Friday, November 22, 2024
Friday, November 22, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमग्राउंड रिपोर्टबलिया में घाघरा ने दो हजार एकड़ खेत निगल लिया, चुप्पा प्रशासन...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

बलिया में घाघरा ने दो हजार एकड़ खेत निगल लिया, चुप्पा प्रशासन चाहता है कि गाँव डूबें तो हम तीसरी फसल काटें

बलिया जिले में बलिया-सिवान को जोड़ने के लिए घाघरा नदी पर बनने वाले दरौली पुल के कारण बलिया जिले के दर्जनों गाँवों की ज़मीन घाघरा में समाती जा रही है। ग्रामीणों का कहना है कि पुल के निर्माण की जो गाइडलाइन है उसका पालन नहीं किया गया। नदी के ऊपर इसकी अनुमानित लंबाई 1542 मीटर तय थी। इसके अलावा दोनों किनारों को एप्रोच मार्ग से जोड़ा जाना था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अभी तक 1542 मीटर का काम भी अधूरा है।

बलिया जिले में एक गाँव है जिसका नाम है खरीद। यह सिकंदरपुर कस्बे से मनियर जानेवाली सड़क पर बाईं ओर घाघरा के किनारे स्थित है। यह पूरा इलाका ही मध्यकालीन इतिहास के कई अध्याय समेटे हुये है। मसलन सिकंदरपुर का नाम सन 1498 से 1517 तक शासन करनेवाले सिकंदर लोदी के नाम पर पड़ा। पहले इसका नाम गजनफ़राबाद था और यह बंगाल सल्तनत (1352-1576) का हिस्सा था। बंगाल सल्तनत ने खरीद गाँव में खरीद-फौज की स्थापना की थी और खरीद-फौज ने 1529 में बाबर की सेना को हराया था।

इस गाँव के नाम के बारे में प्रचलित किंवदंती के अनुसार, कश्मीर से एक व्यापारी सत्तर ऊँटों पर केसर लाद कर गजनफ़राबाद में बेचने आया था, लेकिन उसने शर्त रखी थी कि सारी केसर एक ही व्यक्ति को बेचूंगा। अब इतनी केसर एक साथ कौन खरीदे। शर्त पूरी न होने से वह झुंझलाया हुआ था और कहने लगा कि बंगाल का बादशाह इतना गरीब है कि मेरी केसर नहीं खरीद सकता। इस बात पर यहाँ के मुख़्तार आजम खान ने सारी केसर खरीद ली। तभी से इसका नाम खरीद पड़ गया। खरीद सिकंदरपुर तहसील का एक परगना भी था।

लेकिन सदियों का इतिहास समेटे खरीद गाँव अब अपना अस्तित्व खोने की कगार पर है, क्योंकि दक्षिण दिशा में तेजी से किनारों को काटती घाघरा नदी अब गाँव से मात्र सौ मीटर दूर रह गई है। किनारे पर कटान के भयावह दृश्य देखकर गाँव वाले इस साल आनेवाले जून महीने की कल्पना करके भयभीत हैं। पंद्रह जून के बाद घाघरा में बेहिसाब पानी बढ़ता है और उस समय क्या होगा, इसकी कल्पना न केवल मुश्किल है, बल्कि डरावनी भी है।

खरीद की ही तरह बगल के ज़िंदापुर, बिजलीपुर, पुरुषोत्तम पट्टी, निपनिया और बहदुरा आदि गाँव भी कटान की चपेट में हैं। इन गाँवों की हजारों एकड़ ज़मीन घाघरा में समा चुकी है। सैकड़ों घर-मकान भी डूब चुके हैं। इन गाँवों के किसान क्षतिपूर्ति और मुआवजे के लिए आंदोलन कर रहे हैं।

पुरुषोत्तम पट्टी गाँव में घाघरा नदी से हुई कटान

बिजलीपुर गाँव के निवासी और सेवानिवृत्त अध्यापक अमरनाथ यादव कहते हैं, ‘यह नदी पश्चिम से पूरब दिशा में बहती थी, लेकिन अब छः साल से उत्तर-दक्खिन हो गई है और हर साल गाँव के और नजदीक आ रही है। क्या पता अब क्या होगा? अगर इसका इंतजाम नहीं हुआ तो हमारा गाँव डूबना तय है।’

भ्रष्टाचार के बहाव ने नदी की धारा मोड़ दी

सदियों से पश्चिम से पूरब दिशा में बहने वाली घाघरा, जो दो राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार का विभाजन करती है तथा जिसे अब आधिकारिक तौर पर सरयू कहा जाने लगा है, पिछले छः सालों से उत्तर से दक्षिण की ओर बहने लगी है। यह दिशा-परिवर्तन प्राकृतिक नहीं बल्कि कृत्रिम है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश और बिहार को जोड़ने वाले खरीद-दरौली सेतु के निर्माण से यह समस्या पैदा हुई है। लंबे समय से इस सेतु के लिए मांग की जा रही थी जिसे 2016 में सपा के शासनकाल में स्वीकृत किया गया।

