घटना मध्य प्रदेश के इंदौर जिले की है। इस घटना को देखने और समझने के कई तरीके हो सकते हैं जो कि सामान्य तौर हर खबर के मामले में होता है। वैसे से भी मैं जिस घटना की बात कर रहा हूं, वह सामान्य से थोड़ा अलग है। लेकिन असामान्य नहीं है। दरअसल, असामान्यता हम अपने विचारों के आधार पर तय करते हैं। तथ्यों का अपने हिसाब से आकलन करते हैं और फिर यह तय करते हैं कि कौन सी घटना सामान्य है और कौन सी असामान्य।
इससे पहले कि इंदौर वाली घटना का जिक्र करूं, मुझे एक बार बथानीटोला नरसंहार को याद करना चाहिए। बिहार के भोजपुर जिले के सहार प्रखंड के बथानीटोला गांव में 11 जुलाई, 1996 को इस नरसंहार को रणवीर सेना के गुंडों ने अंजाम दिया था। इस नरसंहार में दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जाति के 22 लोगों की हत्या कर दी गई थी। रणवीर सेना का सरगना ब्रह्मेश्वर मुखिया (इसका साक्षात्कार मैंने वर्ष 2012 में किया था) ने मुझे इस नरसंहार के बारे में बताया था कि बथानीटोला बारा नरसंहार का बदला था जो कि 12 फरवरी, 1992 को गया के बारा गांव में माओवादियों ने अंजाम दिया था। बारा में तब 35 सवर्ण मारे गए थे।
मेरे पास इसके पर्याप्त तथ्य हैं कि बारा नरसंहार के पीछे कौन लोग थे। बिहार में नरसंहारों के बारे में रिपोर्टिंग करने के दौरान यह बात सामने आयी थी कि कैसे बिहार में राजनीतिक अस्थिरता लाने के लिए बारा नरसंहार की साजिश रची गयी। दरअसल, बिहार में उन दिनों एक क्रांति असर दिखा रही थी। लालू प्रसाद भारत के सबसे सफल मुख्यमंत्री साबित हो रहे थे। एक तरफ तो वह मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को पूरी सख्ती से लागू कर रहे थे तो दूसरी तरफ आरएसएस के मंसूबों को नाकाम करने में वे सफल थे। इसके अलावा यह भी कि कांग्रेस जो कि उस समय यह बर्दाश्त ही नहीं कर पा रही थी कि कोई गैर सवर्ण बिहार का राजपाट संभाल रहा है। हालांकि इसके पहले बीपी मंडल, दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर, भोला पासवान शास्त्री, रामसुंदर दास आदि गैर सवर्ण मुख्यमंत्री बन चुके थे, लेकिन इन सभी को द्विज वर्गों ने कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। दरअसल, वे यह साबित कर देना चाहते थे कि गैर सवर्ण सरकार चला ही नहीं सकते थे। लालू प्रसाद के राज में नरसंहारों के पीछे सवर्णों की एक मंशा यही थी।
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खैर, बात बहुत राजनीतिक हो गयी। मैं बथानीटोला के उस पक्ष को सामने लाना चाहता हूं, जिसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता। ना ही बिहार के बुद्धिजीवी और ना ही अदालतें। वर्ष 2012 में ही मैं एक बार बथानी टोला गया था। तब उस महिला से मुलाकात हुई थी, जिसने रणवीर सेना के गुंडों की क्रूरता का शिकार हुई थी। उसका नाम लखिया देवी है। पहले तो उस महिला ने मुझे कुछ भी नहीं बताया। शायद उसे लगा हो कि मैं भी सामान्य पत्रकार हूं जो पत्रकारिता पर्यटन करने आया है। लेकिन संभवत: संवाद की मेरी शैली के कारण यह मुमकिन हुआ कि उस महिला ने वह सब बताया जो उसके साथ हुआ था। उसके साथ हुई बातचीत को मैंने विस्तार से लिखा है और फारवर्ड प्रेस पत्रिका में प्रकाशित भी हुई।
आज उसके साथ हुई क्रूरता का कुछ अंश दर्ज कर रहा हूं। दरअसल, रणवीर सेना के गुंडों ने उसके दोनों स्तन काट लिया था। वे समझ रहे थे कि स्तन काटे जाने के बाद लखिया मर जाएगी। लेकिन लखिया सब अपनी आंखों से देख रही थी। रणवीर सेना के गुंडे उसके स्तन को हवा में गेंद के माफिक उछाल रहे थे। बातचीत के दौरान लखिया देवी ने बताया था कि स्तन नहीं होने के कारण वह अपने बच्चों को दूध नहीं पिला सकी।
[bs-quote quote=”बारा नरसंहार के पीछे कौन लोग थे। बिहार में नरसंहारों के बारे में रिपोर्टिंग करने के दौरान यह बात सामने आयी थी कि कैसे बिहार में राजनीतिक अस्थिरता लाने के लिए बारा नरसंहार की साजिश रची गयी। दरअसल, बिहार में उन दिनों एक क्रांति असर दिखा रही थी। लालू प्रसाद भारत के सबसे सफल मुख्यमंत्री साबित हो रहे थे। एक तरफ तो वह मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को पूरी सख्ती से लागू कर रहे थे तो दूसरी तरफ आरएसएस के मंसूबों को नाकाम करने में वे सफल थे। इसके अलावा यह भी कि कांग्रेस जो कि उस समय यह बर्दाश्त ही नहीं कर पा रही थी कि कोई गैर सवर्ण बिहार का राजपाट संभाल रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मुझे नहीं पता जब पटना हाईकोर्ट ने वर्ष 2012 में इस नरसंहार के 23 आरोपियों को बरी कर रही थी तब उसने लखिया देवी के साथ हुई क्रूरता को संज्ञान में लिया था या सामान्य बात समझकर छोड़ दिया था। जबकि निचली अदालत में ट्रायल के दौरान लखिया देवी की गवाही दर्ज की गयी थी। निचली अदालत ने रणवीर सेना के 23 गुंडों को दोषी माना था। इनमें 3 को फांसी और 20 को आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की गयी थी।
लखिया देवी से मेरी मुलाकात पटना हाईकोर्ट के फैसले के बाद हुई थी। वह बहुत निराश थी। उसने नम आंखों से मुझे कहा था कि – बाबू, तोही बताव। का हम अपने से अपने छाती काट ले ले हईं?
