Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारलोकतांत्रिक आस्था पर राज्याभिषेक का उत्सव

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

लोकतांत्रिक आस्था पर राज्याभिषेक का उत्सव

गत 23 मई (2023) को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद के नए भवन का उद्घाटन किया। यह भवन पुराने भवन की तुलना में कहीं अधिक ठाठदार है। विपक्ष की अधिकतर पार्टियों ने उद्घाटन कार्यक्रम का बहिष्कार किया। उनका तर्क था कि इस भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को करना था। संविधान के अनुच्छेद 79 […]

गत 23 मई (2023) को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद के नए भवन का उद्घाटन किया। यह भवन पुराने भवन की तुलना में कहीं अधिक ठाठदार है। विपक्ष की अधिकतर पार्टियों ने उद्घाटन कार्यक्रम का बहिष्कार किया। उनका तर्क था कि इस भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को करना था। संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार संसद में राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा शामिल हैं। इस प्रकार, राष्ट्रपति, संसद का हिस्सा होते हैं। उन्हें इस समारोह से बाहर रखना अपने पर हर चीज़ के केंद्र में खुद को रखने की मोदी की प्रवृत्ति का सूचक है।

इस भव्य कार्यक्रम के दो पहलू महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि उसमें बड़ी संख्या में साधु, पंडित और कई मठों के मुखियाओं ने भाग लिए।भगवान शिव और गणेश का आव्हान किया गया और हिन्दू कर्मकाण्ड हुए। यह निश्चित रूप से हमारे देश और संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को क्षति पहुँचाने वाले थे। मोदी ने तमिलनाडु के मयिलादुथुराई के निकट स्थित एक शैव मठ थिरुवदुथुरई अधीनम के प्रतिनिधियों से सेंगोल नामक राजदंड स्वीकार किया। तमिलनाडु के विभिन्न अधीनमों के प्रतिनिधियों और लोकसभा अध्यक्ष के साथ प्रधानमंत्री ने सेंगोल को नए भवन में स्थापित किया।

ऐसा बताया गया है कि यह सेंगोल सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक है। यह चोल राजाओं की परंपरा का भाग है, जिसमें नए राजा को उसकी शक्तियों के प्रतीक के रूप में सेंगोल भेंट किया जाता था। परंपरा के अनुसार राजा अपनी शक्तियां, पुरोहितों के ज़रिये, सर्वशक्तिमान ईश्वर से प्राप्त करता था। प्रधानमंत्री इसी ‘गौरवशाली परंपरा’ को पुनर्जीवित करना चाहते हैं।

हमें यह भी बताया गया है कि देश की स्वतंत्रता के समय लॉर्ड माउंटबेटन ने सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में यह सेंगोल जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था। यह एक मनगढ़ंत कहानी है। कांग्रेस के जयराम रमेश ने एक ट्वीट में कहा, ‘एक राजसी राजदंड, जिसकी परिकल्पना तत्कालीन मद्रास प्रान्त की एक धार्मिक संस्था ने की थी और जिसे मद्रास में बनाया गया था, को अगस्त 1947 में जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया था… परन्तु इसका कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है कि माउंटबेटन, नेहरू या राजाजी ने इस राजदंड को ब्रिटेन से भारत को सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बताया। इस आशय के सभी दावे कोरे और विशुद्ध बोगस हैं। ये दावे केवल कुछ लोगों की दिमाग की उपज हैं, जिन्हें पहले व्हाट्सएप के ज़रिये फैलाया गया और अब सरकार के भाट मीडिया संस्थानों के ज़रिये प्रचारित किया जा रहा है। राजाजी के जीवन और उनके कार्यों के बारे में गहन ज्ञान रखने वाले दो विद्वान अध्येताओं, जिनकी साख पर कभी कोई बट्टा नहीं लगा, ने इस दावे पर आश्चर्य व्यक्त किया है।’

निश्चित रूप से शैव मठ के पंडित की इस भेंट को उनकी और उनकी भावनाओं की क़द्र करते हुए नेहरू ने स्वीकार कर लिया होगा। परन्तु उसे अपने प्रधानमंत्री कार्यालय में रखने की बजाय उन्होंने इलाहाबाद के संग्रहालय में रखवा दिया। नेहरू सहित स्वाधीनता संग्राम के सभी बड़े नेता, राजशाही और राजाओं में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखते थे। वे प्रजातंत्र में आस्था रखते थे, जिसमें जनसामान्य चुनावों के ज़रिये सत्ता अपने नेताओं को सौंपते हैं। प्रजातंत्र में जनता का राज होता है और शक्ति का स्रोत न तो ईश्वर होता है और ना ही उसके प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले पंडित और पुजारी। भारत की शासन व्यवस्था प्रजातंत्र पर आधारित है। प्रजातंत्र का एक मूलभूत तत्व यह है कि शासक (प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति), धार्मिक गुरु (राजपुरोहित) के प्रति जवाबदेह बादशाह नहीं होते। वे जनता और संविधान के प्रति जवाबदेह निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं।

यह भी पढ़ें…

प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में RTE के तहत निजी स्कूलों में आरक्षित सीटों पर हो रही सेंधमारी

