सर्व सेवा संस्थान, राजघाट के ठीक सामने किला कोहना राजघाट नाम का एक मोहल्ला है। मोहल्ला क्या एक बड़ा-सा बाड़ा जैसा था, जैसे ही उस बाड़े में बड़े से गेट से अंदर पहुंचे, सामने ही भैंस का तबेला पड़ा। लेकिन यह तबेला बाकी तबेलों से थोड़ा साफ-सुथरा था। वहाँ सभी के आधे-अधूरे घर कच्चे थे लेकिन कुछ लोगों के घर पक्के दिख रहे थे, जिन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत सहायता राशि मिल चुकी थी। कुछ ने बताया कि सारी औपचारिकता और कागजात पूरे होने के बाद भी आज तक उन्हें प्रधानमंत्री आवास के लिए राशि प्राप्त नहीं हुई। उन्हें लगा कि शासन की तरफ से हम (मैं और सीजेपी की कार्यकर्ता सविता) कोई सर्वे करने आई हैं और इस कारण वे अपनी समस्या बताने लगे लेकिन हमने उन्हें बताया कहा कि हम शासन की तरफ से नहीं हैं।
बहरहाल हम उस बाड़ेनुमा मोहल्ले में जब आगे बढ़े तो कुछ लोग अपने घरों के सामने धूप तापते मिले और कुछ लोग हाथ में ब्रश लेकर पुली लगाने का काम कर रहे थे। उनके नजदीक जाकर मैंने उनके काम को देखा और उनसे बात की। उमा कुमारी ने, जिनकी उम्र सोलह वर्ष की है, साल भर पहले से इस काम को करना शुरू किया था। उनके हाथ में लकड़ी के ब्रश का हैन्डल था, जिस पर पर पुली (रेशा) लगा रही थीं। बातचीत करते हुए भी उन्होंने काम नहीं रोका बल्कि पहले जैसी गति से काम करती रहीं। उमा कुमारी ने बताया कि कक्षा आठ तक पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई की सुविधा नहीं होने की वजह से स्कूल जाना बंद कर दिया। पिता मजदूरी करते हैं और माँ घर पर रहती हैं। घर पर रहकर क्या करती, क्योंकि काम के लिए मुझे बाहर जाने की मनाही थी। यहाँ मोहल्ले में मैंने अनेक लोगों को इस काम को करते हुए देखा, तब सोच कि क्यों न यही काम कर लिया जाए। काम कठिन नहीं है, बस प्रैक्टिस चाहिए।
उमा कुमारी का हाथ तेजी से चल रहा था क्योंकि साल भर से इस काम को करते रहने से इसका अच्छा अभ्यास हो चुका था। कितना पैसा मिल जाता है इस काम का? इसके जवाब में उन्होंने बताया कि छ: लाइन वाले एक दर्जन ब्रश का तीस रुपए और आठ लाइन वाले एक दर्जन ब्रश के लिए चालीस रु मिलते हैं और बारह लाइन वाले एक दर्जन ब्रश का साठ रूपये मिलते हैं। मतलब यदि किसी ने एक दिन में बारह ब्रश में पुली लगा ली तब उसे मजदूरी के 30 या 40 रुपये मिलेंगे। यह काम की गति पर निर्भर करता है। उमा ने बताया कि एक दर्जन ब्रश से ज्यादा बनाना संभव नहीं होता। किसी-किसी दिन 8 या 9 ब्रश पर ही पुली लग पाती है। एक हफ्ते या सात दिन लगातार काम करने पर तीन लाइन की पुली का 210 रु या चार लाइन की पुली के लिए 280 रुपए ही मिलते हैं। एक माह में एक हजार रुपये भी हाथ में नहीं आते।
यह सुनकर आश्चर्य कम ही हुआ क्योंकि हमारे देश में इस तरह कम मजदूरी (न्यूनतम मजदूरी से कम पर) काम करने-कराने का चलन आम है। काम करवाने वाला सोचता है कि कम मजदूरी देना पड़े लेकिन अपना माल बेचते समय वह अधिकतम मुनाफ़ा कमाता है।
अभी तक मैं जितनी महिला कामगारों से मिली हूँ उनमें से कुछ को छोड़ लगभग सबने कम मजदूरी की बात की है। यह किसी एक जगह की बात नहीं है। इसका मतलब यह है कि नियोक्ताओं ने मजदूरी, दाम और मुनाफ़े की जो व्यवस्था बनाई है वह मजदूर की न्यूनतम मजदूरी का भी अधिकतम हिस्सा हड़प लेने वाली है। फिलहाल उसे लेकर देश में कोई चर्चा नहीं है। इस बात के अनेक अर्थ निकलते हैं क्योंकि इस तरह के उत्पादों के बाज़ार नयी बाज़ार-व्यवस्था में टुंटपुंजिया स्थिति में चले गए हैं और उन्हें स्ययं अपने अस्तित्व के लिए भारी संघर्ष करना पड़ रहा है। लेकिन यह स्पष्ट है कि बाज़ार चाहे बड़ा हो चाहे छोटा लेकिन उसके संगठित लूट का सबसे आसान शिकार मजदूर ही होता है।
