असल में मेरा गांव भारत के उन गांवों में एक है जहां मूलनिवासी रहते हैं। हमारी अपनी परंपरा है और इसमें द्विजों का कोई स्थान नहीं है। जिस तरह की पिंडियां मेरे गांव में हैं, वैसी ही पिंडियां मुझे झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर ब्लॉक के सखुआपानी गांव में भी मिले थे। वहां असुर आदिम जनजाति के लोग रहते हैं। ऐसी ही पिंडियां मुझे महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा आदि राज्यों में भी होने की जानकारियां मिली हैं। बुंदेलखंड के महोबा में तो एक जगह भैंसासुर का स्मारक भी है। वहां भी एक बड़ी सी पिंड है। ऐसा ही एक बड़ा पिंड मेरे गांव के पश्चिम दिशा में है। उसे ब्राह्मणों ने बह्म कहा है। शायद मेरे गांव के ब्रह्मपुर नाम के पीछे कारण भी यही है।
कल विश्व आदिवासी दिवस है। मुझे अपने गांव की वास्तविक संस्कृति और परंपराएं व इनमें निहित मूल्यों को दर्ज करने की आवश्यकता महसूस हो रही है। ये प्रमाण हैं कि हम सभी मूलनिवासी हैं और हम हिन्दू नहीं हैं। हिन्दू धर्म हम पर थोपा गया धर्म है।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में सम्पादक हैं ।