Saturday, July 27, 2024
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इन्हें किसी बैसाखी की जरूरत नहीं

 पिछले पचास सालों में यह बदलाव तो आया ही है कि क्षेत्र कोई भी हो, आप उसमें साधिकार, सप्रमाण, सगर्व कुछ ऐसी महिलाओं के नाम गिना सकते हैं जो पुरुषों के बरक्स खड़ी हैं- अपनी प्रतिभा, अपने साहस, अपनी मेधा का लोहा मनवाते हुए। अंतरिक्ष में कल्पना चावला से लेकर व्यावसायिक क्षेत्रों में, राजनीति में, […]

 पिछले पचास सालों में यह बदलाव तो आया ही है कि क्षेत्र कोई भी हो, आप उसमें साधिकार, सप्रमाण, सगर्व कुछ ऐसी महिलाओं के नाम गिना सकते हैं जो पुरुषों के बरक्स खड़ी हैं- अपनी प्रतिभा, अपने साहस, अपनी मेधा का लोहा मनवाते हुए। अंतरिक्ष में कल्पना चावला से लेकर व्यावसायिक क्षेत्रों में, राजनीति में, सिनेमा में, लेखन में, निर्देशन में, अर्थशास्त्र में, भौतिकी में, चिकित्सा विज्ञान से लेकर रसायन विज्ञान और रंगमंच तक में! देश-विदेश की पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर अपनी उपस्थिति दजऱ् करवाती हैं। इनके बारे में मुझे बात नहीं करनी।

महिलाओं का एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो आदिवासी और दलितों की दबी-कुचली और लगातार शोषित जाति के लिए बस्तियों और गाँवों में काम करता है और उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए अपनी जि़ंदगी की आखिरी साँस तक उनके साथ बना रहता है। ये सामाजिक कार्यकत्रियां हैं। इन्हें कभी अखबारों में सुर्खियाँ बटोरने की फुरसत ही नहीं रहती। ये अपने काम में मुतमइन ऐसी महिलाएँ हैं जिनका बहुत बड़ा योगदान आज के समाज को बेहतर बनाने में है। अरुणा राय, अनुराधा गांधी, बेला भाटिया, सोनी सोरी जैसी जाँबाज़ कार्यकर्ताओं की लंबी कतार है। …. इनके बारे में फिर कभी।

[bs-quote quote=”एक लड़की या औरत भी हाड़-माँस की इंसान है पर उसे जीने के लिए हमेशा एक बैसाखी की ज़रूरत रहती है। उसका दर्जा दोयम है, उसे कोई निर्णय लेने का अधिकार नहीं। इसलिए सारे नकारात्मक विशेषण उसपर चिपका दिए जाते हैं। बच्चा न जने तो बाँझ, शादी से पहले कौमार्य न बचे तो कुलटा, पति छोड़ दे तो परित्यक्ता है। सुरक्षा की जकड़बंदी में जीने का सदियों का अभ्यास रहा है उसे।अब स्थितियाँ सिर्फ शिक्षित और जागरूक तबके में नहीं, हर वर्ग में बदली हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज मैं बात करना चाहती हूँ कामगार औरतों के बारे में

सभ्यता के विकास के साथ श्रम का सीधा संबंध रहा है। श्रमशील सभ्यताओं की नींव ही भेदभावपूर्ण है। घर के तमाम कामों को श्रम न मानते हुए मजदूरी के दायरे से बाहर कर दिया गया। यह पितृसत्ता की बढ़त का शुरुआती दौर था। महिलाएँ स्वेच्छा से पुरुष को श्रेष्ठ मानने लगीं। लड़ाइयाँ सेनाएँ लड़ती थीं लेकिन जीत का सेहरा सेनापति या कबीले के सरदार के सिर बँधता। औरतें पुरुषों के अधीन होकर सुरक्षा महसूस करने लगीं। धीरे-धीरे पितृसत्ता के साथ पूँजी का गठजोड़ होता रहा। आगे चलकर पितृसत्ता ने पहले धर्म और बाद में परंपरा का रूप ले लिया, जिसे त्याग, सेवा और कर्तव्य के नाम पर संरक्षण मिला। इससे समाज, सत्ता, पूँजी और विचार के लोकतंत्रीकरण का रास्ता जाम हो गया।

