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आत्ममोह और आत्मप्रचार में डूबे लेखक आलोचना को निंदा समझते हैं!

बंगला साहित्य जिस तरह से नक्सल चेतना से भरा पूरा था वैसा हिंदी साहित्य में नहीं हुआ (बातचीत  का तीसरा हिस्सा) आलोचना का काम होता है- रचना को लोकप्रिय बनाना। उसके आशयों की मीमांसा करना और उसके सौन्दर्य को अनावृत और रूपायित करना, लेकिन कुछ आलोचक ऐसी आलोचना करते हैं  जो रचना को अपनी व्याख्या […]

बंगला साहित्य जिस तरह से नक्सल चेतना से भरा पूरा था वैसा हिंदी साहित्य में नहीं हुआ

(बातचीत  का तीसरा हिस्सा)

आलोचना का काम होता है- रचना को लोकप्रिय बनाना। उसके आशयों की मीमांसा करना और उसके सौन्दर्य को अनावृत और रूपायित करना, लेकिन कुछ आलोचक ऐसी आलोचना करते हैं  जो रचना को अपनी व्याख्या से क्लिष्ट बनाते हैं और इस तरह क्या यह  आलोचना पाठकों को रचना से दूर करने का काम नहीं करती? आलोचना केन्द्रित छत्तीसगढ़ मित्रजैसी पत्रिका निकालने वाले  माधवराव सप्रे का समालोचना के बारे में कहना था कि समालोचक शब्द का अर्थ यद्यपि बहुत अच्छा है  परंतु साधारणतः कई लोग उससे  बुरा अर्थ लेते हैं। कहते हैं किसी के छिद्र ढूंढ़ना और समालोचना करना एक बराबर है। चाहे जैसा हो, कोई भला कहे कोई बुरा, जो  काम हाथ में लिया है उसको अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक-ठीक कर देना ही समालोचक का काम है।…विद्वानों का यह काम नहीं है कि  केवल दोष प्रकाशित करने में कमर बाँध लें। यदि पुस्तक में कुछ गुण हों  तो उसका भी विचार करना चाहिए। समालोचक को उचित है  कि वह गुण-दोष सप्रमाण सिद्ध करे।लेकिन मौजूदा दौर की आलोचना में गुण-दोष नहीं बताए जा रहे बल्कि पुस्तकों पर फतवे दिए  जाते हैं या तो उसकी प्रशंसा में सारी सीमाएं लांघ दी जाती हैं या फिर उसे खारिज करने का कुचक्र रचा जाता है। अधिकांश हिन्दी  पत्रिकाओं की समीक्षाएं कुछ  इसी तरह की अथवा कराई जा रही हैं। इससे क्या आलोचना विधा को नुकसान नहीं हो रहा है?

मार्कण्डेय की सम्पूर्ण कहानियाँ

हिन्दी आलोचना की एक दिक्कत इसका विश्वविद्यालयी तंत्र तक सिमट कर रह जाना है। उपन्यास आलोचना को अकादमिक  फ्रेम से बाहर निकलकर जिस तरह ‘रीडर फ्रेंडली’ होना चाहिए वैसा नहीं हो पा रहा है। आलोचना के  लिए प्रायः जो नीर क्षीर विवेक,  वैश्विक परिप्रेक्ष्य और अखिल भारतीय दृष्टि होनी चाहिए वह कठोर तैयारी व अध्यवसाय के बिना संभव नहीं है। फिर भी कुछ लोग इस दिशा में प्रयत्नशील हैं । उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य बेहतर होगा। यह अच्छा है कि ‘तद्भव’, ’पहल’ और ‘पक्षधर’ सरीखी  पत्रिकाएं दृश्य पटल पर उपस्थित हैं, जहाँ विस्तृत विमर्श की सम्भावना बरकरार हैं।

पिछले कुछ वर्षों से आलोचना विधा को खारिज करने का कुचक्र रचा जा रहा है। कोई आलोचक की तुलना झोलाछाप डॉक्टर से  कर रहा है तो कोई उसे जोकर कह रहा है तो किसी का कहना है कि आलोचक उसका ग्राउंड समझ ही नहीं सकता। आलोचक अथवा  आलोचना विधा पर सवाल उठाने वाले इन लोगों की बातों का क्या आशय निकाला जाए?

