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आज ख़ामोश हो गई महिलाओं की मुखर आवाज़

कई महिलाओं की मुखर आवाज़ बनने वाली आज खामोश हो गई है। महिला वर्ग की विभिन्न लड़ाई लड़ने वाली जानी-मानी सामाजिक कर्याकर्ता कमला भसीन का शनिवार को दिल्ली में निधन हो गया है। भारत और दक्षिण एशिया में अपने नारों, गीतों और अकाट्य तर्कों से नारीवादी आंदोलन को ऊंचाई तक ले जाने वाली मशहूर लेखिका […]

कई महिलाओं की मुखर आवाज़ बनने वाली आज खामोश हो गई है। महिला वर्ग की विभिन्न लड़ाई लड़ने वाली जानी-मानी सामाजिक कर्याकर्ता कमला भसीन का शनिवार को दिल्ली में निधन हो गया है। भारत और दक्षिण एशिया में अपने नारों, गीतों और अकाट्य तर्कों से नारीवादी आंदोलन को ऊंचाई तक ले जाने वाली मशहूर लेखिका और नारीवादी आंदोलनकारी 75 वर्षीय कमला भसीन कैंसर से पीड़ित थीं।

भसीन का जन्म 24 अप्रैल, 1946 को वर्तमान पाकिस्तान के मंडी बहाउद्दीन में हुआ था। वो आज़ाद भारत के उन गवाहों में शामिल थी, जिन्होनें आज़ादी से लेकर के आधुनिक भारत में महिलाओं के साथ हो रही सभी तरह की समस्याओं को बहुत करीब से देखा है। वे खुद को आधी रात की संतान कहती थीं, जिसका आशय विभाजन के आसपास पैदा हुई भारतीय उपमहाद्वीप की पीढ़ी से है। भसीन ने राजस्थान विश्वविद्यालय से मास्टर्स की डिग्री ली थी और पश्चिमी जर्मनी के मॉन्स्टर यूनिवर्सिटी से सोशियोलॉजी ऑफ डेवलपमेंट में अध्ययनरत रहीं थीं।

कमला भसीन सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में 1970 के दशक से ही गरीबी, अशिक्षा, मानवाधिकार और दक्षिण एशिया में शांति जैसे गंभीर विषयों पर सक्रीय थीं। 1976 से लेकर 2001 तक उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के साथ मिलकर काम किया। उनकी सबसे बड़ी सफलता दक्षिण एशियाई नेटवर्क संगत के संस्थापक के तौर पर देखी जाती है। जिसकी शुरुआत उन्होंने साल 2002 में की था और यह संस्था ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के वंचित महिलाओं के लिए काम करती है। भसीन समाजिक स्तर पर जितनी मुखरता से अपनी बात रखने के लिए जानी जाती थीं, उतनी ही बेबाक उनकी लेखनी भी थी। उन्होंने नारीवादी और पितृसत्ता जैसे मुद्दों पर कई किताबें लिखीं। उनकी प्रकाशित रचनाओं का करीब 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

उनकी प्रमुख रचनाएं : लाफिंग मैटर्स (2005), एक्सप्लोरिंग मैस्कुलैनिटी (2004), बॉर्डर्स एंड बाउंड्रीज: वुमेन इन इंडियाज़ पार्टिशन (1998), ह्वॉट इज़ पैट्रियार्की? (1993) और फेमिनिज़्म एंड इट्स रिलेवेंस इन साउथ एशिया (1993)।

[bs-quote quote=”2017 में दिए एक साक्षात्कार में भसीन ने कहा था- पुरुषों को यह समझना होगा कि पितृसत्ता किस तरह उनका अमानवीकरण (डिह्यूमनाइज) कर रही है। जैसे, उदाहरण के लिए पितृसत्ता उन्हें रोने की इजाज़त नहीं देती। उन्होंने अपना इमोशनल इंटेलीजेंस खो दिया है। वे ख़ुद अपनी भावनाओं को नहीं समझ पाते।अमेरिका में टेड टॉक हमें बताते हैं कि वहां लड़कियों की तुलना में किशोर लड़कों की ख़ुदकुशी की दर चार गुनी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

2017 में दिए एक साक्षात्कार में भसीन ने कहा था- पुरुषों को यह समझना होगा कि पितृसत्ता किस तरह उनका अमानवीकरण (डिह्यूमनाइज) कर रही है। जैसे, उदाहरण के लिए पितृसत्ता उन्हें रोने की इजाज़त नहीं देती। उन्होंने अपना इमोशनल इंटेलीजेंस खो दिया है। वे ख़ुद अपनी भावनाओं को नहीं समझ पाते।अमेरिका में टेड टॉक हमें बताते हैं कि वहां लड़कियों की तुलना में किशोर लड़कों की ख़ुदकुशी की दर चार गुनी है। क्योंकि वे ख़ुद को ही नहीं समझ पाते हैं।अगर एक औरत किसी पुरुष से यह कहती है कि वह उससे प्यार नहीं करती, तो वह उसके चेहरे पर तेजाब फेंक देता है। जब उसे लगता है कि उसकी बीवी ने उसे प्यार से नहीं चूमा है। तो वह शिकायत नहीं करता, वह उसे चांटा मार देने को ज़्यादा आसान समझता है। क्योंकि पितृसत्ता ने उसे यही सिखाया है। एक पुरुष जो बस में किसी स्त्री के स्तनों को दबाने में खुशी महसूस करता है। उसे एक मनोरोग चिकित्सक के पास जाना चाहिए। वह सेहतमंद नहीं है।

