[bs-quote quote=”मूलचन्द सोनकर अपने दौर के ऐसे बौद्धिक थे जो कभी-कभी वास्तविक मुद्दों पर समझौता नहीं करता था। अपने दौर के सवालों, चुनौतियों और बुद्धिजीवियों को लेकर उनकी एक विशिष्ट समझ थी और उसे वे लगातार माँजते रहते थे। जिस दौर में लोगों की वफादारियाँ अपने हिसाब-किताब के हिसाब से बनती-बिगड़ती थीं,उस दौर में भी मूलचन्द जी ने बिना नफे-नुकसान के अपनी पसंद-नापसंद को जाहिर ही नहीं किया बल्कि अंत तक उस पर डटे भी रहे। उनसे मिलना मेरे लिए हमेशा सुखद अनुभव रहा और विभिन्न मुद्दो पर उनका गर्मजोशी से भरा लेकिन तल्ख़ दृष्टिकोण वैचारिक आग को लगातार सुलगाये रखता था। उनका अट्टाहास तो बिलकुल अभी-अभी हमारे घर में गूंज रहा है जहां वे घंटों बैठते और बातें खत्म ही न होतीं थी। उन समयों की साक्षी रहीं ‘गाँव के लोग’ की कार्यकारी संपादक अपर्णा से वे अपने जीवन की न जाने कितनी बातें शेयर करते थे। अपर्णा ने अनौपचारिक ढंग से उनसे एक लंबी बातचीत की जिसे यहाँ पेश किया जा रहा है। किसी को भी यह अंदेशा नहीं था कि वे इतनी जल्दी अलविदा कह जाएंगे। – संपादक” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दलित साहित्य में आत्मकथा एक बुनियादी विधा है। अनेक दलित लेखकों ने अपनी आत्मकथाएं लिखी हैं। अधिकांश दलित लेखकों की आत्मकथाएं तो इतनी चर्चित हुईं कि उन्होंने बाकी क्या लिखा यह बहुत मुश्किल से याद आता है। आपके जीवन में भी बहुत सी घटनाएँ हुई होंगी तो क्या आपको कभी अपनी आत्मकथा लिखने का विचार नहीं आया?
मैं आत्मकथा क्यों लिखूँ? (जोर से हँसते हुये) जब तुमने अभी-अभी कहा कि बहुत से लेखकों की आत्मकथाएं इतनी प्रचारित हुर्इं कि उन्होंने बाकी क्या लिखा यह याद नहीं आता। तब अगर मैं आत्मकथा लिखूंगा तो मेरे बाकी लिखे हुये का क्या होगा? सब आत्मकथा ही पढ़कर चटखारे लेंगे और मेरी दर्जन भर किताबें यूं ही पड़ी रहेंगी। अभी तो वैसे ही लोग कम पढ़-लिख रहे हैं। तब तो और भी नहीं पढ़ेंगे। दूसरे मुझे कौन दलित लेखक मानता है। मुझे सबसे कम अगर किसी ने पढ़ा होगा तो दलितों ने। उनका कोई सरोकार ही नहीं है पढ़ने-लिखने से। एक धर्मवीर थे जो बहुत पढ़ाकू ही नहीं थे बल्कि सभी को नोटिस भी करते थे। धर्मवीर के साहित्यिक सरोकार इतने व्यापक थे कि अपनी बात के फेवर में उन्होंने बहुत गंभीरता से अध्ययन किया और तमाम तथ्यों के आईने में उसे साबित किया। धर्मवीर पढ़े भी बहुत गए। लेकिन एक आत्मकथा ने उनका भी कबाड़ा कर दिया। इतनी अतिरंजना और गुस्से की क्या जरूरत थी। जब आप अपनी आलोचना में इतने बड़े आदमी हैं तो फिर पारिवारिक मुद्दों पर इतना आक्रामक होने की क्या जरूरत है। फिर भी धर्मवीर जीनियस थे और दुबारा कोई ऐसा होगा भी कि नहीं कहना मुश्किल है। अब बताओ ऐसे में मेरा आत्मकथा लिखना क्यों जरूरी है?
अभी- अभी आपने कहा कि दलितों का पढ़ने-लिखने से कोई सरोकार नहीं है । यह आप कैसे कह सकते हैं ?
मुझे नहीं पता कि तुम इस बात को कैसे समझती हो लेकिन ब्रॉडर कॉन्टेस्ट में देखो तो मेरी बात को सही साबित करनेवाली अनेक बातें दिखने लगेंगी। आज अगर इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ दिया जाय तो अमूमन दलित लेखक चकरघिन्नी की तरह घूम रहे हैं। उन्हें लिखने-पढ़ने का जो मौका इतिहास ने दिया है उसका कोई बहुत फायदा वे नहीं उठा पाये हैं। रोजी-रोटी और नौकरी के दायरे में तो सभी चक्कर काटते हैं लेकिन जब आप लेखक बनने की राह में चलते हैं तब आपको अतिरिक्त अध्ययन की जरूरत पड़ती है। स्वयं अपने ही अनुभवों को जाँचने-परखने की जरूरत होती है। इसके लिए जो समझ चाहिए वह बिना पढ़े कहाँ संभव है। और मेरी बात पर थोड़ा गौर करो कि पढ़ना-लिखना मैं क्यों जरूरी मानता हूँ। क्योंकि हमारे समक्ष जो चुनौतियाँ हैं वे किसी भी अन्य समाज से ज्यादा बड़ी हैं और हमारे खिलाफ जो ताकते हैं वे पूरी क्रूरता से हमारे विनाश में लगी हैं। क्या उनका मुकाबला करने लायक दलित बुद्धिजीवी आज हमारे समाज में हैं?