दरअसल आत्म प्रचार और आत्म मोह के इस दौर में कुछ लेखक आलोचना कर्म को प्रचार-प्रसार तक सीमित कर देना चाहते  हैं। जिस आलोचक ने उनकी पुस्तक की प्रशंसा कर दी वह सबसे बड़ा आलोचक और जिसने उसे प्रश्नांकित कर दिया वह शत्रु। इसी  प्रवृत्ति के चलते कुछ बड़बोले लेखक आलोचना कर्म को ही खारिज करने लगते हैं जबकि सच यह है कि आलोचना रचना केन्द्रित  होकर  भी अपनी प्रकृति में स्वायत्त है, वह लेखक की मुखापेक्षी न होकर कृति केन्द्रित होती है। कई बार लेखक को स्वयं ही न तो  अपनी रचना की शक्ति का अहसास होता है न सीमा का। आलोचक का दायित्व रचना के मर्म को उद्घाटित करने के साथ-साथ  उसकी सार्थकता और प्रासंगिकता को भी उद्घाटित करना होता है। लेखक और आलोचक के बीच मुठभेड़ का रिश्ता न होकर  वाद-विवाद-संवाद का होना चाहिए।

समाजवादी ध्रुव के  पराभव का हिन्दी की रचनाशीलता पर क्या असर पड़ा? क्या इससे विदेशी साहित्य से हिन्दी के लेखकों का  संवाद कम हुआ है?

समाजवादी देशों के  पराभव से यूं तो कोई सीधा असर हिन्दी साहित्य पर नहीं दिखता। यह जरूर है कि एक स्वप्नदर्शी आदर्श  तिरोहित हुआ। यूं भी लाल सूरज, गर्म नारों और रक्तरंजित रचनाओं का दौर पहले ही नक्सलबाड़ी के  अवसान के साथ समाप्त हो चुका  था। सोवियत संघ के पराभव के  साथ उस दौर के समाजवादी साहित्य की उपलब्धता तो प्रभावित होनी ही थी, लेकिन अन्य विदेशी  साहित्य की उपलब्धता तो वैश्वीकरण के दौर में बेहतर ही हुई है। आनलाइन खरीद और इंटरनेट ने इसे और सुगम बनाया है।

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एक लेखक अथवा आलोचक को बनाने में जगह की क्या भूमिका होती है। क्या बड़े महानगरों और साहित्य की राजधानियों  (दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, पटना आदि) में बसना रचनाशीलता के विकास, उसके प्रभुत्व अथवा लेखकीय तमगे के लिए  आवश्यक है?

एक लेखक-आलोचक का बड़े शहर या साहित्यिक गहमा-गहमी के  बीच रहना एक माहौल तो प्रदान करता है, लेकिन कई बार वह नकारात्मक भी सिद्ध होता है। दिल्ली जैसी साहित्यिक राजधानी इसकी जीवंत मिसाल है। मुझे लगता है कि लोभ-लाभ से मुक्त  रहकर गंभीर काम के लिए लखनऊ, इलाहाबाद या बनारस सरीखे शहर कोई बाधा नहीं हैं, लेकिन कभी-कभी अच्छे पुस्तकालय की  जरूरत महसूस होने पर दिल्ली की सुविधाएँ जरूर याद आती हैं।

हिन्दी प्रदेशों  की साक्षरता 64 प्रतिशत के  करीब है। देश के दस बड़े समाचार पत्रों में सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले हिन्दी के  तीन समाचार पत्र हैं, जिनकी प्रसार संख्या चार करोड़ से भी अधिक है। इसके  बावजूद हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाएं दो से चार हजार तक  छपती हैं। हिन्दी की किताबों के महज चार-पांच सौ के संस्करण छपते हैं । इतने का ही दूसरा संस्करण आने पर लेखक खुशी मनाते हैं, लेकिन क्या इस पर सोचने की आवश्यकता नहीं है कि हिन्दी का मध्यवर्ग काफी हद तक अनपढ़हैं । उसकी पढ़ने-लिखने में नाम मात्र  की दिलचस्पी नहीं है।

हाँ, यह चिंता की बात है कि हिन्दी भाषा और क्षेत्र की व्यापकता के बावजूद साहित्य के  पाठकों का दायरा बढ़ने के  बजाय  सिकुड़ रहा है। अखबारों में साहित्य का स्पेस कम से कमतर होता जा रहा है। ‘हंस’ सरीखी स्टाल पर उपलब्ध पत्रिका अधिकतम दस  हजार की प्रसार संख्या तक सीमित है तो ‘तद्भव’ महज तीन-चार हजार तक। गनीमत है कि अब प्रकाशकों ने एक-दो संस्करण के  बाद बिकने वाली पुस्तकों के  पेपर बैक छापने शुरू किए हैं। शहरों में पुस्तक मेले के  चलन से भी स्थिति कुछ सुधरी है। स्वीकार करना  होगा कि अब गंभीर साहित्य कुछ हजार लोगों के बीच पढ़ने-पढ़ाने के शगल तक सीमित होकर रह गया है। दुर्भाग्यपूर्ण होना है बावजूद यह आज का सच है जिसे स्वीकार करना होगा। किताबों का मध्यवर्ग की जीवनचर्या से बाहर होना एक सचाई है, जिसका  दुष्परिणाम एक खाए, अघाए और सुखजीवी वर्ग के  रूप में हमारे सामने है।