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के संस्थापक सीके अन्नादुरै ने सेंगोल को सत्ता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने के खिलाफ एक तीखा लेख लिखा था।उनके अनुसार, ‘आपको (नेहरू) पता है कि प्रजातंत्र के आगाज़ की राह प्रशस्त करने के लिए उन्हें इससे (सेंगोल) से छुटकारा पाना ज़रूरी था। मठों के मुखिया डरे हुए हैं। उन्हें डर है कि आप वही करेंगे, जो आपने सीखा और जाना है। इसलिए वे अपनी रक्षा के लिए स्वर्ण तो क्या नवरत्नों से जड़ा राजदंड भी आपको भेंट कर सकते हैं।’

हिन्दू कर्मकाण्ड को प्रधानता देना भाजपा-आरएसएस के एजेंडे का हिस्सा है। वे हमारे देश के बहुवादी चरित्र को कमज़ोर कर देश पर हिन्दू राष्ट्रवाद को थोपना चाहते हैं। यह हिन्दू राष्ट्रवाद, दरअसल, हिन्दू राजाओं द्वारा स्थापित नियमों और परम्पराओं पर आधारित है। इसे ही उनके चिंतकों ने हिन्दू राष्ट्रवाद का नाम दिया है। यह मात्र संयोग नहीं है कि नए संसद भवन का उद्घाटन विनायक दामोदर सावरकर के 140वें जन्मदिन पर किया गया। सावरकर हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रणेता हैं, जिन्होंने अपनी पुस्तक हिन्दू राष्ट्रवाद ऑर हू इज़ ए हिन्दू में इसे प्रस्तुत किया था। यह पुस्तक धर्म को राष्ट्रवाद का आधार बताती है और ऐसी पहली पुस्तक है जो “द्विराष्ट्र सिद्धांत” की खुलकर वकालत करती है।

मोदीजी ने जो तमाशा किया, उससे जाहिर है कि वे आस्था को संविधान के ऊपर रखना चाहते हैं। उन्होंने घोषणा की ‘आज, भारत पुनः प्राचीनकाल की गौरवशाली धारा की ओर मुड़ रहा है।’ उस ‘प्राचीन गौरवशाली काल’ के मूल्य क्या थे? एक तानाशाह राजा हुआ करता था जो जातिगत और लैंगिक ऊंच-नीच से सराबोर समाज पर शासन करता था। उस ‘गौरवशाली काल’ के नियमों और मान्यताओं को मनुस्मृति में परिभाषित किया गया है। इस पुस्तक को आंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से जलाया था। आंबेडकर के अनुसार, प्राचीनकाल में ऐसी ही पुस्तकों के कारण समाज में दलितों और महिलाओं का दोयम दर्जा था।

यह भी पढ़ें…

उचित नहीं है प्रधानमंत्री द्वारा संसद भवन का उद्घाटन

संघ के चिन्तक इस आयोजन को गौरवशाली बता रहे हैं। उनके अनुसार यह हिन्दुओं की उस गौरवशाली परंपरा को पुनर्जीवित करता है जिसमें धर्म राजनीति से ऊपर था साथ ही राजा का कर्त्तव्य था कि वह धर्म के दिखाए रास्ते पर चले। यह भी कि सेंगोल इसी परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। सरकार का कहना है कि यह राजदंड परंपरा की निरंतरता का प्रतीक और पवित्र संप्रभुता और धर्म के राज को साकार स्वरुप है। आरएसएस के राम माधव के अनुसार (इंडियन एक्सप्रेस, 29 मई, 2023), ‘नए संसद भवन में सेंगोल की स्थापना के समय उसकी ऐतिहासिकता बहस का मुद्दा नहीं हो सकती, बल्कि मुद्दा यह है कि वह ‘धर्मदंड’ है और भारत की सभ्यागत परंपरा में राजनैतिक सत्ता पर नैतिक और आध्यात्मिक की सर्वोच्चता के प्रतीक है।’

वे आगे लिखते हैं, ‘भारत की सभ्यागत परंपरा में राजाओं और बादशाहों को कभी सर्वोच्च सत्ताधारी नहीं माना गया। चाहे वे किसी भी राजचिन्ह को धारण करते रहे हों – मुकुट, राजदंड या स्वर्ण वर्तुल – राजाओं को उनके राजतिलक के समय ही दरबार का पुरोहित याद दिलाता था कि धर्म अर्थात नैतिक-आध्यात्मिक व्यवस्था ही सर्वोच्च प्राधिकारी है।

यह भी पढ़ें…

पर्यावरण दोहन के दौर में केदारनाथ और सुंदरलाल बहुगुणा की याद

एक तरह से यह आयोजन हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की ओर एक और कदम है। इससे यह भी पता चलता है कि मोदी के मन में राजा बनने की कितनी तीव्र अतृप्त इच्छा है। इस कार्यक्रम में राजतंत्र के मूल्यों को आधुनिक वेशभूषा में प्रस्तुत किया गया और धर्म के नाम पर प्रजातान्त्रिक मूल्यों को कुचलने को औचित्यपूर्ण ठहराया गया। इसी तरह की कट्टरता हम इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान में, ईसाई धर्म के नाम पर अमरीका में और बौद्ध धर्म के नाम पर श्रीलंका में देख सकते हैं। जिस समय उद्घाटन का भव्य कार्यक्रम चल रहा था, उसी समय पुलिस प्रजातान्त्रिक ढंग से आन्दोलनरत पहलवानों के साथ बेरहमी से हाथापाई कर रही थी। यह है हमारी सरकार की प्रजातंत्र के प्रति प्रतिबद्धता।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

 

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here