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आस्था-अविश्वास और थोड़ा सा इतिहास

जो लोग इतिहास को नहीं समझते, वे खुद इतिहास बन जाते हैं। –  राहुल सांकृत्यायन दुनिया के कई देश आपस में भिड़े हुए हैं। कई दूसरे देश अपने लिए वज़नदार दुश्मन देश की तलाश में हैरान-परेशान हैं। पृथ्वी पर जितनी लकीरें खींची गई हैं, उन्हें मिटाने और फिर से नई लकीरें बनाने की कवायद तेज […]

जो लोग इतिहास को नहीं समझते, वे खुद इतिहास बन जाते हैं। –  राहुल सांकृत्यायन

दुनिया के कई देश आपस में भिड़े हुए हैं। कई दूसरे देश अपने लिए वज़नदार दुश्मन देश की तलाश में हैरान-परेशान हैं। पृथ्वी पर जितनी लकीरें खींची गई हैं, उन्हें मिटाने और फिर से नई लकीरें बनाने की कवायद तेज है, जिसमें सबसे अधिक फजीहत इतिहास की है। इतिहास के दोनों पलड़ों पर लगातार भार बढ़ता जा रहा है। इतिहास समय का चलता पहिया है। समय को जानने के लिए, इससे जानना जरूरी है। साथ ही जब चहुंओर इतिहास की पुकार हो रही है, तो क्यों न थोड़ी बात आस्था-अनास्था के बीच फंसे इतिहास की कर ली जाए?

भद्रबाहु, चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक की धम्म सेना

महावीर स्वामी को गए डेढ़ सौ साल हो चुके थे। चंद्रगुप्त मौर्य का सुदृढ़ शासन स्थापित हो चुका था। विश्व विजेता वतन नहीं लौट पाया था। उसे बीच (मिस्र के एलेक्जेंड्रिया) में दफ़न करना पड़ा। दुनिया को जीतने वाले इस बादशाह के कब्र की अता-पता नहीं है। इतिहास वाले कहते हैं कि उसके जाने के बाद उस इलाके को अनगिनत युद्धों से गुजरना पड़ा। उसका कब्र इन्हीं लड़ाइयों में नष्ट हो गया। विश्वविजेता का यह हश्र चंद्रगुप्त मौर्य भी सुन चुका था। बहरहाल, मौर्य वंश सुदृढ़ हो चुका था। चाणक्य राजगुरु के पद पर शोभायमान थे। अपार यश और शक्ति के हासिल हो जाने के बाद भी चंद्रगुप्त को वह खुशी नहीं मिल पा रही थी, जिसका हक़दार वह स्वयं को मान रहा था। राजगुरु से जो परामर्श मिलता, उसमें शौर्य राष्ट्र प्रेम और पुरुषत्व का बखान अधिक होता था। राजा सिकंदर का अंजाम सुन चुका था। उसे राष्ट्र प्रेम और शौर्य में अब क्रूरता और पुरुषत्व में पशुता की गंध आने लगी थी। अपार विजय और झुकी हुई तमाम निगाहें उसे चिढ़ाने-सी लगने लगी थीं। वह साफ महसूस करने लगा था कि उसके आसपास जो लोग हैं उनमें आत्मविश्वास नहीं है। उसके राजा होने ने, लोगों को गुलाम बना दिया है। राजा कुछ विशेष करना चाह रहा था। वह एक विश्वविजेता का हश्र देख चुका था। अब उसका मन जाति गौरव की गाथाओं से ऊबने लगा था। धीरे-धीरे वह विश्वविजय की कामना से दूर होता जा रहा था। राजगुरु की कोप का परवाह न करते हुए, वह धीरे श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के नज़दीक होता जा रहा था। श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु की बातें उसे ठीक जान पड़ने लगी थीं। कभी-कभी वह उनसे जीन स्वामी की चर्चा करने लगता था। राजा के इस स्खलन से राजगुरु चाणक्य कुपित होकर राज्याश्रय छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गए। राजा ने राहत की सांस ली।

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प्रशासनिक अधिकारियों का मनोगत चित्रण करता है सिनेमा

