बलरामपुर। पंचपेड़वा स्टेशन के सामने एक दुकान पर बैठे सज्जन ने कहा कि ‘अब तो जेल जाए बिना कोई विकल्प नहीं है।’ यह हमारे लिए थोड़ा आश्चर्यजनक था क्योंकि हमारे लिए वे नितांत अपरिचित थे। हमने जब उनसे जानना चाहा कि ऐसा क्या हो गया है जो वे जेल की बात कर रहे हैं तब उन्होंने बताया कि वे बिजली विभाग में काम करते हैं। बहत्तर घंटे की हड़ताल का कोई नतीजा नहीं निकल रहा है इसलिए अब जेल ही एकमात्र रास्ता है।
थोड़ी देर बाद उन्होंने बताया कि वे थारू समुदाय से आते हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि थारू लोग किधर से आए तब उन्होंने कहा कि ‘हम लोग राणा प्रताप की फौज में थे और वहां से हारने पर भागकर इधर चले आए।’
‘अच्छा यह आपको किसने बताया?’ उन्होंने कहा कि ‘हम सुनते आ रहे हैं कई साल से।’ मैंने फिर सवाल किया कि अच्छा यह बताइये कि राणा प्रताप आज से 517 साल पहले हुए। लेकिन क्या आपको पता है कि आज से 1000 साल पहले एक थारू राजा मदन सिंह हुआ करता था जो बहुत पराक्रमी था। उसने कई लड़ाइयां लड़ी और जीत हासिल की। वह गोरखपुर और आस-पास के इलाकों पर शासन करता था।
वे बोले, ‘नहीं, यह हमको तो नहीं मालूम है।’
इसी तरीके से अनेक लोगों से बातचीत करते हुये तथा प्रचलित धारणाओं की छानबीन करते हम बलरामपुर जिले के पूर्वी इलाके पचपेड़वा ब्लॉक से 15 किलोमीटर दूर नेपाल की तराई में स्थित बिशुनपुर विश्राम नामक एक गांव में गए जहां थारू विकास परियोजना का दफ्तर है।
बलरामपुर के थारू
दक्षिणी नेपाल की तराई के इलाकों में पाये जानेवाली थारू जनजाति की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 17, 37, 470 थी। इसका अधिकांश नेपाल में बसते हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में इनकी जनसंख्या लगभग 2, 56, 129 थी। इसी जनगणना में उत्तर प्रदेश में थारुओं की जनसंख्या 83 हज़ार 554 बताई गई थी।
बिसुनपुर विश्राम स्थित थारू विकास परियोजना में लगाई गई जानकारी के अनुसार बलरामपुर जिले के गैसड़ी और पचपेड़वा ब्लॉकों में थारुओं की सर्वाधिक आबादी है। 2011 की जनगणना के अनुसार पंचपेड़वा ब्लॉक के 33 गाँवों की कुल थारू आबादी 19097 थी। गैंसड़ी ब्लॉक के 19 गाँवों की आबादी 5510 थी। बलरामपुर ब्लॉक के 11 गाँवों में 101, हरैया सतघरवा ब्लॉक के 8 गाँवों में 37, तुलसीपुर ब्लॉक के 3 गाँवों 10, गैड़ासबुज़ुर्ग ब्लॉक के मात्र मंगईपुर गाँव में 1, उतरौला ब्लॉक के 2 गाँवों में 4 तथा श्रीदत्तगंज ब्लॉक के मात्र एक गाँव गोमड़ी में एक थारू हैं। इस प्रकार 2011 की जनगणना के हिसाब से बलरामपुर जिले में थारुओं की कुल आबादी 24761 दर्ज की गई है।
थारू विकास परियोजना कार्यालय बिसुनपुर विश्राम का दफ्तर और लिखी गई जानकारियाँ
कुछ गांवों में केवल एक व्यक्ति की शिनाख्त दर्ज की गई है जबकि कुछ में दो-तीन परिवार रहते हैं, लेकिन पंचपेड़वा ब्लॉक में 9 गाँव ऐसे हैं जिनकी आबादी 2437 से 1078 के बीच है। ये सारे ऐसे गांव हैं जहां केवल थारू ही रहते हैं। मसलन बिशुनपुर विश्राम का कुदरगोड़वा ही ले लीजिए। यहां केवल थारू जाति के लोग रहते हैं। इसके अलावा चंदनपुर, भुसहर पुरई, भुसहर ऊंचवा, फोंगही, रजडेरवा थारू, सेमरहवा, भगवानपुर कोंडर, इमिलिया कोंडर और बड़का भूकुरुवा इत्यादि गांव या उनके बगल वाले गांव सब के सब थारुओं के गांव हैं।
हमें थारुओं के बारे में और अधिक जानना था और इसी के लिए हम यहाँ पहुंचे थे। पचपेड़वा से हिचकोले खाते जब हम बिशुनपुर विश्राम पहुंचे तब दोपहर हो चुकी थे और वहां का वातावरण देखकर यह लगता था कि वास्तव में हम देश के एक कोने पर आ गए हैं। परियोजना दफ्तर के पड़ोस में ही थारू शिक्षण संस्थान चलाने वाले बैजनाथ से मुलाकात हुई तो हमने उनसे थारू जाति के इतिहास के बारे में कुछ जानना चाहा, लेकिन उन्होंने हंसते हुए कहा कि ‘मुझे तो कुछ ज्यादा मालूम नहीं है, जो मैंने सुना है वही जानता हूं।’
