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प्रधानमंत्री बनने से पहले वी पी सिंह का अतीत

वी पी सिंह को समझने के लिए उनके बचपन और युवावस्था के दिनों को समझना होगा। दरअसल वह अपने दत्तक पिता मांडा के राजा रामगोपाल सिंह और अपने जैविक पिता दइया के राजा भगवती सिंह के बीच की तनातनी में फंसे रहे। बचपन से ही एक असुरक्षा की भावना उनके दिमाग में आ गई थी। […]

वी पी सिंह को समझने के लिए उनके बचपन और युवावस्था के दिनों को समझना होगा। दरअसल वह अपने दत्तक पिता मांडा के राजा रामगोपाल सिंह और अपने जैविक पिता दइया के राजा भगवती सिंह के बीच की तनातनी में फंसे रहे। बचपन से ही एक असुरक्षा की भावना उनके दिमाग में आ गई थी। उनके दत्तक पिता ने उन्हें उनके जैविक माता-पिता से मिलने से भी मना कर दिया था। वह हमेशा सुरक्षा के घेरे में रखते थे और उनका खाना भी सुरक्षा कारणों से पहले चखा जाता था क्योंकि वे राजपरिवार के इकलौते वारिस थे। उन्होंने अक्सर अपनी सामंती परवरिश को यह कहते हुए दर्शाया है कि अगर उनके क्षेत्र और संपति पर रहने वाले किसी व्यक्ति को कोई समस्या थी और उसने मदद मांगी, तो मेरे पिता ने यह महसूस किया, इसे प्रदान करना उनका कर्तव्य था। उनका जीवन अत्यंत कठिन था क्योंकि उनके परिवार के किसी भी सदस्य को उनसे मिलने की अनुमति नहीं थी, यहां तक कि उनके प्राकृतिक माता-पिता को भी नहीं। यद्यपि उनका परिवार गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी आंदोलन के खिलाफ था लेकिन  वीपी सिंह उनसे प्रभावित थे और उन्होंने विभिन्न विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया।

उनके जीवन की असुरक्षा ने शायद उन्हें एक दार्शनिक राजनीतिज्ञ बना दिया क्योंकि एक राजा के परिवार में पैदा होने के कारण उन्हें केवल अकेलापन और शर्मिंदगी मिली थी । वह अपने परिवार की समाप्ति के विषय में असहज थे। वह अपने बड़े भाई संत बख्श सिंह से प्रभावित थे जो ऑक्सफोर्ड में पढ़ रहे थे और जिनके पास एक विशाल पुस्तकालय था। वीपी सिंह ने छात्र राजनीति में आते-आते, इस तथ्य के बावजूद कि उनका परिवार इस क्षेत्र का सबसे बड़ा सामंत था, जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया, जो उनके पिता राजा भगवती सिंह के लिए बहुत ही निराशाजनक और पीड़ादायी था।

विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से प्रभावित वीपी सिंह ने न केवल ‘सर्वोदय’ आंदोलन की विभिन्न गतिविधियों और  ‘श्रमदान’ जैसे रचनात्मक कार्यों में भाग लिया बल्कि पासना गांव में लगभग 150-200 एकड़ ‘पूर्णतः  सिंचित भूमि’ भी भूदान के तहत दान कर दी। उनके परिवार के सभी सदस्य उनसे नाराज थे  और विनोबा भावे ने भी उन्हे समझाने के प्रयास किया कि वह तो मात्र अपनी भूमि का 1/6 हिस्सा ही मांग रहे थे लेकिन ‘वीपी पहले से ही इसके लिए तैयार थे। उनके जैविक पिता भगवती सिंह को इस बात से गहरा धक्का लगा और इससे वह सावधान हो गए, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि दैया में 900 एकड़ जमीन भी उसी तरह से भूदान में चली जाए। और इसलिए उन्होंने अपने जीवनकाल में इसे लटकाए रखा। क्योंकि वीपी दइया राज घराने के अकेले कानूनी वारिस थे इसलिए अंततः वह जमीन उनके ही नाम आयी। लेकिन उन्होंने इस जमीन को नहीं लिया और जमीन दैया ट्रस्ट को हस्तांतरित कर दी क्योंकि उन्होंने साफ कर दिया कि मांडा में राज परिवार द्वारा गोद लेने के बाद अपने प्राकृतिक परिवार से कुछ भी नहीं चाहते हैं।