आचार्य भद्रबाहु की संगत रंग लाने लगी। चंद्रगुप्त मौर्य का विश्वास पक्का होने लगा कि जाति और वंश गौरव के साथ-साथ राज्य विस्तार से भी अधिक ज़रूरी है – त्याग, समर्पण और अहिंसा। वह राजा था। राज्य को तबाह करना उसके वश में नहीं था, मगर राज्य का त्याग करना उसके वश में था, उसने राज्य त्याग करके श्रावण वेलगोला की शरण ले लिया। श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु से शिष्यत्व प्राप्त कर वह कैवल्य अर्थात समाधि की चरमावस्था की प्राप्ति के लिए विंध्यगिरि और चंद्रगिरि के संधि स्थल पर जाकर तप करने लगा। अस्त्र-शस्त्र चलाने वाले राजा को इस दशा में जाते देख राजगुरु चाणक्य के क्रोध की सीमा न रही, मगर राजा अब निर्लिप्त योगी बन चुका था। वह क्रोध और प्रेम की सीमा से ऊपर उठ चुका था। वेल का अर्थ- श्वेत और गोला का अर्थ होता है सरोवर। चंद्रगुप्त मौर्य श्वेत सरोवर में लीन होने के लिए सल्लेखना विधि से प्राण त्याग दिया। हिंसा से अर्जित राज्य की इस ऊबन को इतिहास में कम स्थान दिया गया, क्योंकि राज्य त्याग से नहीं हिंसा से संचालित और संरक्षित होते हैं। चंद्रगुप्त के अंतिम दिनों की इस कथा को तमिल ग्रंथ अहनानूर और मुसानूर में पूरे सम्मान के साथ दर्ज़ किया गया है। भाषाई बाधा होने के कारण इन दोनों ग्रंथों का अखिल भारतीय अवगाहन नहीं हो पाया है।

मौर्य वंश का पहला शासक केवल्य के लिए सल्लेखना को अपनाया। वह अहिंसा, राज्य और प्रजा में समीकरण नहीं स्थापित कर पाया, मगर उसका पोता अशोक खूब हिंसा करने के बाद अहिंसा, राज्य और प्रजा में समीकरण स्थापित करने में कुछ हद तक सफल साबित हुआ। उसने प्रजा को धर्म, जाति और क्षेत्र से अलगाकर मात्र लोक के रूप में ग्रहण किया। उसने राज्य को लोककल्याण से जोड़ दिया। ज़मीन और रियासत जीतने वाली सेना को जनता की रक्षा व लोककल्याण के कार्य में लगा दिया। उसने अपने सैनिकों की परिकल्पना धम्म दूत के रूप में की। प्रजा की सेवा और करुणा के विस्तार में लगे ऐसे राज सैनिक दुनिया के इतिहास में कहीं और नहीं दिखाई पड़ते। ईसा के सैकड़ों साल पहले अशोक लोकवादी हो चुका था। राजा रहते हुए वह अहिंसा और करुणा का प्रयोग कर चुका था।

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बनारस का सिपहसालार अबुल हसन और शहजादा औरंगजेब का वह शाही फरमान

औरंगाबाद (महाराष्ट्र) बहुत महत्वपूर्ण जगह है। यहाँ अजंता की गुफाएं, राबिया-उद-दौरानी का मकबरा (औरंगजेब की बेग़म) के साथ-साथ औरंगजेब की कच्ची कब्र और दौलताबाद का किला है। दक्षिण विजय में फंसने के पहले औरंगजेब ने शहजादा रहते हुए बनारस के प्रशासक अबुल हसन को एक शाही फरमान जारी किया था, जो भारत कला भवन (काशी हिंदू विश्वविद्यालय) में अभी भी मौजूद है। इस चिट्ठी का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि इससे यह असहास हो सकेगा कि किसी राजा या प्रशासक के लिए नस्ल, जाति और धर्म के मुद्दे कभी-कभी कितने अहम और ज़रूरी हो जाया करते हैं (और ईमानदारी खुमारी में कितने गैर-ज़रूरी हो जाया करते हैं)। बहरहाल, पहले वह शाही फरमान, जो औरंगजेब ने अबुल हसन को लिखा था- ‘अबुल हसन (बनारस में तैनात सिपहसालार) को यह जानकारी हो… हमारे धार्मिक कानून द्वारा यह निर्णय लिया गया है कि पुराने मंदिर न तोड़े जाएं और नए मंदिर भी न बनें। इन दिनों हमारे अत्यंत आदर्श एवं पवित्र दरबार में यह खबर पहुँची है कि कुछ लोग द्वेष और वैमनस्यता के कारण बनारस और उसके आसपास के क्षेत्रों में कुछ ब्राह्मणों को परेशान कर रहे हैं। साथ ही, मंदिर की देखभाल करने वाले ब्राह्मणों को उनके पद से हटाना चाहते हैं, जिससे उस समुदाय में असंतोष पैदा हो सकता है। इसलिए हमारा यह शाही आदेश है कि फरमान के पहुँचते ही तुम यह चेतावनी जारी करो कि भविष्य में ब्राह्मणों और अन्य हिंदुओं को किसी प्रकार के अन्याय का सामना न करना पड़े। वे सभी शांतिपूर्वक अपने व्यवसाय में लगे रहें और अल्लाह द्वारा दिए गए साम्राज्य (जो हमेशा बरकरार रहेगा) के लिए पूजा-पाठ करते रहें। इसे शीघ्रातिशीघ्र लागू होना चाहिए।’

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खबरों में शीर्षकों का खेल कितना समझते हैं आप? (डायरी 16 मई, 2022) 

तारीख में ऐसे कई वाकये पेश हुए हैं, जब निज़ाम के बदलते ही सियासत की नज़र बदल जाती है। गरीबों का रहबर होने का दावा करने वाला बड़ा ओहदा पाते ही गरीबों का रकीब बन जाया करता है। अब ऐसे धर्मनिरपेक्ष फरमान जारी करने वाले औरंगजेब को ही लें।

सोचा जाना चाहिए कि शाहजादा औरंगजेब ने यह पत्र क्यों लिखा? क्या दाराशिकोह के बरक्स खुद को साबित करने के लिए धर्मनिरपेक्षता का दामन छोड़कर अधिक कट्टर मुसलमान साबित होना सियासी मजबूरी थी !

