भदोही। संभ्रान्त (एलीट) वर्ग की विलासिता, मध्यवर्ग की आकांक्षा और मेहनतकश वर्ग की रोज़ी-रोटी का ज़रिया है- कालीन। कालीन नगरी भदोही में कृषि के बाद कालीन जिसे ग़लीचा भी कहा जाता है, का निर्माण ही रोटी-रोज़गार का दूसरा सबसे बड़ा साधन है। ‘कालीन’ अरबी शब्द है जबकि ‘ग़लीचा’ फ़ारसी शब्द। शब्द उत्पत्ति के लिहाज़ से सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भारत में यह कला मुगलों के साथ आयी। माना जाता है कि भारतीयों को कालीन या गलीचा निर्माण की कला इरानियों ने सिखाई। कई प्रदेशों में कभी ठंड से बचने के लिए प्रयोग किया जाने वाला कालीन अब अभिजात्य बोध का प्रतीक बनकर गर्म प्रदेशों में भी व्यापक रूप से प्रयोग किया जा रहा है।
कालीन बनने की प्रक्रिया बहुत धीमी और लम्बी होती है। ड्राइंग हॉल में बिछने के लिए बाज़ार तक पहुँचने से पहले कालीन, निर्माण कई प्रक्रियाओं से होकर गुज़रती है। हर प्रक्रिया में उसके विशेषज्ञ और कुशल-अकुशल मज़दूर काम करते हैं। कालीन निर्माण की एक प्रक्रिया में लगा मज़दूर और एक्सपर्ट कालीन निर्माण की दूसरी प्रक्रिया के लिए नौसिखिया होता है। कालीन निर्माण से जुड़ी हर प्रक्रिया बहुत बारीक और जटिल होती है।
यूं तो कालीन बनने की प्रक्रिया ताना के लिए सूत व कपास जुटाने और बाना के लिए भेड़ का बाल उतारने और उन्हें मिल में कताई करके काती बनाने से शुरू हो जाती है, लेकिन हम यहां कालीन निर्माण की मोटा-मोटी तीन प्रक्रियाओं के बारे में बात करेंगे।
बाना में लगने वाली काती की रँगाई
यह प्रक्रिया रंगरेजों के ज़िम्मे होती है। कहने का मतलब यह कि व्यवसायिक रूप से काती रंगाई की प्रक्रिया पारंगत रंगरेज़ के देख-रेख में पूरी होती है। नई बाज़ार भदोही के अन्सार धागा ऊन रँगने का काम करते हैं। यह उनका पुश्तैनी काम है। उनके अब्बू (पिता) और उनके अब्बू के अब्बू भी लच्छी रंगाई का काम कई पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। अन्सार ने यह काम अपने पिता से ही सीखा है। मैट्रिक तक तालीम (शिक्षा) हासिल करने के बाद ही वे भी पिता के साथ इसी काम में लग गये और यह काम पूरी तरह सीखने में उन्हें क़रीब 7 साल लगे। उनके भाई भी ऊन रँगाई का काम करता है।
“मेहनताना गलीचे की गुणवत्ता और डिजाइन के आधार पर तय होता है। जैसे कि मोटी डिजाइन है 7×18 क्वालिटी (ताना-बाना) का तो 3×6 फीट आकार के गलीचे के बुनाई के लिए बुनकर को 600 रुपये प्रति मीटर के हिसाब से भुगतान किया जाता है। लेकिन इसी साइज का 8×22 या 9×25 क्वालिटी का कालीन होगा तो 1000-1200 रुपये प्रति मीटर के हिसाब से भुगतान होगा। क्योंकि इस क्वालिटी का कालीन एक दिन में बुनकर 8-10 इंच ही बुनाई कर पाएगा।”
यह काम अन्सार एक बड़ी कम्पनी के लिए करते हैं। कंपनी उन्हें ऊन की लच्छियां देती हैं और वे कम्पनी से लाकर अपने कारखाने में उसकी रँगाई करते हैं। इसके लिए उन्होंने 50 किग्रा, 100 किग्रा, 200 किग्रा, 500 किग्रा, और 1000 किलोग्राम की स्टील की टंकियां लगवा रखी हैं। इसके अलावा अलग-अलग साइज के भट्ठे और चरखियां भी उन्होंने सेटअप कर रखा है। जिनमें लच्छियों को उनकी मात्रा के हिसाब से रँगा जाता है।
