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भ्रष्टाचार नहीं सामाजिक अन्याय के मुद्दे पर मोदी को घेरे विपक्ष!

2024 के लोकसभा को ध्यान में रखते हुए हाल के दिनों में विपक्षी दलों द्वारा एकजुटता के लिए जो तरह-तरह के प्रयास हो रहे हैं, डीएमके द्वारा प्रायोजित सामाजिक न्याय सम्मलेन अघोषित रूप में उसी कड़ी का हिस्सा है, जिसमें सामाजिक न्याय के मुद्दे पर विपक्षी एकता का खास प्रयास हुआ है। और अगर ऐसा है तो यह 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए बेहद प्रभावी प्रयास है। क्योंकि इस एकजुटता का आधार सामाजिक न्याय का मुद्दा है जो तेजस्वी यादव के शब्दों में \\\'धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की भाजपाई राजनीति का मुंहतोड़ जवाब दे सकता है।

विपक्षी एकजुटता के मौसम में सामाजिक न्याय पर अभूतपूर्व सम्मलेन

गत 3 अप्रैल को दिल्ली में ऑल इंडिया फेडरेशन फॉर सोशल जस्टिस के पहले राष्ट्रीय सम्मलेन का आयोजन हुआ, जिसमें सामाजिक न्यायवादी नेताओं और बुद्धिजीवियों का जुटान हुआ। आयोजकों द्वारा सामाजिक न्याय पर केंद्रित इस सम्मलेन को ऐतिहासिक एवं अभूतपूर्व करार दिया गया, जो बहुत अतिशयोक्ति भी नहीं है। कारण, सामाजिक न्याय पर केन्द्रित शायद यह पहला सम्मलेन रहा, जिसमें 13 राज्यों के 19 राजनीतिक दलों के 23 नेताओं सहित दर्जन भर जाने-माने बुद्धिजीवियों ने हिस्सा किया। महाराष्ट्र सदन में आयोजित इस सम्मलेन का प्रसारण शाम 4.30 से 8.30 बजे तक चला जिसे वेबीनॉर के जरिये देश के विभिन्न अंचलों के हजारों लोगों ने देखा। इस सम्मलेन में जहाँ एमके स्टालिन, फारुख अब्दुल्ला, अशोक गहलोत, वीरप्पा मोइली, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, सीताराम येचुरी, हेमंत सोरेन, बीडी बोरकर, वामन मेश्राम, संजय सिंह, डी. राजा, प्रो. मनोज झा, छगन भुजबल इत्यादि ने सामाजिक न्याय पर जोरदार तरीके से अपनी बात रखी, वहीं बुद्धिजीवियों में दिलीप मंडल, डॉ. अनिल जयहिंद, प्रो. रतन लाल, प्रो. लक्ष्मण यादव, प्रो. सूरज मंडल इत्यादि ने भी संबोधित किया। यह आयोजन सचमुच में अभूतपूर्व व ऐतिहासिक रहा। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सामाजिक न्याय पर चर्चा करने के लिए कांग्रेस, आरजेडी, एसपी, जेएमएम, डीएमके, सीपीएम, बीआरएस, एनसीपी, विकेसी, जेयूएमएल, टीएमसी इत्यादि पार्टियाँ पहली बार एक साथ, एक मंच पर आईं। इतने दलों का सामाजिक न्याय के मुद्दे पर एक मंच पर आना खुद में एक चमत्कार रहा, जिसे घटित करने का श्रेय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, जस्टिस वी. ईश्वरैय्या और  वीरेंदर सिंह यादव तथा सांसद पी. विल्सन को जाता है।

लानी होगी ऐसी व्यवस्था जिसमें आर्थिक, सामाजिक और नौकरियों में बराबर की भागीदारी हो

दरअसल, स्टालिन ने गत 1 मार्च को अपने जन्मदिन के मौके पर विपक्षी दलों की रैली में एकता की भावना की वकालत की थी। उसी के तहत 3 अप्रैल को दिल्ली के महाराष्ट्र सदन में डीएमके द्वारा प्रायोजित ऑल इंडिया फेडरेशन फॉर सोशल जस्टिस के प्रथम राष्ट्रीय सम्मलेन का आयोजन हुआ, जिसमें एससी/ एसटी, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का कार्यान्वयन; न्यायपालिका में आरक्षण; प्रोन्नति में भी ओबीसी को आरक्षण; केंद्र सरकार को जाति आधारित जनगणना कराकर आंकड़ा जारी करना चाहिए; सभी राज्यों में सामाजिक न्याय निगरानी समितियां गठित हों एवं युवाओं में सामाजिक न्याय के बारे में जागरूकता और समझ पैदा करने के लिए पेरियार, बाबा साहेब आंबेडकर और महात्मा ज्योतिराव फुले जैसे सुधारकों के नाम पर 44 स्टडी सर्किल स्थापित करने के लक्ष्य निर्धारित किये गए। इसमें शामिल विभिन्न दलों के नेताओं ने इसी निर्धारित लक्ष्य के पक्ष में अपने-अपने मत रखे। इसमें सामाजिक न्याय की किस शिद्दत से वकालत हुई, इसका अंदाज़ा आम आदमी पार्टी के संजय सिंह के बयान से लगाया जा सकता है। कोई सोच नहीं सकता कि आम आदमी पार्टी की ओर से सामाजिक न्याय पर इतनी जोरदार युक्ति खड़ी है, जिसे संजय सिंह ने पेश किया। उन्होंने कहा कि, ‘जन्म के आधार पर भेदभाव का हमलोग विरोध करते हैं और सामाजिक न्याय का मूल सिद्धांत यही होना चाहिए। बाबासाहेब आंबेडकर ने जो संविधान दिया उसकी भावना, उसकी प्रस्तावना आर्थिक बराबरी (सामाजिक बराबरी) की बात करती है। अगर आजादी के 75 साल बाद भी हाथरस कांड होता है; आजादी के 75 साल बाद भी कर्नाटक में एक एमपी को अछूत होने के नाते गाँव में घुसने नहीं दिया जाता है तो इसका मतलब आज भी सामाजिक न्याय का मुद्दा जिन्दा है और गैर-बराबरी के विरुद्ध हमारी लड़ाई जारी रहेगी। जबतक इस देश में गैर-बराबरी की व्यवस्था है, आरक्षण के जरिये लोगों को न्याय की व्यवस्था चलती रहनी चाहिए। लैटरल इंट्री के जरिये बीजेपी अपने लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठा रही है। रिजर्वेशन सिद्धांत विशेष अवसर का सिद्धांत है, जो पिछड़े हुए शोषित-वंचित लोगों को मिलना ही चाहिए। मैं केजरीवाल के तरफ से कहना चाहता हूँ कि हम जाति जनगणना के पक्ष में हैं और सरकार को यह करनी चाहिए। हम इसकी मांग करते हैं। मौजूदा व्यवस्था को बदलकर ऐसी व्यवस्था लानी होगी जिसमें आर्थिक भागीदारी हो, सामाजिक भागीदारी हो, नौकरियों में बराबर की भागीदारी हो। इस लड़ाई को आप जब-जब आगे बढ़ाएंगे हम सदन से लेकर सड़क तक आपके साथ होंगे।’