“कितना पैसा मिल जाता है इस काम का? इसके जवाब में उन्होंने बताया कि छ: लाइन वाले एक दर्जन ब्रश का तीस रुपए और आठ लाइन वाले एक दर्जन ब्रश के लिए चालीस रु मिलते हैं और बारह लाइन वाले एक दर्जन ब्रश का साठ रूपये मिलते हैं।”
उमा कहती हैं ‘काम करने वालों की मजबूरी है। उन्हें पता है यदि वे कम मजदूरी पर काम नहीं करेंगे तो कोई बात नहीं, बहुत से दूसरे लोग हैं जो इसी मजदूरी में काम करने को तैयार होंगे। प्रह्लाद घाट के पास से इसे बनाने का सामान तौल के हिसाब से लेकर आती हूँ। बनाने के बाद वापस वहीं पहुंचाना होता है और आम लोगों को यह दालमंडी में आसानी से मिल जाता है।
किस काम आते हैं ये ब्रश? उमा ने बताया कि ये ब्रश सुनार के यहाँ सोने-चांदी के गहनों को साफ करने के अलावा फर्श की सफाई के लिए भी काम आते हैं।
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आगे बढ़ने पर जैनब अपने घर के बाहर बोरा बिछाकर इसी तरह ब्रश पर पुली लगाते हुए मिलीं। उनके पास पहुँचने पर जब मैंने बात करना चाहा तो संकोच और डर से उन्होंने बात करने से मना कर दिया। मैंने भी जोर नहीं दिया लेकिन ऐसे ही सामान्य बातचीत करते हुए जब वह सहज हुईं तब मैंने जैनब से बात की और उन्होंने खुलकर सब बताया। कक्षा सात तक पढ़ी 16 वर्ष की जैनब 8-9 वर्षों से इस काम को कर रही हैं। मतलब जब जैनब 8-9 वर्ष अर्थात कक्षा 4 या 5 में पढ़ती होंगी तब से ही आस-पड़ोस की देखा-देखी इस काम को शुरू कर दिया।
ज़ैनब 12 लाइन वाले ब्रश पर पुली लगाने का काम कर रही थीं। 12 लाइन वाले बारह ब्रश तैयार करने पर 60 रुपये कमा पाती हैं यानी एक ब्रश की मजदूरी मात्र पाँच रुपये। 6-7 घंटे बैठने पर मुश्किल से बारह ब्रश तैयार हो पाते हैं। लेकिन रोज बारह ब्रश तैयार हो जाएँ ऐसा संभव नहीं। कभी-कभी मात्र 3-4 ब्रश ही तैयार हो पाते हैं। कितना ब्रश तैयार होगा यह समय देने के ऊपर निर्भर करता है।
ज़ैनब ने बताया कि इस काम के लिए सारा सामान कोयला बाजार से लेकर आती है। एक दिन जाकर 12-14 दिन के लिए कच्चा सामान ले आती है और और तैयार होने के बाद कोयला बाजार जाकर तैयार ब्रश पहुंचा देती है। दुकानदार कच्चा माल जिसमें ब्रश और पुली होती है को तौलकर देते हैं। बनाने के बाद भी जब पहुंचाते हैं तब भी वे तैयार माल तौलकर लेते हैं।महीने भर में 1800 से 2500 के बीच तक का काम कर पाती हूँ।
मैंने पूछा कि इस काम में पैसे बहुत कम हैं तो दूसरा काम क्यों नहीं करना चाहती हो? इस प्रश्न पर जैनब ने कहा कि 8-9 वर्ष से यही काम करती आई हूँ। अब कौन-सा काम करूँ, समझ नहीं आता। कोई और काम आता भी नहीं। घर में बैठने से तो यही सही है। कुछ तो हाथ में आता है। काम देने वालों से जब कभी पैसे बढ़ाने की बात करते हैं तो उनका यही जवाब होता है कि इतने में ही करना है तो करो।
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साठ रुपये तो बहुत कम हैं? इस बात के जवाब में ज़ैनब ने कहा कि पहले तो और भी कम था। उन्होंने बताया कि पहले इसी बारह लाइन वाले एक दर्जन ब्रश के मात्र 20 रुपये मिलते थे। आठ लाइन के एक दर्जन ब्रश का मात्र 10 रुपया और छ: लाइन वाले एक दर्जन ब्रश का मात्र 5 रुपया मिलता था। कोरोना के बाद इसकी मजदूरी में थोड़ी बढ़ोत्तरी हुई है। फिर भी कितनी? बारह लाइन का 60/-, आठ लाइन का 40/- और और छ: लाइन का मात्र 30/-।
