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कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ कोरबा में भूविस्थापितों का संघर्ष

छत्तीसगढ़ में एक आदिवासीबहुल जिला है कोरबा, जो प्राकृतिक संसाधनों में संपन्न होने के बावजूद विकास सूचकांक में देश के पिछड़े जिलों में शामिल है। घने वनों से घिरे इस जिले में काले हीरे (कोयला) की प्रचुरता के कारण सन 1960-61 से कोयला खदानों के अलावा बिजली प्लांट सहित अन्य उद्योग भी स्थापित होते चले […]

छत्तीसगढ़ में एक आदिवासीबहुल जिला है कोरबा, जो प्राकृतिक संसाधनों में संपन्न होने के बावजूद विकास सूचकांक में देश के पिछड़े जिलों में शामिल है। घने वनों से घिरे इस जिले में काले हीरे (कोयला) की प्रचुरता के कारण सन 1960-61 से कोयला खदानों के अलावा बिजली प्लांट सहित अन्य उद्योग भी स्थापित होते चले गए। लेकिन इस औद्योगिक विकास ने विस्थापन की समस्या को भी जन्म दिया, जिसका शिकार यहां के किसानों और आदिवासियों को होना पड़ा है और उनके परिवार की दशा-दिशा में सुधार आने के बजाय  उनकी जिंदगी और बदतर होती चली गयी। गांव की जमीन और जंगलों को उद्योग-कारखानों ने निगल लिया है और प्रभावित गांवों में पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं से आम जनता जूझ रही है।

यहां के विस्थापित परिवार बेरोजगारी और गरीबी के साथ जीवन बसर करने को मजबूर हैं। ऊपर से पर्यावरण विनाश और फैलते प्रदूषण की वजह से जानलेवा बीमारियों ने उनके जीवन की औसत आयु को आधे से भी कम कर दिया है।

कोयला खदान परियोजनाओं में 1962 से अब तक 62 से अधिक गांवों की जमीन का अधिग्रहण किया गया है, जिससे लगभग 20000 से ज्यादे खातेदारों की जमीन अधिग्रहित हुई है, लेकिन केवल 40% लोगों को ही एसईसीएल ने नियमित रोजगार प्रदान किया है। पहले एसईसीएल की नीति भूमि के एक छोटे-से टुकड़े के बदले रोजगार देने की थी, लेकिन प्रभावित परिवारों को उसने तब भी रोजगार नहीं दिया। बाद में यह नीति बदलकर न्यूनतम दो एकड़ भूमि के अधिग्रहण पर एक रोजगार देने की बना दी गई। इससे अधिग्रहण से प्रभावित अधिकांश किसान रोजगार मिलने के हक से वंचित हो गए।

विरोध रैली निकालती महिलाएं

कोयला खदानों के अस्तित्व में आने के बाद विस्थापित किसानों और उनके परिवारों की सुध लेने की सामाजिक जिम्मेदारी को किसी सरकार और खुद एसईसीएल ने आज तक पूरा नहीं किया है। औद्योगिक विकास की अवधारणा में  प्रभावित किसान परिवारों के लिए कोई जगह ही नहीं थी। खानापूर्ति के लिए कुछ लोगों को रोजगार और पुनर्वास दिया गया है, लेकिन आज भी हजारों भूविस्थापित किसान, जिनमें से अधिकांश आदिवासी हैं, जमीन अधिग्रहण के बाद रोजगार और पुनर्वास के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब केंद्र और राज्य सरकार की कॉरपोरेटपरस्त नीतियों के कारण यह संघर्ष और कठिन हो गया है, क्योंकि ये नीतियां गरीबों की आजीविका और प्राकृतिक संसाधनों पर सीधे हमले कर रही है। इन कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के कारण कुछ लोग मालामाल हो रहे हैं, तो अधिकांश जिंदा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसलिए विस्थापन के खिलाफ और रोजगार के लिए संघर्ष इस देश में चल रहे एक व्यापक राजनैतिक संघर्ष का एक हिस्सा है और इन सरकारों की कॉरपोरेटपरस्त नीतियों को बदलकर ही इसे जीता जा सकता है। कोरबा में अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा ने इस संघर्ष को अपने दैनिक जीवन के एक हिस्से के रूप में आगे बढ़ाने की कोशिश की है। छत्तीसगढ़ किसान सभा और भूविस्थापित रोजगार एकता संघ पिछले 15 महीनों से मिलकर इस लड़ाई को लड़ रहे हैं।

“इन दोनों संगठनों ने मिलकर एसईसीएल की रोजगार विरोधी नीतियों के खिलाफ 31 अक्टूबर 2021 को कुसमुंडा में 12 घंटे तक कोयला उत्पादन को पूर्ण रूप से बंद कर दिया था जिससे एसईसीएल को 50 करोड़ रुपये से भी अधिक का नुकसान हुआ था। इसके अगले दिन 1 नवंबर 2021 से आज तक, लगभग 450 दिनों से वे लगातार  कुसमुंडा मुख्यालय के सामने अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं और धरना स्थल से ही विभिन्न तरह के आंदोलन का संचालन कर रहे हैं। उनकी घोषणा है कि यह आंदोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक सभी खातेदार भूविस्थापितों को रोजगार के लिए नियुक्त पत्र नहीं मिल जाता।”