इस क्रम में बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा, ‘सामाजिक न्याय के संघर्ष में हमें कई मंजिलें हासिल हुईं, लेकिन अभी भी कई महत्वपूर्ण मुकाम बाकी हैं। इसी के मद्देनजर बिहार में हमारी सरकार ने जातियों की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों की जानकारी के लिए जाति आधारित सर्वेक्षण प्रारम्भ किया है। मेरी अपील है कि कांग्रेस शासित राज्य भी ऐसा करेंगे तो बेहतर समन्वय होगा। भाजपा शुरू से ही आरक्षण और पिछड़ा विरोधी रही है। हमने पिछड़ों की आबादी के अनुपात में यूनिवर्सिटीज, सरकारी नौकरियों एवं केन्द्रीय संस्थानों में हिस्सेदारी तथा निजी क्षेत्र में आरक्षण की सामूहिक मांग रखी।’ तेजस्वी यादव की बात को ही एक तरह से आगे बढ़ाते हुए ‘संविधान बचाओ संघर्ष समिति’ के संयोजक डॉ. अनिल जयहिंद ने कहा, ‘विपक्षी गठबंधन केवल सामाजिक न्याय के मुद्दे पर हो सकती है। इस मुद्दे को पकड़कर ही हम चरम सामाजिक न्यायविरोधी भाजपा को मात दे सकते हैं। कुछ पार्टियाँ सामाजिक न्याय के मुद्दे को दरकिनार कर अडानी और लोकतंत्र बचाने के नाम पर चुनाव लड़ना चाहती है। लेकिन यह भी ध्यान रहे कि मुख्य मुद्दा सामाजिक न्याय रहे। स्टालिन के नेतृत्व में यह गठबंधन बने। सामाजिक न्याय का आखिरी निर्णायक युद्ध लड़ने का समय आ चुका है।’

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स्टालिन ने किया सामाजिक न्याय-समान न्याय और भाईचारे के भारत निर्माण का आह्वान!

सम्मलेन में डीएमके के एमके स्टालिन ने संबोधित करते हुए जो कुछ कहा उसमें इस सम्मलेन के उद्देश्य और निर्धारित लक्ष्य का मुकम्मल प्रतिबिम्बन हुआ। उन्होंने कहा, ‘हमें पूरे भारत में संघवाद, राज्यस्वायत्तता, धर्मनिरपेक्षता, समानता, बंधुत्व, समाजवाद और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए अपनी आवाज उठानी चाहिए। यह एकता की आवाज, गठबंधन की आवाज होनी चाहिए। विचारधारा कितनी भी आदर्शवादी क्यों न हो, उसके सफल होने के लिए विचारधारा को स्वीकार करने वाले दलों के बीच एकता का बहुत महत्व है। ऐसी एकता पर्याप्त नहीं है, यह हर राज्य में होनी चाहिए। यह पूरे भारत के लिए होना चाहिए। यह उस एकता के लिए है, इस तरह के संघ नींव के रूप में काम करेंगे।’ केंद्र सरकार से जाति आधारित जनगणना कराने और आंकड़े जारी करने की मांग करते हुए उन्होंने कहा कि पूरे देश के साथ-साथ राज्यों में भी इसकी निगरानी की जानी चाहिए। उन्होंने खुलकर कहा, ‘भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने बड़ी ‘चालाकी’ से आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से आरक्षण में जोड़ दिया है। वे पहले ही आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण दे चुके हैं। हालांकि यह एक स्थिर मानदंड नहीं है। जो आज गरीब है वह कल अमीर बन सकता है और इसके विपरीत। कुछ लोग अपने पास मौजूद धन को छुपा भी सकते हैं। इसलिए यह सही नहीं है। भाजपा अगड़ी जातियों में गरीबों के बहाने ईडब्ल्यूएस लागू करती है, यह सामाजिक न्याय नहीं है। हम गरीबों और जरूरतमंदों के लिए किसी भी वित्तीय मदद को नहीं रोकते हैं। लेकिन यह आर्थिक न्याय है, न कि सामाजिक न्याय! अगर कोई चीज गरीबों के लिए है, तो क्या यह सभी जातियों के गरीबों के लिए नहीं होनी चाहिए? अगड़ी जातियों के लिए अपवाद क्यों? गरीब उत्पीड़ित जाति के लोगों को ईडब्ल्यूएस के दायरे से बाहर करने के लिए अन्याय है? यही कारण है कि हम ईडब्ल्यूएस का विरोध करते हैं। वे (भाजपा) हमें उस समय में वापस ले जाने की कोशिश कर रहे हैं जब केवल तथाकथित उच्च जातियां ही पढ़ सकती थीं। इसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए। कर्नाटक में आरक्षण के मुद्दे पर स्टालिन ने कहा कि मुसलमानों के लिए 4 प्रतिशत कोटा खत्म कर दिया गया है। उन्हें इसके बजाय ईडब्ल्यूएस में जोड़ा गया है। मुसलमानों के लिए समाप्त किया गया कोटा अन्य दो समुदायों (वोक्कालिगा और लिंगायत) को वहां संबंधित समूहों के बीच दुश्मनी की जमीन तैयार करके दिया गया है। अनुसूचित जातियों के साथ भी भेदभाव किया जाता है। उन्होंने इसे बनाए रखते हुए ऐसा किया है।’

