नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
सवर्ण बनाम दलित-बहुजन (डायरी 2 अगस्त, 2022)
बदलाव संसार का नियम है और यह बदलाव हर क्षेत्र में होता है फिर चाहे वह सामाजिक क्षेत्र में बदलाव हो, आर्थिक क्षेत्र में हो, सांस्कृतिक क्षेत्र में हो या राजनीतिक क्षेत्र में। और गंभीरतापूर्वक देखें तो इन सभी क्षेत्रों के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है। मतलब यह कि यदि किसी एक क्षेत्र में कोई बदलाव […]
बदलाव संसार का नियम है और यह बदलाव हर क्षेत्र में होता है फिर चाहे वह सामाजिक क्षेत्र में बदलाव हो, आर्थिक क्षेत्र में हो, सांस्कृतिक क्षेत्र में हो या राजनीतिक क्षेत्र में। और गंभीरतापूर्वक देखें तो इन सभी क्षेत्रों के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है। मतलब यह कि यदि किसी एक क्षेत्र में कोई बदलाव होता है तो उसका असर अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ता ही है। यह वाकई बेहद दिलचस्प है।
मैं तो कांवड़ियों की बढ़ती संख्या को देख रहा हूं और यह सोच रहा हूं कि अब वे तिरंगा लेकर कांवड़ यात्रा कर रहे हैं। मुझे नहीं पता कि इस देश के हुक्मरानों को इसकी जानकारी है या नहीं, लेकिन हम जो हुक्मरान नहीं, इस देश के आम जन हैं, यह भलीभांति जानते हैं कि कांवड़िये किस तरह का आचरण करते हैं। वे नशा करते हैं और भक्ति का पाखंड करते हैं। दिलचस्प यह कि अब इसके साथ तिरंगा का भी वे खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। अब इसे ही एक उदाहरण मानें। वैसे तो यह सांस्कृतिक बदलाव है। लेकिन इसका असर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र पर सीधा पड़ रहा है। जो लोग राजनीति और समाज को जानते-समझते हैं, वे जानते हैं कि यह सब एक दिन में नहीं हुआ। वैसे भी कोई भी बदलाव एक दिन में नहीं हो जाता।
अभी तो फेसबुक पर एक दलित कावंड़िया की तस्वीर पर नजर पड़ी। इस संबंध में लोगों के अलग-अलग विचार थे। मैं तो यह सब बचपन से देख रहा हूं। मेरा गांव दलित-बहुजनों का गांव है। यहां कोईरी और यादव जाति के लोग अधिक हैं। अति पिछड़ा वर्ग के लोग भी हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है। दलितों की संख्या बहुत कम है। बचपन से मैं यह देखता आया हूं कि लक्ष्मी और सरस्वती पूजा के मौके पर मेरे गांव की हर जाति के टोले में अलग-अलग प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं और लोग अपनी-अपनी जाति की प्रतिमाओं के सामने खूब पाखंड करते हैं।
दरअसल, मैं दो दिन पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा द्वारा बिहार की राजधानी पटना में दिये एक भाषण के बारे में सोच रहा हूं। उन्होंने कहा है कि आज जहां भाजपा है, वहां तक विपक्ष को पहुंचने में 40 साल लगेंगे। साथ ही उनका यह भी कहना है कि अब भाजपा के मुकाबले में कोई राष्ट्रीय पार्टी नहीं बची।
जाहिर तौर पर नड्डा ने कुछ भी गलत नहीं कहा। यही हकीकत है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस अब भी अपने गांधीवाद और ब्राह्मणवाद की खोल से बाहर आने को तैयार नहीं है। उसका शीर्ष नेतृत्व खुद से जुझ रहा है। सवर्ण, जो कि उसके आधार वोटर हुआ करते थे, वे अब भाजपा के पाले में चले गए हैं। भाजपा ने उन्हें दस फीसदी का आरक्ष्ण देकर यह आश्वस्त कर दिया है कि सवर्णों के हितों की रक्षा कोई पार्टी कर सकती है तो वह केवल वही है। भाजपा ने एक-एक कर क्षेत्रीय