अमरनाथ यादव

अमरनाथ यादव कहते हैं, ‘दोनों पार के लोगों की आपस रिश्तेदारियाँ हैं, जिसके कारण लोगों का आवागमन बना रहता है। सदियों तक आने-जाने का साधन नाव रही है और बाद में कुछ समय के लिए पीपे का पुल भी बनाया जाने लगा था। लेकिन बाढ़ के समय बहुत मुश्किल होती थी। इसलिए बहुत दिनों से यहाँ एक पक्के पुल की मांग थी।’

2016 में स्वीकृति के तत्काल बाद इसके लिए फंड जारी हो गया और कहा जाने लगा कि 2020 तक यह बनकर तैयार हो जाएगा। हालांकि, 2020 को बीते चार बरस हो चुके हैं और अभी तक सिर्फ कुछ पिलर ही खड़े किए जा सके हैं। योगी सरकार आने के बाद कहा गया कि दिसंबर 2022 तक यह बन जाएगा। इसके बावजूद बात वहीं की वहीं है। कहाँ लोग सपना देखते थे कि इस पार से उस पार आसानी से आ-जा सकेंगे, कहाँ अब यह उन्हीं के जी का जंजाल बन गया। गाँव की आजीविका के सबसे प्रमुख साधन किसानों के खेत कटान की भेंट चढ़ने लगे।

यह पुल उत्तर प्रदेश सेतु निर्माण निगम की संवेदनहीनता, लापरवाही और भ्रष्टाचार का एक जीता-जागता नमूना बन गया है। फंड जारी होते ही आनन-फानन में काम शुरू कर दिया गया, लेकिन किसी भी तरह से परिस्थितियों का अध्ययन नहीं किया गया। ग्रामीणों का कहना है कि पुल के निर्माण की जो गाइडलाइन है उसका पालन नहीं किया गया। नदी के ऊपर इसकी अनुमानित लंबाई 1542 मीटर तय थी। इसके अलावा दोनों किनारों को एप्रोच मार्ग से जोड़ा जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अभी तक 1542 मीटर का काम भी अधूरा है।

नियमानुसार किसी भी पुल का निर्माण करने से पहले इस बात का आकलन किया जाता है कि पुल के खंभे से टकराने वाले पानी का बहाव किस तरह होगा? उसकी दिशा क्या होगी? इसी हिसाब से तय किया जाता है कि पिलर का स्थान कितनी दूरी पर और किस प्रकार का होगा तथा पिलर के लिए बनाए गए गड्ढे की मिट्टी का निस्तारण कैसे होगा?

लेकिन इस पुल के पिलर के लिए जो गड्ढे बनाए गए उनकी मिट्टी को वहीं रहने दिया गया और जब नदी में पानी बढ़ने लगा तब जमा हुई मिट्टी के कारण उसकी धारा बदल गई। ऐसा ही सभी पिलरों के पास था और पिछले छः बाढ़ों में नदी ने पूरी तरह अपनी दिशा बदल दी है। लोग बताते हैं कि उस पार बिहार का सिवान जिला है और उधर मनरेगा के तहत ऊँचे तटबंध बनाए गए हैं, जिसके कारण सारा पानी उत्तर प्रदेश की सीमा की ओर बहता है। पिछले पाँच-छः वर्षों में चार किलोमीटर से अधिक ज़मीन कटी है।

इस कटान का एक और कारण यह है कि उत्तर प्रदेश की ओर, जहां अपेक्षाकृत नीची ज़मीन है वहाँ पहले से तटबंध नहीं बनाए गए थे बल्कि बिहार की ओर से पुल का निर्माण शुरू किया गया। उस ओर बिहार सरकार ने मनरेगा के तहत हर साल तटबंध बनवाए। इस कारण पानी की दिशा दक्षिण की ओर बनती गई। दूसरे पिलरों के निर्माण के लिए जो मिट्टी खोदी गई उसके ढूह भी बनते गए। नदी में भारी मात्रा में सिल्ट जमा होती रही लिहाज़ा उस तरफ से पानी का बहाव विपरीत दिशा की ओर बढ़ता गया और उत्तर प्रदेश की दिशा में बिना किसी नियंत्रण के खेत नदी में समाने लगे।

विजय बहादुर चौधरी

पुरुषोत्तम पट्टी के निवासी और खरीद-दरौली घाट पर स्टीमर का ठेका चलाने वाले भूतपूर्व सैनिक विजय बहादुर चौधरी का कहना है कि सिर्फ पिलर के लिए बनाए गए कुएँ की मिट्टी ही नहीं बल्कि ट्रक, क्रेन आदि के आने-जाने के लिए जो ऊँची सड़क बनाई गई थी वह भी बज्र जैसी हो गई थी और ऊँचाई की तरफ पानी जाने से वह रोकती थी, इसलिए इस तरफ पानी का वेग बढ़ा और कटान शुरू हुआ। साल दर साल निर्माण चलता रहा लेकिन यह सब कभी हटाया नहीं गया। सेतु निगम के अधिकारी इस बात से अनजान नहीं थे कि इसका क्या परिणाम होने वाला है लेकिन पैसा बनाने की हवस ने उन्हें हमारी परवाह न करने दी।’

