‘प्रकृति हमें निरंतर और ज़रूरत के अनुसार पानी उपलब्ध कराती रही है लेकिन अंधाधुंध दोहन के कारण अब स्वच्छ जल की उपलब्धता काफी कम होती जा रही है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार विश्व के लगभग डेढ़ अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी आज भी नहीं मिल रहा है। पानी की कमी के चलते वातावरण और जलवायु चक्र आए दिन प्रभावित हो रहा है। फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन की समस्या भी अब सामने आने लगी है।
जल, जलवायु और पर्यावरण का एक-दूसरे से तालमेल वाला सम्बंध है। दोनों एक-दूसरे के सहयोगी और पूरक हैं। इनमें से किसी में भी बदलाव होने से दूसरे का प्रभावित होना लाज़मी है। बनारस शहर में भी पर्यावरण का बदलती स्थिति देखी जा रही है। मानूसन की शुरुआत के बावजूद बारिश का उचित स्थिति में न होना पर्यावरण की भयावहता को दर्शाता है। एक समय था जब गाँवों और गलियों में छोटे-छोटे तालाबों एवं पोखरों की भरमार थी जहाँ बारिश के पानी का ठहराव होता है, इसी से भूजल की स्थिति निरंतर बनी रहती थी। भूजल के स्तर में निरंतर कमी के कारण ही पर्यावरण प्रभावित होने लगा है। यदि भूगर्भ का जल स्तर बढ़कर पर्याप्त हो जाए और वातावरण में पर्याप्त नमी आ जाए, तो जलवायु परिवर्तन के अन्य कारण खुद-ब-खुद संतुलित हो जाएँगे।
ऐसी स्थिति में जलवायु को पृथ्वी के अनुकूल बनाए रखने के लिए जल संरक्षण की आवश्यकता है। दूसरी तरफ, देखा जाए तो तालाबों और पोखरों के खात्मे के बाद सरकारी तंत्र की निगाह अब नदियों पर पड़ने लगी है। नदियों पर दिनोंदिन बाँध बनाकर पानी की अविरलता को रोका जा रहा है जिससे उसकी निर्मलता पर प्रभाव पड़ रहा है। धरा पर पानी का एकमात्र साधन सिर्फ यह नदियाँ ही हैं। इसके बचाव के लिए आमजन को आगे आना होगा।’ उक्त बातें रविवार को गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट के क्रमिक आयोजन नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा के बाद आयोजित गोष्ठी में वरिष्ठ लेखक और आलोचक रामजी यादव ने कही।
सामाजिक कार्यकर्ता नंदलाल मास्टर ने कहा कि ‘हमारी परम्परा में वर्षा के जल को संरक्षित करने पर विशेष ध्यान दिया गया था, जिसके चलते जगह-जगह पर पोखरे, तालाब, कुएँ आदि बनाए जाते थे, इसमें वर्षा का जल एकत्र होता था तथा वह वर्ष भर जीव-जंतुओं सहित सहित मनुष्यों के लिए भी उपलब्ध होता था। आधुनिककाल में वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर इन्हें संरक्षण न दिए जाने के कारण अब तक लगभग सैकड़ों नदियाँ और लाखों तालाब-झील आदि सूख गए हैं। कई तो भू-माफियाओं के अवैध कब्जे का शिकार होकर अपना अस्तित्व खो बैठे हैं।’
गोकुल दलित ने कहा कि ‘देश की उपनदियों में विद्यमान वरुणा एक समय में भले ही शुद्ध थी लेकिन आज वह फैक्ट्रियों के कचड़े और उनके छोड़े गए प्रदूषित पानी के प्रभाव से गंदे पानी की धारा बन गई है, जिस में आसपास के लोग खाना-नहाना करते थे वह अब छूने लायक भी नहीं रह गई है। इस पानी से कोई काम करने के लिए भी अनेक बार सोचना पड़ जाता है। भारत में कृषि पूर्णतया वर्षा जल पर निर्भर है। पर्याप्त बारिश होने पर सिंचाई के अन्य साधन सुलभ हो जाते हैं किंतु बारिश न होने पर सभी साधन जवाब दे जाते हैं जिससे खेती-बाड़ी सूखे का शिकार हो जाती है। नदी यात्रा के साथ मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा हूँ वैसे-वैसे हरियाली और पर्यावरण का अनोखा रूप देखने को मिल रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि शहरीकरण और पूँजीवाद किस कदर हमारे अस्तित्व को खत्म करते जा रही है।’
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जाने-माने लेखक संतोष कुमार ने कहा कि ‘देशवासियों के सामर्थ्य, सहयोग और संकल्प से मौजूदा जल संकट का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। जल संरक्षण के तौर-तरीकों को प्रयोग में लाने के लिए सरकारी तंत्र की भूमिका बहुत आशा जनक नहीं है। यद्यपि सरकार ने विभिन्न राज्यों में जल संरक्षण सम्बंधी नियम-कानून बना रखे हैं लेकिन वह सिर्फ कागजों पर ही सीमित हैं।’
युवा कवि दीपक शर्मा ने कहा कि ‘जल संरक्षण हेतु जनांदोलन का रूप देने के लिए न केवल सरकार सक्रिय हो बल्कि राज्य सरकारों के साथ उनकी विभिन्न एजेंसियों को भी सक्रिय करें, जिससे न केवल बारिश के जल को तो संरक्षित किया जा सके अपितु पानी की बर्बादी को भी रोका जा सके। गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट के क्रमिक आयोजन नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा के माध्यम से हम ग्रामीणों को जागरूक कर रहे हैं। लोगों को भी चाहिए कि गाड़ियों की साफ-सफाई, विभिन्न प्रकार की फैक्ट्रियों में भूगर्भ के जल का अंधाधुंध दोहन बंद करें।’
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बता दें, गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट लगातार पाँचवीं बार नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा निकाल चुका है। वरुणा किनारे के लोग इस यात्रा में अपनी भरपूर सहभागिता देकर नदी और पर्यावरण के प्रति अपने लगाव को जाहिर कर रहे हैं। टीम के माध्यम से ग्रामीणों को नदी-पर्यावरण के लिए जागरुक किया जा रहा है।
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