फिर उन्होंने बताया कि ‘हमारे यहां सारे त्यौहार खेतों और किसानी से जुड़े हुए हैं।’ उन्होंने बताया कि उन्होंने खेतों में काम किया है और उपज बेचने बाजार तक गए हैं। बाद में उन्होंने पढ़ाई पूरी करने के बाद थारू शिक्षण संस्थान शुरू किया। आज उनके पास एक अच्छी बिल्डिंग है। और इसमें लगभग पांचवीं तक बच्चों की पढ़ाई होती है उनके घर के ठीक सामने सड़क के उस पार सरकार द्वारा चलाया जा रहा एक विद्यालय है जिसमें थारू बच्चे पढ़ते हैं।
बिशुनपुर विश्राम की सड़क पर जब हम चहलकदमी कर रहे थे तो एक सज्जन दिखाई पड़े। उनका नाम बसंत लाल है जो कभी खेती और कभी मजदूरी करते हैं। उनसे हमने इलाके की खोज खबर ली। उनसे मैंने पूछा कि थारुओं के बारे में कहा जाता है कि जहां थारू वहां दारू तो वह हंसने लगे।
उन्होंने कहा ‘यह बात पूरी सही नहीं है, लेकिन थारू लोग पीते जरूर हैं। लेकिन वे दारू पीकर दंगा-फसाद नहीं करते। कभी-कभार झगड़ा कर लेते होंगे, यह अलग बात है। दिनभर के काम से थके हुए आने पर थोड़ा-बहुत ले लेना आम बात है। और फिर खा कर सो जाते हैं। लेकिन थारू शराब का धंधा नहीं करते।’
यह पूछने पर कि ‘घर का काम कौन करता है?’ वे बोले ‘हम लोग तो बाहर कमाने जाते हैं। घर का सारा काम महिलाएं ही करती हैं। हम लोग पैसा कमा कर ले आते हैं और उन्हें सौंप देते हैं। कौन सी चीज जरूरी है। कौन सी चीज मंगाई जाए यह वही जानती है?’
हमारे लिए यह थोड़ा चकित करने वाला मामला था कि इस इलाके में कई लोगों के दरवाजे पर बैल बंधे हुए थे। अभी तक हम उत्तर प्रदेश के जितने भी इलाकों में गए वहां बैल लगभग नहीं होते। बैल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है और बैलों से खींचे जाने वाला हल या जुआठ वहां अतीत की चीज बन चुके हैं, लेकिन पचपेड़वा इलाके में थारुओं के गांव में हमने हल और जुआठ तो देखे ही, बैलों की कई जोड़ियां भी देखी।
लेकिन वहां आवारा पशुओं की भरमार भी थी। उनसे फसलों की रक्षा के लिए लोग तत्पर थे और अभी हम सड़क पर ही थे कि देखा कुछ बच्चे आवारा गायों को गायों को दौड़ाते हुये वहाँ आए और काफी दूर खदेड़ने के बाद वे सब हँसते-कहकहे लगाते वापस अपने घरों की ओर लौटे।
परियोजना कार्यालय में रहने वाले एक कर्मचारी मोहित कुमार ने हमको थारू जनजाति से संबंधित कुछ लिखित जानकारियां दीं लेकिन उनमें भी ज़्यादातर थारुओं के बारे में प्रचलित धारणाओं पर ही आधारित थीं। अनेक बाते तो बहुत घिसी-पिटी थीं, मसलन ‘महाराणा प्रताप जिन दिनों मुगल सत्ता का प्रतिकार कर रहे थे। उन्हीं दिनों उन्होंने अपने कुल की महिलाओं को मुगलों से सुरक्षा हेतु सैनिक टुकड़ियों के साथ सुरक्षित सुदूर उत्तर भारत की ओर भेजा जो क्रमशः बढ़ते-बढ़ते भारत-नेपाल की संधि पर पहुंचकर बच गए और भयानक जंगल में अनेक वर्षों तक एकांत में रहने से मुख्यधारा के समाज और अन्य सभ्यताओं से कटे रहे। प्रकृति के सहारे जीवनयापन करने के कारण थारू समाज मूलरूप से प्रकृति के साथ परस्पर पूरक हो गया।’ आदि-आदि।
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यही या ऐसी ही बातें और भी लोग कहते हैं। लेकिन कौन लोग कहते हैं? इसको जानना बहुत जरूरी है।
थारुओं के नाक-नक्श और शारीरिक संरचना मंगोलियन नस्ल के करीब है। नेपाली, भोटिया और बुक्सा आदि जनजातियां जो हिमालयीय इलाकों में रहती हैं, प्रायः आपस में मिलती-जुलती हैं। इनमें नस्लीय एकता दिखाई पड़ती है। बहुत सारे लोग जो नेपाल से भारत में आते हैं वे अपने नाक-नक्श के कारण अलग से पहचाने जाते हैं।
तो क्या यह मान लिया जाए कि राणा प्रताप के द्वारा भेजी गई स्त्रियों और उनके सुरक्षा प्रहरियों ने 500 साल के दौरान अपने नाक-नक्श बदल लिए? यह सत्य है कि भारत में बड़े पैमाने पर युद्ध, पलायन और विस्थापन आदि हुए। हर तरह की आबादी एक जगह से दूसरी जगह जाती रही है। इसके बावजूद हजारों साल के जीवन-व्यवहार में ही नस्लीय एकता बनती है। अगर ऐसा न होता तो नेपाल की तराई में बसे मधेशियों के नाक- नक्श बिल्कुल नेपाली हो गए होते।