लच्छियों की रँगाई के बाद उन्हें धूप में भलीभांति सुखाया जाता है। इसके लिए खुली जगहों पर बांस और तार के सेट-अप तैयार किये गए हैं। जहां रँगी लच्छियों को फैलाने और उतारने में आसानी रहती है। लच्छियों को अच्छी तरह सुखाने के बाद वापिस कंपनी को दिया जाता है। जहां कंपनी इन लच्छियों का तौल करके, उसके अनुसार भुगतान करती है।
अन्सार बताते हैं कि गर्मी के मौसम में लच्छियां ज़्यादा सूख जाती हैं। इससे तौल में 5-6 प्रतिशत का नुकसान होता है। कोई भी चीज अगर ज़्यादा सुखा दिये तो नुकसान (लॉस) होना ही है। ऊन ऐसी ही चीज होती है। थोड़ा सा पानी मार दिए तो उसकी सभी चीजें मैन्टेन हो जाती है और पता ही नहीं चलता कि नम है या सूखा है। जबकि ठंड में जब धूप नहीं निकलती है तब लच्छियों को 2-3 दिन फैलाना पड़ता है। ठंडी में बार-बार फैलाने उतारने में मज़दूरी ज़्यादा लगती है। अलग से आदमी रखने पड़ते हैं ताकि बार-बार पलटा जा सके। बारिश में भी यही हाल होता है। इधर लच्छियां फैलाये उधर बारिश आयी तो तुरन्त हटाना पड़ता है। कई बार लच्छियां उतरती भी नहीं हैं और माल भीग जाता है, इससे नुकसान होता है। जब धूप निकलती है तो वापस फैलाना पड़ता है।
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अन्सार की अभी शादी नहीं हुयी है। उनके परिवार में माँ-बाप के अलावा भाई और भाभी हैं। वे बताते हैं कि अगर वे लच्छी लेने या पहुंचाने कहीं जाते हैं तो उनका भाई रंग (कलर) बना लेता है। अगर भाई कहीं चला गया तो रंग वे बना लेते हैं। रंग बनाने का काम दोनों भाई और पिता करते हैं। जबकि भट्ठी जलाने, चरखा चलाने, रंग पकाने, लच्छी फैलाने उतारने का काम मज़दूर करते हैं।
रंगों को पक्का बनाने के लिए उन्हें ख़ूब खौलाया जाता है। ईंधन के तौर पर लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। लकड़ी 5 रुपये प्रति किलो की दर से बाज़ार से ख़रीदते हैं। वे बताते हैं कि काम कम रहने पर 6-8 लोगों से काम चल जाता है। जब काम ज़्यादा होता है तब 50 से ज़्यादा लोग लगते हैं। ज़्यादा मज़दूरों की ज़रूरत होने पर भदोही के अज़ीमुल्ला चौराहा के लेबर चौक से दिहाड़ी पर मज़दूर ले आते हैं। दिहाड़ी पेशा मज़दूर नगदी लेते हैं। सुबह काम करके शाम को पैसा ले लेते हैं।
भदोही जिला कालीन नगरी होने के नाते लेबर चौराहे पर मिलने वाले अधिकांश मज़दूर कालीन बनाने की किसी न किसी प्रक्रिया से जुड़ा काम करते हैं। इस वजह से उन्हें पता होता है कि रंगो को कैसे पकाना है, फिर लच्छियों को कैसे चरखे पर चढ़ाना है, चरखे को कैसे चलाना है। कैसे उतारना है, कैसे दूसरा चढ़ाना है। आंच कितनी देनी है कितनी नहीं देनी है। सारे मज़दूर यही काम हर जगह करते हैं।
काम और मुनाफे पर मौसम का कितना असर होता है? पूछने पर अन्सार बताते हैं कि बारिश में काम कमज़ोर रहता है। काम कम है तो महीने में 15-20 हजार रुपये का फायदा होगा, जिसमें परिवार के दो लोग लगे रहेंगे। गर्मी में जब काम ज़्यादा होता है तब ज़्यादा मज़दूर लगाने पड़ते हैं। ऐसे में एक महीने में 30-40 हजार रुपये भी कमा लेते हैं।