यह तो आपने उल्टा मुझसे ही सवाल कर दिया जबकि दलित साहित्य के बारे में मेरी समझ कामचलाऊ से भी कम है। फिर भी मुझे लगता है कि दलित साहित्य ने एक बड़ा मानक बनाया है। आप मानते हैं ?
बेशक! दलित साहित्य ने ब्राह्मणवादी और हिन्दू साहित्य के समानान्तर एक अलग संसार को खोजा है। वास्तव में दलित साहित्य ने एस्थेटिक को बदल दिया। नैतिक रूप से जो विभाजक रेखा होती है उसे मजबूत किया है। अपने नेतृत्व और दावेदारी को मजबूत किया है और ईश्वरीय दुनिया और ब्राह्मणवाद को एक सिरे से खारिज कर दिया है। उसने सदियों से चली आ रही भारतीय समाज और संस्कृति की तथाकथित परंपरा को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। अब आप किसी भी तरह से मुंह नहीं चुरा सकते। आपकी जवाबदेही तय होगी। सत्ता के जितने भी केंद्र हैं, चाहे संसद हो, चाहे न्याय हो या प्रशासन हो कहीं भी आप उतने निरंकुश नहीं हो सकते जितने कभी थे क्योंकि अब जुल्म सहनेवाला जाग गया है। लेकिन मैं मानता हूँ कि दलित साहित्य भटकाव का शिकार हुआ है।
कैसे ?
जिस तरह से दलित साहित्य को प्रोत्साहन मिल रहा है उस तरह उसका संघर्ष कम हो रहा है। धार भोथरी हो रही है। लग रहा है दलित लेखन अब एक प्रोफेशनल काम है जो कॅरियर में काम आता है लेकिन उसकी ऐतिहासिक और समकालीन चिंताएँ धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जा रही हैं। लोग सुविधाभोगी होते जा रहे हैं। शहरों में लाखों रुपये खर्च करके बड़े-बड़े सेमिनार किए जा रहे हैं। लोग हवाई जहाज से आ रहे हैं। फाइव स्टार, थ्री स्टार होटलों में रुकते हैं और प्रवचन करके चले जाते हैं। यह सब सिर्फ पॉवर डिस्कोर्स भार बनकर रह गया है। जबकि इसके उलट दलित उत्पीड़न की घटनाएँ देख लीजिये। देश में वे कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। महिलाओं के उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएँ देख लीजिये। लगातार बढ़ी ही हैं। सरकार स्पेशल कॉम्पोनेंट प्लान के तहत जो पैसा पास करती है आज तक उसमें से तीस परसेंट से अधिक खर्च नहीं हो पाया। यह मैं नहीं कह रहा हूँ। एनसीडीएचआर की रिपोर्ट है। लेकिन दलित लेखन अब इन सवालों को नहीं उठाता। आज का दलित लेखक अपने रास्ते से भटक गया है। वह अपनी पहचान को तो दलित बनाए रखना चाहता है लेकिन सुविधा, व्यवहार और लेखन में ब्राह्मण हो जाना चाहता है।
क्या ऐसा वाकई है ?