सुधा अरोड़ा, नारीवादी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता लिखती हैं कि,

तू खुद को बदल

तू खुद को बदल

तब ही तो ज़माना बदलेगा !

सैंकड़ों गीत हैं कमला भसीन के, जिन्हें महिला संगठनों के महिला अभियान के जुटान में हमेशा गाया जाता है, गाया जाता रहेगा। वे हर स्त्रीवादी की ज़ुबान पर हैं क्योंकि वे इतना सीधा और साफ़ लिखती थीं कि सुनते ही वे हमें याद रह जाते थे।नारीवाद का पाठ हमें पढ़ाने वाली, हमें अपने हक़ के लिए लड़ना सिखाने वाली, कमला भसीन एक गज़ब शख्सियत थीं। बेहद आसान भाषा में और बेहद तार्किक असरकारक अंदाज में उन्होंने हमें मुश्किल से मुश्किल गुत्थियां समझा दीं। उनकी सीधी बातें सुनने वाले के दिल में उतर जाती थी। अपना पूरा जीवन उन्होंने स्त्री को बराबरी का हक दिलवाने में गुजार दिया। पिछले दिनों वे कैंसर से जूझ रही थीं और कभी हार न मानने वाली यह लौह महिला अपने जीवन में कई संघर्षों से जूझते हुए, अपनी बीमारी में भी मुस्कुराती रहीं। आज सुबह कमला भसीन लंबी यात्रा पर चली गईं पर अपने गीतों की, अपने जज्बे की, एक अनूठी विरासत हमें सौंप गई हैं ! उनकी बुलंद आवाज़ हमारे दिलों में बसी है। उनकी मशाल थामने के लिए लाखों हाथ हैं हमारे बीच। हम उनके संघर्ष को आगे बढ़ाएंगे। आखिरी सलाम हमारी सबसे जांबाज दोस्त !

[bs-quote quote=”उनकी सीधी बातें सुनने वाले के दिल में उतर जाती थी। अपना पूरा जीवन उन्होंने स्त्री को बराबरी का हक दिलवाने में गुजार दिया। पिछले दिनों वे कैंसर से जूझ रही थीं और कभी हार न मानने वाली यह लौह महिला अपने जीवन में कई संघर्षों से जूझते हुए, अपनी बीमारी में भी मुस्कुराती रहीं। आज सुबह कमला भसीन लंबी यात्रा पर चली गईं पर अपने गीतों की, अपने जज्बे की, एक अनूठी विरासत हमें सौंप गई हैं ! उनकी बुलंद आवाज़ हमारे दिलों में बसी है। उनकी मशाल थामने के लिए लाखों हाथ हैं हमारे बीच। हम उनके संघर्ष को आगे बढ़ाएंगे। आखिरी सलाम हमारी सबसे जांबाज दोस्त !” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

स्मिता कहती हैं कि अपनी बात कहकर वे स्टेज से नीचे उतरीं और स्कूली छात्राओं ने उन्हें घेर लिया। देर तक वे सबसे घिरी उनसे बतियाती रहीं। उनकी बेबाक़, बिना लाग लपेट के कही गई बातों ने सभी के, ख़ासकर उन कम उम्र लड़कियों पर जादू कर दिया था। मुझे यक़ीन है उस दिन उनके मन पर छाये कई जाल साफ़ हो गए होंगे। उनसे ये पहली मुलाक़ात थी मेरी। नहीं मालूम था आखिरी भी होगी। निडर, बेबाक़ और औरतों को जीने के मायने सिखाने वाली आवाज ख़ामोश हो गई है। दिलों में राज और दिमाग पर छा जाने वाले लोग यूँ तो कभी मरा नहीं करते फिर भी कमी तो खलती ही है। इत्तेफाकन एक दो वीडियो बनाई थीं उस दिन। अब ये स्मृतियों के ख़ज़ाने में…। विदा कमला भसीन दी !