आज समय बदल रहा है। वे श्रमजीवी औरतें, जिन्हें हम रोज़ देखते हैं, जो हमारे आस-पास रहती हैं, हमारे घरों में काम करती हैं, जिनके बारे में कभी कोई अखबार बात नहीं करता, छोटे परदे पर जो कभी अपने संघर्ष की कहानी नहीं सुनातीं पर जो अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए, अपने बच्चों के भविष्य को सँवारने के लिए सुबह से लेकर रात सोने तक लगातार श्रम करती हैं और किसी से शिकायत भी नहीं करतीं। ये हमारे घरों की अन्नपूर्णाएँ हैं- अपने घरों को सँभाल-सहेज कर, बच्चों को स्कूल भेजकर, हम जैसे कई घरों के लिए खाना बनाती हैं, घर की साफ-सफाई करती हैं और पूरे दिन की मशक्कत के बाद, अपने घर लौटकर, कतार में लगकर, दिनभर के इस्तेमाल के लिए नल से पानी भर-भर कर अपने घड़े और ड्रम भरतीं, बारिश के दिनों में अपनी खोली की टपकती छत की मरम्मत करवाती हैं, घर में कोई बड़ा बुज़ुर्ग या बच्चा बीमार हुआ तो अस्पताल-डॉक्टर करती रहती हैं। ….

 

प्रसिद्ध कथाकार सुधा अरोरा

मुंबई में यह एक आम नज़ारा है। आप किसी भी संभ्रांत पॉश इलाके में रहते हों, आपके आसपास एक झुग्गी-झोपड़ी की घनी बस्ती ज़रूर मौजूद होगी जहाँ यह कामगार तबका रहता है। कुछ के पति सामान्य मजदूरी या ड्राइवरी करते हैं। दोनों पति-पत्नी मिलकर अपने बच्चों के लिए एक सुनहरे भविष्य का सपना देखते उन्हें पढ़ाने में जुटे हैं। पढऩे-लिखने की जो सुविधाएँ उन्हें नहीं मिलीं, वे अपने बच्चों को देना चाहते हैं। कभी झुग्गी-झोपडिय़ों में जाकर इन बस्तियों का मुआयना कर आएँ तो एक हैरतनाक समानता पाएँगे। यहाँ कतार में बहुत-से घर ऐसे मिलेंगे जिनमें एक, दो या तीन-चार बच्चों को अकेली औरत पाल रही है। बच्चों को छोड़कर जिनके पति किसी और के साथ रहने चले गए हैं या किसी हादसे या बीमारी का शिकार हो गए हैं या कुछ हैं भी तो दारू और नशे में सारा दिन गुज़ार देते हैं। ये औरतें अकेले अपने दम पर, बिना किसी शिकवा-शिकायत के अपने बच्चों को भरसक एक अच्छा माहौल देने में जी-जान से जुटी हैं।

पिछले साल मार्च के महीने में जब मैं अपनी अग्रज वरिष्ठ रचनाकार मन्नू (भंडारी) के घर गई थी तो वहाँ दो काम करने वाली लड़कियाँ मिलीं। चालीस-बयालीस की उम्र की ऐसी महिलाएँ जिनकी ठसक और बेफ़िक्र खिलखिलाहट को देखते हुए उन्हें लड़कियाँ कहना ही ज़्यादा सही होगा। ये खूब चहकती, गाती, ठिठोली करती थीं। हम चारों ने एक साथ एक फोटो खिंचवाई। मन्नू दी को जैसे ही तस्वीर दिखाई, उन्होंने कहा, ‘इसका शीर्षक दे दो- हम चार परित्यक्ताएँ, बोलने के फौरन बाद वे अटकीं। फिर खुद ही हँसते हुए बोलीं कि इसमें से दो तो परित्यक्ताएँ हैं ही नहीं। उन्होंने तो खुद अपनी मर्जी से पति को छोड़ा है। तो उनके पति परित्यक्त हुए न? …. फिर ऐसा क्यों है कि छोड़े गए पतियों के लिए कोई शब्द गढ़ा ही नहीं गया। अगर कोई औरत किसी पुरुष को छोड़ देती है तो वह परित्यक्त हुआ पर किसी छोड़े गए पुरुष को तो ऐसे विशेषण से नवाज़ा नहीं जाता।…