हाँ, है। क्या यह अब किसी से छिपा है। ऊपर से नीचे तक यही चल रहा है। एक जमाने में नामदेव ढसाल का क्या जलवा था। आग बोलते थे और सच में नामदेव ने मराठी कविता के ब्राह्मणवादी सौंदर्यशास्त्र का सारा कूड़ा-कबाड़ा जला दिया। वह आदमी दलित कविता में एक बवंडर था। सुनते हैं कि जब नामदेव ढसाल कविता पढ़ते थे तो हजारों लोग मंत्रमुग्ध होकर उनको सुनते थे। लेकिन अंत में क्या हुआ? शिवसेना में चले गए। एक पहाड़ जैसा व्यक्तित्व चूहे की तरह शिवसेना की बिल में घुस गया। मजबूरी क्या बनी? सुविधा। क्योंकि जीवन में आप व्यावहारिक रहे नहीं तो जब तक चीखते रहे लोगों को अच्छा लगा और जब आपको डिग्निटी से जीवन जीने का सवाल आया तब आप मिमियाने लगे। क्या हुआ सारे किये-कराये का? आपने अपने व्यवहार से मिट्टी में मिला दिया।
और लोगों की क्या कहूँ। उतना बड़ा व्यक्तित्व ही नहीं है। लेकिन जो है वह भी लोगों ने एक बिकाऊ माल की तरह बना रखा है। जो खरीद ले। एक डायवर्सिटी मैन हैं। एचएल दुसाध। वे तो अपनी एक किताब आडवाणी को भी समर्पित कर चुके हैं। मैं पूछता हूँ क्या जरूरत थी जब बहुजन समाज के इतने बड़े शत्रु को महान बताने पर तुल आए हैं। जो आदमी अल्पसंख्यकों को तबाह करनेवाली विचारधारा का प्रतिनिधि है तब आप उसे कैसे बहुजनों का मित्र साबित कर सकते हैं? इसीलिए मैं कहता हूँ दलित साहित्य में तमाम ऐसे लोग हैं जिनका कोई चरित्र नहीं है। बेपेंदी के लोटे हैं और लुढ़कते रहते हैं। कहीं छपने के लिए तो कहीं पुरस्कार के लिए, कहीं अपने ऊपर लिखवाने के लिए कैसे-कैसे काम करते हैं यह सोचकर ही पीड़ा होती है। लगता है जैसे कोई इतिहास लिखकर उसमें प्रतिष्ठित हो जाना चाहते हैं। खुद के लिखे इतिहास का नायक बनना इनका शगल है।
[bs-quote quote=”एक वजह तो यह मालूम होती है कि दलित लेखकों ने अपने दिमागों को खंगालकर अपनी बौद्धिक सम्पदा का संज्ञान ही नहीं लिया है अब तक। इसलिए वे ब्राह्मणवादी विचारों में ही उलझकर रह गए हैं। यह नाटक लेखक की ऐसी ही कमियों के कारण कबाड़ा हो गया वरना एक अच्छी कृति होता। इसकी इन कमियों ने मुझे बहुत उद्वेलित किया और मुझसे रुका न गया। बीस पेज लिखा है लेकिन मुझे नहीं उम्मीद है कि लेखक इसे स्वीकार कर पाएगा। और भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस बात को लेकर नाक में दम किए देते हैं कि मैं उन पर लिखूँ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
आपके ऊपर भी लोगों का दबाव होता है ?
खूब होता है। कई बार तो इतना दबाव होता है कि बस मुंह से गाली निकलते-निकलते रह जाती है। लेकिन इज्जत का ख्याल करके चुप रह जाता हूँ। बताओ, मैंने क्या कोई स्टांप लिखा है कि जो भी लिखे मैं उसकी समीक्षा लिखता फिरूँ।
कोई खास घटना ? कोई उदाहरण ।
एक हो तो बताऊँ। कई हैं। लेकिन उनको लेकर मैंने कभी समझौता नहीं किया। अगर किसी की किताब मुझे पसंद नहीं आई तो वह उल्टा लटक जाये मैं कुछ भी नहीं लिखता। कई साल पहले की बात है। रूपनारायण सोनकर नाम का एक लेखक है। उसे प्रेमचंद सिंड्रोम है। प्रेमचंद ने कहानी लिखी ‘कफन’ तो रूपनारायण सोनकर ने भी ‘कफन’ कहानी लिखी। प्रेमचंद ने ‘सद्गति’ लिखी तो रूपनारायण ने भी ‘सद्गति’ लिखी। रूपनारायण की इच्छा थी कि मैं उस पर अपनी टिप्पणी लिखूँ। लेकिन क्या बताऊँ। अगर प्रेमचंद की ‘कफन’ दलितों को लेकर उनके निकृष्ट सोच की अभिव्यक्ति है तो रूपनारायण की ‘कफन’ कायस्थों को लेकर उसके निकृष्टतम सोच की अभिव्यक्ति है। मैंने नहीं लिखा। फिर रूपनारायण ने प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ की तर्ज पर ‘सूअरदान’ लिख दिया। सोच का ऐसा दिवालियापन मैंने कहीं और नहीं देखा। रूपनारायण सोनकर ने महीनों मुझे फोन किया लेकिन मैंने उस उपन्यास पर नहीं ही लिखा। अंत में थक-हार उस आदमी ने मुझसे कहा कि भाई साहब आपने खून का भी लिहाज नहीं किया। अब बताओ कि इसमें खून के रिश्ते की क्या बात है। दूर-दूर तक कोई रिश्तेदारी नहीं। विचारों से तो और भी कोई जुड़ाव नहीं। क्या सिर्फ इसलिए खून का लिहाज कर लेना चाहिए कि हम दोनों खटिक हैं।
