Sunday, December 22, 2024
Sunday, December 22, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारनवउदारवादी युग में महिलाएं और सियासत (डायरी, 25 नवंबर 2021)

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

नवउदारवादी युग में महिलाएं और सियासत (डायरी, 25 नवंबर 2021)

हिसाब से मानव समाज के दो ही आधार हैं। एक स्त्री और दूसरा पुरुष। बाकी तो जो है, वह रिश्ता है। रिश्ते के हिसाब से हम जीवन जीते हैं। महिलाएं मां, बेटी, बहन, पत्नी, दोस्त, प्रेमिका, भाभी, मौसी, फुआ आदि हैं। वहीं पुरुषों के लिए भी इसी तरह के संबंधसूचक शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं। […]

हिसाब से मानव समाज के दो ही आधार हैं। एक स्त्री और दूसरा पुरुष। बाकी तो जो है, वह रिश्ता है। रिश्ते के हिसाब से हम जीवन जीते हैं। महिलाएं मां, बेटी, बहन, पत्नी, दोस्त, प्रेमिका, भाभी, मौसी, फुआ आदि हैं। वहीं पुरुषों के लिए भी इसी तरह के संबंधसूचक शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं। कुल मिलाकर यह कि स्त्री और पुरुष मिलकर ही समाज की संरचना को पूरा करते हैं। अब यदि समाज में समता की बात करनी हो तो निश्चित तौर पर वह समाज कभी समतामूलक समाज नहीं बन सकता जिसकी बुनियाद में भेदभाव हो। लेकिन विश्व भर के हम सभी पुरुषों को यह स्वीकार करना ही चाहिए कि महिलाओं को हमने कभी भी अपने बराबर नहीं माना। हालांकि हमने अपने व्यवहार में बदलाव जरूर किया है और महिलाओं को मौका भी दिया है, लेकिन हमने अपने मन में दाता वाला अहंकार भी रखा है। हम इस अहंकार में जीते हैं कि हमने अपने घर की महिलाओं को पढ़ाया लिखाया और उन्हें आगे बढ़ने का मौका दिया। खासकर भारत में हम पुरुष तो इस अहंकार में भी जीते हैं कि हमने महिलाओं को देवी कहा है। जबकि हकीकत से हम गैर-वाकिफ नहीं हैं।
दरअसल, मैं स्वीडन की बात करना चाहता हूं। वहां एक बड़ा बदलाव होने जा रहा है। मेगादालेना एंडरसन स्वीडन की पहली महिला प्रधानमंत्री होने जा रही हैं। स्वीडन की संसद ने उन्हें अपना नेता चुन लिया है। हालांकि भारत में पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं, और एक तरह से हम भारत के लोग स्वीडन से बहुत आगे रहे हैं। लेकिन यह भी हमारा अहंकार ही है। फिलहाल तो मैं एंडरसन का समर्थन करनेवाली स्वीडन संसद की निर्दलीय सदस्य अमीना काकाबावेह के भाषण को उद्धृत करना चाहता हूं। कल अपने संबोधन में काकाबावेह ने जो कहा वह केवी स्वीडन की महिलाओं के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की महिलाओं के लिए एक नजीर है। उन्होंने कहा– ‘यदि महिलाएं केवल वोट देती रहें और सर्वोच्च पद के लिए न चुना जाए तो लोकतंत्र पूरा नहीं हो सकता है।’

[bs-quote quote=”भारतीय सियासत में महिलाओं के हिस्से अनुकंपा ही है। इंदिरा गांधी को अपने पिता की अनुकंपा से सियासत में जगह मिली। मीरा कुमार को भी यही लाभ अपने पिता जगजीवन राम के कारण प्राप्त हुआ। सोनिया गांधी भी अपवाद नहीं हैं। स्मृति ईरानी, उमा भारती जैसी कुछेक महिलाएं अवश्य राजनीति में सामने आयी हैं, जिन्हें अनुकंपा प्राप्त नहीं हुई है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