‘लापरवाही है जहां भ्रष्टाचार है वहाँ।’ यह कहते हुये बलिया जिला संयुक्त किसान मोर्चे के नेता बलवंत यादव ने एक छोटा सा पीडीएफ दिया जो कथित रूप से रुड़की से आए सिंचाई विभाग के एक अधीक्षण अभियंता द्वारा उत्तर प्रदेश राज्य सेतु निर्माण निगम के अधिकारी को लिखे गए पत्र का हिस्सा है। इसमें उन्होंने लिखा है कि ‘निरीक्षण में पाया गया कि ग्राम दरौली के पास आप द्वारा पुल का निर्माण किया जा रहा है। जो बिहार राज्य की ओर से प्रारम्भ किया गया था। पुल के अंतर्गत पीयर्स के निर्माण नदी के मध्य मार्ग में अवरोध एवं कचरा आदि के कारण नदी लगातार धारा में परिवर्तन करने लगी। वर्तमान में नदी निर्मित पीयर्स के बगल से इन ग्रामों की तरफ कटान करते हुये प्रवाहित हो रही है जिससे लगभग 02 किलोमीटर लंबाई में ज़मीन कटान हुई है तथा उपरोक्त वर्णित ग्रामों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ा हुआ है। आने वाले समय में पुल के निर्माण की वजह से इन ग्रामों में अत्यधिक कटान होने की संभावना रहेगी। ग्रामीणों एवं जनप्रतिनिधियों द्वारा सिंचाई विभाग को कटान के संबंध में लगातार अवगत कराया जा रहा है। जबकि नदी के कटान की समस्या निर्माणाधीं पुल की वजह से है।

अतः आपसे अनुरोध है कि पूर्व में निर्मित किए गए पीयर्स के मध्य अवरोध/कचरा की सफाई कराते हुये यदि आवश्यक हो तो गाइड बंड (Guide Bund) का निर्माण कर नदी को पूर्ववत स्थिति में प्रवाहित होने हेतु आवश्यक कार्यवाही करने की कृपा करें, जिससे उपरोक्त ग्रामों में जनधन की हानि से बचा जा सके।’

हालाँकि यह पत्र किसी अभियंता के लेटरपैड पर नहीं है और न ही किसी का नाम और मोहर है, इसलिए इसकी सच्चाई का दावा नहीं किया जा सकता लेकिन अपनी लड़ाई लड़ रहे ग्रामवासियों के लिए यह राहत की बात लगती है कि सिंचाई विभाग के अभियंता ने उनके गाँव का दौरा किया और कटान पर रिपोर्ट दी।

विजय बहादुर चौधरी कहते हैं कि यह रिपोर्ट अभी लिखी गई है लेकिन प्रस्तुत नहीं की गई है।

दो हज़ार एकड़ से अधिक ज़मीन घाघरा निगल गई

सिकंदरपुर और मनियर इलाके के एक दर्जन गाँव घाघरा की कटान से हर साल अपनी ज़मीनें खो रहे हैं। खतौनी और नक्शे के आधार पर अभी इन सबका व्यवस्थित आँकड़ा जुटाया जा रहा है। अनुमानित तौर पर लोग कह रहे हैं कि दो हज़ार एकड़ से भी अधिक ज़मीन नदी में समा चुकी है।

पुरुषोत्तम पट्टी, बिजलीपुर, खरीद के कुल 29 किसानों का आँकड़ा हमें प्राप्त हुआ जिसके अनुसार, सर्वाधिक किसान पुरुषोत्तम पट्टी के हैं। उसके बाद बिजलीपुर और खरीद गाँवों के किसान हैं। पुरुषोत्तम पट्टी के उपेंद्र यादव आदि की दियारा दरौली मौजे की 10 एकड़ और दियारा हरनाटार की 20 एकड़ ज़मीन कटान में चली गई। इसी गाँव के संजय यादव आदि की मौज़ा दियारा हरनाटार की 10 एकड़ और दियारा महाजी काशीदत्त की 20 एकड़ ज़मीन कटान में गई।