इसी तरह एक और सज्जन हैं सुरेश चन्द्र। आसाम में प्रोफेसर हैं। उन्होंने एक नाटक लिखा – दलितों के सूर्य। उन्होंने बहुत चिरौरी की। मेरी किताबें मँगवाई कि आपको पढ़ना है। मैंने अपनी किताबें और गाँव के लोग के दो अंक भेज दिया। जल्दी ही उसने फोन किया कि किताबें तो ठीक हैं लेकिन पत्रिका नहीं चलेगी क्योंकि इसका संपादक एक यादव है। दलित होता तो चाहे जैसा होता मैं पढ़ लेता लेकिन इसे मैंने अलग कर दिया। सोच लो कितना कट्टर दलित है सुरेश चन्द्र। मेरा तो माथा ठनक गया। सारा ज्ञान और साहित्य तो दलितों ने नहीं लिखा। फिर यह आदमी पढ़ता क्या होगा। कैसे इसका बौद्धिक विकास हुआ होगा और वास्तव में वह कितना बौद्धिक है। यही सोचकर उसके बार-बार आग्रह पर मैंने उसको पढ़ा। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह नाटक बिलकुल वाहियात है। मुझे नाटकों का विशेष ज्ञान नहीं है लेकिन इसमें तो उतना भी नहीं है कि कोई कम समझ वाला ही पढ़कर खुशी पा ले। लेकिन इससे भी बड़ी विचित्रता यह कि जिस डॉ. अंबेडकर के विचारों को लेकर यह नाटक लिखा गया है उसकी ही समझ इस आदमी में नहीं है। कोई मानक नहीं। पूरा कथानक ही प्रच्छन्न भटकाव का नमूना बनकर रह गया है। पूरे नाटक में दलित-विरोधी विचारों की भरमार है। लेखक ने दलितों के संबंध में अपनी बनी-बनाई धारणाओं को परोस दिया है। मुझे समझ में नहीं आता कि लेखक आखिर किस तरह का दलित है कि उसके मन में पिछड़ों के प्रति विद्वेष तो है लेकिन ब्राह्मणवादी विचारों के खिलाफ कोई विद्रोह तो क्या विरोध भी नहीं है। एक वजह तो यह मालूम होती है कि दलित लेखकों ने अपने दिमागों को खंगालकर अपनी बौद्धिक सम्पदा का संज्ञान ही नहीं लिया है अब तक। इसलिए वे ब्राह्मणवादी विचारों में ही उलझकर रह गए हैं। यह नाटक लेखक की ऐसी ही कमियों के कारण कबाड़ा हो गया वरना एक अच्छी कृति होता। इसकी इन कमियों ने मुझे बहुत उद्वेलित किया और मुझसे रुका न गया। बीस पेज लिखा है लेकिन मुझे नहीं उम्मीद है कि लेखक इसे स्वीकार कर पाएगा। और भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस बात को लेकर नाक में दम किए देते हैं कि मैं उन पर लिखूँ।
आपके पास तो ऐसे अनुभवों की भरमार होगी ।
है ही। ऐसे में कई बार तो मैं अपना लेखन भी इसके लिए पीछे कर देता हूँ।
आखिर आपका इतना दायरा है तो लोग तो आपसे उम्मीद करेंगे ही ।
काश कि ऐसा होता। लेकिन है नहीं। कई बार तो लगता है कि अब लेखन भी किसी तरह का कमिटमेंट नहीं रहा।
क्यों ?
हमारे शेर हैं अब सिर्फ दिल्लगी के असद
खुला कि फाइदा अर्जे हुनर में खाक़ नहीं।
जाने दीजिये, अब इस तरफ तो दुखी करने वाले प्रसंग आ रहे हैं। चलिये आपके जीवन के बारे बतियाते हैं ।
इसकी क्या जरूरत है?
इसलिए जरूरत है क्योंकि इतना लंबा जीवन है। आपका भी बचपन है। घर है। घर के लोग हैं। बचपन के दोस्त हैं और पढ़ाई-लिखाई है। उसके बाद का संघर्ष है। ऐसा तो है नहीं कि आसानी से आप वहाँ से उठे और यहाँ चले आए। क्या आपके पास बताने लायक कुछ भी नहीं है ?
हूँ… है क्यों नहीं। है तो बहुत कुछ। बचपन तो वास्तव में याद करने लायक समय है। क्या दिन थे। आज भी याद आते हैं तो खुशी से रोएँ भरभरा जाते हैं। दोस्तों के साथ वह धमाचौकड़ी और हुल्लड़ कि मत पूछो। हर चीज से अलग था बचपन ।
इलाहाबाद में एक मोहल्ला है जॉर्ज टाउन। वहाँ नेहरू परिवार के कई लोगों के बंगले हैं। मुझे लगता है पूरे देश में इतने बड़े-बड़े बंगले कहीं और न होंगे। ये बंगले कई-कई एकड़ में फैले होते थे। उनमें बहुत बड़े-बड़े बगीचे होते थे और जाहिर है उसकी देखभाल के लिए लोगों की जरूरत होती थी। ऐसे ही एक बंगले में मेरे दादा को भी देखभाल का काम मिला था। लेकिन देखभाल करनेवाले को वहाँ अपने परिवार के साथ रहने की आजादी थी। बस इतना था। अगर देखभाल करनेवाला चाहे तो बगीचा ठेके पर ले सकता था। उसे थोड़ी रियायत मिल जाती थी। दादाजी बरसों से वहाँ जमे रहे। वह बगीचा नेहरू परिवार के एसएस नेहरू, जो कि आईसीएस थे, का था। वहीं मेरा जन्म हुआ। वास्तविक का पता नहीं पर कागजी जन्मतिथि पाँच मार्च, 1946 है।