सुनने में यह एक सामान्य-सी बात लगती है, पर इसके पीछे हमारे भारतीय समाज की कुरीतियाँ और पक्षधरता छिपी हैं। एक लड़की बचपन में अपने पिता के अधीन रहे, पिता न हों तो भाई उसकी देख-रेख करे और शादी के बाद तो वह पूरी तरह पति की संपत्ति बन जाए जिसकी कृपा पर उसे सारी जि़ंदगी काटनी है। एक लड़की या औरत भी हाड़-माँस की इंसान है पर उसे जीने के लिए हमेशा एक बैसाखी की ज़रूरत रहती है। उसका दर्जा दोयम है, उसे कोई निर्णय लेने का अधिकार नहीं। इसलिए सारे नकारात्मक विशेषण उसपर चिपका दिए जाते हैं। बच्चा न जने तो बाँझ, शादी से पहले कौमार्य न बचे तो कुलटा, पति छोड़ दे तो परित्यक्ता है। सुरक्षा की जकड़बंदी में जीने का सदियों का अभ्यास रहा है उसे।अब स्थितियाँ सिर्फ शिक्षित और जागरूक तबके में नहीं,  हर वर्ग में बदली हैं।

आइए, इस श्रमजीवी वर्ग की स्त्रियों की कुछ सच्ची गाथाएँ सुनें –

अन्नपूर्णा
एक अन्नपूर्णा पैंतीस साल से एक ही घर में काम कर रही है। नेपाली लड़की। बेहद खूबसूरत। उसकी खूबसूरती ही उसके जी का जंजाल बन गई। उसके दोनों बच्चे भी मन्नू दी के सामने ही पैदा हुए। घर में चौका बर्तन और रसोई का काम करने वाली अन्नपूर्णा को उसका पति रोज बेबात पीटता था। कभी खाने में नुक्स निकाल कर, कभी पैसे की तंगी पर, कभी उसपर मालिक से संबंध रखने के शक के कारण। बच्चे छोटे-छोटे थे, पति रोज दारू पीता, घर लौटकर अपनी पत्नी को पीट-पीट कर हलकान कर देता। उसका कहना है, ‘रोज मेरे बच्चे सुबकते रहते थे कि पप्पा, माँ को मत मारो पर दारू के बाद आदमी को होश कहाँ रहता है। वह गाड़ी चलाता, मैं घर का काम करती थी। रहने को एक कमरा था। मेरा मरद जैसे ही घर आता, बच्चे कोनों में दुबक जाते थे। आधी-आधी रात को अचानक उठकर सुबकने लगते, ‘बाबा, माँ को मत मारो। बच्चों की पढ़ाई में भी खलल पड़ रहा था। यह रोज का किस्सा था। एक दिन जब वह मेरा गला दबाने लगा और मेरी साँस रुकने लगी, मुझे लगा – किसी दिन गुस्से में यह मुझे मार ही डालेगा।
आखिर तंग आकर छोटे-छोटे दोनों बच्चों को उसने गोद में लिया और निकल गई। जमुना पार की बस में बैठी और सोच लिया कि जाकर दोनों बच्चों समेत यमुना में छलांग लगा देगी। रास्ते में उसके चेहरे पर पता नहीं क्या देखा बच्चों ने कि मां से बोले, ‘माँ, तुम हमको छोड़कर तो नहीं जाओगी न! हम को डर लग रहा है। रोते-रोते उसने बच्चों को भींच लिया और वापस लौट आई। उस दिन मैंने फैसला ले लिया कि बस, अब और नहीं। सोच लिया कि लड़ना है, इस तरह हार नहीं माननी है। मुझे उसका पैसा नहीं चाहिए था। मैंने सोचा कि दो काम और पकड़ लूँगी पर बच्चों को यह नरक झेलने नहीं दूँगी। मरद को मैंने घर से निकाल दिया। कहा, ‘अपना पैसा अपने पास रख। जितनी मर्जी दारू पी। बस, अपने को पाल लेना। मैं दोनों बच्चों को पाल लूँगी।
घर का दरवाज़ा फिर उसके लिए नहीं खुला। उसे सुधारने की कोशिशें करके वह थक चुकी थी। इस बात को बारह साल हो गए। अब बच्चे कॉलेज में पढ़ रहे हैं। अच्छे नंबर लाते हैं। बेटे ने ग्राफिक डिज़ाइनिंग और एनीमेशन का कोर्स किया है और बेटी ने बीकॉम। दोनों अच्छी नौकरी पर लगे हुए हैं। उसके संघर्ष के दिन पूरे हुए। बच्चे कमा रहे हैं और वह खिलखिलाती रहती है। पति कभी याद नहीं आता उसे। जिसने कभी सुख दिया ही नहीं उसे याद क्या करना। आज वह कहती है, तब जि़ंदगी नर्क नज़र आती थी, आज मुझसे कोई पूछे कि स्वर्ग कहाँ हैं तो मैं कहूँगी- यही है मेरा स्वर्ग। एक टेंशन निकल गया तो सारी जि़ंदगी पानी-सी मुलायम हो गई। दीदी, मैं तो अपने बच्चों के साथ जीने का सुख ले रही हूँ। न कोई रोक-टोक करने वाला, न कोई डंडा लेकर सर पे सवार। कभी सोचा ही नहीं था कि ऐसी चैन की जि़ंदगी बसर कर पाऊँगी।
अगर कहीं उस दिन मैं मर गई होती तो कितना बड़ा नुकसान होता, इतने अच्छे प्यारे बच्चे जो आज मुझे देख रहे हैं, जिनकी जि़ंदगी में मेरा बहुत अहम हिस्सा है, यह सब मैं नहीं देख पाती। अपने जि़ंदा होने का जश्न मनाती है वह!