पुरुषोत्तम पट्टी के राजदेव आदि की दियारा महाजी काशीदत्त मौजे में स्थित 20 एकड़ ज़मीन कटान में गई। इसी गाँव और मौजे के किसान बाबूनन्द आदि की 5 एकड़ ज़मीन कटान में गई। दियारा महाजी काशीदत्त में स्थित पुरुषोत्तम पट्टी के कृष्णानंद चौधरी और वीरेंद्र चौधरी आदि की छः-छः एकड़ ज़मीन कटान में गई। पुरुषोत्तम पट्टी के मुरलीधर आदि (15 एकड़), राजकुमार आदि (12 एकड़) हरेकृष्ण राम आदि (3 एकड़) भीम (2 एकड़) सुघर (2 एकड़) ललिता (5 एकड़) मदन राजभर आदि (5 एकड़) जितेंद्र यादव आदि (20 एकड़) सत्यादेव आदि (10 एकड़) लललन आदि (10 एकड़) व्यास आदि (10 एकड़) की ज़मीन दियारा हरनाटार में थी, जो कटान में चली गई। इसी मौजे में खरीद गाँव के बब्बन आदि (8 एकड़) सूर्यबली आदि (12 एकड़) ज़मीन कटान में समाई। मौज़ा हरनाटार में बिजलीपुर के निवासी अजय चौधरी (32 एकड़ और लक्ष्मीकान्त (32 एकड़) ज़मीन कटान में गई।

ग्राम बिजलीपुर के सत्यदेव चौधरी आदि की दियारा महाजी काशीदत्त की 20 एकड़ ज़मीन कटी। इसी गाँव के शिवानंद आदि की दियारा दरौली की 26 एकड़ और दियारा हरनाटार की 40 एकड़ ज़मीन कटान में गई। बिजलीपुर गाँव के किसानों की दियारा महाजी काशीदत्त में स्थित रामदेव आदि (20 एकड़), प्रेमशंकर आदि (20 एकड़), विनय कुमार आदि (15 एकड़), राजमोहन आदि (15 एकड़), सत्यदेव चौधरी की (15 एकड़) उपजाऊ ज़मीनें कटान में चली गई।

मौज़ा मनियर टुकड़ा नंबर दो में पुरुषोत्तम पट्टी के जवाहर आदि (15 एकड़), जगदंबा आदि (15 एकड़) , कृष्णानंद चौधरी (20 एकड़) और वीरेंद्र चौधरी की (20 एकड़) ज़मीन कटान में गई। गौरतलब है कि ये ज़मीनें काफी उपजाऊ थीं। गन्ने, सरसों, मटर, गेहूं के अतिरिक्त गर्मी के दिनों में सब्जियाँ, तरबूज और खरबूजे आदि  की फसल बहुतायत होती थी। नदी के किनारे की इन ज़मीनों में पर्याप्त नमी रहती थी।

बलवंत यादव

बलवंत यादव द्वारा उपलब्ध कराये गए आँकड़े के अनुसार उपरोक्त गाँवों की लगभग साढ़े छः से आठ सौ एकड़ ज़मीनें कटान में गई हैं और यहाँ के समृद्ध किसान पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। कई परिवार सड़क पर आ चुके हैं लेकिन उनके पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है।

आंदोलन की राह पर

देखते ही देखते कई गाँव घाघरा की गोद में समा गए। पहले साल इस पर ज्यादा ध्यान नहीं गया लेकिन दूसरे और तीसरे साल जब कटान और भी बढ़ा तब गाँव वालों के कान खड़े हुए। जल्दी ही इन लोगों की समझ में आ गया कि सेतु निर्माण निगम बीच नदी में जिस तरह मिट्टी, कंकड़-पत्थर का टीला खड़ा कर रहा है उसका असर नदी के बहाव पर पड़ रहा है। वे इस टीले को हटाने को तैयार ही नहीं थे। हर साल बाढ़ से पहले काम बंद हो जाता था लेकिन जमा अवशिष्ट हटाया ही नहीं जाता था लिहाज़ा बड़े वेग से पानी उत्तर-दक्षिण बहते हुये किनारे को काटता।

लोग बताते हैं कि नदी अपनी पुरानी जगह से चार-पाँच किलोमीटर दक्षिण आ गई है। बिजय बहादुर चौधरी के मुताबिक, ‘गोपालनगर टाँड़ी, बकुलहा, दंतहा, तिलापुर में इतना भयंकर कटान हुआ है और इतनी उपजाऊ ज़मीनें नदी में चली गईं कि लोग चिंतित हो गए। इसके साथ ही पुरुषोत्तम पट्टी, खरीद, ज़िंदापुर, बिजलीपुर और बहदुरा आदि गाँवों के अस्तित्व पर भी संकट मँडराने लगा। इसके बाद ही हम लोगों ने आवाज उठाना शुरू किया।’

बिजलीपुर गाँव के रामकेश्वर उर्फ भुल्लनजी सीआईएसएफ में कार्यरत हैं और आजकल कश्मीर में पोस्टेड हैं। अपने गाँव से उनका लगाव इतना गहरा है कि हमसे फोन पर बात करते हुये उनकी आवाज भावुकता से छलक रही थी। भुल्लनजी ने पहलकदमी करते हुये ‘जय जवान वसुधैव कुटुंबकम सेवा मिशन’ नाम से संस्था बनाई और सभी प्रभावित गाँवों के लोगों को उससे जोड़ा। शुरू में इसमें मुश्किल से पाँच आदमी जुटे लेकिन जल्दी ही यह संख्या पचास और पाँच सौ तक जा पहुंची। सबका लक्ष्य इस कृत्रिम आपदा से लड़ना और अपने गाँवों को बचाना है।