7-8 लोगों की कार्य क्षमता वाला रँगाई का एक छोटा कारखाना स्थापित करना हो तो किन बुनियादी चीजों के साथ कितनी पूंजी की ज़रूरत होती है? पूछने पर उन्होंने बताया हैं कि इस क्षमता के डाइंग कारखाना के सेटअप में लगभग 15 लाख रुपये लगता है। कारखाना लगाने, भट्ठा बनाने, चरखी लगाने, टंकी लगाने जैसे काम के अलावा 5-6 बिस्वा ज़मीन भी चाहिए होती है। यदि आपके फर्म का रजिस्ट्रेशन जीएसटी नंबर वगैरह है तो बैंक से लोन मिल जाता है।
आगे वह बताते हैं कि डाइंग के काम में 90-95 प्रतिशत मज़दूर और 5-10 प्रतिशत लोग मालिक होते हैं। इस काम में भी कुशल और अकुशल मज़दूरों की श्रेणी होती है। जो कुशल मज़दूर है वह रंगने वगैरह का काम जानते हैं, अकुशल मज़दूरों का काम रंगाई के बाद काती फैलाना, पलटना, सुखाना उतारना होता है।
हमारे यहाँ रँगाई के काम में मजदूरी के तीन-चार रेट है। किसी को 350 रुपये, किसी को 300 रुपये, तो किसी को 250 रुपये मिलते हैं। वे ज़ोर देकर कहते हैं कि उनके यहाँ बच्चों या नाबालिग लोगों से काम नहीं कराया जाता है। वे बताते हैं कि स्त्रियां डाइंग का काम नहीं करती। उनका काम काती फैलाना-उतारना होता है। वे दलील देते हैं कि इस काम के लिए स्त्रियां एक्सपर्ट होती हैं। स्त्रियों को काती फैलाने सुखाने के काम के बदले 200 रुपये मज़दूरी दी जाती है। हालांकि अगले ही वाक्य में अपने दलील का खंडन करते हुए कहते हैं कि यदि काती सुखाने के काम में कोई बूढ़ा आदमी भी लगा है तो उसे 250 रुपये मज़दूरी दी जाती है।
एक युवा स्त्री की तुलना में बूढ़ा आदमी कितना फुर्तीला और कार्य कुशल होता है पता नहीं। स्त्री शोषण को जायज़ ठहराने वाले जैविक निर्धारणवाद खांचे में वे तर्क देते हैं कि, ‘चरखा चलाना स्त्रियों के वश का नहीं है, इस काम में ज्यादा शारीरिक बल की जरूरत होती है’।
करघा पर कालीन की बुनाई
भदोही में कालीन की बुनाई का काम कई स्तरों पर होता। जैसे कि सुरेश मौर्या ने नई बाज़ार स्थित अपने आवास पर ही एक करघा का सेट-अप लगा रखा है। पारिवारिक सेट-अप में परिवार के कई लोग बुनाई का काम करते हैं। कालीन उद्योग में बुनाई के काम में लगी अधिकांश स्त्रियां पारिवारिक सेट-अप में ही काम करती हैं। घर परिवार और चूल्हा चौका सम्हालते हुए वो समय निकालकर कालीन बुनाई का काम करती हैं। यदि 3 फिट से अधिक चौड़ाई का कालीन बुनना है तो एक ही करघे पर एक साथ दो तीन लोग बैठकर बुनाई कर सकते हैं। जगह होने पर लोग घर में ही एक से अधिक करघा भी लगा लेते हैं।
दूसरा सेट-अप कमर्शियल स्तर का होता है। इस तरह के सेट-अप अमूमन कमीशन एजेंट द्वारा लगाया जाता है। ये लोग कंपनियों से कमीशन बेस पर मज़दूरों से कालीन बुनाई का काम करवाते हैं।
तीसरा सेटअप खुद कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर मज़दूर रखकर कालीन बुनाई का काम करवाया जाता है। लेकिन इस तरह के सेट-अप कम देखने को मिलते हैं। मुख्यतः इसके दो कारण हैं, पहला यह कि इसके लिए बड़े पैमाने पर जगह की ज़रूरत होती है और दूसरा यह कि कुछ दिन काम करने के बाद मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के पैमाने को पूरा करना होता है, जिससे कंपनियां अक्सर कतराती हैं। अतः मुख्य तौर पर कालीन बुनाई की प्रक्रिया में पहले दो सेटअप ही देखने को मिलते हैं।