यह बात काबिले गौर है कि स्वीडन विश्व के उन शीर्ष देशों में शुमार है, जहां लैंगिक समानता सबसे अधिक है। वहां की 90 फीसदी से अधिक महिलाएं न केवल साक्षर हैं बल्कि उच्च शिक्षा हासिल कर चुकी हैं। वहां स्त्रियों के लिए सबसे अनुकूल वातावरण है। महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामले में भी स्वीडन आदर्श देशों में से एक है।

हां, मैं काकाबावेह के कथन को एक नजीर ही मानता हूं। यदि मैं भारत के एक प्रांत बिहार की राजधानी पटना के एक गांव में रहनेवाले मेरे परिवार की बात करूं तो मुझे यह बात पूरी ईमानदारी से स्वीकार कर लेनी चाहिए कि मेरे परिवार में महिलाओं को इंसान होने का न्यूनतम अधिकार भी नहीं दिया गया है। मेरी बहनों को तो पढ़ने का मौका तक नहीं दिया गया। यह जिम्मेदारी मेरे पिता की थी। मां भी अनपढ़ रहीं। उन्हें उनके पिता ने पढ़ने का अवसर नहीं दिया। लेकिन मेरी मां और बहनों ने श्रम किया है। आज भी वे श्रमिक ही हैं। लेकिन उनके श्रम का कोई मूल्य नहीं है। मैंने अपने स्तर पर इसमें बदलाव किया है। मेरी बेटियां पढ़ती हैं और मुझे उम्मीद है कि वे अपना अधिकार आगे बढ़कर स्वयं ले लेंगी। लेकिन अब भी श्रम के मामले में मैं उतना उदार नहीं हूं। हालांकि मेरी इच्छा जरूर रही कि मेरी पत्नी अपने श्रम का महत्व समझे और अपनी दावेदारी अवश्य क्लेम करे।
लेकिन ऐसा होना इतना आसान नहीं है। महिलाओं को अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक गुलामी से निजात पानी होगी। इसके लिए जितना पुरुष वर्ग का उदार होना अवश्यक है, उतना ही यह कि महिलाएं स्वयं इसके लिए पहल करें। वैसे भी वर्चस्व चाहे किसी भी प्रकार का क्यों न हो, कोई भी वर्चस्वधारी अपना वर्चस्व आसानी से खत्म नहीं होने देना चाहता। यही सामाजिक सच्चाई है।
खैर ये बातें मैं भारतीय संसद के संदर्भ में कह रहा हूं। हाल के वर्षों में महिला मतदाताओं के द्वारा वोट डाले जाने के आंकड़ों में जबरदस्त बदलाव आया है। कहना न होगा कि अनेक राज्यों में महिलाअें ने जाति आधारित समीकरणों को ध्वस्त किया है। मतदान के दिन महिलाओं की लंबी कतारें इसका सबूत होती हैं। लेकिन अब भी महिलाओं की संसद में हिस्सेदारी बेहद न्यून है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि भारतीय महिलाएं इसके लिए कोई क्लेम भी नहीं कर रही हैं। यहां तक कि महिलाओं के लिए संसद में 33 फीसदी आरक्षण की मांग को लेकर भी वे खामोश हैं। गोया यह कोई मुद्दा ही नहीं हो।
आखिर भारतीय महिलाओं के मन में क्या है? मैं यही सोचने-समझने का प्रयास कर रहा हूं। वे क्यों यह मांग नहीं कर रही हैं कि उन्हें कम से कम 33 फीसदी तो जगह मिले?