[bs-quote quote=”उनके निर्वाचन क्षेत्र के कुछ गांवों में दलितों ने अपने ’पारंपरिक काम’ को नहीं करने का फैसला किया, जैसे कि शवों का निपटान और अन्य जाति की महिलाओं को उनके प्रसव में मदद करने के लिए दाई के रूप में काम। दलितों के इनकार को उच्च जाति ने हल्के में नहीं लिया और उन्होंने उनके आर्थिक बहिष्कार की धमकी दी थी। वीपी सिंह ने दोनों पक्षों से बातचीत की और इस समस्या का समाधान निकाला। और कहा कि आप किसी को वह काम करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते जो वह नहीं करना चाहता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

छात्र राजनीति से लेकर राजनीति में वीपी सिंह शुरुआती दिनों में जवाहर लाल नेहरू से प्रभावित रहे जिनके लिए उन्होंने फूलपुर मे चुनाव प्रचार किया और नेहरू जी की मृत्यु के बाद वह इलाहाबाद में लाल बहादुर शास्त्री से जुड़े और बड़े भाई संत बख्श सिंह के प्रचार से उन्होंने चुनावी राजनीति की बारीकियों को समझा। सर्वोदय के साथ उनके सामुदायिक कार्य ने उन्हें अपने क्षेत्र में दलितों के साथ जोड़ा। वह जवाहर लाल नेहरू से अत्यधिक प्रभावित थे और स्थानीय नेताओं की ‘शत्रुता’ के बावजूद उनके लिए प्रचार किया। बाद में, वह लाल बहादुर शास्त्री के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े और ललिता शास्त्री को मांडा में अपने राजमहल के किले से लाल बहादुर शास्त्री सेवा निकेतन शुरू करने की अनुमति दी। उन्होंने 1967 में एक उपचुनाव में सोरांव निर्वाचन क्षेत्र से जीतकर राज्य विधानसभा में प्रवेश किया। एक विधायक के रूप में, उनकी पहली सफलता यह थी कि राज्य के शक्तिशाली मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता ने उनके क्षेत्र के प्रदर्शनकारी किसानों की मांग को स्वीकार कर लिया था। ध्यान देने की बात है कि गुप्ता ने पार्टी से उनकी उम्मीदवारी का विरोध किया था। वीपी सिंह ने खुद को आम लोगों के मुद्दों से जोड़े रखा।

लेखक ने अपनी पुस्तक दी डिसरप्टर में खूबसूरती से इसका वर्णन किया है। ‘वीपी सिंह अक्सर गांव-गांव की यात्रा करते थे, और ग्रामीणों की समस्याओं को नोट  करते रहते  थे। उनके पास एक  एक सेकेंड हैंड जीप थी जिसे वह स्वयं चलाते थे क्योंकि वह कहते थे कि केवल वह ही उसे संचालित कर सकते थे। उस प्री-लैपटॉप/स्मार्टफोन युग में, वह विभिन्न गांवों की समस्याओं की सही जानकारी रखने के लिए इंडेक्स कार्ड्स का इस्तेमाल करते थे जिसे वह समय-समय पर अपडेट करते रहते थे। प्रत्येक कार्ड एक विशेष विभाग को समर्पित था, जिस पर गाँवों के नाम और उस विभाग से संबंधित उनकी विशिष्ट समस्याएं दर्ज की जाती थीं। वह बताते हैं, इस तरह इलाहाबाद जिला प्रशासन या लखनऊ में अधिकारियों के साथ बैठकों के दौरान मेरी उंगलियों पर हमेशा डेटा होता था। इसी अवधि के दौरान, उनके निर्वाचन क्षेत्र के कुछ गांवों में दलितों ने अपने ‘पारंपरिक काम’ को नहीं करने का फैसला किया, जैसे कि शवों का निपटान और अन्य जाति की महिलाओं को उनके प्रसव में मदद करने के लिए दाई के रूप में काम। दलितों के इनकार को उच्च जाति ने हल्के में नहीं लिया और उन्होंने उनके आर्थिक बहिष्कार की धमकी दी थी। वीपी सिंह ने दोनों पक्षों से बातचीत की और इस समस्या का समाधान निकाला। और कहा कि आप किसी को वह काम करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते जो वह नहीं करना चाहता।

