामने चिल्लाकर अपमानित किया जाता है। संडे को भी काम पर बुला लेते हैं। ऑफिस का माहौल ऐसा है कि कोई लड़की आगे बढ़ रही होती है तो हमारे सीनियर ही नीचे गिराने की कोशिश करते हैं।

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हमें जरूरत से ज्यादा काम दिया जाता है। हमारे लिए एक ढंग के टॉयलेट तक की व्यवस्था नहीं है। जो टॉयलेट है वो ऐसा है कि बार-बार UTI (Urinary Tract Infection) हो जाता है। इनके डबल मीनिंग जोक्स सुनकर और ज्यादा काम करके भी हम लड़कियां किसी तरह अपनी जॉब करती हैं। बहुत टॉक्सिक माहौल है। मैं किसी तरह अपनी मेंटल हेल्थ को कंट्रोल किए हुए हूं पर कभी-कभी बहुत फ्रस्ट्रेट हो जाती हूं। बस.. कुछ करना है.. आगे बढ़ना है यही सोचकर अपनी जॉब कर रही हूं।’

लड़कियों को साथ, प्रोत्साहन और एकजुट होने की ज़रूरत है

कार्यस्थल पर लड़कियों/ महिलाओं का एकजुट होना बेहद ज़रूरी है। वे जितना संगठित रहेंगी उतनी ही मजबूती से अपनी बात रख पाएंगी, तमाम दिक्कतों से लड़ पाएंगी, सशक्त हो पाएंगी।

महिलाएं आपस में हर मुद्दे पर बातचीत करें। समझ और जागरूकता बढ़ाएं। कानून की जानकारी लें। अपना एक ग्रुप बनाएं। नए शहर में और ऑफिस में भरोसेमंद लोगों को साथ रखें। उत्साहित करें। आप बड़े पद पर हैं तो अपने कर्मचारियों को उनके हक का सही मेहनताना दें।

सभी को गरिमा और सुरक्षा के साथ काम करने का अधिकार है

महिलाओं की गरिमा बनाए रखने की जिम्मेदारी सिर्फ नियोक्ताओं की ही नहीं बल्कि पूरे समाज की है। नियोक्ताओं को चाहिए कि वे अपने कर्मचारियों को सपोर्ट करें, प्रोत्साहित करें। आप बड़े पद पर हैं तो अपने कर्मचारियों को उनके हक का सही मेहनताना दें।

नियोक्ताओं (Employers) की जिम्मेदारी होती है कि वो कार्यस्थल पर तनाव मुक्त माहौल बनाएं जिस से महिला कर्मचारी सेफ और कॉन्फिडेंट महसूस करें। साथ ही ये भी सुनिश्चित करें कि कार्यस्थल पर हर जगह नोटिस लगा हो कि यौन उत्पीडन एक दुर्व्यवहार है जो उस तरह के लोगों को साफ संदेश देगा। लड़कियों के साथ किसी भी तरह का गलत बर्ताव होता देखकर चुप न रहें, उनका साथ दें। ज़रूरत पड़े तो महिला थाने तक जाने में सहयोग दें और ऐसा माहौल बनाएं कि कभी कोई गलत हरकत करने की सोचे भी नहीं।

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जिन्हें भी आपने नियुक्त किया है उनके लिए शोषक न बनें। अगर आपके पास पावर है, आप कार्यस्थल पर बदलाव कर सकते हैं तो करें। पहले से चले आ रहे सिस्टम को बदलें। अपने स्टाफ को को उचित पेमेंट, छुट्टियां, साफ टॉयलेट, पीने का साफ पानी, काम के बीच आराम और सेफ्टी भी दें।

स्त्री की गरिमा का खयाल रखें। पहले से सैंकड़ों परेशानियां झेल रही लड़कियों/ महिलाओं के लिए और परेशानी का सबब न बनें। आए दिन अपने से नीचे काम कर रहे लोगो के शोषण की खबरें पढ़ने को मिलती हैं। इन लड़कियों के लिए पहले ही समाज ने तमाम दिक्कतें खड़ी कर रखी हैं। उनके लिए आप एक और खलनायक न बनें।

नीलम स्वर्णकार स्वतंत्र लेखिका एवं पत्रकार हैं। छत्तीसगढ़ में रहती हैं। 

6 Comments
  1. मुरली says

    बहुत शानदार , सच्चाई के साथ ही एक स्त्री होंने की विवशता
    और उस विवशता से उपजी परिस्थियों में भी जीने की जिजीविषा
    को उकेरता एक शानदार कथ्य जो समाज को अपने सभ्य और सुसंस्कृत
    होंने के दावे पर सोचने को विवश कर दे।

  2. प्रशांत says

    लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ का श्रेष्ठ उदाहरण। धन्यवाद नीलिमा जी, समाज मे हमारी लड़कियो की पीड़ा और चुनौतियों पर रोशनी डालने और उनके समाधान पर प्रकाश डालने के लिये।

  3. Gulabchand Yadav says

    यथार्थ स्थितियों पर दो टूक और खरी खरी बात। हमारे देश में आज भी कार्यस्थलों पर युवतियों/महिलाओं के काम करने की स्थितियां बेहद खराब और शोषणपूर्ण हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर पुरुषों की मानसिकता भी घिनौनी होती है। सलाम उन बहनों/बेटियों को जो तमाम प्रतिकूलताओं और बाधाओं के बावजूद अपनी आत्मनिर्भरता और अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए जमकर लोहा ले रही हैं। उन्हें तहेदिल से शुभकामनाएं। नीलम स्वर्णकार को धन्यवाद इनकी सच्ची कहानियों को सामने लाने के लिए।

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