इसी तरह ‘घाघरा कटान भूमि एवं गाँव बचाओ समिति’ के कार्यकर्ताओं ने कटान रोकने और गांवों में ठोकर अथवा तटबंध बनाने की मांग को लेकर पदयात्रा निकाली। सभी ने संयुक्त रूप से जनसभाएं की। इनमें बहदुरा, निपनिया, बिजलीपुर, ज़िंदापुर, खरीद आदि सभी गांवों के लोग शामिल थे। इन सभी गांवों में जन जागृति पदयात्राएं निकाली गईं।

सिकंदरपुर के विधायक को लिखा गया पत्र।

इसके बाद लोगों ने शासन-प्रशासन और जनप्रतिनिधियों तक आवाज उठाना शुरू किया। लोगों ने सरकार से यह मांग की कि उनके गाँवों में तत्काल तटबंध बनाए जाएँ। एक अन्य रेखांकित पीडीएफ के अनुसार घाघरा नदी के दायें तट पर स्थित ग्रामसभा पुरुषोत्तम पट्टी के सुरक्षार्थ 800 मीटर लंबाई में कटर एवं उनके बीच परक्यूपाइन डालने के लिए कार्य की परियोजना लागत 9 करोड़ 22 लाख तीन हज़ार स्वीकृत किया गया है। इसी तरह गोपालनगर टांड़ी ग्रामसभा में एक किलोमीटर के लिए 9 करोड़ 21 लाख 68 हज़ार, बहदुरा ग्रामसभा में दो किलोमीटर के लिए 3 करोड़ 10 लाख 59 हज़ार भोजपुरवाँ ग्रामसभा में एक किलोमीटर के लिए 11 करोड़ 59 लाख 91 हज़ार तथा खरीद ग्रामसभा में 800 मीटर लंबा कटर और उनके बीच परक्यूपाइन डालने के लिए 9 करोड़ 19 लाख 52 हज़ार की राशि स्वीकृत की गई है। हालाँकि आज तक इस विषय में कोई काम नहीं हुआ है और अब लोगों में यह आशंका गहरा गई है कि पता नहीं यह जून तक हो पाएगा या नहीं।

बलवंत यादव कहते हैं, ‘बलिया में एक तरफ गंगा और दूसरी तरफ घाघरा है और दोनों नदियों से किनारे के गांवों में कटान होता रहा है। यहाँ उत्तरी किनारे पर घाघरा नदी है जिसके कटान में सैकड़ों किसानों घर-दुआर और खेत-खलिहान चले गए और कई साल से वे किनारे पड़े हुये हैं। यहाँ पर अनेक जनप्रतिनिधि हुये हैं और तमाम तरह के रंग की सरकारें आईं, लेकिन उनका किसी तरह का कोई समाधान नहीं हुआ है। जब से दरौली-खरीद पल का निर्माण शुरू हुआ है तब से सेतु निर्माण निगम की अनियमितता और भ्रष्टाचार के चलते यह पूरा कटान हुआ है। आप देख ही रहे हैं कि दो-तीन किलोमीटर का कटान प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ रहा है। इन इलाकों की जितनी भी उपजाऊ ज़मीन थी, वह कटकर घाघरा नदी में चली गई। इसके लिए सबसे बड़ा दोषी सेतु निगम है और दूसरे यहाँ के जनप्रतिनिधि दोषी हैं। वे चाहे विधायक हों, सांसद हों या कोई और हों। उनका काम है कि वे किसानों के ऊपर दमन या आपदा के सवालों को उठाएँ और उनका समाधान कराएं। लेकिन इन लोगों ने अब तक कुछ नहीं किया। कटान पिछले पाँच साल से हो रहा है। हमने उनसे मिलकर ज्ञापन दिया लेकिन हम प्रत्यक्ष रूप से तीन महीने से देख रहे हैं कि अक्टूबर की शुरुआत से जब से हमने इन्हें ज्ञापन देना शुरू किया तब से इन्होंने केवल झूठा आश्वासन दिया।’

आमतौर पर माना जाता है कि यह क्षेत्र समाजवादी पार्टी के प्रभाव का इलाका है। सिकंदरपुर में सपा के ही वर्तमान विधायक ज़ियाउद्दीन रिज़वी हैं। इसी इलाके में समाजवादी पार्टी की सरकारों में बागवानी और खाद्य प्रसंस्करण मंत्री, बालविकास और पोषण एवं बेसिक शिक्षा मंत्री रहे रामगोविंद चौधरी का गाँव गोसाईंपुर भी इसी इलाके में हैं।

