भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की 133 वीं जयंती पर लोग उन्हें याद कर रहे हैं और अपने-अपने तरीके से उनको श्रद्धांजलि दे रहे हैं। देश में आज के सत्ताधारियों द्वारा पालित-पोषित अफवाह फैलाने वाले, तकनीकी का इस्तेमाल अन्धविश्वास और अज्ञानता को बढ़ाने के लिए कुख्यात आईटी सेल के सदस्यों ने नेहरू की चरित्र हनन के लगातार प्रयास किया लेकिन उसके बावजूद नेहरू ज़िंन्दा है और पढ़े जा रहे है, याद किये जा रहे है। ज़ाहिर है, नेहरू को नीचा दिखाने का प्रयास सफल नहीं हुआ है और वह उनसे अधिक लोकप्रिय और अमर हो गए हैं। ऐसा लगता है कि नेहरू की बड़ी शख्सियत के चलते अपने को बेहद छोटा महसूस कर रहे लोगों को अभी भी चैन नहीं है और वे लगातार उन पर कीचड़ उछाल रहे हैं। कभी कहते हैं कि नेहरू आरामतलबी की जिंदगी जिया और कभी यह कि आजादी ‘भीख’ में मिली। दरअसल इन सबके जरिये वे नेहरू पर हमला कर रहे हैं और ये बहुत सुनियोजित तरीके से हो रहा है। ‘भीख में मिली आज़ादी’ में जवाहर लाल नेहरू की पहली कैबिनेट में केवल कांग्रेस पार्टी के नेता ही शामिल नहीं थे अपितु संघियों और भारतीय जनता पार्टी के आदर्श और परमपूज्य श्यामा प्रसाद मुख़र्जी भी शामिल थे।
हकीकत यह है कि नेहरू भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक महत्वपूर्ण नेता थे और निश्चित रूप से अपने अधिकांश समकालीनों की तुलना में अधिक लोकप्रिय, कर्मठ और भविष्यवादी थे। यहाँ कोई यह सुझाव नहीं दे रहा है कि उनकी कोई कमी नहीं थी और वह अकेले ही थे जिन्होंने हमें आज़ादी दिलाई। उन्होंने 9 साल से अधिक समय तक जेल में बिताया। हालाँकि, स्वतंत्रता आंदोलन के नेहरू और भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू, दो अलग-अलग व्यक्तित्व हैं। इसलिए उनका अलग-अलग विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है। एक आंदोलन का नेतृत्व करना और एक राष्ट्र का निर्माण अलग-अलग चीजें हैं क्योंकि कई बार ‘आंदोलन’ के नेता सत्ता पा लेने पर बुरी तरह विफल हो जाते हैं। उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की कई प्रमुख हस्तियां और नेहरू के समकालीन अपने-अपने देशों में सुपरहीरो बन चुके थे और सभी ने सत्ता अपने हाथ में केंद्रित कर ली। नेहरू के विपरीत वे स्वयं संस्थान बन गए और व्यक्तिवाद और परिवारवाद को बढ़ावा दिया जबकि नेहरू ने लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए कई संस्थानों का निर्माण किया और अपने ऊपर कटाक्ष करने की हिम्मत की। उन पर तरह-तरह के कार्टून बनाने वाले शंकर का वह बेहद सम्मान करते थे।
[bs-quote quote=”आधुनिक भारत में हमारे जीवन और भाग्य को आकार देने वाले दो व्यक्ति डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर और जवाहर लाल नेहरू हैं। वे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे फिर भी वैचारिक रूप से एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों में वैज्ञानिक स्वभाव, लोकतंत्र के लिए सम्मान और समाजवाद के प्रति निष्ठा थी । नेहरू को भी बुद्ध और बौद्ध धर्म से बहुत प्रेम था, जबकि बाबा साहेब अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म को उसके जन्म स्थान पर पुनर्जीवित करके भारत की सबसे बड़ी अहिंसक क्रांति की।