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लोकसभा का अपना पहला चुनाव फूलपुर निर्वाचन क्षेत्र से अनुभवी समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र को हराकर जीता, जिनका रवैया शुरू से ही उनके प्रति बहुत तिरस्कारपूर्ण था। 10 अक्टूबर, 1974 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा उन्हे केन्द्रीय वाणिज्य उपमंत्री के रूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था जहां मंत्रालय मे उनके बॉस पश्चिम बंगाल के एक महान दार्शनिक राजनीतिज्ञ देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय थे। वीपी को विदेश और वाणिज्य के सवालों में बहुत दिलचस्पी थी। इसी पुस्तक से पता चला कि कनिष्ठ मंत्री के तौर पर उन्होंने बहुत से देशों की यात्रा की और उत्तरी कोरिया की राजधानी में लगभग एक सप्ताह तक रहे। आपातकाल के दौरान वह इंदिरा गांधी के साथ ही जुड़े रहे लेकिन तब वे बहुत कनिष्ठ मंत्री थे और शायद उनके एहसान तले भी दबे रहे इसलिए उस समय उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती थी। वह 1977 के आम चुनावों में वीपी को जनेश्वर मिश्र ने भारी मतों से हरा दिया। लेकिन यह तो पूरे उत्तर भारत में इंदिरा गांधी और कांग्रेस के विरोध की भारी आंधी थी जिसमें वह स्वयं भी रायबरेली से चुनाव हार गई थीं।

[bs-quote quote=”वीपी सिंह अक्सर गांव-गांव की यात्रा करते थे, और ग्रामीणों की समस्याओं को नोट  करते रहते  थे। उनके पास एक  एक सेकेंड हैंड जीप थी जिसे वह स्वयं चलाते थे क्योंकि वह कहते थे कि केवल वह ही उसे संचालित कर सकते थे। उस प्री-लैपटॉप/स्मार्टफोन युग में, वह विभिन्न गांवों की समस्याओं की सही जानकारी रखने के लिए इंडेक्स कार्ड्स का इस्तेमाल करते थे जिसे वह समय-समय पर अपडेट करते रहते थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

1980 में देश में मध्यावधि चुनावों के चलते सत्तारूढ़ जनता पार्टी की बुरी तरह से पराजय हुई और लोगों ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से चुनाव जिताया। वीपी ने पुनः फूलपुर से भारी मतों से जनेश्वर मिश्र को पराजित किया। इसी वर्ष जून में हुए चुनावों में जब कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चुनाव जीती तो कांग्रेस नेतृत्व में वीपी सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर लखनऊ भेजा गया। इस प्रकार वीपी सिंह इलाहाबाद की स्थानीय राजनीति से प्रदेश और देश की राजनीति में जाने जाने लगे।

वीपी सिंह के राजनीतिक जीवन को वास्तव में चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है। 1980 उनके उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के पहले, फिर केन्द्रीय मंत्री से लेकर जनमोर्चा तक का सफर, फिर जब वे नवंबर 1989 में प्रधानमंत्री  बने और फिर नवंबर 1990 में पद छोड़ने के बाद जब उन्होंने फिर से जनोन्मुखी राजनीति करना शुरू किया।