धर्म और संस्कृति की अर्थव्यवस्था और बाजार राजनीति को भी मजबूर कर दिया करती है। बाद में इसी औरंगजेब ने  जजिया कर लगाया। और मुगल औरतों से बदसलूकी करने वाले अंग्रेजों को माफ किया। दोनों फैसले तत्कालीन थे, मगर तत्कालिकता को भी आने वाले वक्त में अपने गुनाहों के साथ खड़ा होना होता है। साथ ही गुनाहों हिसाब देना पड़ता है। तारीख ऐसे गुनाहों से पटा पड़ा है। नसीहत यह है कि क्षणिक लाभ और हित का भुगतान आने वाली तमाम पीढ़ियों को करना पड़ता है।

पर्ल हार्बर और नागासाकी- बदले की भावना से हालात सँवरते नहीं बिगड़ते हैं

7 दिसंबर, 1941 की सुबह प्रशांत महासागर के बीच एक द्वीप समूह पर्ल हार्बर पर जो हुआ उसकी प्रतिक्रिया ने दुनिया को परमाणु बम के युग में पहुँचने के अभिशप्त कर दिया।

दुनिया दूसरे विश्व युद्ध के जंग में फंसी हुई थी। अमेरीका घोषित रूप से इस युद्ध का हिस्सेदार नहीं था। मगर जापान ने पर्ल हार्बर पर हमला करके उसे औपचारिक रूप से मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। जब तत्कालीन अमेरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट, (जो जापान के इस हमले के चंद घंटे पूर्व अपने विदेश मंत्री कार्डेल के साथ जापान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को खत्म करने की कोशिश कर रहे थे) की ओर से जापान के खिलाफ़ लड़ाई की घोषणा की गई तो यह घोषणा इतिहास के सबसे क्रूर पन्नें के लिखे जाने की घोषणा साबित हुई। अमेरीका में विरोध का स्वर इतना मुखर (विशेषकर राजनीति का) हुआ कि वहाँ सत्ता परिवर्तन हो गया। ट्रूमैन वहाँ के राष्ट्रपति बने। उन्होंने जापान को सबक सिखाने का प्रण लिया, जिसके परिणामस्वरूप क्रमश: छह और नौ अगस्त, 1945 को हिरोशिमा व नागासाकी पर यूरोनियम परमाणु बम गिराए गए। वहाँ की धरती इतनी गरम हो गई लोहे तक पिघल गए। यह मैनहट्टन प्रोजेक्ट के माध्यम से प्राप्त इस तरह के मारक हथियारों का मानव पर पहला प्रयोग था। दोनों शहर नेस्तनाबूद हो गए। बदला लेने इस कारोबार से दोनों देशों को सिवा बर्बादी के कुछ भी हासिल न हुआ। हाँ, लाखों लोगों और कई पीढ़ियों की तबाही के साथ-साथ युद्ध व तबाही वाले हथियारों के बाजार  में आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी अवश्य हुई।

अंत में पूजा स्थल कानून 1991 और उसका हासिल

सन 1991 में बना पूजा स्थल कानून एक बार फिर चर्चा में है। इस पर खूब लिखा जा रहा है। लोगबाग इसे समझने में लगे हैं। इसिलिए इस पर अलग से कुछ खास कहने की ज़रूरत नहीं। अभी इस पर और कहा-सुना जाएगा। बस यह देखे जाने की ज़रूरत है कि इससे जो हासिल होगा, वह क्या होगा और उसकी कीमत किसे चुकानी है साथ ही देश का भविष्य किस करवट बैठेगा। यह समय इस इस देश मनुष्य और धर्म दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस समय को मनुष्य पर धर्म और आस्था के विजय के रूप में प्रस्तावित किया जा रहा है। हालांकि हमारे सामने विश्व विजेता का हश्र, श्रावणवेलगोला में चंद्रगुप्त मौर्य के अंतिम दिन, अशोक की अयुद्ध नीति (धम्म नीति), बनारस के अबुल हसन को औरंगजेब का शाही फरमान, पर्ल हार्बर और नागासाकी जैसे तमाम उदाहरण अपस्थित हैं। इतिहास अपने तईं समझा रहा है, बशर्ते हम उस महीन आवाज़ को सुन सकें!

जनार्दन हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्विविद्याल, प्रयागराज में सहायक प्राध्यापक हैं।

 

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