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”Apple co-foun” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यह भी एक तथ्य है कि जब कोई नेता लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पर रहता है, तो उसकी अधिक आलोचना होती है और सभी के पास उस आदमी के विषय में अलग-अलग सस्मरण या अनुभव होते हैं। समकालीन लोगों के तत्कालीन राजनीतिक मतभेदों को आज के दौर में इस्तेमाल करना बेईमानी है क्योंकि मतभेदों के बावजूद उनके रिश्ते आपस में बहुत अच्छे थे। उन नेताओं में से अधिकांश जो हमें आजादी दिलाने के आंदोलन में भागीदार और नेहरू के समकालीन थे लेकिन गणतंत्र के पहले पांच से छह वर्षों में ही वे हमारे बीच नहीं रहे। जनवरी 1948 में नाथूराम गोडसे द्वारा गांधी की हत्या कर दी गई थी, दिसंबर 1950 में पटेल का निधन हो गया, 1956 में बाबा साहेब अम्बेडकर का। सुभाष चंद्र बोस राष्ट्र का मार्गदर्शन करने के लिए नहीं थे, इसलिए राष्ट्र की उम्मीदें नेहरू पर केंद्रित थीं, जो जनता के बीच बेहद लोकप्रिय थे। इसके बावजूद अपनी पूरी विनम्रता के साथ वे लोकतांत्रिक बने रहे। नेहरू अपने ऊपर आरोप लगाने वालों कई लोगों से अधिक लोकतान्त्रिक, विनम्र और खुले दिमाग के थे।
वह महत्वपूर्ण बहसों को सुनने के लिए संसद में लगातार बैठते थे। विपक्ष के नेताओं को गंभीरता से सुनते थे और उनका सम्मानपूर्वक जवाब भी देते थे। पी रमन द्वारा इंडियन एक्सप्रेस में एक सूचनात्मक अंश 16 अगस्त, 1961 से 12 दिसंबर, 1962 की अवधि के दौरान अत्यधिक महत्व की जानकारी देता है। ‘उन्होंने चीन पर संसद में 32 बयान और हस्तक्षेप किए। उन्होंने भारत-चीन सीमा विवाद पर 1.04 लाख से अधिक शब्द बोले, जो 200 से अधिक मुद्रित पृष्ठ हैं।’
यही लेख संसद में नेहरू के बयान का हवाला देता है -‘मुझे कार्रवाई की स्वतंत्रता चाहिए। मैं सबसे पहले कहता हूं कि इस सदन को सूचित किए बिना कुछ नहीं हो सकता। दूसरी बात, हमें इस बात पर सहमत होना चाहिए कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे भारत के सम्मान को ठेस पहुंचे। बाकी के लिए, मुझे फ्री हैंड चाहिए।’ (लोकसभा 14 अगस्त, 1962)।
आइए इस सवाल को गलवान घाटी मुद्दे और भारत में चीनी घुसपैठ के संदर्भ में देखते हैं। वर्तमान शासन ने संसद में इसके बारे में कितनी बार बात की? अधिकांश जानकारी ‘गोपनीयता’ के बहाने साझा ही नहीं की गई। प्रधानमंत्री कितनी बार बोलते हैं और संसद को इस मुद्दे पर इतनी ताकत से चर्चा करने के लिए बुलाते हैं? सरकार से मतभेद या आलोचना करने वाले को राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाता है। सरकार किसी भी प्रश्न की अनुमति नहीं देती है और इससे संबंधित बहुत कुछ सार्वजनिक डोमेन में नहीं है।