अधिकांश बुद्धिजीवी और राजनीतिक टिप्पणीकार 1980 से पहले के उनके जीवन और कार्य के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं, जिसे इस पुस्तक के लेखक ने बहुत अच्छी तरह से लिखा है। मुख्यमंत्री के पद पर उनका उत्थान आश्चर्यजनक था लेकिन उनके कार्यों ने विशेषकर उनकी सादगी और ईमानदारी ने उन्हें जनता के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया। उन्होंने बांदा जिले के तिंदवारी से राज्य विधानसभा के सदस्य बनने के लिए चुनाव लड़ने पर मोटरसाइकिल और सार्वजनिक परिवहन में प्रचार करने का फैसला किया। उनके प्रतीकवाद ने इतनी अच्छी तरह से काम किया कि चुनाव में उनके सभी प्रतिद्वंद्वियों की जमानतें जब्त हो गईं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में वीपी की सबसे बड़ी चुनौती डकैतों का बढ़ता खतरा था, जिसके परिणामस्वरूप उनके बड़े भाई चंद्रशेखर प्रसाद सिंह की भी हत्या हुई, जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे। 14 फरवरी 1981 को बेहमई में फूलन देवी और उसके गिरोह के सदस्यों द्वारा कथित तौर पर ठाकुर समुदाय के 22 लोगों की हत्या कर दी गई थी। 3 मई 1981 को महिवीर पोथी और उसके गिरोह के सदस्यों ने भूमि विवाद को लेकर आगरा के कुंवरपारा गांव में 22 दलितों की हत्या कर दी। छविराम गिरोह ने 8 अगस्त 1981 को 9 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी । संतोषा सिंह और राधेश्याम ने मैनपुरी जिले के देहुली गांव में 24 दलितों की हत्या कर दी। इसके अलावा साधुपुर में 10 दलितों का नरसंहार हुआ था लेकिन सबसे बड़ा संकट मुरादाबाद सांप्रदायिक दंगा था जिसमें लगभग 250 लोग मारे गए थे। मुलायम सिंह यादव ने पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ में 5000 से अधिक लोगों को मारने का आरोप लगाया, जिनमें ये कहा गया कि ज्यादातर ओबीसी थे। उत्तर प्रदेश प्रशासन में कुशासन के चलते वीपी सिंह के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में रहना मुश्किल हो रहा था और उन्होंने इस्तीफा दे दिया।

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दरअसल, कांग्रेस की संस्कृति से अलग हट कर, वीपी ने जब त्यागपत्र दिया तो कांग्रेस हाई कमांन ने पहले उसे नामंजूर कर दिया। कांग्रेस संस्कृति में कोई अपनी मर्जी से त्यागपत्र भी नहीं देता था और जिससे जबरन त्यागपत्र लिखवाया जाता था वह भी यही कहता था कि जनता की भावनाओ का ध्यान रखकर ऐसा कर रहा हूँ। लेकिन वीपी सिंह ने जब देखा कि परिस्थितियां बदल नहीं रही हैं क्योंकि पार्टी में कई अलग-अलग धड़े थे जिन्हें कहीं न कहीं केंद्र में बैठे नेता शह देते हैं तो उन्होंने दूसरा इस्तीफा सीधे राज्यपाल को भेज दिया। त्याग के इस कार्य ने वास्तव में एक ईमानदार राजनेता के रूप में उनकी छवि को मजबूत करने में मदद की। कांग्रेस में उस समय तक गांधी परिवार के अतिरिक्त किसी को भी ऐसा करने का ‘अधिकार’ नहीं था। लेकिन इंदिरा गांधी ने उनकी ईमानदारी का सम्मान करते हुए उन्हे केंद्र सरकार में वाणिज्य मंत्री बनाया। वीपी सिंह ने अपने ऊपर दी गई जिम्मेवारी को गंभीरता से लिया और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने गैट से संबंधित सम्मेलनों, व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भाग लिया। दिसंबर 1984 के अंत में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बुलाए गए आम चुनाव में, कांग्रेस को राजीव गांधी के नेतृत्व में भारी जनादेश मिला क्योंकि विपक्ष का पतन हो गया। वीपी सिंह को केंद्रीय वित्तमंत्री बनाया गया। 1985 और 1986 में वीपी सिंह का बजट अर्थव्यवस्था को उदार बनाने और ‘लाइसेंस परमिट राज’ को खत्म करने की दिशा में भारत का पहला प्रयास था।