दरअसल, 2024 के लोकसभा को ध्यान में रखते हुए हाल के दिनों में विपक्षी दलों द्वारा एकजुटता के लिए जो तरह-तरह के प्रयास हो रहे हैं, डीएमके द्वारा प्रायोजित सामाजिक न्याय सम्मलेन अघोषित रूप में उसी कड़ी का हिस्सा है, जिसमें सामाजिक न्याय के मुद्दे पर विपक्षी एकता का खास प्रयास हुआ है। और अगर ऐसा है तो यह 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए बेहद प्रभावी प्रयास है। क्योंकि इस एकजुटता का आधार सामाजिक न्याय का मुद्दा है जो तेजस्वी यादव के शब्दों में ‘धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की भाजपाई राजनीति का मुंहतोड़ जवाब दे सकता है। डॉ. अनिल जयहिंद के मुताबिक इस मुद्दे को पकड़कर ही हम चरम सामाजिक न्यायविरोधी भाजपा को मात दे सकते हैं!’ तो क्या 2024 में तेजस्वी और डॉ. जयहिंद यादव के मुताबिक सामाजिक न्याय के मुद्दे पर विपक्ष की एकजुटता उस एकजुटता से ज्यादा कारगर होगी जो मोदी सरकार के भ्रष्टाचार और तानाशाही भरे रवैये के खिलाफ आकार लेती दिख रही है।

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भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझने में सिद्धहस्त हैं मोदी

एकजुटता के मौसम में अगर विपक्षियों की गतिविधियों पर ध्यान दिया जाय तो साफ दिखेगा कि गत 24 जनवरी को अमेरिकी फर्म हिंडनबर्ग रिसर्च की अडानी ग्रुप पर रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद से देखते ही देखते भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। इस बीच अडानी और मोदी के रिश्ते को लेकर सबसे ज्यादा हल्ला बोल रहे राहुल गाँधी के खिलाफ ‘मोदी सरनेम’ मामले में सूरत कोर्ट द्वारा दो साल की सजा सुनाये जाने के फलस्वरूप उनकी संसद से सदस्यता ख़त्म हो गयी है और वे छह साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दे दिए गए हैं। यही नहीं सांसद के रूप में सदस्यता ख़त्म होने के प्रायः संग-संग उन्हें आवास खाली करने का भी फरमान जारी हो गया है। इन सारी बातों का संपर्क अडानी मामले से जोड़ा जा रहा है। देश में यह संदेश जा रहा है कि अडानी मामले में राहुल गांधी संसद में सवाल न उठायें इसलिए ही उनकी सदस्यता ख़ारिज करने की स्क्रिप्ट रची गयी है। इससे लोगों की सहानुभूति उनके प्रति उमड़ी है और अब वे भविष्य के एक बड़े नेता के रूप में लोगों के दिलों जगह बना लिए। किन्तु इतना सब होने के बावजूद वह पूरे जोश के साथ अडानी मामले को उछाल रहे हैं, जिसमें उन्हें विपक्ष का साथ मिल रहा है और विपक्ष अडानी के साथ ईडी और सीबीआई जैसी संस्थाओं के दुरुपयोग को रोकने के लिए एकजुट होता नज़र आ रहा है।

