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ग्राउंड रिपोर्ट

गैर कांग्रेसवाद के गर्भ से निकली सांप्रदायिक सरकार के मुखिया की हताशा क्या कहती है?

सन 1950 से 1977 अर्थात 27 सालों में जनसंघ को सिर्फ छह प्रतिशत मतदाताओं ने पसंद किया था लेकिन 1963 के बाद डॉ. राम मनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसी राजनीतिक कदम के चलते शिवसेना से लेकर मुस्लिम लीग और जनसंघ जैसे घोर सांप्रदायिक दलों के साथ गठजोड़ की वजह से जनसंघ को बहुत लाभ हुआ। इस लेख में जाने-माने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सुरेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक विरासत के बहाने उनकी हताशा पर बात कर रहे हैं।

वर्तमान चुनाव में भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में सबसे आगे है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नेतृत्व करने वालों में नंबर एक पर नरेंद्र मोदी और नंबर दो पर अमित शाह का नाम है, जिसे देखते हुए मुझे यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा हुई है।

संघ के साथ मेरे जो संबंध थे, उसके बारे में कन्फेशन के लिए भी यह पोस्ट को लिखने को मजबूर हुआ हूँ। बीस साल की उम्र में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल हुआ था और वर्ष 1976 में 23 की उम्र में आपातकाल के कारण जेल भी गया। उसके पहले मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने आपातकाल में भूमिगत रहने के लिए, काफी मदद की थी। उन लोगों ने मेरे खाने-पीने और रहने की व्यवस्था से लेकर तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं को उदारतापूर्वक प्रदान करने की व्यवस्था की।

दरअसल मेरे सार्वजनिक जीवन की शुरुआत भी 12 वर्ष की उम्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने से ही हुई। हालाँकि एक सवाल पूछने की जुर्रत करने पर मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। एक तरह से कुछ समय ही सही लेकिन मैंने संघ का नमक खाया।

संघ के इस फासिस्ट पहलू से पहला परिचय आपातकालीन परिस्थिति में जेल में हुआ, जब श्रीमती इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम को अमल में लाने के लिए और जेल से बाहर निकलने के लिए एक स्ट्रेटजी के नाम पर माफीनामा लिखा गया, जिसमें यह भी लिखा गया कि हमारा जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं है। इस पत्र में झूठी बात अंडरलाइन करके लिखकर दी गई थी।

यह पत्र हूबहू वैसा था जैसा 65 साल पहले सन 1911 में बैरिस्टर सावरकर ने अंग्रेजो को लिखकर कर दिया था, जिसमें लिखा था कि  ‘मैं विनायक दामोदर सावरकर, मुझ जैसे भटके हुए नौजवानों को महामहिम ब्रिटेन की महारानी के साम्राज्य को मजबूत करने के लिए जेल से बाहर निकालने की कृपा कीजिये। निकलने के बाद मैं ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत करने के लिए सर्वस्व लगा दूंगा।’ गौरतलब है कि इस जैसे आधा दर्जन से अधिक माफीनामे वाले पत्र सावरकर के मिले हैं।

आपातकाल के दौरान संघ प्रमुख बालासाहब देवरस के हस्ताक्षरित इस पत्राचार को देखकर मुझे जेल में, संघ के लोगों के पाखंड की बात मालूम हुई। तब से मेरे मन में संघ के लोगों के प्रति घृणा हो गई। तब लगा कि यह लोग स्ट्रॅटेजी के नाम पर दोगलापन करते हुए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। महात्मा गाँधी की हत्या भी इन्हीं लोगों द्वारा की गई होगी, यह धारणा पक्की हो गई।

जनता पार्टी के शासनकाल में (1977-80) नानाजी देशमुख तथा वसंत भागवत जैसे नेताओं से, विदर्भ की लोकसभा की सीटों के बंटवारे को लेकर मेरा झगड़ा तक हो गया था। मुझे तब समझ में आया कि संघ के सर्वोच्च पदाधिकारी हों या साधारण स्वयंसेवक, शाखाओं से निकला हर व्यक्ति मनुष्य नहीं बल्कि रोबोट होता है। ट्रेनिंग देते हुए जैसा प्रोग्राम सेट कर दिया जाता है ये लोग वैसे ही व्यवहार करते हैं।

