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ग्राउंड रिपोर्ट

वाराणसी : बच्चों की ऊंची पढ़ाई के साथ अपनी पढ़ाई का सपना पूरा कर रही हैं सुमन

शिक्षा के बारे में डॉ. अंबेडकर का कहना है कि वह शेरनी का दूध है जो भी पिएगा वह दहाड़ेगा। सुमन को देखकर लगता है कि वह भी शेरनी का दूध पी रही हैं। उनमें जो आत्मविश्वास है वह उन्हें किसी जगह झुकने नहीं देगा। एक माँ के रूप में वह अपने बच्चों की उच्च शिक्षा का सपना देखती हैं। लेकिन स्वयं अपने भी अधूरे सपने को पूरा करने में जी जान से लगी हैं।

वाराणसी। कुछ साल पहले आई हिन्दी फिल्म निल बटे सन्नाटा शायद आपमें से बहुतों को याद हो। इसमें एक घरेलू नौकरानी अपनी बेटी को कलेक्टर बनाने की आकांक्षा रखती है। माँ की इच्छाओं को पूरा करने में बेटी को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। यह फिल्म एक गरीब माँ के सपनों के साकार होने की राह में मौजूद रोड़ों की पहचान भी है। बहुजन समाजों में ढेरों ऐसी कहानियाँ मिल जाएंगी जो माँ-बाप की आकांक्षाओं और बच्चों की लोमहर्षक संघर्षों और आश्चर्यजनक सफलताओं का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। लेकिन सुमन की नज़ीर सबसे अलग है जब उनकी बेटी ने अपनी माँ को पढ़ने के लिए प्रेरित किया। आज वह अपनी बेटी से मात्र एक कक्षा पीछे हैं और इस साल दसवीं का इम्तहान देने जा रही हैं।

जब मुझे सुमन के इस हौसले के बारे में बताया गया तो मेरे लिए चौंकने की बारी थी क्योंकि सुमन न केवल कई बच्चों की माँ हैं बल्कि खेती-गृहस्थी का सारा बोझ भी उन्हीं के ऊपर है। उनकी शादी बारह साल की उम्र में हो गई थी और चौदह साल बाद गौना हो गया। मैं जानती हूँ कि कम उम्र में शादी हो जाना किसी भी लड़की के लिए कितनी बड़ी त्रासदी होती है। हमारे भारतीय समाज में आज की बात और स्थिति को छोड़ दें तो शादी कब, किससे और कहाँ होगी इस बात का निर्धारण घर के बुजुर्ग या माता-पिता करते हैं। पुराने लोग भले ही कम उम्र की शादी के दसियों फायदे गिनाते हों लेकिन उससे नुकसान ही ज्यादा होता है।

‘बारह वर्ष के उम्र में मेरी शादी और चौदह वर्ष की उम्र में गौना हो गया।’ बड़ागाँव ब्लॉक के बलरामपुर गाँव की रहने वाली सुमन ने बातचीत के दौरान बताया। ‘इतनी कम उम्र में शादी?’ उन्होंने बताया कि ‘हाँ, जब मैं शादी शब्द का अर्थ भी नहीं समझती थी, तब शादी हो गई।’ ‘इतनी जल्दी क्यों?’ उन्होंने बताया कि ‘मैं दो भाई, दो बहनों में बड़ी थी। दादा-दादी कन्यादान करना चाहते थे। इसी कारण मेरी शादी जल्दी कर दी गई, मात्र बारह वर्ष की आयु में। और गौना हुआ चौदह वर्ष की उम्र में।’

‘गौना हो जाने के बाद आपने अपने ससुराल में जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी की। क्योंकि आप मात्र 14 वर्ष की थीं।’ सुमन बताती हैं कि ‘मेरे पति चार बहनें और दो भाई हैं। जब मैं ससुराल आई तब तक छोटी ननद को छोड़कर सबकी शादी हो गई थी। छोटी ननद हमउम्र ही थी, इसलिए वह ननद कम और सहेली ज्यादा हो गई। पढ़ाई का महत्व समझ आने के बाद मेरी छोटी ननद ने बीए तक पढ़ाई की। जब मैं ससुराल आई तब मुझे कुछ भी काम नहीं आता था लेकिन ननद ने मेरा बहुत सहयोग किया।’

उन्होंने बताया कि ‘मेरे पति इलेक्ट्रिशियन हैं और इलाहाबाद में काम करते हैं। बीच-बीच में आते रहते हैं। अब परिवार के बाकी लोग वाराणसी में बस गए। यहाँ अपने बच्चों के साथ ससुर की देखभाल करते हुए पूरे घर-खेत-खलिहान की जिम्मेदारी मैं अकेले उठा रही हूँ।’