मोदी के कारण ही अडानी का आर्थिक साम्राज्य कुछ ही वर्षों में दुनिया के नंबर दो पायदान पर पहुँच गया हैं, यह सन्देश देश भर में जाते देख भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाकर दिल्ली का सीएम बनने वाले अरविन्द केजरीवाल भी अडानी के खिलाफ संग्राम चलाने में राहुल गाँधी की प्रतिद्वंदिता में उतर आये हैं। और वह वह राहुल से भी कुछ कदम आगे बढ़कर संदेश दे रहे हैं कि मोदी भारत के सबसे भ्रष्ट पीएम हैं। अडानी का सारा पैसा उनका है। अडानी सिर्फ फ्रंट है, जो मोदी का पैसा मैनेज करता है, जिसके बदले उसे दस से पंद्रह प्रतिशत कमीशन मिलता है! केजरीवाल का कहना है कि ईडी और सीबीआई के रेड के जरिये ब्लैकमेल करके फैक्ट्रियां और कंपनिया छिनी जा रही हैं। कुल मिलाकर अडानी को लक्ष्य करके विपक्ष द्वारा मोदी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा खड़ा करने से ढेरों लोगों को लगने लगा है कि देश में वैसे हालात बन गए, जिस हालात में बोफोर्स का मुद्दा उठाकर वीपी सिंह आज के मोदी जैसे शक्तिशाली राजीव गाँधी को सत्ता से बेदखल कर दिए थे। इस कारण ही कुछ पार्टियाँ भ्रष्टाचार नाम पर लामबंद होती दिख रही हैं। पर, क्या वे अडानी मामले को बोफोर्स की भांति सद्व्यवहार कर पायेगी!

यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि मोदी सरकार सत्ता में आने के कुछ वर्ष बाद से ही तरह-तरह के भ्रष्टाचार के आरोप में घिरती रही है। नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विजय माल्या, ललित मोदी काण्ड को लेकर बार-बार विपक्ष भाजपा को घेरता रहा है। आरोप यह भी लगे कि एनडीए के सत्ता में आने के कुछ अंतराल बाद ही अमित शाह के बेटे जय शाह के व्यापार में कल्पनातीत इजाफा हो गया। यही नहीं मोदी राज में आरके राघवन, जस्टिस सदाशिवम, जस्टिस सुनील गौर, केवी चौधरी, राकेश अस्थाना, वाईसी मोदी, वकील यूयू ललित इत्यादि को लेकर भी मोदी सरकार पर उंगलियां उठीं। पर, मोदी सरकार तूफान की तरह आगे बढ़ती ही रही। बड़ा सवाल तो फ्रांस के राफेल डील को लेकर उठा। राफेल सौदा मोदी के लिए बोफोर्स साबित होगा। तब आज ही तरह राहुल गांधी अडानी को लेकर सदन से सड़क तक मोदी को ललकारते दिख रहे हैं। लगता है आज वह राफेल दौर का ही सिन रिक्रिएट किये जा रहे हैं। आज जिस तरह राहुल गाँधी अडानी को लेकर मोदी को ललकार रहे हैं, वैसा ही राफेल घोटाले के प्रकाश में आने के बाद किये थे। किन्तु आक्रमण को बचाव का सर्वोत्तम उपाय मानने वाले मोदी विपक्ष पर ही उल्टा हमला करते हुए सभी आरोपों को झेल लिए और जो विपक्ष का राफेल डील के जरिये बड़ा उलट-फेर करने सपना देख रहा था, उसके मंसूबों पर पानी फेर दिए। अवश्य ही इसमें मीडिया, विविध संवैधानिक संस्थाएं तथा सघ और भाजपा से जुड़े लोग सहायक रहे।

आज मोदी एक बार फिर अतीत की भांति भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आक्रामक हैं और अपनी पार्टी व अवाम को संदेश दे रहे हैं। ‘भ्रष्टाचार में लिप्त नेता एक साथ, एक मंच पर आ रहे हैं और कुछ दलों ने मिलकर ‘भ्रष्टाचारी बचाओ’ अभियान छेड़ा हुआ है। यह शक्तियां किसी भी तरह भारत से विकास का एक खण्ड छीन लेना चाहती हैं। आज भारत का सामर्थ्य अगर फिर बुलंदी की ओर जा रहा है तो इसके पीछे उसकी एक मजबूत नींव है, जो उसकी संवैधानिक संस्थाओं में है। इसलिए आज भारत को रोकने के लिए हमारी इस नींव पर चोट की जा रही है। संवैधानिक संस्थाओं पर प्रहार किया जा रहा है, उन्हें बदनाम करने का अभियान का अभियान छेड़ा जा रहा है। उनकी विश्वसनीयता ख़त्म करने की साजिश की जा रही है। भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों पर जब एजेंसियां कार्यवाही करती हैं तो एजेंसियों पर हमला किया जाता है और जब अदालत कोई फैसला सुनाती है, तो उस पर सवाल उठाये जाते हैं।’ पार्टी और अवाम को संदेश देने के बाद वह सीबीआई के डायमंड जुबली समारोह में संदेश दिये हैं, ‘आप जिनके खिलाफ एक्शन लेने जा रहे हैं, वह बड़े ताकतवर लोग हैं, लेकिन आपको (जांच एजेंसियां) कहीं भी रुकने, हिचकने की जरुरत नहीं हैं।’ पता नहीं सुप्रीम कोर्ट ने मोदी का संदेश सुना या नहीं, किन्तु 5 अप्रैल को ईडी-सीबीआई के दुरुपयोग की याचिका पर फैसला देते हुए लगभग मोदी की ही भाषा में कह दिया- ‘नेता भी आम आदमी है इसलिए अलग से उन्हें कोई छूट नहीं मिलेगी!’ सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद जानकार लोगों का मानना है कि जांच एजेंसिया 2024 के आम चुनाव तक विपक्ष के खास लोगों को आम लोगों की भांति ट्रीट करने में जमकर मुस्तैद रहेंगी!