यह कामगार तबके की औरत की कहानी है। मध्यवर्ग की औरत भी इन्हीं हालातों से गुजरती है, पर समाज का डर चूँकि वहाँ ज्यादा है, वह बहुत जल्दी अपने लिए अलग होने का निर्णय नहीं ले पाती और जीवन भर इस चक्की में पिसती रहती है। आर्थिक रूप से वह पति की कमाई पर आश्रित होती है, इसलिए भी उसके लिए सारी विपरीत स्थितियों को झेलना एक विवशता बन जाती है।

पार्वती बाई
मुंबई में पार्वती बाई हमारे यहाँ बीस साल से काम कर रही हैं। गजब की कर्मठ औरत। कन्नड़ भाषी पार्वती बाई आज इस इलाके की पारो मौसी हैं। दस भाई-बहनों का बड़ा परिवार था मैंगलोर के पास एक गाँव में। चौथे नंबर पर पारो थीं। पंद्रह की उम्र में शादी हो गई। उनके पति ईंट ढोने का काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर थे। तीन साल बाद छह महीने का गर्भ था, जब एक दुर्घटना में पति का निधन हो गया। उन पर एक कहर टूट पड़ा। कमज़ोरी की हालत में बेटी जनीं। बड़ी मुश्किल से बेटी बच पाई। मेहनत मजदूरी करके उन्होंने बेटी को पढ़ाने में सारी ताकत झोंक दी। नाते-रिश्तेदारों ने खूब दबाव बनाया कि इतनी कम उम्र में बिना मर्द के इतनी लंबी जि़ंदगी कैसे कटेगी, शादी करके घर बसा लें पर उन्होंने किसी की नहीं सुनी। घर के लोग नाराज़ भी हो गए। बेटी बारहवीं तक पढ़ गई, उसकी शादी हुई और सरकारी बालवाड़ी में उसको बच्चों को पढ़ाने का काम मिल गया।

