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महाराष्ट्र : किसानों की पत्नियाँ कर्ज चुकाते जी रही हैं बदतर ज़िंदगी

आज समूचे देश में कृषि-क्षेत्र में 72 प्रतिशत से ज़्यादा लड़कियाँ और महिलाएँ दिन-रात पसीना बहा रही हैं। मगर उनका अस्तित्व आज भी उनके पति के अस्तित्व पर निर्भर करता है। फिर भी इन औरतों ने परिस्थितियों  से जूझना बंद नहीं किया है। महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या के बाद उनकी पत्नियाँ किस तरह उनका कर्ज उतारकर जीवन जी रही हैं, पढ़िये ग्राउंड रिपोर्ट

तीसरा और अंतिम भाग

 यहाँ एक नहीं सैकड़ों-हजारों में भूमि कन्याएं हैं –

निशा की माँ देवदासी थी। निशा के जन्म के बाद उसके पिता ने उसे अपना नाम देने से इंकार कर दिया। उसकी माँ ने उसे अपना नाम दिया। बचपन से ही उसका जीवन बहुत अभावग्रस्त रहा। अकेली माँ क्या-क्या करती! इसलिए निशा की शादी बचपन में ही कर दी गई। 17 की उम्र में उन्होंने पहले बेटे को जन्म दिया। 21 की उम्र में दूसरा बेटा हुआ और 25 साल की उम्र में पति गुज़र गया। बच्चों को पालते हुए ही उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। अब बेटा बीए में पहुँच चुका है। माँ ने उन्हें काफी मदद की और देवदासी बनाने से इंकार किया। आज निशा सम्मानजनक ज़िंदगी जी रही है। हालाँकि अन्य लोगों के जीवन को देखते-समझते हुए उन्हें अहसास हुआ कि उनकी माँ से पिता की शादी नहीं हुई थी, वह देवदासी थी, इसलिए उन्होंने अपना नाम देने से इंकार किया था। निशा को पति का नाम मिला मगर कोई अधिकार नहीं मिला। ज़मीन पर सात-बारा अर्थात स्वामित्व का हक़ नहीं मिला। वे देवदासी नहीं थीं, मगर परिवार की दासी तो मानी ही गईं न?

उमा डोंगरगाँव में रहती है। उसके पैदा होते ही पिता की नौकरी चली गई। अकालग्रस्त क्षेत्र होने के कारण खेती न के बराबर थी। साथ ही पिता बीमार पड़ गए। सारी ज़िम्मेदारी माँ के कंधों पर आ गई। माँ की मदद के लिए उसे छठवीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। वह माँ को घरेलू कामों में मदद करने लगी। 1986 में आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए शादी हो गई। शादी के तुरंत बाद पति के साथ गन्ना कटाई के लिए बाहर जाना पड़ा। पति शराबी था। साथ ही शादी के कई सालों तक उन्हें बच्चा क्यों नहीं हुआ, यह सोचते हुए पति का शराब पीना और बढ़ गया। वह घर का तमाम किराना सामान फेंक देता, मारपीट करता। रोज़मर्रा के इस कष्ट से थककर उसने पति पर केस दर्ज़ करना चाहा परंतु गाँव के सयाने लोगों ने उसे समझाया। आगे चलकर आंबेडकर जयंती के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम से घर लौटने पर पति ने बहुत मारपीट की, सिर से खून बहने लगा, पर वह नहीं रूका।

इस तरह अकेले जीने वाली महिलाओं की जनगणना कर, उन्हें लाभार्थी के रूप में पेन्शन योजना का प्रावधान किया जाना चाहिए

पिछले पाँच सालों में उमा ने महिलाओं को संगठित किया। गाँव में शराबबंदी लागू की। शराबी लोग उसके इस काम से बहुत नाराज़ हुए और उसके पति को और भड़काने लगे। वह और ज़्यादा शराब पीने लगा। अंततः उसकी मौत हो गई। पति होने के बावजूद उसे उससे कभी कोई सुख नहीं मिला। देर से पैदा हुआ एक बेटा है। अगर वह एक सामान्य औरत की तरह कोई चाह मन में रखती भी है, तो बेटे को पालने-पोसने के विचार के कारण वह दोबारा शादी नहीं कर सकती। पति के नाम पर महार जाति के ‘वतनदार’ (गाँव की ज़मीन का एक हिस्सा महार जाति के लोगों को गाँव की सेवा करने के ऐवज़ में दिया जाता था) होने के कारण ज़मीन है। परंतु पत्नी के नाम पर करने के लिए कागज़ों की आवश्यकता होगी, जिसके लिए पैसा भरना होगा। परिणामस्वरूप अब तक ज़मीन उनके नाम पर स्थानांतरित नहीं हो पाई है।