भाजपाई राजनीति का मुंहतोड़ जवाब है सामाजिक न्याय का मुद्दा

बहरहाल, भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझने की मोदी की सिद्धहस्तता और अडानी मामले से पार पाने की मोदी की तैयारियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि विपक्ष अडानी के भ्रष्टाचार को आधार बनाकर 2024 में फतेह्याबी हासिल नहीं कर सकता। मोदी उसके मंसूबों पर पानी फेर सकते हैं। ऐसे में मोदी को शिकस्त देने के विपक्ष को किसी ऐसे अन्य मुद्दे की तलाश करनी होगी जिसकी मीडिया, संघ के आनुषांगिक संगठनों और संवैधानिक संस्थाओं के समर्थन से पुष्ट मोदी ‘काट’ ना ढूंढ सकें और ऐसा मुद्दा है सिर्फ सामाजिक न्याय का मुद्दा।

2015 में सामाजिक न्याय की राजनीति के जोर से मोदी को शिकस्त देने की मिसाल कायम किये लालू प्रसाद यादव

लालू प्रसाद यादव ने लोकसभा चुनाव 2014 की हार से सबक लेते हुए अपने चिर प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार से हाथ मिलाने के बाद एलान कर दिया ‘मंडल ही बनेगा कमंडल की काट!’ कमंडल की काट के लिए उन्होंने मंडल का जो नारा दिया, उसके लिए आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का प्लान किया। इसी योजना के तहत अगस्त 2014 में 10 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में अपने कार्यकर्ताओं को तैयार हेतु, जुलाई 2014 में वैशाली में आयोजित राजद कार्यकर्त्ता शिविर में एक खास संदेश दिया था। शिविर में उन्होंने खुली घोषणा की था कि सरकार निजी क्षेत्र और सरकारी ठेकों सहित विकास की तमाम योजनाओं में एससी, एसटी, ओबीसी और अकलियतों को 60 प्रतिशत आरक्षण दे। नौकरियों से आगे बढ़कर सरकारी ठेकों तथा आरक्षण का दायरा बढाने का संदेश दूर तक गया और जब 25 अगस्त को उपचुनाव का परिणाम आया, देखा गया कि लालू का गठबंधन 10 में से 6 सीटें जीतने में कामयाब रहा। यह एक अविश्वसनीय परिणाम था, जिसकी मोदी की ताजी-ताजी लोकप्रियता के दौर में कल्पना करना मुश्किल था। इस परिणाम से उत्साहित होकर उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव 2015 को मंडल बनाम कमंडल पर केंद्रित करने का मन बना लिया और जुलाई 2015 के दूसरे सप्ताह में जाति जनगणना पर आयोजित एक विशाल धरना-प्रदर्शन के जरिये बिहारमय एक संदेश प्रसारित कर दिया। उक्त अवसर उन्होंने भाजपा के खिलाफ जंग का एलान करते हुए कहा था- मंडल के लोगों उठो और अपने वोट से कमंडल फोड़ दो। इस बार का चुनाव मंडल बनाम कमंडल होगा। 90 प्रतिशत पिछड़ों पर 10 प्रतिशत अगड़ों का राज नहीं चलेगा। हम अपने पुरुखों का बदला लेके रहेंगे। उसके बाद जब चुनाव प्रचार गति पकड़ने लगा तब संघ प्रमुख मोहन भागवत पहले चरण का वोट पड़ने के पहले आरक्षण के समीक्षा की बात उठा दिए। उसके बाद तो लालू फुल फॉर्म में आ गए और साल भर पहले कही बात को सत्य साबित करते हुए चुनाव को मंडल बनाम कमंडल बना दिए। वह रैली दर रैली यह दोहराते गए, ‘तुम आरक्षण ख़त्म करने की बात करते हो, हम सत्ता में आयेंगे इसे आबादी के अनुपात में बढ़ाएंगे।’ संख्यानुपात में आरक्षण बढ़ाने के लालू यादव के चुनावी मुद्दे की काट मोदी नहीं कर पाए और मंडलवादी लालू-नीतीश दो तिहाई सीटें जीतने में कामयाब रहे।

बलरामपुर में थारू जनजाति के बीच दो दिन

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2015 के बाद देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले यूपी-बिहार में चार चुनाव हुए- 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव, 2019 में लोकसभा चुनाव, 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव और 2022 में फिर यूपी विधानसभा चुनाव। आश्चर्य की बात यह रही कि अज्ञात कारणों से मंडलवादी तेवर से शून्य यूपी-बिहार के बहुजन नेतृत्व ने इन चुनावों में सामाजिक न्याय से जुड़ा मुद्दा जरा भी नहीं उठाया। एक ऐसे दौर में जबकि मोदी सत्ता में आने के बाद राजसत्ता का अधिकतम इस्तेमाल निजीकरण, विनिवेशीकरण और लैटरल इंट्री के जरिये आरक्षण के खात्मे और संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने में कर रहे थे, यूपी-बिहार के बहुजनवादी दल चारों चुनावों में सामाजिक न्याय के मुद्दे से दूरी बनाये रखे, आरक्षण को विस्तार देने वाला मुद्दा उठाया ही नहीं। जबकि इनके समक्ष लालू प्रसाद यादव का दृष्टांत था, जिन्होंने सत्ता में आने पर हर क्षेत्र में बहुजनों को संख्यानुपात में आरक्षण देने का मुद्दा उठाकर मोदी को बिहार में आराम से शिकस्त दे दिया था। इस दौर में डाइवर्सिटीवादी बुद्धिजीवी सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, फिल्म-मीडिया, पार्किंग-परिवहन, पौरोहित्य में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करने की जोर-शोर वकालत कर रहे थे। इस विचार को 2015 में लालू प्रसाद यादव ने कुछ हद तक ग्रहण किया। यदि 2015 के बाद यूपी में मायावती और अखिलेश तथा बिहार में तेजस्वी यादव ने लालू प्रसाद का अनुसरण करते हुए विविध क्षेत्रों में संख्यानुपात में आरक्षण देने का मुद्दा उठाया होता, मोदी की 2019 में न तो सत्ता में वापसी हो पाती और न ही भाजपा अप्रतिरोध्य बनती।