दलों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया है। जदयू जो कि एक समय बिहार में भाजपा के लिए चुनौती हुआ करती थी, अब वह भी 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की अनुकंपा से सत्तासीन होकर उसकी गुलाम बन चुकी है। अभी दो दिन पहले ही भाजपा ने राज्य के सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का संकेत दिया और इसके लिए अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को जुट जाने का निर्देश दिया। हालांकि जदयू की ओर से कल उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने भी अपनी झेंप मिटाने के लिए कह दिया है कि उनकी पार्टी भी सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है। जबकि तीन दिन पहले अमित शाह ने कहा था कि बिहार में भाजपा-जदयू का गठबंधन जारी रहेगा।
दरअसल, यह मामला केवल बिहार का नहीं है। आप उत्तर प्रदेश में देखें तो मायावती ने भाजपा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। झारखंड में भाजपा किसी भी समय सरकार बदल देने का माद्दा रखती है। मध्य प्रदेश उसके पास पहले से है। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेसी भूपेश बघेल भाजपा के नक्श-ए-कदम पर चलकर गाय, गोबर और गौमुत्र चिल्ला रहे हैं तथा राम वनगमन पथ परियोजना का ढिंढोरा पीट रहे हैं। हरियाणा भाजपा के पास ही है। उधर राजस्थान में भी भाजपा इस बार सत्ता पर काबिज होने की स्थिति में है। इस प्रकार हम पाते हैं कि पूरा का पूरा उत्तर भारत भाजपामय हो चुका है। वहीं पूर्वोत्तर ने भाजपा को मजबूती दी है। मध्य भारत के इलाके में भी भाजपा का मुकाबला आसान नहीं रहा। दक्षिण में भाजपा के पास चुनौतियां हैं, लेकिन कर्नाटक को हिंदू राज्य बनाकर उसने एक मजबूत शुरूआत तो कर ही दी है।
जाहिर तौर पर भाजपा को आज जो स्थिति प्राप्त है और वह लगभग अपराजेय है, तो इसका असर सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी पड़ रहा है। लेकिन यह समझने की आवश्यकता है कि आखिर क्या वजह है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष यह कह रहे हैं कि विपक्ष को उनतक पहुंचने में 40 साल लगेंगे?
दरअसल, यह पूरा मामला केवल और सवर्णों की हेजेमॉनी का है। जब कांग्रेस सर्वशक्तिमान थी और जनसंघ के उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाते थे तब भी सत्ता सवर्णों के हाथ में ही थी। फिर आज जब भाजपा अपराजेय है तो सत्ता सवर्णें के हाथ में ही है। कुल मिलाकर आजादी के 75 साल बाद भी आजादी का लाभ केवल और केवल सवर्ण और बनिये उठा रहे हैं। इसमें अहम भूमिका वामपंथियों की रही है। वे इस देश में राजनीतिक बदलाव की दिशा को हमेशा सवर्णों के पक्ष में मोड़नेवाले रहे। आज भी वे यही कर रहे हैं।
लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि जेपी नड्डा जो कह रहे हैं, वह पत्थर की लकीर है। असल में इस देश में अब लड़ाई एकदम सीधी होनेवाली है। आज भले ही दलितों और पिछड़ों को बरगलाने में भाजपा कामयाब है लेकिन यह स्थिति बहुत अधिक दिनों तक नहीं रहनेवाली है क्योंकि भूख सभी को लगती है और जब भूख लगती है तो कोई तिरंगा उसकी भूख नहीं मिटा सकता। उसे तो अनाज चाहिए होता है और अनाज के लिए रोजगार। सामाजिक स्तर पर भी सवर्णों के बढ़ते वर्चस्व का असर भी दलित-बहुजनों के उपर पड़ेगा ही। वैसे भी यह याद रखा जाना चहिए कि सवर्णों और दलित-बहुजनों की इस लड़ाई का लंबा इतिहास रहा है। इस लिहाज से देखें तो अभी यह आगाज ही है।