ऐसा लगता है कि थारू मूलतः पहाड़ी लोग हैं जो अपनी जगह से कहीं गए नहीं। अन्य जानकारियां भी यही बताती हैं। थारू शब्द के बारे में विद्वानों में कई तरह के मतभेद रहे हैं। अवध गजेटियर के अनुसार थारू शब्द का अर्थ ठहरा है। इस तरह से लगता है कि थारू की उत्पत्ति स्थिर या थर शब्द से हुई। यह तराई का भी विकसित रूप हो सकता है। संभवतः तारु का उच्चारण थारू के रूप में विकसित हो सकता है। इस तरीके से हम यह देखते हैं कि यह स्थानवाचक शब्द है जो किसी आबादी के एक ही जगह स्थिर रहने के कारण प्रचलित हुआ।
संघ के सुनियोजित अभियानों में गढ़ी गई कहानियाँ
सन 1978 के आस-पास गोंडा जिले में आरएसएस के प्रमुख नेता नानाजी देशमुख आए और उन्होंने गोंडा के इटियाथोक इलाके में दीनदयाल शोध संस्थान, जयप्रभा ग्राम की स्थापना की। उन दिनों बलरामपुर गोंडा जिले की एक तहसील हुआ करता था और पंचपेडवा तथा गैंसड़ी आदि जगहें भी गोंडा जिले में शामिल थीं। बताया जाता है कि नानाजी देशमुख ने चुनाव में बलरामपुर की महारानी को हरा दिया था। उन्होंने देशमुख से प्रभावित होकर उन्हें दीनदयाल शोध संस्थान, जयप्रभा ग्राम बनाने के लिए एक बड़ा भूखंड दान में दिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शुरू से ही रणनीति रही है कि वह सबसे उपेक्षित और अलग-थलग पड़े क्षेत्रों और समाजों के बीच अपना काम शुरू करता रहा है। इससे उसे एक व्यापक जनाधार बनाने में आसानी से सफलता मिल जाती थी। नानाजी देशमुख ने थारुओं की आबादी को देखते हुये उनके गांवों को आधार-क्षेत्र बनाया। पंचपेड़वा के इमिलिया कोंडर गाँव में उन्होंने महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज की स्थापना की और थारुओं के बच्चों को पढ़ने को प्रेरित करने लगे।
यही वह समय था जब थारुओं को आसानी से राणाप्रताप के सिपाही के रूप में प्रचारित करना शुरू किया और चेतक तथा भाले आदि का मिथक लोकप्रिय बनाया जाने लगा। थारुओं के बारे में ठीक से अध्ययन करने पर इस बात का कोई सिर-पैर नहीं दिखाई पड़ता। उन्होंने थारू शब्द को थार से उद्भूत बताते हुये थारुओं को थार के रेगिस्तानों का निवासी प्रचारित किया। नई पीढ़ी के थारू युवा इस बात को ही अपने इतिहास के रूप में दुहराते हैं।
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उत्तराखंड के थारुओं और बुक्सा जनजाति पर गहन अध्ययन करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक विद्या भूषण रावत कहते हैं कि ‘थारू जनजाति का थार से कुछ भी लेना-देना नहीं है लेकिन संघ ने एक मिथक गढ़ दिया जो झूठा है। वे निश्चित रूप से मंगोल नस्ल के लोग हैं और नेपाल की तराई में होने के कारण उनके ऊपर नेपाल का असर बहुत ज्यादा है।’
थारू आमतौर चौधरी टाइटिल लगाते हैं। कुछ लोग कथरिया तथा अलग-अलग जगहों पर राणा टाइटिल भी लिखते हैं। राणा टाइटिल का प्रचलन नेपाल से लेकर हिमाचल, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश की तराई और राजस्थान तक है। ऐसे में राणा थारू यह स्पष्ट नहीं कर पाये कि उनका राणा वास्तव में कहाँ से मिला है। संघ ने इस कन्फ़्यूजन का अच्छा फायदा उठाया है।
थारू लोगों के गाँव में लाउडस्पीकर से पाँच बजे सुबह ही हनुमान चालीसा का पाठ सुनकर लगता है यहाँ संघ की पैठ गहरी हो चुकी है। दूसरे दिन जब हम चंदनपुर गाँव में लोगों से मिल रहे थे तो एक ई-रिक्शे में लाउडस्पीकर से लोगों से अपील की जा रही थी कि हनुमान जी के मंदिर निर्माण के लिए यथासंभव पैसे और अनाज का सहयोग करिए। गाँव में अनेक महिलाएँ दुर्गापूजा के दौरान नौ दिन व्रत रहने लगी हैं।
इस मुद्दे पर गोंडा के सामाजिक कार्यकर्ता एडवोकेट नंद किशोर वर्मा कहते हैं ‘थारुओं को कभी संविधान बताया ही नहीं गया। उन्हें माता सावित्रीबाई फुले के बारे में नहीं बताया गया कि उनकी वजह से औरते शिक्षा पाने लगीं। ऐसे में आरएसएस उन्हें दुर्गा-काली-हनुमान से जोड़ रहा है तो क्या आश्चर्य।’
किसानी से जुड़े त्योहारों के बीच हिन्दू त्योहारों को थोपना कठिन नहीं था