थोड़ा आगे बढ़ने पर यही काम करती हुई फरजाना मिलीं। फरजाना जिनके पति अब इस दुनिया में नहीं हैं, अपनी माँ के साथ रहते हुए चार बच्चों की परवरिश कर रही हैं। जैसे ही उनसे बात करना शुरू किया वैसे ही उनकी माँ अपनी बेटी और मुझ पर बहुत नाराज हुईं। मुझे बात करने के लिए एकदम मना कर दिया और मुझे भाग जाने को कहा। उनकी बड़बड़ाहट से समझ आया कि सरकारी विभाग से बहुत से लोग सर्वे के लिए आते हैं, बात कर, फोटो खींचकर ले जाते हैं और कुछ होता नहीं। उनके शांत होने पर मैंने अपना परिचय दिया लेकिन तब भी वे बात करने को तैयार नहीं थीं। थोड़ी देर बाद फरजाना ने उन्हें समझाया। तब बात हुई।
फरजाना ने कहा कि असल में घर में सदस्य ज्यादा हैं और मैं भी बच्चों के साथ यहाँ आ गईं हूँ। वे बहुत चिंतित और परेशान रहती हैं इसलिए अनेक बार नाराज रहती हैं। स्वाभाविक है कि गरीबी में रहते हुए जीवन कितना मुश्किल हो जाता है, यह फरजाना की माँ के गुस्से को देखकर समझ में आ रहा था। बहरहाल, फरजाना ने कहा कि कमाई का एकमात्र जरिया है ब्रश पर पुली लगाकर दुकान पर देना। महीने में कितना कमा लेती हैं? पूछने पर कहा, कहाँ ज्यादा कमा पाती हूँ। मायके में हूँ तो जैसे-तैसे चल रहा है। जो पैसे आते हैं उससे बच्चों के लिए निरमा साबुन, कुछ थोड़ा-बहुत खाने-पीने का और बीमार होने पर दवा के लिए ही मुश्किल से पूरा हो पाता है। कभी सौ, कभी पचास, कभी दौ सौ और कभी-कभी तो कुछ भी हाथ में नहीं आता।
ज़ैनब और फरजाना दोनों ने बताया कि लगातार बैठकर काम करने पर थकान के साथ पीठ में दर्द होता है और ब्रश के छेद में पुली डालते-डालते हाथ और उँगलियाँ दर्द भी करने लगती हैं। कभी-कभी उँगलियों के पोर भी कट जाते हैं। लेकिन इसके बाद भी हम चाहते हैं कि एक दिन में कम से कम एक दर्जन ब्रश तो तैयार कर ही लें। क्योंकि उनको यह बात अच्छी तरह मालूम है कि बिना कमाए जीवन नहीं चलने वाला है।
ज़ैनब और फरजाना दोनों ने बताया कि दुकानदार ब्रश और पुली तौलकर देते हैं। यदि लाते समय दोनों का वजन एक किलो है तो तैयार माल लेते समय भी उसका वजन एक किलो होना चाहिए। यदि वजन कम होता है तो पैसे काटे जाते हैं? मैंने पूछा कि वजन कैसे कम हो जाता है तो उन्होंने बताया कि पुली लगाते समय कुछ छिटककर उड़ जाता है, कभी कोई हिस्सा खराब निकलता है, ऐसे में वजन काम हो जाता है। जब वजन कम हो जाता है तो पैसे कटते हैं लेकिन यदि दिए वजन से ज्यादा हो तो उसके लिए कोई बात नहीं। उन्होंने बताया कि हम वैसे तो बहुत सतर्कता से काम करते हैं लेकिन उसके बाद भी वजन कम हो जाता है और उसका भरपाई हमारे मेहनताने में कटौती कर की जाती है।
जहां ये लोग रहते हैं वहाँ उनकी बस्तियों का हाल बहुत ही बुरा है। गंदगी, खुली नाली, घर के सामने बहता हुआ गंदा पानी, नल और बिजली का अभाव तुरंत दिखने वाली चीजें हैं। मजदूरों की हर बस्ती में दिखाई देने वाला यह एक आम दृश्य है। जिस माहौल में वे रहते हैं, वहाँ स्वच्छता और सेहत उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। यहाँ रहना उनकी मजबूरी होती है।
सबसे भयानक और जरूरी बात यह कि यहाँ काम करने वालों को सरकार द्वारा तय की न्यूनतम मजदूरी से बहुत ही कम मजदूरी मिलती है। पूरे देश में असंगठित क्षेत्र में आने वाले मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से बहुत ही कम मजदूरी दी जाती है। कुछ मजदूरों को यह मालूम ही नहीं है कि न्यूनतम मजदूरी क्या है और जिनको पता है उन्हें अन्य जगह काम नहीं मिलने के कारण इतनी कम मजदूरी पर काम करना पड़ता है। नियोक्ता की हमेशा से यह इच्छा रही है कि कम मजदूरी पर काम करवा कर ज्यादा लाभ कमाया जाए।
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