मेरा यह भ्रम बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के समय पूरी तरह टूट गया। इसके पीछे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की गतिविधियां थीं। गुजरात दंगा भारतीय दंगों के इतिहास का पहला राज्य प्रायोजित दंगा था।  मेरे पास इस बात के सबूत के रूप में पांच किलो से भी अधिक वजन की फाइलें हैं। इन फाइल्स और पेपर्स को देने के लिए, मरने से पहले हमारे सोशलिस्ट पत्रकार मित्र दिगंतभाई ओझा अहमदाबाद से विमान पकड़कर मेरे पास नागपुर आए थे।

उसके बाद मुजफ्फरनगर, मेरठ के दंगों की हरकतें, पुलवामा और नांदेड़, पाटबंधारे नगर स्थित, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक राज कोंडावार के घर में चल रहा बमों का कारखाना, जहां 6 अप्रैल 2006 के दिन तकनीकी गड़बड़ी की वजह से बम विस्फोट हुआ और जिसमें राज कोंडावार के युवा बेटे नरेश के शरीर के चिथड़े-चिथड़े उड़ गए।

इस घटना से ध्यान भटकाने के लिए, दो महीने के भीतर ही (1 जून 2006 की रात को) नागपुर के पुरानी संघ बिल्डिंग महल में तीन बजे तथाकथित फिदायीन हमला तथा उसके बाद 2006 और 2008 के मालेगांव बम विस्फोट। जिनकी जांच मैंने अपने पत्रकार मित्र प्रफुल्ल बिदवई के आग्रह पर की। इन सब घटनाओं के बाद मेरे मन में कोई शक नहीं बचा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए कुछ भी कर सकता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (1940-73) को हिंदू महासभा के रहते हुए भी अपने कब्जे में रहने वाले एक राजनीतिक दल की आवश्यकता महसूस हुई। उन्होंने भारतीय जनसंघ नामक दल की स्थापना 1950 में की। सन 1950 से 1977 अर्थात 27 सालों में जनसंघ को सिर्फ छह प्रतिशत मतदाताओं ने पसंद किया था लेकिन 1963 के बाद डॉ. राम मनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसी राजनीतिक कदम के चलते शिवसेना से लेकर मुस्लिम लीग और जनसंघ जैसे घोर सांप्रदायिक दलों के साथ गठजोड़ की वजह से जनसंघ को बहुत लाभ हुआ। 1967 में संयुक्त विधायक दल की सरकारों का प्रयोग किया गया, जहां सबसे अधिक फायदा जनसंघ को मिला।

1948 में महात्मा गांधी की हत्या की वजह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा अपना मुंह छुपाते थे, जिन्हें डॉ. राम मनोहर लोहिया और 1967 में उनकी मृत्यु के बाद जयप्रकाश नारायण के आंदोलन (1973-75) में शामिल होने की वजह से संघ-जनसंघ को प्रतिष्ठित होने का बहुत बड़ा मौका मिला। आपातकाल और उसके बाद हुए चुनाव के पहले 1977 में जयप्रकाश नारायण ने आग्रह किया कि केंद्र की कांग्रेस सरकार को हटाने के लिए सभी गैरकांग्रेसी दलों को एकजुट होकर एक दल और एक चुनाव चिन्ह पर 1977 का चुनाव लड़ना चाहिए। इस कारण 1 मई, 1977 में दिल्ली के प्रगति मैदान में सोशलिस्ट पार्टी, संगठन कांग्रेस, जनसंघ, चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल तथा जगजीवन राम और एचएन बहुगुणा के दलों को मिलाकर जनता पार्टी की स्थापना की गई थी।