थारू जनजाति जंगलों और खेतों पर निर्भर रही है। प्रायः जंगलों को काटकर उन्होंने कृषियोग्य ज़मीनों का विस्तार किया और सदियों से खेती कर रहे हैं। स्वाभाविक है उनके राग-विराग खेतों और वनों से संबंधित हैं। आज अगर थारुओं के त्योहारों का अध्ययन किया जाय तो उनके साथ की गई छेड़छाड़ और घालमेल का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उदाहरण के रूप में पंचपेडवा ब्लॉक के गाँवों में हमने कुछेक घरों के बाहर खुले चबूतरे पर नदियों से निकली पत्थर की पिंडियों के मंदिर थे जिनपर फूल और रोली आदि चढ़ा था। बिसुनपुर विश्राम में थारू विकास परियोजना परिसर में हाल के वर्षों में एक मंदिर बनवाया गया है। इसी तरह से एकाध और जगह भी नए मंदिर बने थे लेकिन उनकी बहुतायत नहीं थी। स्वतःस्फूर्त रूप से थारुओं में प्रचलित चीजें ही अधिक थीं।
जंगलों के आस-पास रहने के कारण शेर-बाघ जैसे डरावने जानवरों से थारुओं का सबका पड़ता रहा है जिन्हें साधने की प्रक्रिया में उन्होंने शेर और बघेसरी की पूजा करना शुरू किया। एक युवा थारू प्यारेलाल ने बताया कि जंगल में लकड़ियाँ काटने जाते समय इन जानवरों के हमले का खतरा रहता था इसलिए लोगों ने उन्हें देवता बना लिया ताकि उनकी दया के हकदार रहें।
थारुओं के सबसे प्रमुख त्योहार खेती-किसानी से जुड़े हैं, जिनमें माघी, जड़ता-बड़ता, चेरई, भझर, धुरिया, हरवट और हरथोवा आदि हैं। भादों महीने में बड़का इतवार मनाने की भी प्रथा है। लेकिन पिछले कुछ ही वर्षों से थारुओं में होली, खिचड़ी, असाढ़ी, दुर्गा पूजा, नवरात्र आदि का चलन बढ़ा है। चंदनपुर के एक बुजुर्ग बताते हैं कि ‘इन त्योहारों के लिए कुछ लोग बाहर से पैसे और सामान भेजते हैं।’
दूसरे दिन हमने महिलाओं के गीतों को सुनने की कोशिश की जिसमें चंदनपुर की ग्राम प्रधान श्रीमती फूलमती चौधरी ने बहुत सहयोग दिया। वे सुशिक्षित, प्रबुद्ध और सहृदय स्त्री हैं। जब हम उनकी पाही पर पहुंचे तो वे गाँव के भीतर अपने मकान पर थीं और कुछ ही देर में आ गईं। उन्होंने थारू जनजाति के रीति-रिवाजों के संबंध में अनेक बातें बताया और हमें लेकर गाँव के अन्य घरों में गईं। उन्हीं के कहने से सात-आठ महिलाएं काम से फारिग होकर एक घर के बरामदे में इकट्ठा हुईं और अपने अनुभवों के साथ कई गीत भी सुनाया।
महिलाओं ने जो गीत सुनाये वे होली, फाग, झूमर और सजनी आदि गीत सुनाये। गीतों की भाषा ऐसी थी जो थोड़ा ध्यान देने पर समझ में आ जाती थी और उनकी लय पूर्वाँचल की लोकप्रचलित लय की ही तरह थी। लेकिन बहुत कहने पर भी उन्होंने कोई ऐसा गीत नहीं सुनाया जिसमें किसी पुराने पराक्रम अथवा किसी नायक का ज़िक्र हो। जिस तरह 1857 के विद्रोह के नायकों, खासतौर से पूर्वाँचल में कुँवर सिंह को लेकर महिलाएं गाती रही हैं उस तरह का कोई गीत उनके पास नहीं था जिसमें महाराणा प्रताप या चेतक के पराक्रम की निशानदेही हो। यह हमारे लिए आश्चर्य ही था बीसवीं सदी में गांधी को लेकर अनेक लोकगीत हैं। चौरी-चौरा के नायकों और विद्रोह को लेकर कई गीत हैं लेकिन थारुओं के पास अपने पूर्वज महाराणा प्रताप को लेकर कोई गीत ही नहीं है। जबकि कहा यह जाता है कि महाराणा प्रताप का घोडा चेटक और उनका भाला आज भी थारुओं के घर-घर में पूजा जाता है।
इस विषय पर विद्या भूषण रावत कहते हैं कि ‘कोई भी समाज अपने पूर्वजों की स्मृतियों को असनानी से नहीं भुलाता बल्कि वह उसके मौलिक क्रियाकलापों में झलकती है। गीतों में सुरक्षित रहती है। थारुओं के गीत रोज़मर्रा के संघर्षों और राग-विराग से उपजे हैं और बहुत सहज हैं। इसलिए यह अंदाजा करना बहुत मुश्किल नहीं है कि उनके ऊपर कितना कुछ थोप दिया गया है लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि थारू अथवा कोई भी आदिवासी समाज इनको आसानी से अपना नहीं सकता। भले ही कुछ लोग राजनीतिक अथवा आर्थिक लाभ-लोभ में यह अपना लें लेकिन जब आप उनका मूल देखेंगे तब पता चलेगा कि वास्तविकता क्या है?’