नेहरू पर चीनी-नीति के गलत संचालन के लिए हमला किया गया है और दक्षिणपंथी ट्रोल आर्मी और आईटी सेल के दुष्प्रचार अभियान उन्हें चीनी पराजय के लिए दोषी ठहराते हैं। नेहरू को चीन ने धोखा दिया लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि नेहरू की तिब्बत-नीति स्पष्ट और दृढ़ थी और वे इससे कभी दूर नहीं हुए। अंतरराष्ट्रीय प्रेस के साथ उनके साक्षात्कार कोई भी देख सकता है जहां उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि चीन नहीं चाहता कि कोई देश उसकी आंखों में देखे। लेकिन नेहरू कभी भी तिब्बत के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटे। आध्यात्मिक नेता दलाई लामा सहित तिब्बती मित्रों को दी गई शरण उस समय का एक शक्तिशाली निर्णय था जिसका नेहरू ने पालन किया और अपने अंत तक जारी रखा। उन्होंने कभी अपना रुख नहीं बदला और शांति के लिए लगातार बोलते रहे। हमें यह भी समझना चाहिए कि उस समय हमारी सेनाएं सुसज्जित नहीं थीं। नेहरू का ध्यान ज्यादातर आर्थिक रूप से भारत के निर्माण पर था। उस पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया और इसीलिए भारत के लिए पंचवर्षीय योजना का महत्व है।
इसकी तुलना आज के नेतृत्व से करें जो अहंकार और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है। चीन की प्रतिक्रिया के ज्ञात कारक के बावजूद, नरेंद्र मोदी ने चीन पर भरोसा करना जारी रखा और चीनी प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए वे उन्हें अहमदाबाद से लेकर महाबलिपुरम तक ले गए। चीनी घुसपैठ के बाद हमारे प्रधानमंत्री ने चीन के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। सेनाओं का दौरा करते समय किसी भी सार्वजनिक सभा या सीमा पर इसके बारे में उनके द्वारा एक भी उल्लेख नहीं किया गया। अगर पाकिस्तान के साथ ऐसा होता, तो नरेंद्र मोदी और बहादुर आईटी सेल पाकिस्तान को धरती से ‘खत्म’ करने के लिए युद्ध का फर्जी बिगुल बजाने लगते। इस समय प्रधानमंत्री ने कभी भी दलाई लामा का अभिवादन नहीं किया, भले ही दुनिया ने उन्हें विश्व शांति और सद्भाव में उनके विशाल योगदान के लिए बधाई दी हो। हालांकि सरकार अब तिब्बत और बौद्ध धर्म के महत्व को महसूस कर रही है, लेकिन भारत में दलाई लामा पर चुप्पी यह संकेत करती है कि वर्तमान शासन इस मुद्दे को कैसे देख रहा है।
[bs-quote quote=”ऐसी बात नहीं है कि नेहरू से सवाल या आलोचना नहीं की जा सकती। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि यह सवाल उन लोगों की ओर से आ रहा है जो अपने नेता से कोई सवाल ही नहीं पूछना चाहते हैं, जिन्होंने कभी भी स्वतंत्र रूप से एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित नहीं किया है। नेहरू अपने राजनीतिक विरोधियों को बदनाम करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। यदि नेहरू एक राजनीतिक नेता या प्रधानमंत्री नहीं होते, तो भी वे एक महान साहित्यकार होते।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”Apple co-f” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
नेहरू पड़ोसियों से अच्छे संबंध चाहते थे। धर्म के आधार पर विभाजन होने के बावजूद, उन्होंने कभी भी धार्मिक घृणा का समर्थन नहीं किया। उन्होंने पाकिस्तानी नेतृत्व के साथ अच्छे संबंध बनाने की कोशिश की। नेहरू के भाषणों, पत्रों के खंड अब सार्वजनिक हैं और मुझे यकीन है कि वे उस व्यक्ति के व्यक्तित्व पर अधिक प्रकाश डालेंगे जिसे आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है।