मोदी राज में रचित हुआ सामाजिक अन्याय का विशालतम अध्याय

बहरहाल, 2015 में लालू प्रसाद यादव ने मोदी को तब शिकस्त दिया था, जब वह बेदाग और लोकप्रियता के शिखर पर थे। वह अच्छे दिन लायेंगे, हर वर्ष युवाओं को दो करोड़ नौकरियां देंगे तथा विदेशों से काला धन लाकर हर किसी के खाते में 15 लाख डालेंगे। इसकी उम्मीद बनी हुई थी। तब मोदी अपने सुनहरे उस दौर में भी सामाजिक न्याय के मुद्दे के साथ घुटने टेकने के लिए विवश हुए। किन्तु 2015 से अबतक गंगा-जमुना में ढेरों पानी बह गया है। इस दौरान मोदी वर्ग संघर्ष का खुला खेल खेलते हुए जो कुछ किये हैं, उससे स्वाधीनोत्तर भारत में सामाजिक अन्याय का विशालतम अध्याय रचित हो चुका है। ऐसे हालात में यदि कायदे से सामाजिक न्याय का मुदा उठे तो वह बहुत आसानी से घुटने टेक सकते हैं। ऐसे में 2024 में सामाजिक न्याय के मुद्दे के समक्ष मोदी कैसे असहाय हो सकते हैं, इसे समझने के लिए सामाजिक अन्याय की परिभाषा और इसका इतिहास ठीक से जान लेना होगा जिसके विषय में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले ढेरों नेताओं, एक्टिविस्टों और प्रोफ़ेसर-जज-वकील इत्यादि तक में सुस्पष्ट समझ नहीं है!

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हर शहर में सबसे अधिक उपेक्षित होते हैं रिक्शेवाले

जहां तक सामाजिक अन्याय का सवाल है, इसकी कोई निर्दिष्ट परिभाषा सामने नहीं आई है, किन्तु विभिन्न समाज विज्ञानियों के मुताबिक जाति, नस्ल, लिंग, धर्म, भाषा, क्षेत्रादि के आधार पर विभाजित समाज के विभिन्न सामाजिक समूहों में से कुछेक का शासकों द्वारा शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कार ही सामाजिक अन्याय कहलाता है। अगर शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कार ही सामाजिक अन्याय है तो इस अन्याय के शिकार लोगों को प्रयासपूर्वक शक्ति के स्रोतों में उनकी हिस्सेदारी दिलाना ही सामाजिक न्याय है। इस लिहाज से दुनिया में स्त्री के रूप में विद्यमान आधी आबादी सर्वत्र ही सामाजिक अन्याय का शिकार रही। सर्वाधिक अन्याय के शिकार समुदायों में अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत तथा भारत के बहुजन रहे।

यदि मानव जाति के इतिहास के सर्वाधिक वंचित तबकों-प्राचीन रोम के प्लेबीयन्स-नाइट्स-दास; यूरोप की सामंतवादी व्यवस्था के कृषक दास, अमेरिका-अफ्रीका इत्यादि के अश्वेत, मलेशिया-न्यूजीलैंड-आस्ट्रेलिया इत्यादि के मूलनिवासियों, भारत के दलित-आदिवासी-पिछड़ों इत्यादि की दुर्दशा के मूल में जाएं तो पता चलेगा कि इन सभी में एक खास साम्यता रही। वह यह कि सभी को ही शासकों द्वारा कमोबेश शक्ति के उपरोक्त स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी न देकर ही उन्हें सामाजिक अन्याय का शिकार बनाया गया। सम्पूर्ण इतिहास में जिन्हें शक्ति के स्रोतों से दूर धकेल कर अशक्त बनाया गया, उनमें सर्वाधिक अभागे रहे भारत के बहुजन, विशेषकर दलित। सामाजिक अन्याय का शिकार बनाए गए दूसरे देशों के वंचितों को न तो शिक्षालयों से दूर रखा गया और न ही देवालयों से: राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियाँ भी उनके लिए पूरी तरह निषिद्ध नहीं रहीं। यह दुर्भाग्य एकमात्र दलितों के हिस्से में आया। इस त्रासदी से रोम से लेकर अमेरिका की दास-प्रथा के शिकार बने समस्त श्वेत-अश्वेत, यूरोप की सामंतवादी व्यवस्था के सेर्फ और मार्क्स के सर्वहारा काफी हद तक मुक्त रहे।