पारो बाई का देवर भी तीन बेटियों को छोड़कर एक हादसे में गुजर गया। उन तीनों की जिम्मेदारी भी पारो पर आ पड़ी। एक दिन पारो बड़ी मुस्तैदी से ईंट भट्ठे के काम में जुटी थीं। उनके पास ही एक लंबी-सी गाड़ी रुकी जिसे एक महिला चला रही थी। उसने पारोबाई को अपना पता दिया और घर आने को कहा। उनसे ईंट-पत्थर ढोने का काम छोडऩे को कहा और मालिश करने के गुर सिखाए। यहीं से पारो की जि़ंदगी में बदलाव आया और वह अच्छा कमाने लगीं। उन्होंने अपने लिए झोपड़पट्टी में एक घर खरीदा जहाँ उनकी बेटी, दामाद, दो पोतियाँ और एक पोता रहते हैं। अपने इलाके में किसी भी औरत पर जुल्म जबरदस्ती हो तो वह लड़ भिड़ जाती है। वह अपने इलाके की अकेली पंचायत है। सबको अपना हक दिलवाने के लिए जुटी रहती है। पवई इलाके के संभ्रांत घरों में काम करने के लिए ईमानदार कामवालियाँ दिलवाती हैं और जरूरतमंद मुसीबतज़दा औरतों को रोजगार। बेटी दामाद और बच्चे उनके बगैर रह नहीं सकते। अपने काम में कभी एक दिन भी नागा नहीं करतीं। सुबह आठ बजे से उनका काम शुरू होता है और रात आठ बजे तक चलता है। मेहनत-मजदूरी की आदी पारोबाई, दोपहर को सर पर कार्डबोर्ड कार्टनों और रद्दी का ऊँचा अंबार उठाए रद्दी की दुकान तक जाती दिख जाएँगी। अब बूढ़ी हो रही हैं। इधर उनके घुटनों में दर्द रहने लगा है। घुटनों की वजह से ज्यादा चल नहीं पातीं तो ऑटो में आती जाती हैं। मेहनत मशक्कत की इतनी आदत पड़ चुकी हैं कि ऑटो में आने-जाने के चालीस रुपये उन्हें बेतरह खलते हैं और वह चलते चलते बड़े हक से किसी न किसी से बीस रुपये माँग लेती है। वे बीस रुपये उनकी आँखों में हजारों की पगार पाने से ज्यादा चमक पैदा करते हैं क्योंकि यह उन्हें अपने काम का मेहनताना नहीं, अपने सुलूक और ईमानदारी का मुआवजा लगता है।

यही पारो बाई मेरे घर का काम करने के लिए एक और अन्नपूर्णा को लेकर आई थीं जिसने दस साल मेरे पास काम किया। उसकी भी शादी सोलह साल में कर दी गई। पति अच्छा कमाता पर अपनी कमाई में से तीन चौथाई अपनी शराब पर उड़ा देता था, एक चौथाई से किसी तरह घर चलता। मना करती तो बरस पड़ता था कि अपने पैसे की पीता हूँ, तुझे क्या। शादी के पाँच साल में उसकी तीन बेटियाँ हो गईं इस वजह से न तो ससुराल वाले ठीक से बात करते, न पति। बेटियाँ जनने का दारोमदार क्यों औरत पर ही डाल दिया जाता है! तीसरी बेटी अभी छोटी ही थी कि उसे फिर से गर्भ ठहर गया। छठे महीने में पति ने अपने रोजाना की रूटीन में दारू पीने के बाद उसके पेट पर जोर की लात मारी कि तू इस बार भी लड़की जनेगी। जोर की मार से गर्भपात हो गया। पता चला कि जो बच्चा गिर गया वह लड़का था जो पति की मार के कारण जन्म नहीं ले पाया। इस घटना के बाद पति खुद ही घर में उसे तीन बेटियों के साथ छोड़कर चला गया और इसने काम करने के लिए पैर घर से बाहर निकाला। घरों में खाना बनाने का काम किया और अपनी तीनों बेटियों को 12वीं तक पढ़ाया। अच्छे घरों में पढ़े-लिखे लड़कों के साथ सब बेटियों की शादी की। हर बेटी की शादी में पति आया जरूर, पर इसने अपने घर पर उसे ठहरने नहीं दिया। आखिर उसने अपनी बेटियों के लिए और अपने लिए समाज में एक सम्मानजनक स्पेस बनाई।

यह किसी एक अन्नपूर्णा की कहानी नहीं है। झुग्गी-झोपडिय़ों में ऐसी लड़कियों की एक बड़ी जमात है जो अपनी मेहनत से घर चला रही हैं। कोई अगर उनकी तरफ गलत नजर डालता है तो उसको डपट भी देती हैं, अपने सम्मान से समझौता नहीं करतीं और सिर उठाकर जीती हैं। मेरे घर के बाहर के दरवाजे के साथ ही वारली की कलाकृतियाँ लगी हैं। मेरे घर कोई भी आए, इस कला की तारीफ किए बिना नहीं रहता। वारली की ये आकृतियाँ मुझे याद दिलाती है

एक बाइस-तेइस साल की तमिल भाषी लड़की आम्रपाली की, जिसे उसका पति पहली बेटी के प्रसव के बाद उसकी माँ के घर से ले जाने ही नहीं आया और दूसरी शादी कर ली। अब आम्रपाली अपने बच्चे को पालती या कोर्ट कचहरी करती ? मेरी मित्र चैताली गुप्ता इन इलाकों में ऐसी लड़कियों को वारली या मधुबनी आर्ट के अंकन की ट्रेनिंग देती हैं जिनके पास रेखांकन की प्रतिभा है। चैताली गुप्ता पवई में प्रज्ञालय नाम से एक संस्था चलाती है। पाँच बच्चों से शुरू किए गए इस स्कूल में आज डेढ़ सौ बच्चे हैं, जहाँ मैं कभी-कभी कहानी-कविता की वर्कशॉप लेने जाती हूँ।