कायदे से, इस तरह की सभी एकल महिलाओं के नाम पर, बिना किसी शुल्क के ज़मीन का हस्तांतरण सरकार द्वारा किया जाना चाहिए। उन्हें प्रधानता के साथ ज़मीन का ‘सात-बारा उतारा’ (ज़मीन का लिखित स्वामित्व) प्रदान कर इन महिलाओं के अनिश्चित व असुरक्षित जीवन को सँवारने की कोशिश करनी चाहिए।

कुंदा भोंसले के मायके की परिस्थिति ठीकठाक थी। शादी के बाद उसने खेती करना सीखा। मायके में खेती न होने के कारण वह खेती का काम नहीं जानती थी। पति राजनीति करने लगा। उस चक्कर में कर्ज़े पर कर्ज़ा लेता चला गया। उस पर इतना कर्ज़ा चढ़ गया कि उसे आधा एकड़ खेत गिरवी रखना पड़ा। हालत देखते हुए कुंदा ने कमर कसी। तब पहली बार उसका साबका शासकीय कार्यालय, न्यायालय, पुलिस आदि से पड़ा। जब उसके पति की मौत हुई, उस समय उसके गर्भ में सात महीने की बेटी थी। पति की मौत के कारण का पता नहीं चल सका इसलिए आत्महत्या का केस भी दायर नहीं हो सका। छह महीने गुज़रने पर पता चला कि उनका कुआं किसी दूसरे आदमी को बेचा जा चुका है। पानी के अभाव में समूची फसल जल गई। सास-ससुर ने कोई मदद नहीं की, उल्टे उसी से उन्होंने पचास हजार रूपये माँग लिये। ग्राम सेवक से मिलने पर भी कुंदा को मदद नहीं मिली। काफी लड़ने-भिड़ने के बाद उसे कुँए का हिस्सा मिला और उसने खेती का काम जारी रखा। बेटियों को पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल के हॉस्टल भेजने पर लोग भला-बुरा कहने लगे। उनका आरोप था कि अपने स्वार्थ के लिए वह बेटियों को जानबूझकर दूर रख रही है। मगर उसने हार नहीं मानी। बेटियाँ पढ़ रही हैं। कुंदा अब किसान और खेत मज़दूर औरतों को संगठित करती है। उसकी इतनी ही अपेक्षा है कि उन्हें सामाजिक और राजनैतिक न्याय हासिल हो।

गन्ना कटाई कामगारों के लिए विशिष्ट कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। ‘एक व्यक्ति, एक हँसिया’ का नियम लागू करना ज़रूरी है

सच कहा जाए तो विदर्भ अंचल की अपेक्षा मराठवाडा अंचल के किसानों और गन्ना कटाई मज़दूरों की हालत ज़्यादा खराब है। यहाँ भी किसान आत्महत्या का अनुपात काफी ज़्यादा है। अंकुर ट्रस्ट की संस्थापक मनीषा तोकले के साथ वनिता भी काम करती है। उसने शाहीन इनामदार की परिस्थिति के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए जब बताया, मेरे रोंगटे खड़े हो गए। तसलीमा की बहन से चाचा ने बलात्कार किया। इस तरह के एकदम नज़दीकी रिश्तेदार या परिचित लोग भी गन्ना कटाई मज़दूरों की छोटी बच्चियों का बलात्कार करते हैं। गन्ना कटाई के लिए जाने वाली महिलाओं की पेशगी भी सुरक्षित नहीं रहती। उनका बीमा भी नहीं होता। साथ ही, वे रात को जहाँ सोती हैं, वह जगह तक सुरक्षित नहीं होती। वे लोग सोते वक्त हँसिया पास में रखकर सोती हैं। शाहीन अविवाहित है, इस कारण उसे  पेंशन भी नहीं मिलती। वनिता का सुझाव था कि सब प्रकार की एकल महिलाओं की जनगणना की जानी चाहिए और उन्हें लाभार्थी के रूप में पेन्शन योजना में समाविष्ट किया जाना चाहिए।