मेरे दादाजी का नाम ननकऊ था। असल में वे अपने पिता के सबसे छोटे बच्चे थे इसलिए सब लोग उनको ननकऊ कहने लगे और वे फिर ननकऊ ही रह भी गए। मेरा परिवार एकाध पीढ़ी पहले कानपुर से इलाहाबाद आया था। कानपुर में अभी-अभी कुछ लोग रहते हैं लेकिन मेरी स्मृति में कानपुर कतई नहीं है। मैं इलाहाबाद को जानता हूँ। और आज भी कहीं सबसे ज्यादा उत्साह से जाना होता है तो वह जगह इलाहाबाद ही है। मिर्ज़ा ग़ालिब ने कलकत्ते को लेकर एक हुड़कन को जाहिर करने के लिए कविता लिखी थी – कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तुमने हमनशीं/ एक तीर मेरे सीने पे मारा कि हाय-हाय उससे ज्यादा ही हुड़क मेरे सीने में इलाहाबाद के लिए है और ग़ालिब साहब तो ‘नाजनीं बुतान खुदारा कि हाय-हाय’ करते रहे लेकिन इलाहाबाद मेरे लिए एक अलग ही ऊँचाई का शहर है।
मेरी दादी थी दुलारी देवी। वह मुझे बहुत प्यार करती थी। घर में मैं सबसे पहला बच्चा था। सबका चहेता था। बचपन में दादा के कंधे पर चढ़कर मैंने पेड़ों और प्रकृति की बारीकी को जाना। वे जब मूड में होते तो मुझे कंधे पर उठाते और निकल जाते। बगीचे में सैकड़ों तरह के पेड़ थे। उनकी एक एक बारीकी बताते थे। किस रंग का फल कैसा होगा। कौन खराब या स्वादहीन होगा इसके बारे में दादाजी का ज्ञान अद्भुत था। तुमको लगेगा कि मेरी जात खटिक है तो मैं यह बताकर कौन सा ज्ञानी हो जाऊँगा। काफी समय तक मुझे भी ऐसा लगा लेकिन अब समझ में आया कि हम सारे लोग। सारे दलित पिछड़े सारे आदिवासी सारे माइनारिटी अपने परंपरागत धंधों के बारे जो जानते हैं वह विलक्षण उपलब्धि है। कोई कृषि वैज्ञानिक अपने को उनसे ज्यादा जानने का दावा कर सकता है? कोई मौसम विज्ञानी या कोई रसायन विज्ञानी उनसे ज्यादा जानता है? जो भी आज इतने विभाग हैं। जो भी अनुशासन हैं सब हमारे चुराये हुये ज्ञान पर आधारित हैं और मजे की बात है कि हमें ही उन सबसे बाहर कर दिया गया है। जिन्होंने अपना जीवन जलाया वे बहिष्कृत कर दिये गए और जिन्होंने ज्ञान चुराया वे मालिक बन बैठे। और देखो कि सारे विभाग हैं। करोड़ों-अरबों का बजट है लेकिन सारे कारोबार खत्म हो रहे हैं। क्यों? क्योंकि विभाग अपनी परम्पराओं से मिले ज्ञान और कौशल के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। वे स्वयं बड़े लोगों के खेल में शामिल हैं जो बाजार पर कब्जा रखते हैं। इसलिए खेती नष्ट हुई। रोजगार चौपट हुआ। जो कल तक दस्तकार थे आज वे बेरोजगार हैं। अब वे रिक्शा चलाएं या भूखों मर जाएँ किसको चिंता है। अमीर लोगों के महल बनते रहेंगे।
सर आप गुस्से में आ गए। बात तो परिवार और बचपन की हो रही थी ।
अपर्णा, तुम क्या मेरी तकलीफ देख सकती हो? रोता नहीं हूँ इसलिए गुस्से से लाल हो जाता हूँ। काश कि किसी से अपने दिल की बात कह पाता तो शायद इतनी चिढ़ से न भरा होता।
मैं समझ सकती हूँ। क्या आपको लगता है कि आप कभी-कभी लोगों से ज्यादा उम्मीद करते हैं जो पूरी नहीं होतीं तो आप विरक्त होते हैं? तो फिर आप उम्मीद ही क्यों करते हैं ?
देखो, इस पर तो मैं चुप ही रहूँ तो ही अच्छा है…..लेकिन एक बात बताओ…. मैंने तो किसी से कुछ नहीं मांगा। किसी से अपनी किताब पर समीक्षा के लिए भी चिरौरी नहीं की। लेकिन इतना जरूर है कि किसी से दबा नहीं। चाहे वह कोई भी हो। बराबरी पर बात किया। लेकिन क्यों कोई मुझे तकलीफ देता है। क्या बराबरी और सम्मान की उम्मीद करना कोई गुनाह है। (एक फीकी हंसी हँसते हैं)
बिलकुल नहीं। आप अपनी जगह दुरुस्त हैं लेकिन एक बुरी दुनिया से क्या उम्मीद करना…
अरे… बात तो तुम ठीक कह रही हो …. जब तवक़्को ही उठ गई ग़ालिब…. क्या किसी से गिला करे कोई … मैं तुमसे बता रहा था कि दादाजी के कंधों पर बैठकर मैंने इलाहाबाद को देखा। गंगा-जमुना को देखा। गली-मुहल्लों को देखा। और वहीं से मेरी समझ बनी। दादाजी ने जो इलाहाबाद दिखाया वही मेरा प्यारा इलाहाबाद है।
आपके माता-पिता क्या करते थे और भाई-बहन कौन कौन हैं ?