बलवंत बताते हैं कि ‘पूर्व विधायक संजय यादव और रिज़वी दोनों ने केवल मामले को टरकाया है, जबकि समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है। दिलचस्प यह है कि रिज़वी ने तो घोषित कर दिया था कि यदि 22 अक्टूबर तक यहाँ तटबंध का निर्माण नहीं होता है तो हम अनिश्चित कालीन धरणे पर बैठेंगे। लेकिन वे 22 अक्टूबर से आज तक कभी दिखाई नहीं दिये।

‘सिकंदरपुर के पूर्व विधायक और भाजपा के वर्तमान जिलाध्यक्ष संजय यादव ने तो सेतु निगम, बाढ़ खंड के अधिकारियों, डी एम, एसडीएम आदि का दौरा कराया और आश्वासन दिया कि नवंबर तक तटबंध बनवा दिया जाएगा लेकिन जनवरी बीतने जा रही है आज तक इस पर कोई काम नहीं हुआ।’

बलवंत कहते हैं कि ‘इन लोगों का कटान रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं है। अगर प्रयास होता तो हमको सड़क पर उतरने की जरूरत ही क्यों पड़ती।’

सैकड़ों ज्ञापनों, पदयात्राओं, मिलने-मिलाने तथा आश्वासन पाने के बावजूद अब तक तटबंध बनने की कोई सूरत नज़र नहीं आती जिससे यहाँ के किसान अब निराश हो चले हैं। हालांकि स्थानीय किसान नेताओं ने अब इसे आंदोलन के तौर पर ले जाने का मन बनाया है। संयुक्त किसान मोर्चे ने एक पदयात्रा की शुरुआत की है और इस क्रम में वे लोगों को समस्या की गंभीरता से परिचित करा रहे हैं। जिले भर के कटान पीड़ित इलाके सिताबदियारा, चाँदपुर दियारा, मझौवाँ दियारा आदि के किसानों को एकजुट करने का लक्ष्य है।’

बलिया संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य संतोष कुमार सिंह का कहना था कि असल में यह कुछ गांवों की समस्या नहीं है बल्कि देश की हजारों समस्याओं का एक हिस्सा है। इसलिए जनांदोलन के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। समस्याएँ अनगिनत हैं। उनको गिनेंगे तो थक जाएंगे, लेकिन वे खत्म नहीं होंगी। जनता को चाहिए कि अपनी समस्याओं को टुकड़े-टुकड़े में न देखे। सबको लेकर संघर्ष करे।’

बलिया जिले के किसान नेता तेजनारायण मानते हैं कि ‘1857 से ही यह क्षेत्र विद्रोह का था, इसलिए इसे बहुत सताया गया। इसलिए इस क्षेत्र के बहुत सारे लोग गिरमिटिया मजदूर होकर चले गए। आज़ादी के बाद भी यहाँ के किसानों की समस्याएँ कम नहीं हुई। फिलहाल, कटान की समस्या तो इतनी भयावह है कि किसानों को सड़क पर बसने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जिनके घर गिर गए हैं, वे सड़क पर ही झोंपड़ी बनाकर रह रहे हैं। उनके पास कुछ रह नहीं गया है। दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए कोई मुआवज़ा भी नहीं मिलता है। कटान के लिए कोई कानून नहीं है।इतनी आबादी विस्थापित हो रही है कि सरकार के पास कोई ज़मीन नहीं है। लेकिन सरकार के पास धन की कमी नहीं है। जो धन है वह अनाप-शनाप कार्यों में लगाया जा रहा है। इसलिए जनता जब तक एकजुट होकर इस समस्या के समाधान के लिए नहीं लड़ेगी तब तक कुछ होनेवाला नहीं है।

फिर भी यह एक विडम्बना ही है कि दर्जन भर गांवों की ज़मीनें के कटान में चले जाने और सैकड़ों किसानों के लगभग पूरी तरह भूमिहीन हो जाने और सड़क पर आ जाने के बावजूद वामपंथी संगठनों ने इस पर कोई पहलकदमी नहीं की। शायद उन्हें किसानों की ओर से गुहार का इंतज़ार हो।

श्रीराम चौधरी

मसलन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के किसान मोर्चा के अध्यक्ष श्रीराम चौधरी कहते हैं कि ‘हम यहाँ के पूर्व प्रधान त्रिलोकी से लगातार बात कर रहे हैं अरे भाई बैठक हो, बातचीत हो। हम सारे लोगों को लेकर अगर बातचीत नहीं करेंगे, आंदोलन की रूपरेखा नहीं तय करेंगे तो उस समय हम क्या करेंगे। हम कुछ नहीं कर सकते।’