बहुजन अगर सदियों तक सामाजिक अन्याय के शिकार रहे तो उसके लिए जिम्मेवार है हिन्दू धर्म का प्राणाधार वह वर्ण-व्यवस्था जो मुखतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही, जिसमें शक्ति के समस्त सिर्फ ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यों के लिए आरक्षित रहे और आज मोदी के लोग हिंदू राष्ट्र के इसी व्यवस्था को नए सिरे से स्थापित करने के लिए प्रयासरत हैं। बहरहाल, पूरी दुनिया में शासकों की साजिश से अशक्त बनाये गए तबकों के पक्ष में लेखक-पत्रकार-साहित्यकार-सोशल एक्टिविस्ट और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने जो अभियान चलाया, उसका चरम लक्ष्य रहा- शक्ति के स्रोतों में उनको वाजिब हिस्सेदारी दिलाना। उनके इस अभियान से आज की तारीख में भारत के शुद्रातिशूद्रों को छोड़कर सामाजिक अन्याय का शिकार बनाए गए विश्व के बाकी समुदायों के जीवन में चमत्कारिक बदलाव आ चुका है। इससे सर्वाधिक उपकृत होने वाले समूहों को यदि चिन्हित किया जाए तो अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के दलित अर्थात काले शीर्ष पर नजर आयेंगे।

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अमेरिका के जो अश्वेत दास-प्रथा से मुक्त होने के सौ साल बाद भी दलितों से कहीं ज्यादा बदहाली में थे, 1970 के दशक में वहां आंबेडकरी आरक्षण से उधार ली हुई सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी पॉलिसी ने उनके जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव ला दिया है। आज अमेरिका में सर्वत्र उनकी हिस्सेदारी दिख रही है। वे फिल्म और टीवी के सितारे हैं, वे बड़े-बड़े उद्योगपतियों में शुमार हैं। वे बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीइओ हैं। नासा से लेकर हार्वर्ड और वालमार्ट से हॉलीवुड, जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां उनकी प्रभावी उपस्थिति न दिख रही हो। इस बीच उनके मध्य का ही एक व्यक्ति अमेरिका का प्रेसिडेंट तक बन चुका का है। जहाँ तक दक्षिण अफ्रीका के गोरों द्वारा शासित मंडेला के लोगों का सवाल है, 1994 में रंग-भेदी सत्ता के अवसान के बाद के दो दशकों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया है। कभी जिन 9-10 प्रतिशत गोरों का वहां शक्ति के स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हुआ करता था, आज वे तमाम क्षेत्रों में अपने सख्यानुपात पर सिमटते जाने से दुखी होकर वहां से पलायन करते जा रहे हैं। गोरों का एकमात्र कब्ज़ा बचा था भूमि पर। किन्तु फरवरी 2018 में दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने एक कठोर निर्णय लेते हुए, जिन 9-10 प्रतिशत गोरों का वहां की जमीन पर 72 प्रतिशत कब्ज़ा था, उसे बिना मुआवजा दिए अपने कब्जे में ले लिया है। अब वह जमीन सदियों के शोषित-वंचित बहुसंख्य कालों के मध्य बांटी जा रही है।

अब जहाँ तक भारत का सवाल है, इस देश में सामाजिक अन्याय के खात्मे और सामाजिक न्याय की स्थापना का काम आंबेडकरी आरक्षण से शुरू हुआ। आंबेडकरी आरक्षण और कुछ नई शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत तबकों को कानून/ संविधान के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का नाम है आरक्षण। इस आरक्षण से सबसे पहले सदियों से बंद पड़े शक्ति के स्रोत मुक्त हुए एससी/ एसटी के लिए। बाद में जब 7 अगस्त, 1990 को प्रकशित मंडल रिपोर्ट के जरिये यही आरक्षण पिछड़ों को सुलभ हुआ, भारत में रचित हो गया सामाजिक न्याय का सुखद अध्याय है। किन्तु ऐसा होते ही आधुनिक भारत में नए सिरे से प्रवाहमान हुई सामाजिक अन्याय की एक नयी धारा, जिसकी सभ्यतर होती आधुनिक दुनिया में कल्पना भी नहीं की जा सकती। मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही हिन्दू धर्म के सुविधाभोगी वर्ग के तमाम तबके- छात्र और उनके अभिभावक, लेखक, कलाकार, साधु-संत, धन्ना सेठ और राजनीतिक दल, सभी अपने-अपने तरीके से उस आरक्षण के खात्मे में जुट गए, जिसके जरिये हजारों साल बाद भारत में प्रवाहमान हुई थी सामाजिक न्याय की धारा। चूंकि कट्टर हिन्दुओं के लिए बहुजनों द्वारा सामाजिक न्याय का भोग अधर्म है, इसलिए इसकी जगह सामाजिक अन्याय की धारा प्रवाहमान करने के लिए हिंदुत्ववादी संघ परिवार ने मंडलवादी आरक्षण की जगह छेड़ा था राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन, जिसकी जोर से आज कायम है उसकी तानाशाही सत्ता।

इस तानाशाही सत्ता के जोर से उसने नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर भारत में सामाजिक अन्याय का सैलाब पैदा कर दिया है। उसके इस लक्ष्य में चैम्पियन बनकर उभरे हैं नरेंद्र मोदी, जिन्होंने सामाजिक न्याय के खिलाफ विनिवेशीकरण को सबसे बड़ा हथियार बनाने वाले भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी तक को पूरी तरह बौना बना दिया है। मोदी ने विगत आठ वर्षों से मंदिर आन्दोलन के सहारे मिली सत्ता का अधिकतम इस्तेमाल आरक्षण के खात्मे तथा बहुसंख्य लोगों की खुशियां छीनने में किया है। इसके तहत ही मोदी राज में श्रम कानूनों को निरंतर कमजोर करने के साथ ही नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा देकर, शक्तिहीन बहुजनों को शोषण-वंचना के दलदल में फंसाने का काम जोर-शोर से हुआ है। बहुसंख्य वंचित वर्ग को आरक्षण से महरूम करने के लिए ही एयर इंडिया, रेलवे स्टेशनों और हास्पिटलों इत्यादि को निजीक्षेत्र में देने की शुरुआत हुई और आज अग्निवीर जैसी योजनाओं की झड़ी लग गयी है। कुल मिलाकर जो सरकारी नौकरियां वंचित वर्गों के धनार्जन का प्रधान आधार थीं, मोदीराज में उसके स्रोत आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने का काम लगभग पूरा कर लिया गया है।मोदी के इन कार्यों से सामाजिक अन्याय का अभूतपूर्व अध्याय रचित हो गया है। ऐसे में जोर गले से कहा जा सकता है कि मोदी के खिलाफ 2015 के मुकाबले आज सामजिक न्याय का हथियार कई गुना प्रभावी हो सकता है।