मेरे पिता का नाम भोलानाथ और माँ का नाम श्यामा था। मुझे देखकर तो तुम समझ ही सकती हो कि माता-पिता कैसे रहे होंगे। पिता जी वहीं फल-सब्जियों का काम करते थे। माँ घर का काम करती थी। हम लोग कई भाई बहन हैं। सबसे बड़ा मैं। मुझसे छोटे रामचन्द्र, तीसरे नंबर के सुरेशचन्द्र, उनसे छोटे रमेशचन्द्र और सबसे छोटे नरेश कुमार। तीन बहनें हैं। किरण, मनीषा और स्नेहलता। तो इतने बच्चों को संभालना कोई हंसी-खेल तो था नहीं। किसी को बुखार आ रहा है। किसी की जाँघिया सरक रही है। किसी को नजर लगी हुई है तो उतारने के लिए लाल मिर्च और सरसों को आग में जलाया जा रहा है।
पिताजी बहुत गुस्सैल थे और किसी की सुनते-उनते नहीं थे। कोई भी काम हो तो झगड़ा-लड़ाई, खून-खच्चर होना आम बात थी। न होता तो लगता ही नहीं कि कोई शुभ काम हो रहा है। मेरा घर अजायबघर बन गया था। तंत्र-मंत्र और बलि होती। घर में न जाने कितने देवी-देवताओं का वास था। और देखो कि मैं बचपन से ही इन सबसे बहुत चिढ़ता था। मुझे ईश्वर और देवता के नाम से चिढ़ थी। नफ़रत थी। और पिताजी को मेरी इन बातों से बहुत चिढ़ थी। वे मोटा डंडा लेकर मुझे पीटते थे कि यह सब तुम्हें भी मानना पड़ेगा। फिर भी मेरा विद्रोही मन उन चीजों को मानने को तैयार नहीं था। मेरा मन पढ़ने-लिखने में था और इसके लिए दादाजी का खुला समर्थन था। ऐसा नहीं कि पिताजी मुझे प्यार नहीं करते थे। करते थे और आज भी उनकी बहुत याद आती है। माँ बहुत स्नेहमयी थी। बहुत याद आते हैं दोनों लोग। अपनी एक ग़ज़ल में मैंने उनको याद किया है – ला पाता वालिदैन को अपने जो खाक़ से/ बचपन से अपने मिलता मैं फिर से तपाक से। तो बचपन का सारा सूत्र माता-पिता से जुड़ा है। जैसे ही उनकी याद आई तो बचपन याद आएगा ही आएगा। और बचपन की याद आने पर घूम-फिरकर माता-पिता का चेहरा सामने आता है।
अब देखो कि वह बचपन कैसा था कि ढेरों बच्चे उसमें थे। उनकी धमाचौकड़ी थी। एक दूसरे को पीटते एक दूसरे से पिटते और घूमते-फिरते दिन बीत जाते। और एक खास बात। किसी दिन सुबह-सुबह पता लगता कि आज जवाहरलाल नेहरू आए हुये हैं। किसी दिन पता लगता इन्दिरा जी किसी दिन विजयलक्ष्मी जी तो उस दिन हमारे लिए फरमान जारी होता कि आज सब लोग नहायेंगे। नहाते तो हम सभी लोग कूद-कूदकर थे लेकिन उस दिन का स्नान यादगार होता था। हमारी अच्छी तरह सफाई की जाती। रगड़कर। फिर तेल लगाकर बाल सँवारे जाते और फिर साफ कपड़े पहनाकर हमें लाइन में खड़ा करा दिया जाता। तो जब नेहरू जी या विजयलक्ष्मी जी या कोई और आता तो हम परेड के सैनिकों की तरह खड़े होते और वे लोग हमसे बात करते। पढ़ाई लिखाई और शरारतों के बारे में पूछते और हमारे गाल थपथपाकर प्यार जताते और हमको गिफ्ट देते। टाफियाँ और दूसरी चीजें भी। और जैसे ही वे लोग वापस जाते हम लोग हुर्रे। अपने में फिर मगन। हम लोग स्कूल जाते तो अपने सहपाठियों पर रौब ग़ालिब करते – क्या बात करोगे। सुल्लेव। आज तो हमारे किहाँ जवाहल्लाल आए रहें। तुमने देखा है उन्हें। इस बात का बड़ा प्रभाव होता था कि जिनका नाम अखबारों और किताबों में छपता है वे हमारे गाल थपथपा गए। दूसरे लोगों को यह मौका कहाँ। शरारतों का पारावार न था। अक्सर हम लोगों को लेकर हमारे घरों में लड़ाइयाँ हो जातीं। लेकिन मेरे दादाजी ऐसे थे कि उनकी एक घुड़क से सब शांत हो जाते।
वहाँ कई बंगले थे और सभी में एक एक दो-दो परिवार रहते थे। तो अक्सर आम या अमरूद के दिनों में किसी भी बगीचे में घुस जाते। पता लगा कि हम पेड़ पर चढ़े हुये कोई फल बड़ी सावधानी से तोड़ रहे हैं और बगीचे का रखवारा बड़ी-बड़ी मूछों, लाल-लाल आँखों से आग बरसाता डंडा लिए हमारे ऐन पास खड़ा हमें घूर रहा है। जैसे ही किसी की नजर उसपर पड़ती वह सावधान करने वाली आवाज निकालता और वहाँ से दौड़ लगा देता। मौका पाकर बाकी बच्चे भी नौ दो ग्यारह हो जाते और पेड़ पर चढ़नेवाले को भी भाग निकलने का अवसर मिल जाता। लेकिन बगीचेवाला भी कहाँ हार मानता था। गालियां देते हाँफते वह पीछे-पीछे और बच्चे यहाँ-वहाँ। जब वह हमारा कुछ न बिगाड़ पाता तो हमारे घर के दरवाजे पर जाकर जोर-जोर से गालियाँ देने लगता। लेकिन दबता कोई न था। उधर से भी मुकाबला शुरू होता और अंत में इस बात पर सब शांत होता कि अरे बच्चे ही तो हैं। लेकिन हमारी पिटाई तो होनी ही होनी थी। फिर भी कौन सुधरनेवाला था।
वाह… वाकई मजेदार था बचपन। आप पढ़ने में कैसे थे ?