चौधरी के मुताबिक, कटान के बारे में जानने पर जब वे एक दिन इधर आए तो देखा कि नदी एकदम गाँव के पास तक आ गई है। वे अपने बगल में बैठे लाल साहब की ओर इशारा करते हुये बोले, ‘तब मैंने इनसे कहा कि अरे यह तो एकदम भयानक स्थिति है। नदी एकदम गाँव तक चली आई है। किसानों और गरीबों की एक बैठक हो, बातचीत हो क्योंकि अभी से अगर इस पर गोलबंदी न की जाएगी तो प्रशासन और सत्ता की जो आदत है कि जब वे गाँव बाढ़ के एकदम चपेट  में आ जाते हैं तब उनकी हवाई यात्रा होती है। तब चलकर कुछ पहलकदमी होती है। हम लोगों के बीच बलवंत जी हैं। इन्होंने कुछ पहलकदमी ली थी। लोगों से मिलना-जुलना, जनसभा आदि कर रहे थे। हमको सूचना मिली थी।’

श्रीराम चौधरी का कहना है कि ‘जब कटान शुरू हो जाएगा तब कुछ नहीं किया जा सकता। उस समय बोल्डर गिराने से और हवाई सर्वेक्षण से कुछ होना नहीं है। यह जरूर होगा कि रिलीफ़ फंड के नाम पर करोड़ों की बंदर-बाँट होगी। कोई भी आपदा आती है तो सरकारें आपदा में अवसर तलाशना शुरू कर देंगी। इसलिए हमलोगों को तत्काल गाँव में बैठक की शुरुआत करनी चाहिए। यह जन आंदोलन का मुद्दा है। यह वर्गीय मुद्दा ही नहीं है। यह सारे लोगों का मुद्दा है।’

लेकिन यह मुद्दा कैसे हल हो इस सवाल पर पुरुषोत्तम पट्टी के ग्राम प्रधान संजय कुमार यादव एक नया सवाल उठाते हैं कि यह किसी का कोई निजी मामला नहीं है और न व्यक्तिगत रूप से इस समस्या का कोई समाधान हो सकता है। इसके लिए हम लोग जनता को जगाने का प्रयास कर रहे हैं। शासन-प्रशासन से गुहार लगा रहे हैं और यह उन्हीं के स्तर का यह काम है। शासन-प्रशासन यदि नहीं चाहेगा तो हम लोग लाख प्रयास कर लें लेकिन क्या हासिल होगा?’

मुआवज़ा नहीं, कटान से सुरक्षित गाँव चाहिए

जब हम इन गाँवों में घूम रहे थे तो आमतौर पर लोग अपनी दिनचर्या में लगे दिख रहे थे, लेकिन जब उनसे कटान के बारे में पूछा गया तो उनके चेहरे पर पिछली स्मृतियों की भयावह छाया उभर आई। बड़ी जोत के किसानों के अलावा इन गाँवों में बड़ी संख्या में भूमिहीन दलितों के परिवार रहते हैं, जिनके पास अपने घर के अलावा कुछ भी नहीं है और वे खेतिहर मजदूर के रूप में अपनी आजीविका कमाते हैं।

घाघरा के किनारे मिली दलित समुदाय की कुछ स्त्रियों ने अपनी व्यथा सुनाते हुए कहा कि अगर गाँव में नदी घुस गई तो हम कहाँ जाएंगे। यह सोचकर हमारी नींद उड़ गई है। वहां मौजूद एक महिला ने कहा कि हमारे लिए तो कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कहाँ जाएंगे। केवल घर बचा है। थोड़ी सी ज़मीन थी वह कटान में चली गई।

एक दूसरी महिला ने कहा कि हम चाहते हैं कि यहाँ ठोकर की व्यवस्था हो ताकि पानी बढ़ने पर ज़मीन कटने से बच जाय। हमारे पास यही इतनी ज़मीन है। इसके अलावा कुछ नहीं है। हमारा यही कहना है कि सरकार कहीं हम लोगों की व्यवस्था करे। हमलोगों की आबादी 500 है। उन सबकी व्यवस्था हो। लेकिन हम लोगों की बात कोई सुन नहीं रहा है। न प्रधान, न विधायक। वोट खातिर प्रधान भी आते हैं और विधायक भी आते हैं लेकिन हमारी कोई बात नहीं सुनता तो फिर हमलोग कहाँ जाएँ।

एक अन्य महिला ने परिचय पूछने पर बताया कि हमारा परिचय यही है कि हम लोगों को कोई जगह चाहिए। बाढ़ आएगी तो हम लोगों के सामने कोई ठिकाना नहीं है कि हम कहाँ जाएंगे।