सांप्रदायिक सोच के खिलाफ थे जहीरुद्दीन अली खान

जनता पार्टी ने कांग्रेस को उत्तर भारत में जबरदस्त टक्कर देते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से लेकर, उनके पुत्र संजय गांधी तक को चुनाव में हरा दिया लेकिन जनसंघ तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दोहरी सदस्यता को लेकर सर्वप्रथम चौधरी चरण सिंह ने मोरारजी देसाई सरकार के एक साल बीतने से पहले ही संघ ने जनता पार्टी के रोजमर्रे के काम में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। दोनों के बीच तकरार बढ़ती रही लेकिन मोरारजी भाई ने उसे अनदेखा कर दिया था।

मधु लिमये तथा जॉर्ज फर्नाडिस से मिलकर जनता पार्टी की सरकार गिराने के बाद जनसंघ के पुराने लोगों ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी ने अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए कभी गोहत्या बंदी का आंदोलन किया तो कभी स्थानीय धार्मिक स्थलों को लेकर अभियान चलाया। उदाहरण के लिए 1985-86 में शाहबानो के तलाक के मुद्दे के बाद ‘यह सवाल आस्थाओं का है, कानून का नहीं’ नारा देते हुए उसके इर्द-गिर्द बाबरी मस्जिद-राममंदिर आंदोलन को हवा दी। उसी दौरान दूरदर्शन पर रामानंद सागर का धारावाहिक रामायण चल रहा था। उसके बाद भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से रथयात्राओं की राजनीति शुरू की।

उसी शिला पूजन यात्रा के दौरान 24 अक्टूबर, 1989 को भागलपुर का दंगा किया गया, जिसे देखकर मुझे लगा कि ‘आने वाले पचास वर्षों की भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु सिर्फ सांम्प्रदायिकता के इर्द-गिर्द ही रहेगा’। इसे मैंने लिखा और कम-से-कम सौ से अधिक जगहों पर बोला।

नरेंद्र मोदी के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जमीन तैयार करने में सबसे बड़ी भूमिका लालकृष्ण आडवाणी ने निभाई है इसलिये नरेंद्र मोदी ने उन्हें ‘भारतरत्न’ से सम्मानित किया अन्यथा लालकृष्ण आडवाणी का क्या योगदान है? नरेंद्र मोदी सिर्फ अपने पहले वाले लोगों की बोई हुई लहलहाती फसल काट रहे हैं।

उसके तीन साल बाद 6 दिसंबर, 1992 के दिन बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया गया। लगातार ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के इर्द-गिर्द पैंतीस सालों से तथाकथित आंदोलन करते हुए 27 फरवरी, 2001 को अयोध्या से वापस जाने वाले कारसेवकों से लदी हुई ‘साबरमती एक्सप्रेस’ में  गोधरा स्टेशन पर आग लगा दी गई। ट्रेन की बोगी में 59 लोगों की जलकर मृत्यु होने की खबर सुनते ही नरेंद्र मोदी, गांधीनगर से दो सौ किलोमीटर दूर स्थित गोधरा दौड़कर गए। जहां गोधरा की कलेक्टर जयती रवि की देखरेख में गोधरा स्टेशन पर जली हुई लाशों का पोस्टमार्टम रोककर, 59 अधजली लाशों को विश्व हिंदू परिषद के गुजरात प्रदेश के अध्यक्ष नेतृत्व में खुली ट्रकों पर रखकर अहमदाबाद की सड़कों पर जुलूस निकाला, जिसने लोगों के मन में मुसलमानों के खिलाफ नफरत भड़काने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की है।

मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय धनंजय चंद्रचूड़ के नाम खुला पत्र! 