किसानों और मजदूरों का गाँव
चंदनपुर में महिलाओं से गीत सुनने के बाद हम आगे भुसहर पुरई ग्राम पंचायत में गए। वहाँ की ग्राम प्रधान भी महिला हैं। उनका नाम मेंहंकी है। वे फोंगही गाँव में रहती हैं। वह तीन साल से प्रधान हैं। वे अपनी प्राथमिकताओं में चकबंदी कराना और संपर्क मार्ग का निर्माण कराना है। हालांकि वह इस बात से थोड़ी क्षुब्ध थीं कि तीन साल के प्रयासों के बावजूद चकबंदी का काम अभी जौ भर भी आगे नहीं बढ़ा है लेकिन रास्ते का काम काफी हद तक हो चुका है।
मेंहंकी बताती हैं कि फोंगही में सारे के सारे किसान हैं। एक भी आदमी सरकारी सेवा में नहीं है। सभी की आजीविका खेती और मजदूरी पर ही निर्भर है। उन्होंने बताया कि इस गाँव में प्रायः माध्यम किसान हैं जो कई तरह की फसलें पैदा करते हैं। इस तरह उनकी उपज अपने भरण-पोषण के ही काम आती है। कुछेक फसलें ही बाज़ार तक पहुँच पाती हैं।
गांव में दो या तीन छोटी-छोटी दुकानें हैं। वहां बिजली का प्रबंध है और लगभग सभी मकान ईंट के हैं, जिससे यह अंदाजा होता है कि लोगों ने अब मिट्टी के पारंपरिक घरों में रहना छोड़ दिया है। यह अलग बात है कि ईंट के इन मकानों में अभी भी प्लास्टर नहीं हुआ था, लेकिन जुड़ाई पक्की थी और लोग उसमें आराम से रह रहे थे।
ग्राम प्रधान मेंहंकी हमें लेकर गाँव के कुछ घरों में गईं। उस उदास दोपहर में चमकती हुई रामनामी ओढ़े एक सज्जन आए। अभी तक हमारे लिए यह अचरज ही था क्योंकि थारुओं के यहाँ किसी तरह की अतिरिक्त धार्मिक सजगता नहीं दिख रही थी। फूलमती की पाही पर दीवाल पर एक पैम्फलेट चिपका था जिसे अन्य गाँव के गुप्ताजी लोगों द्वारा छपवाया गया था। वह काँवड़ यात्रा करके शिव के जलाभिषेक के पुण्य को हासिल करने का विज्ञापन था। अब सैकड़ों लोगों के बीच इकलौते इन सज्जन को देखकर मैंने पूछा कि यह कब से, तो चहकते हुये उन्होंने जवाब दिया – ‘मेरे भोले बाबा ने कहा कि सेवा करो। तब से मैं सेवा कर रहा हूँ।’
कुछ महिलाओं ने मनरेगा के तहत काम न मिलने की शिकायतें दर्ज की तो कुछ ने राशन की दुकान से उचित दर पर मिलने वाला राशन कम मिलने की शिकायत की। हम आ रहे थे तो चंदनपुर में सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान यानी कोटेदार की दुकान पर काफी भीड़ जमा हुई थी। कोटेदार का दो मंजिला भव्य मकान लगातार बन रहा था। कई गांवों से लोग वहां आए थे और राशन लेने का इंतजार कर रहे थे। एक तरह से यह छोटी-मोटी पंचायत जैसा दृश्य था। जब हम फोंगही से लौट रहे थे तो अनेक लोग साइकिलों पर अनाज लादे हुए अपने घरों को लौट रहे थे।
दोपहर में इस गाँव से शिवालिक पर्वत श्रेणियाँ धुँधली सी दिख रही हैं। फोंगही से कुछ ही दूरी पर दो-तीन और गाँव हैं जहां अभी बिजली नहीं पहुंची है और आने-जाने का रास्ता भी बहुत बुरी हालत में है। मेंहंकी बताती हैं कि कोई भी योजना उन गांवों तक पहुँच ही नहीं पाती।
थारू और दारू का मिथक
थारुओं के शराब पीने के बारे में अधिक जानने की हमारी कोई खास इच्छा नहीं थी। हम सोचते हैं कि यह किसी भी समाज का अंदरूनी मामला है और इस पर किसी को आलोचना करने का कोई हक नहीं है। हम किसी भी तरीके की सनसनीखेज खबर की कोई जरूरत नहीं महसूस करते। चंदनपुर की ग्राम प्रधान फूलमती चौधरी जब हमको लोगों से मिलवा रही थीं तब एक घर में एक बूढ़ी माता शराब बनाते हुये मिलीं।
उन्होंने बताया कि शादी में ढाई सौ भेली जो गुड़ मिला था उसी की शराब बनाई जा रही है और यह केवल अपने घर के लोगों को पीने के लिए है। अमूमन शादियों में जो गुड़ मिलता है उसी से शराब बनाई जाती है। कभी-कभी चावल, जौ अथवा दूसरी चीजों की भी शराब बनाई जाती है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो पुराने जमाने में गांव में प्रचलित थी, लेकिन आबकारी विभाग ने सरकारी राजस्व इकट्ठा करने के लिए जैसे-जैसे इसे अवैध करार कर कर दिया, वैसे वैसे लोगों ने इस तरह शराब बनाना और उपयोग में लाना बंद कर दिया है।