प्रज्ञालय संस्था में सुधाजी

नौ साल पहले 1 मई 2012  के प्रज्ञालय की एक बैठक में एक दिल दहला देने वाली जानकारी मिली — तमिलनाडु के एक छोटे से गाँव से आई लड़की कलावती ने बताया कि वह आज भी अपनी माँ से कहती है — मेरे जनमते ही मेरे हलक में चावल के दो दाने क्यों नहीं डाल दिए ! मैंने पूछा — चावल के दो दाने, मतलब ? उसने बताया — वहां कन्या नवजात शिशु को पैदा होते ही मार डालने के लिए अनछिले धान के दो दाने बच्चे के गले के भीतर डाल देते हैं . चावल के दाने के ऊपर के छिलके की नोकें पिन की तरह चुभने वाली होती हैं और वे नीचे सरकते हुए  खाद्य नली (food pipe) को चीरती चली जातीं हैं . बच्चे की तत्काल मौत हो जाती है ! नवजात कन्या शिशु की हत्या के दूसरे क्रूर और नृशंस तरीकों में यह एक और … ”

कलावती ने जब अपनी आपबीती के कुछ खौफनाक हादसे हम सब के साथ साझा किये तो मैंने उससे कहा – तुम इतना अच्छा बोल लेती हो, इसे कागज़ पर उतारो ! ….

उसने बहुत तकलीफ से कहा – पर हमें तो न अच्छी हिंदी आती है, न अंग्रेजी !

मैंने कहा – अपनी मातृ भाषा में लिखो !…..

और उसे बेबी हालदार की आत्मकथा “आलो आंधारि”  के बारे में बताया जिसका विश्व की 16 भाषाओँ ( अंग्रेजी , फ्रेंच , पोलिश , रूसी , चेक ,जर्मन , इतालवी समेत ) में अनुवाद हो चुका है ।

… मैं इस घटना को भूल चुकी थी पर कलावती ने इस सलाह पर अमल किया ! उसने कई बार आपबीती लिखने की कोशिश की पर हर बार इसके बारे में सोच कर ही उसकी तबीयत बिगड़ जाती थी ! आखिर उसने दूसरी विधा का चुनाव किया और अपनी मातृभाषा तमिल में कुछ कविताएं लिखीं ! यह किताब चेन्नई से प्रकाशित हुई है !

कलावती अपने काव्य संग्रह मनसुकुल मिनमिनी (मन के भीतर के जुगनू) के साथ

वह अपनी कविताओं की किताब देने अपनी बहन के साथ मेरे घर आई थी !  किताब का नाम है –“मनसुकुल मिनमिनी” (मन के भीतर के जुगनू)  किताब हाथ में लेते हुए उसके चेहरे पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थी ! उसकी पहले की तस्वीर और आज की तस्वीर का फ़र्क़ देख कर आपको भी इस लड़की पर गर्व होगा जो अपनी दोनों बेटियों को अच्छी शिक्षा दे रही है और उनके लिए आगे की राहें आसान कर रही है !

ये सब हमारे समय में हमारे आसपास की रोज की जमात में रोजाना संघर्ष करने वाली लड़ाकू और सिर उठाकर जीने वाली लड़कियाँ हैं।

ये किसी किस्से-कहानी की कल्पित नायिकाएँ नहीं, हाड़-माँस की जीती-जागती महिलाएँ हैं। मैंने तो सिर्फ कुछेक की कथा सुनाई है। यकीन मानें, इनकी कहानियाँ आपको फिल्मों और किताबों में नहीं, आपके अपने घरों में, घरों के आस-पास मिल जाएँगी।

ये परित्यक्ताएँ नहीं, धाकड़ औरतें हैं…, स्वयंसिद्धाएँ हैं।

इन्हें जीने के लिए किसी बैसाखी की ज़रूरत नहीं।

(सुधा अरोड़ा जानी मानी कथाकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं )

sudhaaroraa@gmail.com

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