गुजरात में भीषण दंगा होने के लिए पुलिस-प्रशासन को मंत्रिमंडल की बैठक में नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए खुली छूट देने को कहा और इस बात की जानकारी इस बात को सुनने वाले दो पुलिस अफसरों ने बताई। हरेन पंड्या नाम के मंत्री ने जस्टिस कृष्ण अय्यर कमेटी में शपथ लेकर कहा कि ‘नरेंद्र मोदी ने कॅबिनेट की बैठक में शामिल सभी मंत्रियों तथा पुलिस-प्रशासन के कर्मचारियों से कहा कि कल गुजरात में हिंदू धर्म के लोगों द्वारा जो भी कुछ प्रतिक्रिया होगी, उन्हें कोई भी नहीं रोकेगा।’ और बिल्कुल वही हुआ।

नरेंद्र मोदी ने 28 फरवरी को खुद सेना भेजने के लिए केंद्र को चिट्ठी लिखी थी। केंद्र ने जोधपुर से 3000 मिलिटरी सैनिकों को साठ हवाई जहाज की खेपों से लेफ्टिनेंट जनरल जमीरुद्दीन शाह के नेतृत्व में, अहमदाबाद एअरपोर्ट पर, 28 फरवरी की शाम को उतारी गई लेकिन स्थानीय प्रशासन ने सेना के जवानों को लॉजिस्टिक देने के लिए टाल-मटोल किया। किसके कहने पर स्थानीय प्रशासन असहयोग कर रहे थे? किसी भी जांच आयोग ने इस बात का संज्ञान क्यों नहीं लिया? उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गए एसआईटी ने भी इस मामले की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया? अगर इन सब पहलुओं पर ठीक से कार्रवाई की गई होती, तो नरेंद्र मोदी आज प्रधानमंत्री की जगह जेल में बंद होते। आज नरेंद्र मोदी अपने आप को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा क्लीनचिट देने का दावा कैसे कर रहे हैं?

लेफ्टिनेंट जनरल जमीरुद्दीन शाह रात के दो बजे, अपने साथ लाई गई जिप्सी से, गांधीनगर के मुख्यमंत्री आवास पर पहुंचकर देखा कि भारत के तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नाडिस और नरेंद्र मोदी खाना खा रहे थे। तब जॉर्ज फर्नांडिस ने खुद उठकर लेफ्टिनेंट जनरल जमीरुद्दीन शाह की ओर हाथ हिलाते हुये कहा कि ‘जनरल साहब आप गुजरात को बचाने में मदद कीजिए।‘ जमीरुद्दीन शाह ने कहा कि ‘हमारे 3000 जवान शाम से ही अहमदाबाद एअरपोर्ट पर इंतज़ार कर रहे हैं लेकिन गुजरात सरकार के किसी भी जिम्मेदार अधिकारी ने हमारे फोन का जवाब नहीं दिया। इस कारण मुझे अभी इतनी देर रात लोकल गाइड और ड्राइवर की मदद से मुख्यमंत्री के आवास तक आना पड़ा है। हमने अपनी फ्लाइट से ही देखा कि पूरा गुजरात दंगे की आग में जल रहा है। मुख्यमंत्री जी को कहिए की हमें लॉजिस्टिक दिया जाये। जॉर्ज फर्नांडिस ने जमीरुद्दीन शाह के सामने नरेंद्र मोदी को लॉजिस्टिक देने के लिए कहा लेकिन उसके बावजूद और दो दिनों तक सेना अहमदाबाद के एअरपोर्ट पर पड़ी रही। इसका क्या मतलब है?

भाजपा के लोग सेना के बारे में हमेशा कहते रहते हैं, कि हमारी सेना का मॉरल डाउन नहीं करना चाहिए। लेकिन गौतलब यह है कि स्वयं नरेंद्र मोदी एक तरफ मुख्यमंत्री के नाते गुजरात के दंगों को रोकने के लिए भारत सरकार को पत्र लिखकर सेना भेजने के लिए कह रहे हैं और दूसरी तरफ उसी सेना को अहमदाबाद एअरपोर्ट में दो दिन तक रोके हुये हैं। क्या सेना के मॉरल के लिए यह बहुत अच्छा व्यवहार था? उसके बाद गुजरात में क्या हुआ था? यह पूरे विश्व को मालूम है। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के दंगों को देखने के बाद, नरेंद्र मोदी को कहा कि ‘आपने राजधर्म का पालन नही किया।‘

