वह दिन कब आएगा जब महिलाओं को बर्दाश्त करने से आजादी मिलेगी? (डायरी 24 अक्टूबर, 2021)

नवल किशोर कुमार

1 409
एक पिता होने के कारण मैं यह महसूस करता हूं कि मुझे सबसे अधिक खुशी तब मिलती है जब मैं अपने बच्चों को खाते-खेलते-पढ़ते देखता हूं। यही खुशी एक पुत्र के रूप में अपने माता-पिता को खाते-हंसते-बोलते देखकर होती है। और ऐसी ही खुशी तब मिलती है जब मेरी पत्नी हंसती है। मैं दुनिया का अलग व्यक्ति नहीं हूं। खुशियों के लिए मेरे मानदंड भी लगभग वही हैं जो अन्य किसी के होते होंगे। मुझे लगता है कि खुशियों के आकलन का यह एक शानदार क्राइटेरिया है कि परिजन कितने खुश हैं। ऐसा नहीं हो सकता है कि परिजन दुखी हों और आदमी खुश रहे। यह बात मैं उनके लिए कह रहा हूं जो गृहस्थ जीवन को पसंद करते हैं। और एक परिवार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण महिलाएं होती हैं। यह बात मैं अपने अनुभवों के आधार पर महसूस करता हूं। चूंकि मेरा जन्म एक पितृसत्तावादी परिवार में हुआ है और मैंने अपनी मां और बहनों को देखा है कि उन्होंने किस तरह के कष्ट उठाए हैं।
उन दिनों घर में शौचालय नहीं था। तब मेरी मां और बहनें अंधेरे का इंतजार करती थीं। जब पापा 1993 में घर का विस्तार कर रहे थे तब मैंने उनसे कहा था कि घर में शौचालय जरूरी है। तब मेरे परिवार के एक सदस्य ने मेरा मजाक भी उड़ाया था। उनका कहना था कि आदमी को घर में नहीं, बाहर ही जाना चाहिए। लेकिन पापा ने मेरी बात मानते हुए घर में शौचालय का निर्माण करवाया। हालांकि तब तक मेरी बहनों की शादी हो चुकी थी। परंतु, मैं जानता हूं कि शौचालय का बनना मेरे घर में सबसे बड़ी क्रांति थी। मेरी मां और बाद में 1994 में आयी मेरी भाभी को तब अंधेरे का इंतजार नहीं करना पड़ता था।

मुझे स्मरण है कि पटना हाईकोर्ट में एक समय मुख्य न्यायाधीश थीं रेखा एम. दोशित। उन्होंने एक बार यह सवाल उठाया था। शायद किसी ने जनहित याचिका दायर की थी। तब उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा था कि कहां शहर में सार्वजनिक शौचालयों की बात कर रहे हैं, यहां अदालतों में ही महिलाओं के लिए इंतजाम नहीं हैं।

वर्ष 2010 में मैं जब पटना में दैनिक आज में संवाददाता था, तब मैंने एक रपट तैयार किया था। रपट का मजमून यह कि पटना जंक्शन से लेकर पटना के गांधी मैदान तक कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं था। संभव है कि अब भी नहीं हो। मैंने अपनी रपट में कुछ महिला कांस्टेबुल के विचारों को शामिल किया था। मेरे सवाल को सुनकर कुछ कांस्टेबुल उदास हो गयी थीं। एक तो कोतवाली चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस के रूप में तैनात थीं। जब उनसे पूछा तो उनका कहना था कि यह तो केवल हम ही जानते हैं कि हम किस तरह मैनेज करते हैं। घंटों तक बर्दाश्त करना होता है। कोतवाली थाने में महिलाओं के लिए अलग से शौचालय नहीं है। एक शौचालय है तो वह भी उपयोग के योग्य नहीं है।
अपनी रपट को तैयार करने के लिए मैं पटना जंक्शन से लेकर पटना के गांधी मैदान तक पैदल चला था। रास्ते में पुरुषों के लिए कुछ जगह अवश्य थे जो कि किसी गली के अंत में थे, लेकिन वे सरकारी नहीं थे। पुरुषों ने अपने लिए जुगाड़ किया हुआ था। फ्रेजर रोड में डाकबंगला चौराहे पर इमाम बंधुओं की शानदार हवेली के सामने लोग खुले में पेशाब करते नजर आए थे। यह हवेली इंग्लैंड में महारानी विक्टोरिया के बंगले की प्रतिकृति के जैसा है। उस समय वहां पुलिस छावनी थी। वहां से आगे बढ़ने पर आकाशवाणी चौराहे पर भी जहां भारतीय नृत्यकला मंदिर है, पुरुषों ने अपने लिए जुगाड़ किया हुआ था। वहां छज्जू मार्ग जाने वाले रास्ते पर पुरुष लघुशंका से निजाते पाते दिखे थे। फिर फुटपाथ पर चलते हुए कई जगहों निशान मिले, जिनसे यह स्थापित होता था कि लोग खुले में पेशाब करते हैं।
लेकिन महिलाएं? महिलाओं के लिए तो कुछ भी नहीं था। फिर मेरी रपट पहले पन्ने की बॉटम स्टोरी बनी। फिर बाद में सरकार ने कुछ शौचालयों का निर्माण करवाया। शौचालयों को नाम दिया गया था– सुपर डीलक्स शौचालय। शायद वह पीपीपी मोड में बनवाया गया था। पीपीपी मतलब सरकार और निजी कंपनी के द्वारा। लेकिन ये शौचालय भी फ्रेजर रोड, एक्जीबिशन रोड और बेली रोड में नहीं थे। एक शौचालय सिन्हा लाइब्रेरी के नजदीक बनाया गया था। लेकिन दो वर्षों तक उसका उद्घाटन ही नहीं हुआ।