वर्षा बीड़ में रहती है। वह भी गन्ना कटाई के लिए जाती है। उसकी शादी 14 की उम्र में हुई और 18 की उम्र में पति मर गया। उसे दिखाई दिया कि पेशगी सिर्फ पुरुषों को ही दी जाती है, औरतें सिर्फ काम करती रह जाती हैं। उन्हें मुआवज़े के रूप में खास कुछ नहीं मिलता। औरतों को इस काम में काफी परेशानी भी होती है। घर का काम, बच्चों का काम निपटाने के लिए उन्हें सुबह से लगना पड़ता है। घरेलू काम निपटाने के बाद वे गन्ना कटाई के लिए जाती हैं। माहवारी के दौरान उन्हें इस काम में बहुत तकलीफ होती है मगर काम से कभी छुट्टी नहीं मिलती। गर्भवती औरतों को भी काम करना पड़ता है। 40-50 किलो का गट्ठर भी उसे उठाना पड़ता है। कभी-कभी औरतों की प्रसूति काम की जगह पर ही हो जाती है। पुलिस और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से तक कोई मदद नहीं मिलती। गन्ना कटाई मज़दूरों के समूह में लोग औरतों पर बुरी नज़र रखते हैं। वहाँ काम करने वाली हरेक औरत का उपभोग कर लेने फिराक में होते हैं इसीलिए लड़कियों के बाल विवाह कर दिये जाते हैं। आज भी 12 साल की बच्ची की शादी 60 साल के पुरुष से कर दी जाती है। लड़कों की शिक्षा पर भी ध्यान नहीं दिया जाता। वे भी बाल मजदूर के रूप में काम करते हैं।

मानवाधिकार अभियान और अंकुर ट्रस्ट की मनीषा तोकले ने गन्ना कटाई मज़दूरों की लड़कियों और औरतों की वस्तुस्थिति से अवगत कराया। पुरुषों के जागने से पहले शौचादि कर्म निपटाने पड़ते हैं। अन्यथा जिसके खेत में निपटने जाती हैं, वहीं पकड़कर ज़मीन मालिक लड़की से बलात्कार करने से नहीं झिझकते। कभी-कभी खेत में जाने पर खेत मालिक किसी अन्य द्वारा की गई विष्ठा तक साफ करवाने से बाज नहीं आता। इन लड़कियों और औरतों को खुले में ही नहाना पड़ता है। इन्हीं कारणों से लड़की की माहवारी शुरु होते ही तुरंत उसकी शादी कर दी जाती है, चाहे उम्र में 25 साल का अंतर ही क्यों न हो!

किसान और खेत मज़दूर औरतों को सामाजिक और राजनैतिक न्याय हासिल हो।

गन्ना कटाई कामगार महिलाओं की परिषद लेकर कामगार पंजीयन शुरु किया गया है। परंतु ग्राम पंचायत की ओर से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। इन गन्ना कटाई कामगारों के लिए विशिष्ट कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। जिस तरह भवन-निर्माण कामगारों के लिए कानून बनाए गए हैं, उसी तरह गन्ना कटाई महिला कामगारों का भी स्वतंत्र पंजीयन होना चाहिए। बच्चों और औरतों के लिए बीमा करवाया जाना चाहिए। पेशगी की रकम औरत के खाते में जमा हो, गर्भपात से उन्हें बचाया जाना चाहिए। औरतों को गर्भावस्था अथवा माहवारी के दौरान अस्वस्थ होने पर छुट्टी का प्रावधान हो। ज़मीन पर उसका नाम चढ़ा होने पर उसे कुछ हद तक राहत मिल सकेगी।

बीड़ निवासी सुरेखा ने बताया कि, पति की मौत के वक्त उसकी कम उम्र थी इसलिए उसके सास-ससुर ने सोचा कि वह दूसरी शादी कर लेगी और उन्होंने ज़मीन पर उसका नाम नहीं चढ़ाया। विधवा का स्थान हमेशा ही निम्नतम माना जाता है। संगठन की ओर से कोशिश की जाती रही। बच्चों की फ़िक्र थी इसलिए उसने कभी भी दूसरी शादी के बारे में नहीं सोचा। जो थोड़ी बहुत पेशगी मिली थी, खेतों में काम करके उसमें से चालीस-पचास हजार चुकाया। मायके वालों ने शादी का खर्च किया था। उनकी परिस्थिति भी अच्छी नहीं थी इसलिए बीस-पचीस हजार में उन्होंने शादी निपटाई। दूसरे के घर की बेटी अपने घर आकर मज़दूरी करती है तो मंज़ूर है, मगर अपनी बेटी को मज़दूरी के लिए भेजने की बजाय उसकी शादी करवा दी जाती है।