[bs-quote quote=”इस्तीफ़ों ने हमेशा ही वीपी सिंह के चारों ओर एक बड़ा प्रभामंडल बनाया क्योंकि लोग ये मानने लगे थे कि यह आदमी सत्ता का लोभी नहीं है और उनके इस्तीफे ने राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की छवि को और धूमिल कर दिया। उस समय तक कांग्रेस की संस्कृति चाटुकारिता थी और यहां पार्टी ने बड़ी गलती की क्योंकि छोटे नेताओं ने व्यक्तिगत रूप से वीपी सिंह को निशाना बनाना शुरू कर दिया। उसके साथ बहुत दुर्व्यवहार किया गया और उन पर विश्वासघात का आरोप लगाया गया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इस पुस्तक में वीपी सिंह की आर्थिक नीतियों और वित्तमंत्री के तौर पर उनके निर्णयों को बारीकी से जांचा-परखा गया है। उन्होंने आयकर की दरों को 62% से घटाकर 50% कर दिया और आयकर छूट की सीमा बढ़ा दी। उन्होंने MODVAT संशोधित मूल्यवर्धित कर भी पेश किया जिसे मीडिया ने बहुत सराहा। मीडिया द्वारा वीपी सिंह की प्रशंसा की गई, लेकिन जल्द ही सिस्टम को ‘साफ’ करने के उनके प्रयासों ने उनके रास्ते को अवरुद्ध कर दिया क्योंकि औद्योगिक घरानों की टैक्स चोरी के खिलाफ उनके अभियान को मीडिया ने ‘रेड राज’ करार दे दिया और मीडिया ने इसकी जमकर आलोचना की थी। कांग्रेस के कुछ नेताओं और उद्योगपतियों ने प्रधानमंत्री से उनकी शिकायत कर दी थी क्योंकि ललित मोहन थापर, किर्लोस्कर, विजय माल्या सहित कुछ प्रसिद्ध उद्योगपतियों की गिरफ्तारी हुई थी। वीपी सिंह पर संयुक्त राज्य अमेरिका की निजी जासूसी एजेंसी फेयरफैक्स को बड़े औद्योगिक घरानों की कर चोरी की जांच के लिए आमंत्रित करके भारत की सुरक्षा को खतरे में डालने का भी आरोप लगाया गया था।

इस अवधि के दौरान राजीव गांधी के साथ उनके संबंध खराब हो गए लेकिन राजीव को अंदाजा हो गया था कि वीपी सिंह की छवि जनता में बहुत अच्छी हो चुकी है और इसलिए वे उन्हे सीधे-सीधे नहीं हटाना चाहते थे अपितु उनको ‘नियंत्रित’ करना चाहते थे। बहुत चालाकी से उन्हें इस बहाने वित्त मंत्रालय से रक्षा मंत्रालय में स्थानांतरित कर दिया गया था कि भारत-पाकिस्तान सीमा पर तनाव बढ़ रहा है और वहां एक सक्षम मंत्री की जरूरत है। वी पी सिंह ने वहां भी एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी सौदे में भ्रष्टाचार पाया और जांच का आदेश दिया। इसने राजीव गांधी और वीपी सिंह के बीच और मतभेद पैदा कर दिए, अंततः उन्होंने 11 अप्रैल, 1987 को कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। कुछ दिनों बाद बोफोर्स स्कैन्डल लाइम लाइट में आ गया जिसमें राजीव गांधी और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और यह मुद्दा 1989 के चुनावों का मुख्य मुद्दा बना।