कटान से होने वाली समस्याओं को बतातीं महिलाएँ

जिनके घर और खेत डूबेंगे उन्हें क्या मिलेगा? यह सबसे बड़ा सवाल है। लेकिन असल में कटान में चले गए खेत के मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं है। सिकंदरपुर तहसील में वकालत करनेवाले दिगंबर इसके कानूनी पहलू को बताते हैं, ‘अब तक यहाँ से जो भी आवाज उठी है उसके समानान्तर न मुआवजे की कोई बात आई है और न ही किसी पुनर्वास की। जनप्रतिनिधियों ने भी किसी तरह का सहयोग नहीं दिया है। यह मामला उलझ गया है और जिस तरह से कटान हो रहा है उसमें गाँवों का भविष्य खतरे में पड़ चुका है। कटान के लिए मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं है। फसल बर्बाद होने या और दूसरी आपदाओं के लिए मुआवजे का प्रावधान है लेकिन यह विडम्बना ही है कि सब कुछ कटान की भेंट चढ़ जाने के बाद भी लोगों के लिए मुआवजे और पुनर्वास का कोई कानूनी प्रावधान है ही नहीं।’

कटान के असर से कोई भी बचनेवाला नहीं है। खरीद गाँव के मंजीत यादव युवा हैं और कहते हैं कि ‘इस पुल का निर्माण होने से पहले हम लोगों का गुजर-बसर अच्छी तरह हो रहा था क्योंकि हमारी ज़मीनें बची हुई थीं। लेकिन सेतु निर्माण निगम के भ्रष्टाचार के चलते अब तो भविष्य अंधेरा हो गया है।’

जब मुआवजे का कोई प्रावधान ही नहीं है तो फिर इन गाँवों के कटान में जाने से किसको क्या मिलेगा? इस सवाल का जवाब बहुत कठिन है। ज़िंदापुर गाँव में दशकों पहले बने घाघरा के छाड़न के किनारे खड़े एक सज्जन ऊंची आवाज में कहते हैं, ‘मुआवज़ा लेकर हम क्या करेंगे? पता नहीं कब और कितना मिले। मिले भी कि न मिले। लेकिन गाँव तो बचाना पड़ेगा। गाँव बचाने के लिए सरकार को ठोकर बनवाना पड़ेगा।’

असल में फिलहाल इसी ठोकर के लिए आवाजें उठी हैं लेकिन प्रशासन कान में तेल डाले बैठा है। जनप्रतिनिधि झूठे वादे करते हैं। इस दौर में जनप्रतिनिधियों के ऊपर भरोसा करना सूरज को जेब में रखने जैसा है फिर भी लोग उम्मीद रखते हैं।

जैसा कि बलवंत कहते हैं कि ‘गंगा और घाघरा जैसी दो बड़ी नदियों के बीच सबसे ज्यादा कटान पीड़ित हैं। लेकिन जनता ने जिन लोगों को नायक माना उनमें से बहुत से नालायक और बहुत से खलनायक हुये हैं। अभी हम लोग एक बार एसडीएम को ज्ञापन देंगे और अनिश्चितकालीन धरने पर बैठेंगे लेकिन नालायकों और खलनायकों को इस चुनाव में हम धूल चटाएँगे।’

इस बात पर शुभेच्छा व्यक्त की जा सकती है और भविष्य की शुभकामनायें दी जा सकती हैं लेकिन कई ऐसे सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब आसान नहीं है। देश में बहुत बड़ा लाभार्थी वर्ग हो चुका है जो कथित रूप से रोज़गार और भागीदारी नहीं अनाज को अनिवार्य मानता है और अनाज देनेवालों को सत्ता सौंप देने की कूवत रखता है। दूसरे यह कि जो कटान में अपने खेत खो रहे हैं उनकी विवशता का अंतिम छोर भी अनाज की अनिवार्यता तक जाता है। ऐसे में यह कल्पना की जा सकती है कि किसी आंदोलन को सफल बनाने के लिए कितना काम करना पड़ेगा। उस समय तो और भी जब जून का महीना किसी भयावह भविष्य की तरह सामने आ रहा है। तब आखिर दसियों हज़ार की यह आबादी कहाँ जाएगी?

लेकिन बलवंत कहते हैं कि अब हमारे सामने लड़ने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। कहीं कोई और ज़मीन नहीं है इसलिए हमें यह लड़ाई जीतनी ही होगी।

यह भी पढ़ें…

बरेली: रामगंगा के कटान से बेघर हुए तीर्थनगर मजरा के ग्रामीण, गांव के लोगों के लिए सपना बना अपना घर

गंगा कटान पीड़ित किसान और उनके हक की लड़ाई

गंगा कटान पीड़ितों की आवाज उठाने के लिए पाँच दिवसीय यात्रा पर निकले मनोज सिंह

छत्तीसगढ़ : हसदेव जंगल काटा जा रहा है, मानव-हाथी संघर्ष के बीच हो रही है मासूम लोगों के मौत

बरगी बांध के विस्थापित गाँव अब दोबारा नहीं चाहते विस्थापन, अब कर रहे हैं चुटका परियोजना का विरोध

रायगढ़ : पेसा कानून को नज़रअंदाज़ करके बन रहा है रेल कॉरिडोर, गाँव वाले इसलिए कर रहे हैं विरोध

रामजी यादव
रामजी यादव
लेखक कथाकार, चिंतक, विचारक और गाँव के लोग के संपादक हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here