सुमन अभी 35 वर्ष की हैं। जो दलित समुदाय (चमार) से आती हैं की सन 2001 में शादी हुई और 2003 में जब वह आठवीं पास कर चुकी थीं तभी उनका गौना हो गया। अब आगे पढ़ने का सपना धरा का धरा रह गया। खेलने और पढ़ने की उम्र में ही ससुराल आ गईं। शादी शब्द का अर्थ तक नहीं समझने वाली वह लड़की अपनी ससुराल की जिम्मेदारी उठाने में समर्थ नहीं थी क्योंकि कोई काम नहीं आता था। सुमन कहतीं हैं ‘ससुराल का मतलब आपको सारे काम आने चाहिए। मुझे भी कुछ नहीं आता था लेकिन यहाँ रहते हुए धीरे-धीरे मैंने सीखा।’

‘2022 में मैंने कक्षा नौ की परीक्षा पास की।’ सुमन ने जब यह बताया तो यह सुनकर मुझे थोड़ा अचरज हुआ क्योंकि सुमन की बेटी ने भी पिछले साल हाई स्कूल पास किया। दूसरी बेटी सातवीं में और सबसे छोटा बेटा पहली कक्षा में पढ़ रहा है। इस उम्र में लोग अक्सर छूटी हुई या अधूरी पढ़ाई पूरी करते हैं। यदि स्कूलिंग आधी छूट गई हो तो शादी के बाद इसे शुरू करना बहुत ही हिम्मत की बात होती है और तब तो और भी जब बच्चे भी स्कूल जा रह हों।

मैंने पूछा– ‘इस उम्र में पढ़ने ख्याल कैसे आया?’

सुमन ने बताती हैं कि ‘हमारे गाँव में कुछ सामाजिक संस्थाओं ने गाँव की महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह बनाया, ताकि महिलाएँ सक्रिय हों और कुछ करते हुए आत्मनिर्भर हो पाएं। मैं भी समूह से जुड़ने के बाद सक्रियता से उसमें हिस्सेदारी करती रही। अक्सर उस समूह की बैठक में और उससे जुड़े काम के लिए बाहर आना-जाना पड़ता था। समूह की मीटिंग में जाते हुये मैंने वहाँ देखा कि वहाँ किसी ने बीए किया है, कोई इन्टर पास है, और कई तो हाई स्कूल पास हैं। ऐसे में मुझे लगा कि मैंने तो केवल आठवीं तक ही पढ़ाई की है। सन 2017 में स्वयं सहायता समूह ने मुझे कोषाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी। मुझे समूह का हिसाब-किताब देखना और व्यवस्थित करना पड़ता था। खुशी तो बहुत हुई लेकिन मन में कम पढ़ाई को लेकर एक तरह से निराशा थी। इस बात की चर्चा मैंने समूह की अन्य साथी महिलाओं से की। उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया और कहा कि प्राइवेट फॉर्म भर कर आगे की पढ़ाई कीजिए।

‘मैंने घर आकर अपने पति से कहा कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ। उन्होंने कहा यदि तुम्हारा मन है तो आगे की पढ़ाई करो। मेरे तीन बच्चे हैं। जिसमें दो बच्चे तो समझदार हैं, उन्होंने भी खुशी ज़ाहिर की। मेरे ससुर ने भी कुछ नहीं कहा। इसके बाद भी थोड़ा डर और संकोच था। मन में पढ़ाई, किताबें, परीक्षा और नतीजे को लेकर लगातार उहापोह थी। लेकिन हिम्मत कर मैंने 2022 में नौवीं का प्राइवेट फॉर्म भर ही दिया। स्वयं का निर्णय होने के बाद भी डर तो लग ही रहा था।

‘लेकिन इस उम्र में मेरी पढ़ाई की बात सुनकर कुछ रिश्तेदारों ने ताने मारे, बुराई की और हंसी भी उड़ाई। लेकिन मैंने उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। क्योंकि इतना तो समझ आ ही गया था कि यदि परिवार में कोई कुछ हटकर अलग काम करता है तो चर्चा और बातचीत के केंद्र में वही रहता है।

‘बहरहाल, मैंने संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से मैंने नौवीं के लिए फॉर्म भरा। किताब-कॉपी आ गई। उन्हें देखती लेकिन आत्मविश्वास ही नहीं आ पा रहा था। उन किताबों को देखते-खोलते हुए 4-5 दिन बाद मुझे थोड़ा कान्फिडेंस आया और उसके बाद पढ़ाई शुरू हुई।

मेरी बेटी रिया, जो उस समय दसवीं की तैयारी कर रही थी, ने मुझे आश्वस्त किया कि हम भाई-बहन आपके काम में हेल्प करेंगे ताकि आप थकें कम और अपनी पढ़ाई ज्यादा कर सकें।’