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इस्तीफ़ों ने हमेशा ही वीपी सिंह के चारों ओर एक बड़ा प्रभामंडल बनाया क्योंकि लोग ये मानने लगे थे कि यह आदमी सत्ता का लोभी नहीं है और उनके इस्तीफे ने राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की छवि को और धूमिल कर दिया। उस समय तक कांग्रेस की संस्कृति चाटुकारिता थी और यहां पार्टी ने बड़ी गलती की क्योंकि छोटे नेताओं ने व्यक्तिगत रूप से वीपी सिंह को निशाना बनाना शुरू कर दिया। उसके साथ बहुत दुर्व्यवहार किया गया और उन पर विश्वासघात का आरोप लगाया गया। राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी ने उनकी सभाओं में बाधांएँ पैदा करने की कोशिश की लेकिन इस अवधि ने दर्शाया कि वीपी सिंह न केवल महान सत्यनिष्ठ नेता के रूप में उभरे थे, बल्कि एक अत्यंत समझदार और परिपक्व व्यक्ति भी थे। कांग्रेस ने उन पर जितने हमले किये, वीपी का व्यक्तित्व और निखर गया और राजीव गांधी उनके सामने अपरिपक्व नजर आए।

जिन लोगों को राजीव गांधी से हिसाब पूरा करना था वे भी उनकी सरकार को अव्यवस्थित करना चाहते थे। यह समझना जरूरी है कि इससे बाहर संकट पैदा करने के प्रयास किए गए थे। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह महत्वपूर्ण नीतिगत फैसलों पर ‘अनदेखा’ महसूस कर रहे थे और सरकार के खिलाफ कार्रवाई करने पर विचार कर रहे थे। वह कानूनी जानकारों से परामर्श कर रहे थे कि क्या भारत के राष्ट्रपति के पास ऐसे प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने का अधिकार है जो राष्ट्रपति के साथ संवाद करने की संवैधानिक प्रथा का पालन नहीं करता है। देश के दो नामी- गिरामी संपादकों के बीच राष्ट्रपति के अधिकारों को लेकर ये बहस चल पड़ी थी। इंडियन एक्स्प्रेस में अरुण शौरी राष्ट्रपति को सलाह दे रहे थे कि वह प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर सकते हैं तो दूसरी ओर टाइम्स ऑफ इंडिया में गिरिलाल जैन इसके विरोध में थे। यह अलग बात है कि मण्डल के बाद दोनों ही हिन्दुत्व के कैम्प के प्रमुख ‘चिंतक’ बन गए। राष्ट्रपति जैल सिंह न केवल इन बातों पर कानूनविदों से चर्चा कर रहे थे बल्कि कांग्रेस के असंतुष्टों जैसे वीसी शुक्ल और अरुण नेहरू के साथ लगातार संपर्क में भी थे, लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे थे। वीपी सिंह की लोकप्रियता और राजीव गांधी के साथ उनके मतभेदों के चलते ज्ञानी जी ने उन्हें यह संदेश भिजवाया कि यदि वह वैकल्पिक सरकार का नेतृत्व करने को तैयार हैं तो वह उन्हे प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला सकते हैं लेकिन वी पी सिंह ने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया।

इस पुस्तक में इस बात पर विस्तृत चर्चा है लेकिन अरुण शौरी, इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकारिता, एम जे अकबर की अवसरवादी पत्रकारिता पर भी चर्चा करना जरूरी था जो बहुत कम हुई है।

देबाशीष मुखर्जी की किताब दी डिसरप्टर के हवाले से।

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।

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