नई बाज़ार स्थित अपने आवास में सुरेश मौर्या कालीन बुनने में तल्लीन हैं। बाहर रिमझिम-रिमझिम फुहारें गिर रही हैं। हम सड़क से उतरकर सुरेश मौर्या के आवास में दाख़िल होते हैं। यह आवास उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मिला है और साल भर के अंदर ही निर्मित हुआ है। दो तरफ से खुले बरामदे में उन्होंने करघा सेट किया हुआ है। लोहे के गाटर का करघा। पति-पत्नी और तीन बच्चों के परिवार में केवल सुरेश कालीन बिनने का काम करते हैं। उनकी जीवन-संगिनी संगीता को कालीन बुनना नहीं आता। जबकि बच्चे अभी किशोरावस्था में हैं और उनका पूरा ध्यान पढ़ाई पर है।
स्टील की सरिया (रॉड) पर पूरी तल्लीनता से बाना का धागा घुमाते सुरेश बार-बार बुनाई की एक ही जैसी प्रक्रिया दोहराते हैं। तीन फीट चौड़ाई की बुनाई पूरी होने पर लकड़ी की हथौड़ी और प्रत्येक बार बाने के तार पड़ जाने के बाद लोहे के पंजे (पांजा) से ठोक कर धागे को बैठाते हैं ताकि कालीन की बुनाई गफ (सघन) हो। एक तह (लेयर) की बुनाई हो जाने के बाद ऊन काटकर सरिया निकाल ली जाती है और वापस सरिया ऊपर रखकर दूसरे तह की बुनाई शुरू होती है।
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वह बताते हैं कि, ‘लगातार 10-12 घंटे बिना नागा किये काम करने पर महीने में 8500 रुपये की आय हो जाती है। जिससे वे अपने घर परिवार की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करते हैं।
आप स्वतंत्र रूप से कालीन की बुनाई और बिक्री आदि करते हैं या फिर किसी कंपनी से जुड़कर? इस सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि वो एक्सपोर्टर से ऑर्डर लेकर कालीन बिनाई का काम करते हैं। एक्सपोर्टर द्वारा उन्हें ऑर्डर, मटेरियल और डिजाइन दिया जाता है। क्वालिटी और क्वांटिटी और साइज बताया जाता है, जिसे बनाकर उन्हें वापिस देने पर पैसा मिलता है।
लकड़ी की जगह लोहे के गाटर का करघा इस्तेमाल पर वह कहते हैं कि करघा अमूमन सकुआ और सागौन जैसे रेशेदार लकड़ी का बनता है। अब लकड़ी आसानी से नहीं मिल रही है और बहुत महंगी भी है इसलिए लोगों ने गाटरों का करघा बनवाना शुरु कर दिया है। तो क्या अब लकड़ी का करघा कहीं नहीं दिखता? इस सवाल पर अपने काम में तल्लीनता से लगे, मुंह में खैनी दबाते हुए बताते हैं कि जिसके पास पुराना करघा होगा तो वही होगा। नया करघा अब लकड़ी का नहीं बनवाया जाता है।
वहीं, हरिश्चंद्र मौर्या दूसरी बात बताते हैं कि लोहे के गाटर का लूम सेटअप किया जा रहा है ताकि कालीन जल्दी तैयार हो सके। लकड़ी की लूम पर कालीन तैयार करने में महीनों लगते थे। जिससे कालीन की लागत भी बढ़ जाती थी। लकड़ी के लूम पर हाथ से एक-एक टपका बीना जाता है। एक सूत में दूसरा सूत भिड़ाकर छुरी से काटा जाता है। लकड़ी के करघे से फारसी शैली की कालीन बनती है। जिसे बोलचाल की भाषा में टपकहवा शैली भी कहते हैं। जबकि भदोही में इस वक़्त अधिकांशतः तिब्बती शैली की कालीन की बुनाई हो रही है जिसे आम बोलचाल की भाषा में तीन पत्ती शैली कहते हैं। इसके लिए लोहे के गाटर का करघा ज़्यादा उपयुक्त होता है।