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कारपोरेट घरानों ने मीडिया घरानों पर लगभग कब्जा कर लिया है। इन मीडिया घरानों की वजह से एक नए तरह की भाषा का  जन्म हुआ है, जिसे हिंग्लिश कहा जा रहा है। यही हिंग्लिश शहरी मध्यवर्ग की भाषा है। वह हिन्दी को बिसराता जा रहा है वहीं गांव  और कस्बों में लोग हिन्दी को अब भी अपनाए हुए हैं। इसकी व्यापकता और वैविध्य का दूसरा बड़ा आधार इसकी बोलियां हैं। इसके  बावजूद हिंग्लिश के  बढ़ते प्रयोग के  मद्देनजर क्या हिन्दी का भविष्य खतरे में  नहीं  है?

हिन्दी भाषा का पारम्परिक स्वरूप बाजार और अंग्रेजी की प्राथमिक शिक्षा के चलते बदल अवश्य रहा है, लेकिन यह भी सच है  कि बाजार के ही चलते आज हिन्दी अखिल भारतीय स्तर पर जनसंवाद की भाषा के रूप में भी स्वीकृत  हुई है। राजनीति में भी अखिल  भारतीय के  लिए गैरहिन्दी क्षेत्रों के नेता भी हिन्दी में संवाद को जरूरी समझते हैं । इसलिए मुझे नहीं लगता कि भाषा के रूप में हिन्दी  का भविष्य खतरे में है। हाँ, हिन्दी का परिष्‟त और साहित्यिक स्वरूप अब अवश्य सिमटता जा रहा है।

[bs-quote quote=”यह सचमुच दिलचस्प है कि ‘1857’ पर मेरे लेख को लेकर राजेन्द्र यादव और मुझे एक साथ जातिवादी कहा गया क्यों कि हम  दोनों ने 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या जनक्रांति न कहकर इस अवधारणा को प्रश्नांकित किया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

भूमंडलीकरण की नीतियां लागू हुए 25 वर्ष बीत गए, जिस पर पिछले दिनों कुछ पत्रिकाओं ने विशेष सामग्री प्रकाशित की। इन  नीतियों ने देश को दो हिस्सों-अमीर भारत और गरीब भारत में बाँट दिया है। अमीर भारत और अमीर होता जा रहा है और  गरीब भारत  और गरीब होता जा रहा है। आप इस संबंध में क्या सोचते हैं?

आर्थिक उदारीकरण और कार्पोरेट पूंजी को खुली छूट देने का अवश्यम्भावी परिणाम है गरीब-अमीर के बीच की दूरी का बढ़ना,  लेकिन अब गरीबी और बेरोजगारी का स्वरुप बदला है। असंगठित क्षेत्र में अब जितने लोगों को रोजगार मिलता है उससे अधिक लोगों  को अर्धरोजगार। यह अर्धरोजगार वर्ग गरीब और बेरोजगार के बीच का होता है इसलिए न आज का बेरोजगार पहले जैसा  गरीब है और  न रोजगार युक्त पहले जैसा निश्चिंत और संतुष्ट। लेकिन संपन्न वर्ग और विपन्न वर्ग के  बीच खाई का दिनोंदिन बढ़ना और निजीकरण  को बढ़ावा देने के शासकीय निर्णय के चलते देश एक भयावह संकट से रूबरू है। कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक अवधारणा विघटित  होकर अब कार्पोरेट तंत्र में तब्दील होती जा रही है।

कुछ महीने पहले नक्सलबाड़ी आन्दोलन के  50 वर्ष पूरे हुए हैं । हिन्दी साहित्य पर नक्सलबाड़ी आंदोलन के  प्रभाव को किस रूप  में देखते हैं । 

नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने अस्सी के शुरुआती दशक में साहित्य में परिवर्तनकामी चेतना को तीक्ष्ण करने का जो कार्य किया  उसकी अनुगूंज कुछ  समय तक तो रही, लेकिन वह हिन्दी साहित्य की स्थायी मूल्य चेतना में परिवर्तित न हो सकी। उस दौर में ‘गोली  दागो पोस्टर’ कविता लिखने वाले आलोक धन्वा सरीखे कवि बाद में ‘भागी हुई लड़कियां’ लिखने लगे। बंगला साहित्य जिस तरह  नक्सल चेतना से भरा-पूरा था वैसा हिन्दी साहित्य में नहीं हुआ। संजीव की उपन्यासिका ‘पाँव तले की दूब’ और कुछ अन्य कहानियां  जरूर उस प्रभाव में लिखी गई थीं। वेणु गोपाल, राम निहाल गुंजन, विजयकांत और मधुकर सिंह, गोरख पाण्डेय आदि इस चेतना से लैस अवश्य थे, लेकिन वे कोई स्थायी प्रभाव या पहचान न बना सके। इसलिए हिन्दी में परिवर्तनकामी चेतना का व्यापक दायरा प्रगतिशील  और जनवादी धारा से ही जुड़कर जितना समृद्ध हुआ उतना नक्सलवाद से प्रभावित होकर नहीं।

कुछ लोग भारतीय संविधान की दृष्टि से भारत जैसे सेकुलर राज्य में धर्म के बल पर राजनीति कर रहे हैं। वे यह दावा भी कर  रहे हैं  कि हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं बल्कि जीवन शैली है। इसी जीवन शैली के नाम पर अराजक भीड़ द्वारा हत्याएं  की जा रही हैं। देश  के असली मुद्दों को दरकिनार कर गाय, गोबर, वंदे मातरम, भारत माता आदि के नाम पर जनता को बरगलाया जा रहा है। शायद इसी  को देखते हुए अरुंधति राय ने पिछले दिनों एक साक्षात्कार में कहा कि सैकड़ों-हजारों राजनीतिक कार्यकर्ता भारत को उस बिन्दु पर ले  आ रहे हैं, जहां उसे लगभग हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया गया है। इस बारे में आपका क्या कहना है?

मुझे  लगता है कि मई 2014 में भारत में जो सत्ता परिवर्तन हुआ है वह महज सरकार का बदलाव न होकर सत्ता तंत्र में  आमूलचूल परिवर्तन है। पहली बार संघ अपने बल पर केंद्र की सत्ता में है। गाय, गीता, गंगा, गोमांस सरीखे मुद्दों की गर्माहट  बहुसंख्यवाद को खाद-पानी देने का उपक्रम है। मुसलमान, ईसाई और वामपंथ पर निशाना आरएसएस की मूल वैचारिकी के अनुकूल ही  है। चिंता की बात यह है कि बेरोजगारों और लुम्पेन युवा का एक बड़ा हिस्सा सत्ता का कृपा पात्र होकर हिंदुत्व के  हड़बोंग में  इच्छुक  सहभागी की भूमिका का निर्वाह कर रहा है। राजस्थान में हाईकोर्ट पर भगवा लहराना, मनु की प्रतिमा का महिमा-मंडन, राजसमन्द में   एक जघन्य हत्यारे के पक्ष में हजारों हिन्दू युवाओं का एकजुट होना, उसके लिए धन संग्रह करना अत्यंत भयावह और अकल्पनीय है।  इस समूची प्रक्रिया में केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारों का मूकदर्शक बने रहना गंभीर संवैधानिक संकट का संकेत है। मुझे लगता है  कि भारतीय समाज बहुत तेजी से आंतरिक विस्फोट और नागरिक गृह युद्ध की ओर बढ़ रहा है। अफसोस यह कि इसे रोकने की हमारी  कोई तैयारी नहीं है। अरुंधति राय का यह कहना सच ही है कि व्यावहारिक रूप से अब हम धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक जनतंत्र न रहकर  एक बहुसंख्यक हिन्दू राष्ट्र में तब्दील होने को ही हैं।

 

वीरेन्द्र यादव सुप्रसिद्ध आलोचक हैं,अभी हाल ही में इन्हें शमशेर सम्मान से सम्मानित किया गया है

अटल तिवारी पत्रकारिता के प्राध्यापक हैं और दिल्ली में रहते हैं

 

बातचीत क्रमशः

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2 COMMENTS
  1. प्रसिद्ध आलोचक वीरेंद्र यादव का यह साक्षात्कार श्रृंखला हिंदी साहित्य की दुनिया की विभिन्न धाराओं और उनमें हो रहे बदलाव को समझने के लिए जरूर पढ़ी जानी चाहिए.

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