इन दोनों संगठनों ने मिलकर एसईसीएल की रोजगार विरोधी नीतियों के खिलाफ 31 अक्टूबर 2021 को कुसमुंडा में 12 घंटे तक कोयला उत्पादन को पूर्ण रूप से बंद कर दिया था जिससे एसईसीएल को 50 करोड़ रुपये से भी अधिक का नुकसान हुआ था। इसके अगले दिन 1 नवंबर 2021 से आज तक, लगभग 450 दिनों से वे लगातार  कुसमुंडा मुख्यालय के सामने अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं और धरना स्थल से ही विभिन्न तरह के आंदोलन का संचालन कर रहे हैं। उनकी घोषणा है कि यह आंदोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक सभी खातेदार भूविस्थापितों को रोजगार के लिए नियुक्त पत्र नहीं मिल जाता। वास्तव में इस तरह के लंबे आंदोलन की प्रेरणा उन्हें संयुक्त किसान मोर्चा के आंदोलन से मिली है। इस बीच 6 बार खदान बंद आंदोलन भी किया गया, एसईसीएल के कई बड़े अधिकारियों का घेराव किया गया है और उनके कार्यालय के कमरों में धरना दिया गया है, रास्ता जाम किया गया है, अधिकारियों और मंत्रियों के पुतले जलाये गए हैं। इन आंदोलनों के चलते सोलह आंदोलनकारियों को जेल भी भेजा गया है। लेकिन दमन के आगे न झुकते हुए आंदोलन जारी है।

इस आंदोलन के दबाव में ही कम जमीन, डबल अर्जन और रैखिक संबंध के मामले में एसईसीएल को कोरबा जिले में अपने नियमों को शिथिल करना पड़ा है और भूविस्थापितों के लंबित रोजगार प्रकरणों पर कार्यवाही शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। अब अर्जन के बाद जन्म के मामले में विस्थापितों के पक्ष में फैसला देने के लिए प्रबंधन के खिलाफ संघर्ष तेज किया जाएगा। हमारा तर्क बहुत ही स्पष्ट है कि यदि भूमि अधिग्रहण के साथ ही रोजगार देने की प्रक्रिया पूरी कर ली जाती, तो आज विस्थापितों को रोजगार के मुद्दे पर आंदोलन नहीं करना पड़ता। इसलिए पुरानी नीति से मुआवजा और नई नीति से रोजगार की एसईसीएल की पेशकश किसानों को स्वीकार नहीं है।

धरने पर बैठे आंदोलनकारी

कई भूविस्थापित परिवारों के बच्चों ने एमबीए, इंजीनियरिंग जैसी उच्च शिक्षा भी हासिल कर ली है। लेकिन एसईसीएल की पॉलिसी है कि आप कितने भी पढ़े लिखे हो, जमीन अधिग्रहण के बाद कंपनी में कैटेगरी-1 मजदूर की ही नौकरी मिलेगी। एसईसीएल की ऐसी रोजगार नीति भेदभावपूर्ण है, जिसका किसान सभा विरोध कर रही है और रोजगार के मामलों में शैक्षणिक मानदंडों के अनुसार रोजगार देने की मांग कर रही है।

जमीन अधिग्रहण के कारण किसानों की आजीविका का एकमात्र साधन खेती छीन गया है, इसके कारण विस्थापित किसानों की आर्थिक स्थिति काफी खराब है। जिन गांवों का पूर्व में अधिग्रहण किया गया है, उन्हें आज तक पुनर्वास की सुविधा नहीं मिली है। जिन भूविस्थापितों को कहीं बसाया भी गया है, उन्हें 40 वर्षों के बाद भी उस जमीन का पट्टा या मालिकाना हक नहीं दिया गया है, जिससे सरकार की कई योजनाओं का लाभ पाने से वे वंचित है।

कोरबा जिले में कोयला परियोजना के लिए सन 1962  से ही जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। किंतु आज भी कई गांवों में उक्त अधिग्रहित भूमि पर किसानों का ही भौतिक कब्जा है, क्योंकि कोल इंडिया ने न तो इस जमीन पर खनन कार्य किया है और न ही इसे अपने कब्जे में लिया है। इसे सरकार और कंपनी द्वारा जमीन की जमाखोरी कहा जा सकता है। कई खदाने बंद हो गई है। बहुत-सी जमीन ऐसी है, जिसमें खनन कार्य पूरा हो चुका है। ऐसी सभी जमीनों को मूल खातेदार किसानों को वापस करने की मांग किसान सभा कर रही है।

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इसके अलावा, खनन और डी-पिल्लरिंग के कारण लोगों के घर और खेत भी बर्बाद हुए हैं। अपने संघर्षों के जरिये हमने खेती-किसानी को हो रहे नुकसान की वार्षिक भरपाई करने के लिए एसईसीएल को बाध्य किया है। कोरबा जिले के सुराकछार क्षेत्र में पिछले 10 सालों से किसान सभा यह लड़ाई सफलता के साथ लड़ रही है।

उद्योगों के नाम पर भूमि अधिग्रहण के बाद गरीब सड़क पर आ जाते हैं, क्योंकि सरकार और कंपनी रोजगार, पुनर्वास और मुआवजा संबंधी अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करते। भूविस्थापित इतने गरीब होते है कि कोर्ट नहीं जा सकते, क्योंकि उनके पास इतने पैसे ही नहीं होते। इसके अलावा सालों साल अदालतों में मामले लंबित रह जाते हैं और फैसले उनके पक्ष में नहीं आते। ऐसी परिस्थितियों में गरीबों के पास संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। कोरबा जिले में भूविस्थापितों के इन्हीं मुद्दों पर सतत और जुझारू संघर्ष छेड़कर किसान सभा ने अपनी सांगठनिक ताकत में वृद्धि की है। कई भूविस्थापित नेता आज किसान सभा के बैनर पर खुलकर काम कर रहे हैं और किसान सभा ने आम किसानों के बीच एक लोकप्रिय संगठन की प्रतिष्ठा हासिल की है।

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