वर्तमान के बारे में नहीं जानता कि पटना में कितना कुछ बदला है। जब कभी घर जाता हूं तो सड़कों के किनारे देखते हुए चलता हूं कि महिलाओं के लिए बिहार सरकार ने शौचालयों का निर्माण करवाया है या नहीं।

वर्तमान के बारे में नहीं जानता कि पटना में कितना कुछ बदला है। जब कभी घर जाता हूं तो सड़कों के किनारे देखते हुए चलता हूं कि महिलाओं के लिए बिहार सरकार ने शौचालयों का निर्माण करवाया है या नहीं।
मुझे स्मरण है कि पटना हाईकोर्ट में एक समय मुख्य न्यायाधीश थीं रेखा एम. दोशित। उन्होंने एक बार यह सवाल उठाया था। शायद किसी ने जनहित याचिका दायर की थी। तब उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा था कि कहां शहर में सार्वजनिक शौचालयों की बात कर रहे हैं, यहां अदालतों में ही महिलाओं के लिए इंतजाम नहीं हैं। उन्होंने कहा था कि पटना हाई कोर्ट में तो सुविधाएं हैं लेकिन निचली अदालतों में महिला जजों तक के लिए शौचालय नहीं हैं।
खैर, कल यही सवाल सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण ने उठाया। कल वे बंबई हाई कोर्ट के औरंगाबाद पीठ के लिए निर्मित दो नये भवनों का उद्घाटन कर रहे थे। इस मौके पर केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू भी मौजूद थे। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि 26 फीसदी अदालतों में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं हैं। वहीं 16 फीसदी अदालतों में पुरुषों के लिए भी शौचालय नहीं हैं। जजों को पीने का पानी तक घर से ले जाना पड़ता है।
बहरहाल, मुख्य न्यायाधीश का कथन एक आईना है उस हुक्मरान के लिए जो शहरों को स्मार्ट शहर बनाने की बात करता है। मुझे तो उस दिन का इंतजार है जब महिलाओं को बर्दाश्त नहीं करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक हुक्मरान चाहे एक टांग पर खड़े होकर नाचें या दोनों टांगों पर, कोई फर्क नहीं पड़ता है।

 नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

1 Comment
  1. Gulabchand Yadav says

    यथार्थपरक विश्लेषण। महिलाओं की सेहत और सम्मान से जुड़ी यह बेहद गंभीर समस्या है किंतु पुरुषवादी सोच के प्रशासकों, नेताओं और सरकारी निकायों आदि की इस दिशा में कोई फिक्र या संवेदना ही नहीं है। कोई भी स्त्री या कन्या किसी की मां, बहन, बेटी या बहू होती है। क्या उनके लिए मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था का न हो पाना राष्ट्रीय शर्म का विषय नहीं होना चाहिए। कब जागेंगे हमारे नीति नियंता, राजनेता और नौकरशाह। सच पूछा जाए तो इस दिशा में युद्ध स्तर पर कार्य होना चाहिए।

Leave A Reply

Your email address will not be published.