बहुत आसान है सामाजिक न्याय के नाम पर विपक्ष का एकजुट होना

बहरहाल, सामाजिक न्याय की प्रभावकारिता को देखते हुए यदि विपक्षी एकजुटता का प्रयास होता है तो इसकी सफलता कठिन नहीं होगी। राजद, सपा, बसपा, जेएमएम, डीएमके इत्यादि वैचारिक रूप से सामाजिकता के प्रति प्रतिबद्ध हैं। इस मामले में बड़ी प्रगति भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में भी हुई है। लोकसभा चुनाव 2024 की पृष्ठभूमि में 24 से 26 फरवरी तक रायपुर में जो कांग्रेस का 85वां अधिवेशन हुआ, उसमें इस पार्टी के तरफ से जाति जनगणना, महिला आरक्षण में कोटे के समर्थन के साथ भारत के सबसे बड़े सामाजिक समूह ओबीसी के उत्थान के प्रति समर्पित एक मंत्रालय गठित करने; एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के लिए रोहित वेमुला अधिनियम नामक एक विशेष अधिनियम बनाने; राष्ट्रीय विकास परिषद के तर्ज पर सामाजिक न्याय परिषद गठित करने;  ब्लॉक, जिला, राज्य से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर वर्किंग कमिटी में 50% स्थान दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाओं के लिए आरक्षित करने की प्रतिबद्धता जाहिर की गयी है, जो इसके सामाजिक न्याय के प्रति झुकाव का बड़ा संकेतक है। यही नहीं सामाजिक न्याय सम्मलेन में जिस तरह आम आदमी पार्टी के तरफ से सामाजिक न्याय का समर्थन किया गया है, वह भी एक सुखद संकेत है। बाकी विराट संकट के दौर से गुजर रहे वाम दलों के भी सामाजिक न्याय के नाम पर एकजुट होने के बेहतर आसार हैं। ऐसे में सामाजिक अन्याय का अध्याय रचने में मशगूल मोदी की भाजपा के खिलाफ बड़ी सामाजिक न्याय के नाम पर सहजता से एकजुटता कायम हो सकती है और संविधान बचाओं संघर्ष समिति के संयोजक डॉ. अनिल जयहिंद के मुताबिक इस मुद्दे को पकड़कर विपक्ष चरम सामाजिक न्याय-विरोधी भाजपा को मात दे सकता है।

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2024 में मोदी को पटखनी दे सकते हैं एमके स्टालिन

एकजुटता बनाने में एक बड़ी बाधा नेतृत्व को लेकर पैदा होती है, किन्तु सामाजिक न्याय के नाम पर होने वाली एकजुटता इससे मुक्त रहेगी। कारण, इसके पास एमके स्टालिन जैसा चेहरा होगा जिन्हें ढेरों लोग मोदी का बहुजनवादी विकल्प मानते हैं। स्टालिन ने बमुश्किल दो साल के अपने कार्यकाल में सामाजिक न्याय के प्रति जो प्रतिबद्धता दिखाई है, वह स्थापित बहुजनवादी दलों के सामाजिक न्याय से दूरी बनाते दौर में एक सुखद हवा के झोंके जैसा है। अपने छोटे से कार्यकाल में स्टालिन ने मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को आरक्षण देने, मठो-मंदिरों के जमीन पर शैक्षणिक संस्थान बनाने, प्रोफेशनल कोर्सों में सरकारी स्कूल के छात्रों को 7.5% आरक्षण देने, नीट से बाहर आने, नेशनल मोनेटाईजेशन पर मोदी से अलग राह पकड़ने जैसे साहसिक निर्णय लिए हैं, उससे वह नयी सदी में सामाजिक न्याय के सबसे बड़े नायक के रूप में उभरे हैं। शक्ति के चार स्रोतों में दो- शैक्षिक और धार्मिक,  क्षेत्र में असाधारण निर्णय लेकर वह सामाजिक न्याय के दूसरे नायकों की भीड़ से एक अलग मुकाम बना लिए है। उनके चाहने वालों को लगता है कि वह शासक वर्ग की हर उस साजिश की काट पैदा कर सकते हैं, जो नवउदारवादी नीति के सहारे अंजाम दी जा रही है। यही नहीं साल-डेढ़ साल से ढेरों लोग कहे जा रहे हैं कि स्टालिन ही वह शख्स हैं, जो 2024 में मोदी को पटखनी दे सकते हैं। यही कारण है कि डॉ. अनिल जयहिंद जैसे सामाजिक न्याय के सिपाही खुलकर कह रहे हैं कि स्टालिन के नेतृत्व में ही सामाजिक न्याय पर केन्द्रित गठबंधन बने।

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