बता दें कि हरिश्चंद्र मौर्या, गिरधारी लाल मौर्या के भतीजे हैं। गिरधारी लाल मौर्या भदोही के कालीन उद्योग में जाना-माना नाम है। वे कालीन की रँगाई और बुनाई के दोनों काम बड़े स्तर पर करवाते हैं। उनके यहां 30-35 लूम हैं, जिस पर 50 से 100 मज़दूर कालीन बिनाई का काम करते हैं।
गिरधारी लाल पांच भाई थे, पर एक भाई के गुजर जाने के बाद अब चारों भाई और उनके भतीजे सब कालीन बुनाई और काती रँगाई के काम से जुड़े हुए हैं। गलीचा बुनाई का काम स्त्री-पुरुष दोनों करते हैं। क्या दोनों के मेहनताने में भी कोई फर्क़ होता है? यह पूछने पर हरिश्चंद्र बताते हैं कि नहीं कोई फर्क़ नहीं होता। प्रति मीटर के हिसाब से तय होता है बुनाई का रेट। आदमी बुने या औरत रेट वही रहेगा। गिरधारी लाल बताते हैं कि ग़लीचा उद्योग में बुनकरी के काम में मेहनताने को लेकर लैंगिक भेदभाव नहीं होता है।
वे बताते हैं कि भदोही में कालीन बुनाई का काम करने वाले बुनकर मुख्यतः कौशाम्बी, कर्वी और बिहार के विभिन्न जिलों से आते हैं। सामान्य तौर पर हर जाति के लोग कालीन बनाने के पेशे में हैं।
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बुनकरों के मेहनताने पर बात करते हुए गिरधारी लाल और उनके भतीजे हरिश्चंद्र मौर्या बताते हैं कि मेहनताना गलीचे की गुणवत्ता और डिजाइन के आधार पर तय होता है। जैसे कि मोटी डिजाइन है 7 x 18 क्वालिटी (ताना-बाना) का तो 3 x 6 फीट आकार के गलीचे की बुनाई के लिए बुनकर को 600 रुपये प्रति मीटर के हिसाब से भुगतान किया जाता है। लेकिन इसी साइज का 8 x 22 या 9 x 25 क्वालिटी का कालीन होगा तो 1000-1200 रुपये प्रति मीटर के हिसाब से भुगतान होगा। क्योंकि बुनकर, इस क्वालिटी का कालीन एक दिन में 8-10 इंच ही बुनाई कर पाता है। वह बताते हैं कि काफी कुछ डिजाइन पर भी निर्भर करता है। जटिल डिजाइन है तो 50-100 रुपये मेहनताना बढ़ जाता है। वे बताते हैं कि कालीन बुनाई के काम में न्यूनतम मेहनताना 5 x 15 और 3 x 20 ताना-बाना के लिए 400 रुपये है।
बता दें कि कालीन में प्रतिवर्ग इंच ऊन के 9-400 तक गुच्छे डाले जा सकते हैं। आमतौर पर 20-25 गुच्छे ही रहते हैं। कालीन की क्वालिटी मुख्य तौर पर कालीन के मुखपृष्ठ पर ऊनी गुच्छों के घनेपन पर निर्भऱ करता है। कालीन की गुणवत्ता को लेकर ऊंची क्वालिटी, मध्यम क्वालिटी और नीची क्वालिटी तीन शब्द बाज़ार में चलते हैं।
कालीन उद्योग में बाल मज़दूरी का बड़ा हौव्वाखड़ा किया जाता है। समय-समय पर इस उद्योग से नाबालिग बच्चों के रेस्क्यू और उत्पीड़न की ख़बरे भी सुर्खियों में आती रहती हैं। हमने गिरधारी लाल मौर्या से पूछा कि ऐसा कहा जाता है कि बच्चों की अँगुलियां ज़्यादा पतली होती हैं तो वो कालीन ज़्यादा फाइन बिनाई कर सकते हैं, इसमें कितनी सच्चाई है? इसके जवाब में वे बताते हैं कि यह अफ़वाह मात्र है और हक़ीक़त में ऐसा कुछ नहीं है। कालीन तो सरिया से बुना जाता है। अंगुली का उसमें कोई काम ही नहीं है। कालीन की मोटाई-पतलाई सरिया से तय होती है। मोटे सरिया से बुनेंगे तो कालीन मोटा बनेगा। पतले से बुनेंगे तो पतला बनेगा। कैंची से कटिंग होती है उसी से गेज आता है।
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आखिर कब तक बुनकर सामान्य नागरिक सुविधाओं से वंचित किए जाते रहेंगे?