वहां उपस्थित एक महिला ने कहा कि थारू जनजाति की अपनी ऐसी परंपरा है जिसमें हम अपने पीने के लिए शराब बनाते हैं। यह शराब किसी को बेचने के लिए नहीं है। जब यह बन जाएगी तो एक दावत के साथ यह तमाम सारे लोगों में बंटेगी।
यहाँ शराब कोई टैबू या हौवा नहीं बल्कि सहज गतिविधि है। दूसरी जगहों पर जिस तरीके से आबकारी विभाग ने छापेमारी करके शराब पर रोक लगाई है और खुलेआम देशी शराब का लाइसेंस बाँटा है उसका एक परिणाम यह भी हुआ है कि लोग देसी शराब के नाम पर कई बार जहरीली शराब के शिकार होते हैं और कोई कुछ नहीं कर पाता। असल में जब लोगों की अपनी जरूरतों को नियंत्रित कर दिया जाता है और उनके सामने कोई विकल्प नहीं होता तब इसका फायदा उठाकर अनेक असामाजिक तत्व सक्रिय होते हैं। इसी तरह वे स्प्रिट और नौसादर जैसे जहरीले पदार्थों से बनने वाली शराब को बड़ी मात्रा में तैयार करते हैं और बेचते हैं जिसका जिसको पीकर बड़ी संख्या में लोगों की मौत होती रहती है।
वहां खड़ी एक अन्य स्त्री ने बताया कि जैसे हम खाना बनाते हैं, उसी तरीके से यह शराब भी हमारे लिए जरूरी है। हम इसको दवा के रूप में भी काम में लेते हैं।
हम और भी अनेक घरों में गए, लेकिन किसी और जगह पर शराब की कोई भट्टी या कोई निकालने वाला आदमी नहीं दिखा। इससे यह लगता है कि थारू समुदाय पर शराबखोरी का जो आरोप लगाया जाता है वह उतना विकृत नहीं है जितना वह कुप्रचार है जो किसी भी समुदाय को बदनाम करने का कम हवा के वेग से करता है।
थारू समुदाय के अपने रीति-रिवाज हैं। उनके अपने तौर-तरीके हैं। कई लोग कहते हैं कि थारू बाजार से भी शराब खरीदते हैं तो इसमें कोई ऐसी बात नहीं है जो गलत हो लेकिन लोगों ने ऐसी धारणाएं बना रखी गोया वे बहुत संगीन अपराध कर रहे हों। इसी का एक परिणाम है कि लोग कहते हैं ‘जहां थारू वहां दारू’।
इतिहास और संस्कृति संबंधी ग्रामीण रिपोर्टिंग की चुनौतियाँ
अपनी रिपोर्टिंग के सिलसिले में हम लगातार दूर-दराज के इलाकों में जाते हैं और लोगों से मिलते हैं ताकि उनकी जिंदगी, संघर्ष और आजीविका के अलावा उनके मन-मिजाज़ का कुछ पता मिले लेकिन हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि ज्यादातर थोपी गई धारणाओं के आधार पर वे देश और समाज को देखते हैं। अशिक्षाग्रस्त समाज में अफवाहों और कुप्रचार की जड़ें कितनी गहरी होती हैं इसे हम लोगों की बातचीत से समझ पाते हैं। आश्चर्यजनक यह है कि लोगों के पास सूचनाओं का जखीरा है लेकिन उसका संदर्भ बहुत भ्रमित करनेवाला है। इसलिए हम आमतौर पर बूढ़-पुरनियों की खोज में लगते हैं। दुर्भाग्य से ऐसे बुजुर्गवार बहुत कम हैं जिनकी स्मृतियाँ सही-सलामत हैं। गांवों में बूढ़े लोग अकेलेपन और अलगाव के शिकार हैं। हम प्रायः किस्सों, लोकोक्तियों, मुहावरों और गीतों में बची हुई और प्रचलित कथाओं के जरिए से देखते हैं कि उनमें क्या है? ज़्यादातर किस्से हाल के दशकों में गढ़े गए हैं। इसी वजह से बत्तीस लाख वर्ग किलोमीटर का यह भारतीय भूभाग जो कि एक महादेश है, इतिहास से बहुत कम लेकिन सुनी-सुनाई मान्यताओं के आधार पर बहुत ज्यादा चलता है।
हम अक्सर देखते हैं कि किसी एक जगह का नाम उसके मंदिर या उसके देवता के नाम पर मिलता है और छानबीन करने पर उसकी ‘प्राचीनता’ सौ-सवा सौ साल से अधिक नहीं होती। इससे भी कई पीढ़ियों के बीच की दंतकथाएँ महत्वपूर्ण ही मानी जाएंगी लेकिन तर्क की कसौटी पर उनको कसना बहुत जरूरी है। ज़्यादातर भारत का लोक-मूल्यांकन महाभारत और रामायण की घटनाओं के जरिए से किया जाता है जिसमें कोई तार्किक आधार नहीं होता। इन्हीं से इसके इतिहास का आकलन किया जाता है। जबकि यह तथ्य सामने आ चुका है कि भारत में जब सुसंगत इतिहास लेखन का दौर शुरू हुआ तो हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसी सभ्यताओं को प्रस्थान-बिन्दु के तौर पर महत्व दिया गया।