लड़कियों और औरतों को खुले में ही नहाना पड़ता है, जिस कारण लड़की की माहवारी शुरु होते ही शादी कर दी जाती है, उम्र में 25 साल का अंतर ही क्यों न हो

कामगारों को काम की जगह, सरकारी ज़मीन पर अस्थायी आवास बनाने की अनुमति होती है मगर उसके लिए उन्हें दरख़्वास्त लगानी पड़ती है। समूह के लोग, मुकादम या जिनके पास पैसा होता है, वे कोशिश करते हैं। मनीषा तोकले का कहना था कि समूह के लोग और मुकादम भी बदलते रहते हैं। औरतों की तकलीफों को सभी लोग नज़रअंदाज़ करते हैं। उन्हें राशन नहीं मिलता। औरतों को कार्यस्थल पर कितनी पेशगी मिलती है, इसकी जानकारी भी नहीं होती। इसलिए मज़दूर औरत के हस्ताक्षर लेकर उसके हाथ में ही उसकी मज़दूरी की रकम दी जानी चाहिए। यहाँ ‘एक व्यक्ति, एक हँसिया’ का नियम लागू करना ज़रूरी है।

इस अंचल में अभी भी समूह में काम करने वाली लड़कियों का गर्भाशय निकाल लिया जाता है। औरतें सैनिटरी नैपकिन्स का उपयोग नही करतीं। अस्वच्छता,  घरेलू कामों का बोझ,  दूर से पानी लाने के कारण उनमें एनीमिया जैसी बीमारियाँ अक्सर पाई जाती हैं। रोज़मर्रा के खर्चे और अस्पताल के खर्च के लिए दोहरी पेशगी लेनी पड़ती है। मंडल आयोग की सीमा में ये सभी माँगें आती हैं। ‘औरत के गर्भाशय से खिलवाड़ बंद किया जाए’ जैसा कानून बनाया जाना चाहिए। जहाँ भी अत्याचार होता है, वहाँ के स्थानीय पुलिस थाने में वैधानिक तौर पर शिकायत दर्ज़ की जानी चाहिए। गाँव के कुछ प्रभावशाली लोगों की दहशत के कारण औरतों पर होने वाले अत्याचार खुलकर सामने नहीं आते। महाराष्ट्र में चौदह लाख गन्ना कटाई कामगार हैं, जिनमें जलगाँव, यवतमाल और मराठवाड़ा अंचल में गन्ना कटाई मज़दूरों की संख्या ज़्यादा है। महिला कामगारों के पंजीयन बाबत जीआर 2022 में जारी हुआ परंतु उस पर अमल नहीं किया गया। इनमें पचास प्रतिशत से ज़्यादा दलित, आदिवासी परिवार होते हैं।

सच कहा जाए तो इन औरतों के तनाव और दबाव दूर होने चाहिए। जिस जगह पर अत्याचार घटित होता है, वहाँ के लोगों की गवाही लेकर महिलाओं के स्थायी निवास-स्थान पर स्थानीय पुलिस थाने में केस दर्ज़ होनी चाहिए। पुलिस-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था की पहुँच कामगारों तक होनी चाहिए। स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं द्वारा महिलाओं की सुविधानुसार शिविर आयोजित कर या उन्हें एकत्रित कर तत्संबंधी जानकारी दी जानी चाहिए। अपने कामगारों की देखभाल का पूरा जिम्मा ठेकेदार का होना चाहिए। बच्चों के शिक्षा की व्यवस्था कहीं भी हो सकती है। झूलाघर या बच्चियों की सुरक्षा के लिए किसी महिला की स्वतंत्र नियुक्ति की जानी चाहिए। क्या इस मामले में महिला एवं बाल विकास विभाग कोई मदद कर सकता है? इस दौरे में इस तरह के अनेक सवाल सामने आए।

न केवल विदर्भ, बल्कि समूचे महाराष्ट्र में इस तरह से किसान विधवा व अन्य एकल महिलाओं की गंभीर स्थिति दिखाई देती है। इन हालातों में भी क्या ‘जय जय महाराष्ट्र मेरा’ कहा जाना चाहिए?

