मज़हब का अंधियारा चुन
यानी उन्हें दुबारा चुन
मज़हब के पीछे का अंधियारा सरकार जनित मीडिया का अंधियारा है। इस अंधेरे को नया चमकता हुआ नाम दिया गया है जिसे देशभक्ति कहते हैं।
यूँ तो दुनिया की हर व्यवस्था प्रेस को प्रभावित करती है, उसे अपने माफ़िक़ रखना चाहती है। संचार-प्रचार माध्यमों को प्रभावित करती है, परन्तु वर्तमान राष्ट्रवादी, बिकाऊ-बेचू, पूंजीपतियों की दलाल सरकार ने तो टीवी-अखबारों को दलाल मीडिया का नया रूप ही दे दिया है। मीडिया को पंगु बनाने का काम पिछले सात सालों में जिस तेजी से हुआ है, वह सोचनीय है।
दो एक पत्रकारों अखबारों और चैनलों को छोड़़ कर बाकी सब डूब कर पानी पीते-पीते अब उघार हो चुके हैं। अब तो क्लीन चिट देने के बदले, दस्तूरी लेने के पहले, मुंह फेर लेने की शर्म भी नहीं बची है। नतीज़ा सामने है। कल का ख़रीदा मीडिया आज सरेआम कालर पकड़ कर धमकाया गरियाया जा रहा है। फिर भी तलवे चाट रहा है। अब तक यह सब टिकाऊ मीडिया के साथ हो रहा था, अब यह बिकाऊ मीडिया के साथ भी शुरू हो चुका है। यानी सरकार को स्वतंत्र ही नहीं, परतंत्र मीडिया भी बरदाश्त नहीं. उसे सिर्फ़ सरकारी मीडिया चाहिए।
सोचिए यदि सच के सार्वजनिक होने का रास्ता ही ब्लाक कर दिया जाए तो फिर तो संवैधानिक लोकतंत्र मोतियाबिंद का शिकार हो जाएगा और टो-टो कर चलेगा, जैसे कि आज पूंजी की छड़ी के सहारे चल रहा है। वो तो भला कहिए सोशल मीडिया का और जनता के विवेक की उस लाठी का कि जनता का अपना जनतंत्र चल भी रहा है और सम्हल भी रहा है। किसान आंदोलन और उसके परिणाम स्वरूप डरी सरकार द्वारा थोपे गये क़ानूनों की वापसी जनता के अपने लोकतंत्र की वापसी का अप्रतिम उदाहरण है। दलाल मीडिया के प्रेस-मोतिया का आपरेशन समय रहते बहुत ज़रूरी है।अब इसके अंधत्व में संसदीय संस्थाएं भी आ चुकी हैं और सरकारी झूठ के प्रेस-प्रचार में न्यायपालिका भी। यह कैंसरस है।
झूठ के दो पर्याय लिखो
टीवी चैनल और अखबार
मेरी दिली ख़्वाहिश है कि यथार्थ की ज़मीन पर मेरे इस शेर की धज्जियां उड़ जाएं।
देवेन्द्र आर्य जाने माने कवि और गज़लकार हैं ।