[bs-quote quote=”उस दिन नीतीश मंत्रिमंडल का गठन हुआ था। रेणु कुशवाहा उद्योग मंत्री बनायी गयी थीं। मैं दैनिक आज में संवाददाता था। मेरे हिस्से यानी मेरी बीट में उद्योग विभाग शामिल था। इसलिए पदभार ग्रहण करने के उपरांत मुझे रेणु कुशवाहा का साक्षात्कार करना था। मैं उद्योग विभाग गया। वहां मेरे साथ बिहार चैंबर और कॉमर्स के तत्कालीन अध्यक्ष रहे केपीएस केसरी भी इंतजार कर रहे थे। करीब पांच मिनट के बाद हम रेणु कुशवाहा के कक्ष में गए और भौंचक्के रहे गए। वह अपने कार्यालय में लगे टेलीविजन पर सास-बहू धारावाहिक देख रही थीं। हालांकि हमें देखते ही उन्होंने टीवी का रिमोट दबा दिया। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मुझे लगता है कि इसके पीछे नवउदारवाद है। इस घातक पूंजीवादी व्यवस्था ने महिलाओं को गुलामी की ओर धकेल दिया है। महिलाएं बेहद कमजोर हैं और उन्हें तरह-तरह के बाजारू उत्पादों की आवश्यकता है। नवउदारवाद ने उन्हें ब्यूटी कांसस अधिक बना दिया है। उन्हें यह लगने लगा है कि उनकी पूछ तभी होगी जब उनके पास जीरो फिगर होगा या फिर उनके पास सुंदरता होगी। नवउदारवाद ने उन्हें गहनों और कपड़ों से लाद दिया है। इस व्यवस्था ने उनके ऊपर करवा चौथ जैसा त्यौहार लाद दिया है। यह एक तरह से उनकी बेड़ियों का वजन बढ़ाने के जैसा ही है।

 मैं तो बिहार की बात कर रहा हूं। उस दिन नीतीश मंत्रिमंडल का गठन हुआ था। रेणु कुशवाहा उद्योग मंत्री बनायी गयी थीं। मैं दैनिक आज में संवाददाता था। मेरे हिस्से यानी मेरी बीट में उद्योग विभाग शामिल था। इसलिए पदभार ग्रहण करने के उपरांत मुझे रेणु कुशवाहा का साक्षात्कार करना था। मैं उद्योग विभाग गया। वहां मेरे साथ बिहार चैंबर और कॉमर्स के तत्कालीन अध्यक्ष रहे केपीएस केसरी भी इंतजार कर रहे थे। करीब पांच मिनट के बाद हम रेणु कुशवाहा के कक्ष में गए और भौंचक्के रहे गए। वह अपने कार्यालय में लगे टेलीविजन पर सास-बहू धारावाहिक देख रही थीं। हालांकि हमें देखते ही उन्होंने टीवी का रिमोट दबा दिया।

दरअसल, भारतीय सियासत में महिलाओं के हिस्से अनुकंपा ही है। इंदिरा गांधी को अपने पिता की अनुकंपा से सियासत में जगह मिली। मीरा कुमार को भी यही लाभ अपने पिता जगजीवन राम के कारण प्राप्त हुआ। सोनिया गांधी भी अपवाद नहीं हैं। स्मृति ईरानी, उमा भारती जैसी कुछेक महिलाएं अवश्य राजनीति में सामने आयी हैं, जिन्हें अनुकंपा प्राप्त नहीं हुई है।

अभी हाल ही में मेरे एक पत्रकार मित्र की पत्नी बिहार के एक जिले में जिला पार्षद निर्वाचित हुई हैं। उनके पिता का नाम बिहार के नक्सल आंदोलन के संदर्भ में प्रतिष्ठा के साथ लिया जाता है। लेकिन उन्हें यह जीत अपने पति की वजह से मिली। वजह यह रही कि जिस क्षेत्र से वह निर्वाचित हुई हैं, वह महिलाओं के लिए आरक्षित है। नतीजा यह है कि लोग विजेता के बजाय विजेता के पति को बधाई दे रहे हैं।
बहरहाल, स्वीडन की सांसद अमीना काकाबावेह का उद्धरण एक बार फिर से रखता हूं– ‘यदि महिलाएं केवल वोट देती रहें और सर्वोच्च पद के लिए न चुना जाए तो लोकतंत्र पूरा नहीं हो सकता है।’

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here