किसान मजदूरों की देखभाल का पूरा जिम्मा ठेकेदार का होना चाहिए।

इस दौरान जितनी भी एकल महिलाओं के साक्षात्कार लिये, पुणे में उनकी भूमिकन्या परिषद आयोजित की गई थी, उसका उद्घाटन किया ज़ेबुन्निसा शेख ने तथा अध्यक्ष थीं नूतन मालवी। दोनों विदर्भ से आई थीं। वे भी जब अन्य विभागों की स्थिति से अवगत हुईं, तब उन्होंने भी ज़ोर देकर कहा कि, महाराष्ट्र के किसान पुरुषों को बचाने का काम ये किसान भूमिकन्याएँ ही कर सकती हैं। इस अवसर पर एक न्यायपीठ का गठन कर एक जन सुनवाई की गई। इस न्यायपीठ में न्यायाधीश थीं तमन्ना इनामदार, मनीषा तोकले, अर्चना मोरे और निर्मला भाकरे। जब उन्होंने वहाँ उपस्थित औरतों की आपबीती सुनी, उन्होंने उपर्युक्त मुद्दे और सवाल खड़े किये।

इस दौरे में मुझे एक बात बहुत गहराई से महसूस हुई कि बेटी के जन्म के बाद ही बेटे की तरह बेटी का नाम भी सम्पत्ति संबंधी दस्तावेज़ों में चढ़ाया जाना चाहिए। बेटी के मन में यह विश्वास पैदा करना ज़रूरी है कि उसका भी स्वतंत्र अस्तित्व है और वह भी परिवार की अविभाज्य सदस्य है। इस देश के भूमिपुत्र अपनी उम्मीद खो चुके हैं। आज समूचे देश में कृषि-क्षेत्र में 72 प्रतिशत से ज़्यादा लड़कियाँ और महिलाएँ दिन-रात पसीना बहा रही हैं। मगर उनका अस्तित्व आज भी उनके पति के अस्तित्व पर निर्भर करता है। फिर भी इन औरतों ने परिस्थितियों  से जूझना बंद नहीं किया है। गन्ना कटाई कामगार के रूप में औरत का काम हमेशा ही आधा हँसिया माना जाता रहा है। इससे ही उसकी मज़दूरी तय की जाती है। इसलिए बेगार मज़दूर की तरह काम करने वाली इन औरतों को कम से कम पूरा समान वेतन मिले, तो एक मनुष्य के रूप में जीने के लिए आवश्यक रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, साफसफाई जैसी आवश्यक चीज़ें वे जुटा पाएंगी।

विदर्भ अंचल महाराष्ट्र का एक भाग है, जो मेरी जन्मभूमि, कर्मभूमि और भाषा-भूमि भी रही है। अगर आज मेरे महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या और किसान औरतों की गरीबी को लेकर कोई मूलभूत कदम नहीं उठाया जाता, तो मेरा राज्य मेरी नज़रों से गिर जाएगा।

आज वस्तुस्थिति है कि भविष्य में अगर किसान आत्महत्याओं को रोकना हो तो इन भूमिकन्याओं के मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना होगा। वे किसानों के गले के कर्ज़ के फंदे को काटकर उसके रस्सी से अपने लिए गुलेल बना सकती हैं और साहूकारी, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, धर्मांधता, जातिवाद, रूढ़ि-परम्पराओं की गुलामी तथा शोषण के विरोध में इस गुलेल से इन टिड्डीदलों को मारकर भगा सकती हैं। इसीलिए जब इन भूमिकन्याओं की सिसकियाँ और वेदनारूपी आँसू एल्गार बनकर बाहर निकलेंगे, उस समय अग्निपुष्पों के गीत वायुमंडल में गूँज उठेंगे। (मराठी से अनुवाद – उषा वैरागकर आठले)

(विदर्भ की जमीन से किसानों की स्थिति और आत्महत्या करने वाले किसानों की पत्नियों/परिवारों की स्थिति का तीसरा और अंतिम भाग)

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