पढ़ाई में मैं अच्छा था। मुझे गणित में बहुत रुचि थी। और मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है कि मेरे अध्यापक भी मुझे बहुत प्यार करते थे। साथ में पढ़नेवाले भी खूब कंपटीशन करते थे। मैं सोचता था कि पढ़-लिखकर गणित का अध्यापक बनूँगा।
क्या कभी आपको दलित होने के कारण अपमानित होना पड़ा? बचपन में ?
तब कहाँ दलित का कॉन्सैप्ट था हमारे जीवन में। कहीं गाली-गलौज या मार-पीट होती तो हम लोग तुरंत ही हिसाब पूरा कर देते थे। और हमारे साथ आपस में कोई जाति-पांति का भेदभाव नहीं था। सभी जातियों के लोग हमारे सहपाठी थे और उनमें जैसा प्रेम था वह अलग ही तरह का था। असल में स्कूल में हमारे गोल थे और लड़ाई-भिड़ाई भी एक गोल से दूसरे गोल के बीच होती थी। ऐसा नहीं होता था कि एक गोल के ठाकुर ने दूसरे गोल के बाभन या खटिक या अहीर को मार दिया तो दूसरे गोल का ठाकुर इसलिए चुप रह जाएगा कि वह ठाकुर है। बल्कि बदला लेने में वह आगे ही रहता था। हम लोगों की शब्दावली थी आज इस साले को बधिया कर देते हैं। और फिर तो जो तूफान आता था कि मत पूछो।
कॉलेज में भी यही गोलबंदी थी। लेकिन आगे सब दोस्त बिखर गए। अब उनकी याद तो आती है लेकिन पता नहीं चलता कि वे इस दुनिया में हैं भी कि नहीं हैं ।
लेकिन आपके लेखन में और चिंतन में तो यह बहुत बड़ी पीड़ा है। दलित दंश दिखाई देता है। ऐसा कैसे?
यह बाद की बात है। लेखन में जब मैं आया। तब मैं स्वानुभूति से ज्यादा उस सच से परिचित हुआ जो दलित समाज झेल रहा था। रोज कहीं न कहीं दलित उत्पीड़न की घटनाएँ हो रही थीं और दूसरी तरफ आंदोलन भी चल रहा था। जब मैंने बाबा साहब की किताब हू वेयर शूद्रज और इनहिलेशन ऑफ कास्ट पढ़ी तब मेरी आँखें चौंधिया गर्इं। कह सकता हूँ कि मेरी बुद्धि चकरा गई। तब वास्तव में मैं हिन्दू समाज व्यवस्था और जाति-व्यवस्था के बारे में ठीक से जान पाया। और सही मायने में तभी मैं इस पीड़ा का भोक्ता भी बना। लोगों ने जाति के कारण मुझे लगातार इग्नोर किया। कभी मेरी चर्चा नहीं की। चर्चा तो छोड़ो मुझे अपनी बात तक रखने का मौका भी कब दिया। मेरी एक किताब की कभी समीक्षा नहीं आई। मेरे लेख लौटाए जाते रहे। फिर अब तो मैं भेजता भी नहीं हूँ। लोग मुझे अपने साँचे में ढालना चाहते रहे होंगे। उनको लगता होगा कि मेरी वैचारिकी उनके अनुसार चलेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मैं लोगों की नजर में खटकने लगा। मैं कहता हूँ चलो आप मुझे न बुलाओ लेकिन उन सवालों का जवाब ही दे दो जो दलित आंदोलन और अंबेडकरवाद ने खड़े किए हैं। जब मैं लेखक नहीं था तब किसी को कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन जब मैं लेखन में आया तब असुविधा होने लगी। तब अपने अपने हिसाब से वे लोग राजनीति करने लगे। जब मुझे पचा नहीं पाये तो नकारने लगे। यह दंश है मेरा। और मेरा गुस्सा किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं है उस ब्राह्मणवादी अनैतिकता के खिलाफ है जिसके एक नहीं अनेक मानदंड हैं।
आप जब ज़िंदगी में आगे बढ़ रहे थे तो कोई कठिनाई नहीं हुई ?