‘आप नौवीं में और आपकी बेटी दसवीं में। कैसा लग रहा था?’ इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि ‘अच्छा लग रहा था। मुझे जो समझ नहीं आता, उसे वह अपनी पढ़ाई रोककर मुझे बताती। हालांकि परीक्षा के कुछ दिन पहले तक मैं केवल एक-दो घंटे ही पढ़ पाती थी।’

परिवार वाली महिला के लिए पढ़ने के लिए समय निकालना बहुत ही कठिन और मुश्किल होता है। घर में सबके लिए कुछ न कुछ काम करना होता है। जब भी कोई परिवार वाली महिला पढ़ाई शुरू करती है तो सारे काम के बाद आराम के लिए जो समय मिलता है, उसी में चाहे तो आराम कर ले और चाहे तो पढ़ाई कर ले। हमारे देश की समाज और परिवार की बनावट ही ऐसी है कि काम का जो बंटवारा कर दिया गया है, उसमें घर के काम सिर्फ महिलाओं के हिस्से में आए हैं।

सुमन ने बताया कि ‘सुबह 4.30 बजे से ही मेरी दिनचर्या शुरू हो जाती है। बच्चों को स्कूल भेजने के बाद घर के सारे काम करने होते हैं। उसके बाद दिन में दो-ढाई बजे फुरसत मिलती है तो एक घंटे आराम करने के बाद गाय-भैंस को चारा-पानी देने के समय हो जाता है। फिर  दूध दुहने के बाद खेत पर जाती हूँ। खेत में लगी उड़द, तिल, मसूर की देखरेख करने के बाद वापस आकर फिर शाम के काम में लग जाती हूँ।’

‘ऐसे में फिर पढ़ाई कब करती हैं?’ उन्होंने कहा कि ‘शाम को जब सब बच्चे पढ़ने बैठते हैं, तब मैं भी बैठ जाती हूँ। रिया कहती है कि आप भी पढ़ाई कीजिए, उसके बाद हम लोग खाना बनवाने में मदद करेंगे।’ खुशी होती है कि बच्चे अपनी माँ की पढ़ाई का भी महत्व समझ रहे हैं।

अभी बीस दिन पहले ही नौवीं की परीक्षा का रिजल्ट आ गया। सुमन सेकंड डिवीजन पास हो गईं। रिजल्ट सुनकर सभी बहुत खुश हुए। खासकर बच्चे। वह उत्साह से कहती हैं ‘अब दसवीं के लिए प्राइवेट फॉर्म भर कर किताबें ले आई हूँ।’

‘कितना और क्यों पढ़ना चाहती हैं?’ जवाब में सुमन ने कहा कि ‘मैं बहुत पढ़ना चाहती हूँ और सरकारी नौकरी कर आत्मनिर्भर बनना चाहती हूँ।’

सुमन की बेटी रिया कुमारी से भी बात हुई, जो अभी ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रही हैं। मैंने पूछा –‘कैसा लगा था जब मम्मी ने तुमसे बताया कि आगे पढ़ना चाहती हूँ?’ उसने कहा ‘मैं बहुत खुश हुई कि मेरी माँ पढ़ना चाहती हैं। मुझे बहुत कान्फिडेंस आ गया। परीक्षा के दिनों में हम तीनों भाई-बहन के साथ वे भी पढ़ती हैं।’

‘क्या कभी तुमने अपनी माँ को पढ़ाया?’ ‘हाँ,’ रिया ने चहकते हुये जवाब दिया ‘जब उनको कुछ समझ नहीं आता, तब मैं उन्हें बताती हूँ। क्या, कैसे पढ़ना है यह भी बताती हूँ। परीक्षा के बाद जब वे घर आती थीं तब उनके प्रश्नपत्र देखकर उनसे पूछती थी कि क्या लिखा और  क्या छोड़ा। मेरा सपना है कि मेरी पढ़ाई के साथ-साथ माँ भी पढ़ती रहें और हम दोनों एक साथ नौकरी करें।’

सुमन ने तो अभी उड़ने की यह शुरुआत की है, आगे आसमान बहुत बड़ा और खुला हुआ है, जिसमें ऊंची उड़ान भरना है।

शिक्षा के बारे में डॉ. अंबेडकर का कहना है कि वह शेरनी का दूध है जो भी पिएगा वह दहाड़ेगा। सुमन को देखकर लगता है कि वह भी शेरनी का दूध पी रही हैं। उनमें जो आत्मविश्वास है वह उन्हें किसी जगह झुकने नहीं देगा। एक माँ के रूप में वह अपने बच्चों की उच्च शिक्षा का सपना देखती हैं। लेकिन स्वयं अपने भी अधूरे सपने को पूरा करने में जी जान से लगी हैं।

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।
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