जब हम सुदूर गाँव-देहातों तक जाते हैं तब पता चलता है कि भारत के हजारों गाँव, आदिवासी आदि अपनी विशिष्ट जीवनशैली और लोकज्ञान के साथ जीते हुये आज एक संक्रामणकाल में आ गए हैं। पूंजी के बढ़ते वर्चस्व ने उनका बहुत कुछ छीन लिया है तथा उनकी जीवनशैली को बहुत सस्ता बना दिया है। अब उन्हें नई अर्थव्यवस्था और राजनीतिक माहौल में अपने को ढालने और बराबरी का जीवन स्तर पाने के लिए नए ढर्रे पर संघर्ष करना पड़ रहा है। आधुनिक शिक्षा के साथ ही वे इस जीवन संग्राम में जीत हासिल कर सकते हैं। लेकिन इस आधार पर आदिवासियों के बारे में अभी बहुत ज्यादा जानकारियां नहीं हैं। इसी का फायदा उठाकर हिन्दुत्ववादी ताकतों ने उन्हें अपने संक्रामक रोग दे दिये हैं जबकि उनकी जरूरत सत्ता और शासन में भागीदारी है। यह बात आश्चर्यचकित करती है कि नानाजी देशमुख के महाराणा इंटर कॉलेज में हजारों थारुओं के पढ़ने के बावजूद पंचपेड़वा और गैंसड़ी ब्लॉकों से कोई थारू राजनीतिक नेता क्यों नहीं पैदा हुआ? जबकि वहाँ के लोग कहते हैं कि हमारी आवाज उठाने वाला यहाँ कोई नहीं है।
….और अंत में वापसी
थारू शिक्षण संस्थान चलाने वाले बैजनाथ से मैंने पूछा कि जब सरकार थारुओं को इतनी सहूलियत दे रही है तब भी वे इतने पीछे क्यों हैं? तब उन्होंने कहा कि हमारे यहां कोई राजनीतिक नेता नहीं है। अधिकतर लोग गैर राजनीतिक हैं। कुछ गांव में महिलाएं प्रधान है। थारुओं के गांव में अमूमन थारू ही ग्राम प्रधान हुआ करते हैं। प्यारेलाल थारू नामक एक व्यक्ति जिला पंचायत अध्यक्ष पद तक पहुंचे। इसके अलावा तमाम सारे लोग राजनीति के उपभोक्ता भर रह गए हैं।
वह कहते हैं कि शायद इसीलिए थारुओं को पटाने की गरज से राजनीतिक पार्टियों ने उनकी अलग-अलग परिभाषाएँ गढ़ दी है। उन्हें अलग अलग तरीके से तोड़ा और अपने में मिलाया है। इसका एक सहज परिणाम यह हुआ कि थारुओं में किसी भी चीज को लेकर कोई एकता नहीं दिखती है। आज भारत में जहां हर समुदाय का अपना एक लीडर है। वहां उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले के 2 ब्लॉकों में रहने वाली 26097 से अधिक की आबादी वाली इस जाति का अपना कोई लीडर नहीं है। न ही कोई विधायक हुआ और न सांसद। इसलिए यह देखने में आया है कि थारुओं के वोट के लिए राजनीतिक पार्टियों में गहरी जद्दोजहद रही है।
थारुओं की इतनी बड़ी संख्या को देखते हुए ही नानाजी देशमुख यहां आए और कहा जाता है कि उन्होंने 10,000 से अधिक थारू बच्चों को पढ़ाया- लिखाया। उन्होंने ही राणा प्रताप का मिथक प्रचलित किया।
हालांकि इस बात को लेकर यहाँ अभी कोई उपद्रव नहीं दिखाई देता। राणा प्रताप का वंशज होने के नाते थारुओं में शायद गर्व अनुभूति हो लेकिन इतना जरूर दिखाई पड़ता है कि शाम होते ही थारू गांव में कुछ वर्षों पहले ही बने मंदिरों में हनुमान चालीसा का पाठ शुरू हो जाता है।
इस तरीके से थारुओं की अपनी विशिष्ट परंपराओं से काटकर मिलावट करने और उनको हिंदू छतरी के नीचे ले आने की एक अनवरत कोशिश चल रही है और उनकी गरीबी, बेरोजगारी, अनेकता और दूसरी चीजों के आधार पर उनके भीतर पैठ बनाई जा रही है। एक बुजुर्ग थारू का कहना है कि कोंहरगड्डी में नेपाल से आए मुसलमानों ने बहुत से थारुओं की ज़मीनें बहुत सस्ते में खरीद ली।
वह कहते हैं ‘जनजाति अधिनियम के अनुसार थारुओं की जमीन कोई दूसरा नहीं खरीद सकता लेकिन कोई न कोई तरीका निकालकर उनकी कीमती ज़मीनें ले ली।