हुई क्यों नहीं। एक मेहनतकश परिवार में तो कठिनाई ही कठिनाई थी। पिताजी की एक दुकान थी। वे चाहते थे कि मैं दुकान संभालूँ। लेकिन मेरी उधर कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। मुझे तो गणित में दिलचस्पी थी और मैं पढ़-लिखकर अध्यापन करना चाहता था इसलिए मेरा जुनून भी दूसरी तरह का था। घर में इस बात पर झगड़े होते थे। इसलिए घरेलू हालात से निकलने के लिए बीए करते ही मैं इलाहाबाद में एक बैटरी और टार्च बनाने वाली कंपनी जी प्लस लाइफ में नौकरी करने लगा। वहाँ सात-आठ साल नौकरी की और बेहतर नौकरी के लिए कॉम्पटीशन भी फेस करता रहा। बाद में चलकर मुझे यूपी रोडवेज में सहायक क्षेत्रीय प्रबन्धक (कार्मिक) की नौकरी मिली और बनारस में ही मुझे पहली जॉइनिंग मिली।
आपकी बेटी प्रिया बहुत छोटी है। आपने बहुत देर में शादी की। ऐसा क्यों ?
(काफी देर चुप रहने के बाद) अपर्णा, मैंने अपनी बहुत कम बातें लोगों से शेयर की। लेकिन पता नहीं क्यों लगता है कि तुमसे शेयर करूँ। उस तकलीफ के बारे में बताऊँ जो मेरे दिल में हमेशा एक खलिश बनकर रही है। और किसी ने मुझसे ऐसे पूछा भी नहीं। मेरी पहली शादी तो सत्रह-अठारह साल की उम्र में ही हो गई थी लेकिन बहुत दिनों तक चली नहीं। बिरादरी की पंचायत बैठी और बड़ी कठहुज्जत के बाद छुट्टी-छुट्टा हो गया। उसमें मेरे परिवार को काफी आर्थिक घाटा भी उठाना पड़ा। उसके बाद जब मैं अपने पाँव पर खड़ा हुआ तो दूसरी शादी भी हुई। उस वाइफ से मेरे चार बच्चे हुये। दो बेटे और दो बेटियाँ। लेकिन वह शादी भी एक दुखद प्रसंग में बदलती गई और एक दिन टूट गई। फिर मालती जी मेरे जीवन में आर्इं और मुझे लगा अब शायद मैं चैन का जीवन जी सकूँगा लेकिन यह भी एक सपना ही साबित हुआ। तीन बच्चे मेरे साथ रहते थे और सबसे छोटी बेटी को उसकी माँ अपने साथ इलाहाबाद ले गई जिसे फिर मैंने कभी देखा नहीं। अब तो दोनों बेटों को नौकरी मिल गई है। मेरे रिटायर होते-होते एक रोडवेज में ही लग गया और दूसरा राबर्ट्सगंज में अध्यापक है। बड़ी बेटी फैजाबाद में आंगनबाड़ी में है। कम से कम अब उनकी तरफ से मैं निश्चिंत हूँ। लेकिन सबसे छोटी बेटी प्रिया के कॅरियर और शादी की मुझे चिंता है। वह बहुत प्यारी बच्ची है और कहीं न कहीं मुझे विश्वास है कि वह मेरी सच्ची वारिस होगी और मेरे लेखन और किताबों को संभाल लेगी। मेरे दोनों बेटों की किताबों में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब उनसे मैं उम्मीद भी क्या करूँ।
अपर्णा रंगकर्मी और गाँव के लोग की कार्यकारी संपादक हैं।
मूलचन्द सोनकर जी का साक्षात्कार लेकर आपने उनकी वैचारिकी को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य का संपादन किया है. धन्यवाद अपर्णा जी. सोनकर जी की स्मृति को नमन
एक बेहतरीन और सारगर्भित साक्षात्कार जिसमें सोनकर जी ने प्रलेस,दलेस इत्यादि संगठनों की प्याज दर प्याज की परत उघाड कर रख दी ! खास बात जो दलित लेखकों के संदर्भ में कही वो ठोस धरातल लिए है कि जब तक आंबेडकर,फूले को गहराई से नहीं समझेगा तब दलित साहित्यकार नहीं बन सकता ! आज तो दलित लेखक आंबेडकर नाम की मात्र माला जप छद्म जनेऊधारी मार्क्सवादियों के चरण पखार रहा है ! आखिर दलित लेखक अपनी कलम के बल पर कब तक टिक पायेगा ? कहने को तो बहुत कुछ कह सकता हूं ! अंतत मुलचंद सोनकर और अपर्णा को मेरा नीला सलाम ??
– डा.कुसुम वियोगी मोबाइल 9911409360