आधुनिक भारत में हमारे जीवन और भाग्य को आकार देने वाले दो व्यक्ति डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर और जवाहर लाल नेहरू हैं। वे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे फिर भी वैचारिक रूप से एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों में वैज्ञानिक स्वभाव, लोकतंत्र के लिए सम्मान और समाजवाद के प्रति निष्ठा थी । नेहरू को भी बुद्ध और बौद्ध धर्म से बहुत प्रेम था, जबकि बाबा साहेब अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म को उसके जन्म स्थान पर पुनर्जीवित करके भारत की सबसे बड़ी अहिंसक क्रांति की।
नेहरू तानाशाह बन सकते थे। वह हमेशा सीमावर्ती इलाकों की यात्रा करते थे और सैनिकों का मनोबल भी बढ़ाते थे लेकिन सेना की वर्दी में कभी नहीं गए। वह लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों के प्रति वफादार रहे। उनकी लोकप्रियता का एक नेता आसानी से व्यक्तिवादी हो सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उन्हें आलोचना पसंद थी। विरोधियों ने उनका और उनके गुस्सैल तरीकों का मज़ाक उड़ाया लेकिन उनकी विचारधारा और उनके ज्ञान के प्रति प्रतिबद्धता पर कोई भी उन्हें चुनौती नहीं दे सका। वह चाहते थे कि जय प्रकाश और राम मनोहर लोहिया भारत के भावी प्रधानमंत्री बनें। नेहरू यह भी चाहते थे कि डॉ अम्बेडकर भारत के राष्ट्रपति हों, जिसे निश्चित रूप से डॉ अम्बेडकर ने खारिज कर दिया था क्योंकि वे खुद को एक औपचारिक मुखिया तक सीमित नहीं रखना चाहते थे।
आज की पीढ़ी को ऐसे लोगों का पता लगाने और उनसे पूछताछ करने की जरूरत है जो उन्हें बदनाम करते हैं। एक सरल प्रश्न पूछें कि वे उनसे नफरत क्यों करते हैं तो ज्यादातर के उत्तर से उनकी अपनी भावनाओं और ‘शैक्षिक योग्यता’ का पता चल जाएगा। आज कल की व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी के ‘विशेषज्ञ आपको नेहरू के ‘चरित्र’ के विषय में बताएँगे और उन्हें ‘अय्याश’ साबित करने की कोशिश करेंगे। अपनी बातों को सही साबित करने के लिए वे शायद एडविना माउंटबेटन या उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित को गले लगाने के दृश्यों को फोटोशॉप करते हैं। नेहरू की टोपी, टाई और उनके धूम्रपान या लाइटिंग माचिस का उपयोग करते हैं। इन तस्वीरों का इस्तेमाल नेहरू को एक बदहवास और गंदे आदमी के रूप में चित्रित करने के लिए किया जाता है। दुर्भाग्य से, वे बौद्धिकता की अपनी अत्यंत सीमित समझ से परे नहीं सोचते हैं जहाँ लोग बैठ सकते हैं, चर्चा कर सकते हैं, शराब पी सकते हैं और जीवन का आनंद ले सकते हैं। वे यह नहीं सोच सकते कि प्रेम या आलिंगन दो व्यक्तियों का निजी मामला है। एडिविना भारत के गवर्नर जनरल की पत्नी थीं और विजय लक्ष्मी पंडित उनकी छोटी बहिन थीं। लेकिन कुख्यात आई टी सेल ने भाई-बहिन के रिश्तों को तार-तार कर दिया। लोगों को सोचना होगा कि आखिर ऐसी सूचनाओं से वे किस गर्त में धकेले जा रहे हैं? मशहूर और सार्वजनिक हस्तियों का व्यक्तिगत जीवन ध्यान आकर्षित करता है लेकिन यह उनके चरित्र-निर्णय का आधार नहीं हो सकता है। जब तक कि उस व्यक्ति पर घोटाले या बेईमानी के आरोप न लगें तब तक कोई भी कैसे उस पर किसी किस्म का आरोप लगा सकता है? संदर्भ को जाने बिना केवल तस्वीरों का उपयोग करना खतरनाक है। वैसे भी, अगर आईटी