हरिश्चंद्र कालीन बुनाई और रँगाई का अपना कारखाना दिखाते हैं। एक-एक लूम पर तीन से पांच बुनकर बैठकर बुनाई कर रहे हैं। कारखाने में हवा और प्रकाश का खास ख्याल रखा गया है। कारखाने में उचित अंतराल पर सीलिंग फैन और हाई वोल्टेज एलईडी बल्ब लगे हुए हैं। कालीन बुनकरों के रहने का इंतजाम कारखाने के बग़ल में ही दो बड़े हॉलनुमा कमरों में किया गया है। कर्वी, कौशाम्बी और बिहार से आये बुनकर यहां सामूहिक रूप से खाना बनाते खाते हैं और दोपहर में यहीं आराम करते हैं और रात में यहीं सोते हैं।
उनके यहां हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्म के बुनकर काम करते हैं। दोनों धर्मों के बुनकरों के लिए दो अलग-अलग हॉल में लूम लगाया गया है। उनके रहने का इंतजाम भी अलग -अलग कमरों में किया गया। कारण पूछने पर वे बताते हैं कि दोनों धर्मों के बुनकर एक दूसरे के साथ कंफर्टेबल नहीं थे। इसलिए उनके काम करने से लेकर रहने खाने तक का इंतज़ाम अलग-अलग किया गया है।
कालीन निर्माण प्रक्रिया में अपनी भूमिका को डिफाइन करते हुए वे बताते हैं कि एक तरह से वो कमीशन एजेंट के तौर पर काम करते हैं। एक्सपोर्टर जिसके यहां से वह माल उठाते हैं वे बुनाई का सारा कच्चा माल जैसे कि डिजाइन से लेकर ऊन, धागा आदि सब देता है। वे आगे बताते हैं कि जो माल उन्होंने तैयार किया है उसकी डिजाइन, रंग, साइज आदि में कुछ डिफेक्ट आ गया तो एक्सपोर्टर पैसा काटता है। 10-25 रुपये प्रति मीटर की दर से वह पैसे काट लेता है। यह नुकसान होता है। तो क्या नुकसान की भरपाई आप बुनकरों के पैसे से करते हैं क्योंकि बुनाई तो उन्होंने ही किया होता है। इस पर वह कहते हैं कि नहीं हम बुनकरों का पैसा नहीं काटते। नुकसान की सारी भरपाई खुद ही वहन करते हैं।
कालीन बुनाई केंद्र के सेटअप के बारे में जानकारी देते हुए वे कहते हैं कि यह लघु उद्योग की श्रेणी में आता है। इसमें मुख्य ख़र्चा लूम सेट-अप का होता है। 10 लूम का सेट-अप करने के लिए 5-6 बिस्वा ज़मीन चाहिए। एक लूम (करघा) ख़रीदने में 60-70 हजार का ख़र्चा आता है।
गिरधारी लाल ताना बाना में लगने वाले धागों और ऊन के बारे में बातें करते हुए जानकारी देते हैं कि ताना सूत का होता है। इसे कच्चा सूत भी बोलते हैं। कहीं-कही जूट (पटसन) का भी इस्तेमाल होता है। जबकि बाना की काती आती है, ऊन की बानी। ऊन की मोटाई और पतलाई के हिसाब से ही ग़लीचे की क्वालिटी तय होती है। कालीन का जैसा दाम मिलता है, वैसा ही ऊन लगाया जाता है। जैसे कि कश्मीरी ऊन महंगा होता है। इसलिए उसका कम इस्तेमाल होता है। जर्मनी, न्यूजीलैंड आदि यूरोपीय देशों से भेड़ के बाल आते हैं। चीन से भी भेड़ का बाल आते हैं। उसे यहां मिक्स करके काती बनाते हैं। पानीपत, बीकानेर, जयपुर, भीलवाड़ा, भदोही, हंडिया में काती मिल हैं। सेमी ऊलेन (सेमी स्टिच) काती का बाना होता है। यूरोपीय ऊन के फाइबर बड़े होते हैं इसमें चमक ज्यादा होती है। जबकि देशी या चीनी ऊन के फाइबर छोटे होते हैं। जिसे अच्छी क्वालिटी का नहीं माना जाता है। यह सस्ते कालीनों में इस्तेमाल होता है।
कालीन की फिनिशिंग