इसके जवाब में नरेंद्र मोदी ने कहा कि साहब मैं वही तो कर रहा हूँ। नरेंद्र मोदी ने किस राजधर्म का पालन किया? क्या 27 फरवरी को गोधरा में 59 अधजली लाशों को खुले ट्रकों पर लादकर 28 फरवरी को अहमदाबाद की सड़कों पर जुलूस निकालना या कॅबिनेट की बैठक में पुलिस-प्रशासन तथा अपने मंत्रियों को गुजरात में जो भी कुछ होगा उसे रोकने से मना करना, राजधर्म का पालन था?

उसी दंगे के बाद 56 इंची छाती वाले नरेंद्र मोदी ने 44 इंच की बनियान पहन खुद को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ के रूप में प्रोजेक्ट करते हुए भारत के प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया। दस सालों के कार्यकाल में चंद धन्नासेठों की तिजोरियों के भरने के अलावा और कोई काम नहीं किया। उल्टा तथाकथित चुनावी बॉंड के नाम पर अपने दल को हजारों करोड़ रुपये का चंदा वसूलने के लिए  ईडी, सीबीआई तथा रिजर्व बैंक से लेकर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया तथा अन्य सरकारी बैंकों को जोर-जबरदस्ती से इस गोरखधंधा करने को बाध्य किया है। सबसे हैरानी की बात जिनसे चंदा लिया गया उन्हें कैसे-कैसे कांट्रेक्ट दिए गए हैं? यह बात सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद पता चली।

यही बात मैं विगत 35 वर्षों से, भागलपुर दंगों का 1989 का हाल देखकर बोल-लिख रहा था लेकिन हमारे कई साथियों को अतिशयोक्ति लग रही थी। मैंने कहा था कि ‘आनेवाले 50 साल की भारतीय राजनीति के केंद्र में सिर्फ और सिर्फ साम्प्रदायिकता का मुद्दा रहेगा, और लोगों के रोजमर्रा के सवाल उपेक्षित हो जाएंगे और कम-से-कम पच्चीस साल में हमारे बेरोजगारी, विस्थापन, शिक्षा, स्वास्थ, पर्यावरण, गैरबराबरी, महंगाई, महिलाओं तथा दलितों के, आदिवासियों के अन्याय-अत्याचार सब कुछ दोयम दर्जे के मुद्दे हो जायेंगे और सिर्फ सांम्प्रदायिकता का मुद्दा केंद्र में रहेगा।’ लेकिन उस समय हमारे मुद्दों को लेकर काम करने वाले किसी भी साथी को यह बात समझाने में मैं नाकामयाब रहा। इसका मुझे रह-रहकर अफसोस है।

कांग्रेस ने ही बोए थे भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने वाले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बीज

जिस संघ परिवार ने आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया। संविधान स्वीकार नहीं किया! गरीबी, बेरोजगारी, आदिवासियों तथा दलितों, मजदूरों तथा किसानों के बारे में कुछ भी नहीं किया लेकिन आज वही राजनैतिक रूप से हावी हो गये हैं। बेशर्मी का आलम यह है कि वर्तमान प्रधानमंत्री अपने दस सालों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री की दो-दो पारियाँ पूरी कीं। अपने कार्यकाल में क्या काम किया? इस पर एक शब्द से नहीं बोल पाते हैं। चुनावी भाषणों में कांग्रेस पर तरह-तरह से आरोप लगा रहे हैं। कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में लिखी बातों को गलत तरीके से पेश कर रहे हैं। ऊलजलूल बातें फैला रहे हैं।

मतलब नरेंद्र मोदी ने मान लिया है कि आने वाले चुनावों के बाद कांग्रेस सत्ता में आ रही है। अपने हर भाषण में उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद क्या काम किया? यह कहना छोड़कर कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र तथा विरोधी दलों के नेताओं के खाने-पीने की बात, वह भी गलत तरीके से पेश कर रहे हैं, जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के देश के प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता है।

 

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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