सुजाता कहती हैं कि कोरोना के बाद किसी लाइव में युवाओं को सम्बोधित करते हुए उन्होंने एक पंक्ति कही थी जो हू-ब-हू तो नहीं याद है लेकिन जिसका भाव बहुत कुछ यह था- स्त्रीवादी होना बहुत आसान है जिस पल मन में अन्याय और ग़ैर बराबरी से जूझने की बात आ गई बस उसी पल से तुम स्त्रीवादी हो। लेकिन स्त्रीवादी होना बहुत मुश्किल है, कांटों की राह पर चलना है, हर वक़्त आप जूझते हो, देखो, मेरे जैसा हाल हो जाता है…और फिर एक खिलंदड़ हँसी। उनका बोलना बतियाना हमेशा बांध लेता था लेकिन उस दिन वह बात जैसे मन के किसी कोने में अटक गई।

उन्होंने जैसे लड़ने के लिए ही जन्म लिया। कमला दी अपनी वॉल पर पिछले दिनों से लगातार कैंसर से जूझती हुई दिख रही थीं, बिना माथे पर एक भी शिकन के, हार न मानती हुईं, गाती और ड्राइव करती हुईं, वह लगातार जूझ रही थीं। दूर से उन्हें यूँ देखना दिल तोड़ता था। स्त्री अधिकारों की पैरोकार कमला दी अकादमिक कामों और एक्टिविज़्म दोनों में सक्रिय रहीं, न जाने कितनी स्त्रियों की हिम्मत, आख़िरी साँस तक जूझती हुई योद्धा कमला भसीन का जाना एक बहुत बड़ी क्षति है. यह जगह कभी नहीं भर सकती जो उनके जाने से ख़ाली हो गई, लेकिन हाँ हमारे पास उनके किए कामों की धरोहर है जो पीढ़ियों तक काम आएगी। आपकी सोच और ऊर्जा हम सबमें भर जाए। आख़िरी सलाम कॉमरेड! सिस्टर!  ज़िंदाबाद

स्त्रीमुक्ति संगठन,कार्यकर्ता अंजली सिंहा  कहती हैं कि, पितृसत्तात्मक समाज में अगर किसी को भी महिलाओं से संबंधित मुद्दा उठाना है तो इतना आसान नहीं है। और ये लड़ाई उन्होंने लड़ी और खड़ी रहीं, अंत समय तक यह झंडा थामें रहीं। हम सभी लोग उनसे सिखने वाले लोगों में से हैं। यह बहुद दुखद समाचार है। हमे यही लगता है कि उन्होंने बहुत बड़ा योगदान दिया है। एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता कुसुम त्रिपाठी कहती हैं कि, मैं उनसे पहली बार दिल्ली में 1989 में मिली थी। मेरे नज़रिए से नारीवादी आन्दोलन के लिए बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। क्योंकि जागोरी संस्था और सहेली संस्था के साथ मिलकर जो काम किया और हिंदी-इंग्लिश दोनो भाषाओं में नारीवाद क्या है पितृसत्ता क्या है ,छोटे- छोटे बुकलेट निकालकर जो जनजागरूकता का जो कार्य किया वह बहुत सराहनीय है। गाना नुक्कड़ नाटक के जरिए विमेंस मुवमेंट जो 79 के बाद आया था उसमें उनकी अंतरार्ष्ट्राय स्तर पर बहुत बड़ी भूमिका थी। एक नेटवर्किंग थी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसमें भारत के नारीवाद को लेकर उनका बहुत बड़ा योगदान था। तीन महिलाएं जो ऐसे समय में गयी हैं गेैल ओमवेड, सोनल शुक्ला, कमल भसीन, इन तीनों लोगों का एक महिनें में जाना महिला आंदोलन के लिए बहुत बड़ा नुकसान है। क्योंकि यह ऐसा समय है कट्टरपंथी जो हिंदुत्ववादी लोग हैं  वो जिस तरह से महिलाओं के विरूद्ध चीजों को फैला रहें या मनुवाद लाना चाह रहें हैं ऐसे में तो इनकी बहुत आवश्यकता थी। मेरे ख्याल से ये पूरे भारत के बहुत बड़ा नुकसान  है। इतना अचानक चले जाना, इतनी कम उम्र में, यह समय नहीं था जाने का।वो संयुक्त राष्ट्र के राष्ट्रसंघ में नौकरी करती थीं। संगतनामा एक एनजीओ था जिसकी स्थापना 1998 में हुई थी, उससे जुड़कर फैमिनिस्ट नेटवर्क के काम के लिए उन्होंने वो नौकरी छोड़ी। संगत के साथ मिलकर वे पुरुष समानता, लैंगिग हित के बारे में लगातार जनजागृत ला रही थीं। उसके बाद दक्षिण एशिया में इव एंसिलर नामक संस्था द्वारा लाया गया वन मिलियन राइजिंग कैम्पियन में  उन्होंने बहुत काम किया। उनकी द्वारा लिखित व्हाट इज पेट्रियारिकी, विमेन इन इंडिया पार्टिशन, बार्डर एंड बॉउंड्रीज, अंडरस्टैंडिंग जेंडर इन सभी पुस्तकों का तीस भाषाओं में अनुवाद हुआ था। उनकी बेहद पॉपुलर बुक थी लाफिंग मेटर्स। जो कि औरतों पर जोक बनाया जाता था उसपे थी। विदा कमला भसीन दी !

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