अब इंदौर की घटना। दरअसल, पिछड़ा वर्ग की एक नाबालिग लड़की ने इंदौर के डीआईजी के कार्यालय में घुसकर आत्मदाह की कोशिश की। सबके सामने उसने अपने उपर केरोसिन तेल उड़ेल लिया था। इससे पहले कि वह माचिस की तीली जलाकर खुद को जला पाती, पुलिसकर्मियों ने उसे पकड़ लिया था। वह नाबालिग लड़की ऐसा क्यों कर रही थी, उसके बारे में सच यह है कि उसके गांव के सवर्ण गुंडे घर में घुसकर पिस्तौल का भय दिखाकर उसके साथ बलात्कार किया था। अपने परिजनों के साथ नाबालिग थाना गयी। लेकिन थाने में उसकी बात नहीं सुनी गयी। जबकि सामान्य परिस्थितियों में उसकी बात सुनी जानी चाहिए थी और उसका मेडिकल जांच करवाकर आरोपियों को गिरफ्तार किया जाना चाहिए था। लेकिन यहां बात असामान्य है।
माफ करिए सामान्य और असामान्य के बीच का अंतर मिट चुका है। मामला दर्ज किया जाना असामान्य बात होती। नहीं दर्ज किया जाना सामान्य बात है।
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मैं दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता का पहला पृष्ठ देख रहा हूं। एक खबर है – देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत। खबर का आधार दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी है। तलाक के मामले में सुनवाई के दौरान न्यायाधीश प्रतिभा एम सिंह ने कहा है कि आज का हिन्दुस्तान जाति, धर्म और संप्रदाय की भावना से उपर उठ चुका है। उन्होंने केंद्र सरकार से अनुच्छेद 44 को कार्यान्वित करने के लिए पहल करने की बात कही है।
वैसे यह अनुच्छेद राज्य को उचित समय आने पर समान नागरिक संहिता बनाने का अधिकार देता है और इसका मकसद कमजोर वर्गों में भेदभाव की समस्या को खत्म कर देश के विभिन्न समूहों के बीच आपसी मेल को मजबूत करना है।
मेरी जेहन में हाथरस की दलित युवती मनीषा वाल्मीकि है। मेरी जेहन में इंदौर की वह नाबालिग है जिसका जिक्र उपर किया है। मेरी जेहन में लखिया देवी है। और मेरे जेहन में दिल्ली हाईकोर्ट की न्यायाधीश प्रतिमा एम सिंह भी हैं।
आपकी जेहन में भी कुछ नाम जरूर होंगे। कुछ चेहरे होंगे। फिर सोचिए समान नागरिक संहिता के बारे में।
खैर, आज भिखारी ठाकुर को याद करने का दिन है। 10 जुलाई 1971 को बिहार के इस गैर सवर्ण साहित्यकार का निधन हुआ था। मुझे उनका नाटक बेटीबेचवा याद आ रहा है। राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार द्वारा प्रकाशित भिखारी ठाकुर रचनावली में इस घटना का जिक्र नहीं है कि जब आरा के जगदीशपुर (जहां के राजपूत कुंवर सिंह थे) में भिखारी ठाकुर बेटीबेचवा नाटक का मंचन कर रहे थे तब वहां के राजपूतों ने उनके उपर हिंसक हमला किया था। आज भी भिखारी ठाकुर के इस नाटक को द्विज याद नहीं करना चाहते क्योंकि उनके हिसाब से बेटी बेचना सामान्य बात थी, जिसे भिखारी ठाकुर ने असामान्य बना दिया था।
सचमुच बहुत साहसी थे भिखारी ठाकुर।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में सम्पादक हैं ।
बेहतरीन समालोचना
सामंतवादी सोछ रगने वालों के लिए ये सामान्य घटना हो सकती है किंतु जिनके साथ ये सब घटनाएं दिन प्रतिदिन घटित हो रही है उनके लिए सदैव असामान्य हु रहेगी।
एक बेहतरीन लेख।
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