अपने काम से फारिग होने के बाद शाम के साढ़े छः बजे रिमझिम गिरती फुहारों के बीच भदोही चौराहे पर यूको बैंक के सामने एक दुकान पर चाय की चुस्की लेते बैठे मिलते हैं मक़सूद (बाबू)। मेंहदी लगी जुल्फ़ों पर हाथ फेरते हुए मक़सूद मियां बताते हैं कि वे एक कारखाने में कालीन फिनिशिंग का काम करते हैं। जैसे बुनाई के दौरान कालीन गंदा हो जाता है तो उसे साफ करना पड़ता है। बुनाई के दौरान कालीन में काले मटमैले धब्बे, खुत्ती वगैरह रह जाती है तो फिनिशिंग में सब निकालने होते हैं। कटाई करना पड़ता है। उसके बाद उसकी धुलाई होती है। अधेड़वय मक़सूद मियां बताते हैं कि वे एक कंपनी से जुड़कर काम करते हैं। एक कालीन की फिनिशिंग में उन्हें 300-500 रुपये मिलते हैं। कालीन के हिसाब से पैसा मिलता है। ज़्यादा गंदा होता है तो ज़्यादा काम करना पड़ता है।
वे बताते हैं कि उनके परिवार के सभी लोग कालीन कारोबार से जुड़े हुए हैं। और कालीन उद्योग के अपने 30-35 साल के कार्यकाल में उन्होंने हर जाति के लोगों को कालीन उद्योग में काम करते देखा है।
कालीन फिनिशिंग के कई चरण होते हैं। पहले चरण में कच्ची धुलाई की जाती है। ताकि फौरी तौर पर कालीन की धूल और गंदगी या किसी भी दाग को हटाया जा सके। इसके बाद ढेरों को समान ऊंचाई पर समतल करने के लिए काट दिया जाता है। इसे शियरिंग (कर्तन) कहा जाता है। इसके पश्चात कालीन पर उकेरी कला आकृति की सीमाओं को काटने की प्रक्रिया होती है। इस मोटिफ(ऐसी डिजाइन जिसे कालीन में अलग रंग के उन या रेशम से उकेरा जाता गया होता है) के अलावा ढेर की ऊंचाई को कम करके भी किया जाता है। इस तरह से मोटिफ पृष्ठभूमि से बाहर निकलता हुआ प्रतीत होता है और कालीन को एक अच्छा लुक देता है। उभरी हुई आकृति कभी-कभी विभिन्न रेशों की भी होती है। इस प्रक्रिया को विभिन्न तरह की कैंचियों से अंजाम दिया जाता है। इस काम को करने के लिए भी कुशल कारीगर चाहिए होते हैं। इसके बाद कालीन के किनारे को एक अलग मोटे धागे से बांधा जाता है। इसे साइड बांडिग भी कहते हैं। इससे कालीन को अतिरिक्त मजबूती मिलती है। कभी-कभार कालीनों के पीछे उभरे हुए रेशों को जलाया जाता है। इस प्रक्रिया को सिंगिंग कहते हैं। इससे कालीन को एक शार्प और साफ़ फिनिशिंग मिलती है।
इन सबके बाद कालीन को एक बार फिर (आखिरी बार) से धोया जाता है। अंतिम धुलाई से कालीन को आवश्यक चमक मिलती है। धुलाई के बाद कालीन को पारंपरिक तरीके से धूप में सुखाया जाता है। बड़े निर्माताओं के पास सुखाने की मशीन होती है जो कालीन के तापमान और नमी को नियंत्रित कर सकती है। धोने और सुखाने की प्रक्रिया में कालीन के किनारों में एक घुमाव प्रवृत्ति आ जाती है। जिसे दूर करने और किनारों को सीधा करने के लिए स्ट्रेचिंग की जाती है ताकि कालीन में कुछ घुमावदार किनारे न रह जायें। धोने के बाद कभी-कभार कालीन में कुछ फुचड़े निकल आते हैं। उन्हें दूर करने के लिए एक आखिरी बार कतरने (क्लिपिंग) का काम किया जाता है। इस प्रक्रिया को करते समय खास ख्याल रखा जाता है कि सूक्ष्म से सूक्ष्म फुचड़ा भी निकाल दिया जाये।
इसीलिए समाज के कमजोर वर्गों जो कि हमारे देश में जाति नामक ब्यवस्था से जुड़े है को जाति के आधार पर देश की सम्पत्ति में आरक्षण दिए जाने का प्रविधान किया गया है
वर्तमान में यह पलट कर् मजबूतों के आरक्षण में बदल गया है
जाति आधारित आरक्षण की ब्यवस्था देश के सभी सेक्टरों में प्रविधानित है जिससे कमज़ोरों को उनका अधिकार मिल सके
बहुत सुंदर प्रस्तुति
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