सेल निजी जीवन को आदर्श उदाहरण बनाएगा तो स्वयं उन्हीं के लिए आधुनिक समय के ऐसे कई राजनेताओं का बचाव करना मुश्किल हो जाएगा जिन्हें वे आदर्श मानते हैं। आईटी सेल अफवाह फैलाने वाले यह नहीं समझते कि महिलाओं की अपनी एजेंसी होती है और वे अपने अधिकारों को लेकर स्वयं बोल सकती हैं। यह कितना अजीब है कि जिस व्यक्ति को बदनाम किया जा रहा है वह अपना जवाब देने के लिए यहाँ मौजूद नहीं है। आईटी सेल उन महिलाओं के अधिकारों के बारे में बात कर सकता है, जिन्हें उनके जीवनसाथियों ने लावारिस छोड़ दिया है। नेहरू की जिंदगी पर चर्चा करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के विषय में लिख सकते हैं जो नेहरू के बहुत बड़े प्रशंसक थे।
ऐसी बात नहीं है कि नेहरू से सवाल या आलोचना नहीं की जा सकती। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि यह सवाल उन लोगों की ओर से आ रहा है जो अपने नेता से कोई सवाल ही नहीं पूछना चाहते हैं, जिन्होंने कभी भी स्वतंत्र रूप से एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित नहीं किया है। नेहरू अपने राजनीतिक विरोधियों को बदनाम करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। यदि नेहरू एक राजनीतिक नेता या प्रधानमंत्री नहीं होते, तो भी वे एक महान साहित्यकार होते। मैं किसी भी दिन उनकी किताबें, लेख पढ़ना और उनके भाषण सुनना पसंद करूंगा। इससे पता चलता है कि वह कितने उल्लेखनीय व्यक्ति थे? कॉलेज में उनके लेक्चर देखकर कोई भी छात्र हैरान रह जाता। मैं तो यह मानता हूँ के नेहरू का प्रधानमंत्री होना और राजनीति में उनके पूरी तरह समर्पण के कारण साहित्य एक बहुत बड़े विचारक और दार्शनिक से वंचित हो गया।
विरोधी जो भी कहें, नेहरू के पदचिन्ह हमारे लोकतंत्र में हमेशा रहेंगे, क्योंकि वे जो संस्थान लोकतंत्र को बचाने और चलाने के लिए छोड़ गए हैं वे ही अभी तक लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम कर रहे है। अभी तो हम घाटे वाले लोकतंत्र में रह रहे हैं, जहा नेहरू द्वारा सिंचित लोकतंत्र की वजह से सत्ता में आये लोग उनकी हर याद को मिटा देना चाहते है। यह शर्मनाक है कि जिस व्यक्ति ने भारत को सबसे कठिन दौर से दुनिया की प्रमुख देशों में शामिल करवाया, वह आज के दौर के सत्ताधारियों की आँखों की किरकिरी बन गया है क्योंकि उनके तार्किक और धर्मनिरपेक्ष विचार आज भी सांप्रदायिक- जातिवादी ताकतों के लिए एक चुनौती हैं। आशा है कि लोग अंततः जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रतिपादित समावेशी भारत के विचार के महत्व को समझेंगे क्योंकि यही हमें और हमारे लोकतंत्र को फासीवादी हमले से बचाएगा। जवाहर लाल नेहरू और उनके विचार आज के युग में और अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं जब भारत अपने लोकतंत्र के सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है। देखना यह है कि नेहरू की धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी विरासत आज के सांप्रदायिक फासीवादी तंत्र के हमलों से कैसे मुकाबला करेगी जिससे देश को एक प्रगतिशील, जनतांत्रिक और उत्तरदायी राजनैतिक व्यवस्था मिल सके!
विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।