थारू विकास परियोजना में काम करने वाले राजेश कुमार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं। वे बहुत शुद्ध हिंदी बोलते हैं और उन्हें देश के अनेक हिस्सों में जाकर काम करने का अनुभव है। राजेश बहुत स्मार्ट व्यक्ति हैं और अपने आसपास की गतिविधियों पर बहुत गहरी नजर रखते हैं। उन्होंने बताया कि थारू लोगों की जमीनें कोंहरगड्डी में अनेक ऐसे लोगों ने खरीदी जो गैर आदिवासी हैं। बहुत सस्ते में बहुत बड़ा रक़बा लोगों ने खरीद लिया और थारुओं को वहाँ से हटकर और भी जंगल के एरिया में जाना पड़ा। थारू समुदाय के अनेक लोग अब सरकारी नौकरियों में जा रहे हैं लेकिन यह संख्या बहुत ज्यादा नहीं है।
भुसहर पुरई से चंदनपुर और फिर बिसुनपुर विश्राम लौटते हुये दो सुंदर जंगल पड़ते हैं। उनकी खूबसूरती ढलती धूप में उदासी से भर जाती है। कई किलोमीटर में फैले इस जंगल में भुसहर पुरई गांव की तरफ जाती सड़क पर एक चौकी बनाई जा रही है जिसमें वन रक्षकों की टोली रहेगी। लगता है या तो यहां बड़े पैमाने पर लकड़ी की तस्करी और जंगलों की कटाई होती है या फिर वनरक्षक थारुओं को जलावन की लकड़ी तथा वनोपाजों से वंचित करना चाहते हैं।
वापसी में हमें फिर पंचपेड़वा से नकहा-जंगल गोंडा जंक्शन एक्सप्रेस पकड़ना था जो दो घंटे लेट थी। स्टेशन के ठीक सामने थारू विकास परियोजना में लैब टेक्नीशियन जटाशंकर यादव की दुकान है इसलिए हम वहीं बैठ गए। वह बताते हैं कि ‘हर दिन औसतन तीन से चार लोग यहां टीबी के मरीज आते हैं। जिनकी जांच से यह कंफर्म हो जाता है कि उन्हें डॉट्स का इलाज शुरू करना है। बहुत सारे ऐसे भी मरीज सामने आते हैं जो एमडीआर होते हैं और उन्हें इलाज के लिए बड़े सेंटरों पर भेज दिया जाता है।’
यह आंकड़ा बताता है कि महीने में तकरीबन 60-70 थारू मरीज ऐसे आ रहे हैं जो टीबी संक्रमण से पीड़ित होते हैं। इस प्रकार 26097 की आबादी में प्रतिवर्ष आठ सौ टीबी के मरीज मिलना एक गंभीर संकट का संकेत है। यह कुल आबादी के तीन प्रतिशत से भी अधिक है। जटाशंकर कहते हैं कि ‘ज्यादातर महिलाएं एनीमिक पाई जा रही हैं। कड़ी मेहनत और उपयुक्त खानपान के अभाव ने उन्हें असमय बूढ़ा और झुर्रीदार बना दिया है।’
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा थारू जनजाति के कल्याण के लिए अनेक योजनाएँ संचालित की जा रही हैं। बिसुनपुर विश्राम केंद्र द्वारा तेरह योजनाएँ चलाई जा रही हैं लेकिन इनके बावजूद थारू जिन स्थितियों का सामना कर रहे हैं उनका गंभीर अध्ययन किया जाना बहुत जरूरी है।
रामजी भाई और अपर्णा जी को थारू समुदाय पर इतनी विस्तृत रिपोर्ट के लिए आभार. दुर्भाग्यवश इस समुदाय की राजनीति भागीदारी नहीं के बराबर है. उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड में बड़ी आबादी के बावजूद एक मात्र विधायक उत्तराखंड में खटीमा से आते थे अभी का मुझे पता नहीं लेकिन ये दुखद स्थिति है. वन विभाग का उत्पीड़न भी होता है और उनके सभी क्षेत्र अब अभयारण्य बन रहे है. शिक्षा के नाम पर संघ की शिक्षा जारी है.
थरूवट बेल्ट। अच्छी जानकारी। मैं भी बहुत घुमा हूँ इन क्षेत्रों में।🌻🙏
थारू जनजाति के सम्बन्ध में अच्छी जानकारी
[…] बलरामपुर में थारू जनजाति के बीच दो दिन […]
वास्तव में थारू जनजाति के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी मैंने पहली बार पढी, इससे यह साबित होता है कि हर जाति और जनजाति की संस्कृति और सभ्यता पर संघियों ने घुसपैठ बहुत पहले से करते आ रहे हैं। यह बहुत दुखदाई है। इससे सभी जागरूक लोगों को सबक लेने की जरूरत है । यदि अभी से सचेत नहीं हुए तो, इन भोले-भाले अबोध आदिवासी समाज में भी अंधविश्वास और पाखंड फैलाने में सफल हो जाएंगे।
आपकी ईस लगन और दृढ निशच को मैं नमन करता हुं। हालांकि मैं ईसी ईलाके के आसपास रहता हुं और लोगों के बीच जाते भी रहता हुं लेकिन आज मै खुश हे कि आपने थार जनजातीय की विस्तृत जानकारी दी। हमें बहुत जल्दी बहुत कुछ करना होगा। आपको साधुवाद
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