Friday, March 29, 2024
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नायकों के लिए मानदंड डायरी (18 सितंबर, 2021)

पटना स्थित घर के बाहर बथानी का छप्पर गिर जाने और उसके नीचे मेरी मोटरसाइकिल के दब जाने की सूचना मिली। यह बथानी 1980 के दशक में हुए निर्माण की आखिरी निशानी थी। मैं इसे सहेजकर रखना चाहता था। लेकिन सहेजने के लिए संरक्षण जरूरी होता है। जब मैं ही वहां नहीं तो छप्पर का […]

पटना स्थित घर के बाहर बथानी का छप्पर गिर जाने और उसके नीचे मेरी मोटरसाइकिल के दब जाने की सूचना मिली। यह बथानी 1980 के दशक में हुए निर्माण की आखिरी निशानी थी। मैं इसे सहेजकर रखना चाहता था। लेकिन सहेजने के लिए संरक्षण जरूरी होता है। जब मैं ही वहां नहीं तो छप्पर का संरक्षण संभव नहीं है। घर के सभी सदस्य चाहते हैं कि अब वह वहां एक खूबसूरत पोर्टिको जैसा स्ट्रक्चर हो या फिर उसका कामर्शियल उपयोग हो।

खैर, छप्पर गिरने का दुख तो छप्पर वाला ही समझ सकता है। इसलिए व्यक्तिगत रूप से कल का दिन मेरे लिए निराशाजनक था। परंतु, देश व समाज के लिहाज से अत्यंत ही महत्वपूर्ण। वजह यह कि देश ने राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस मनाया। दरअसल, कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दो जन्मदिवसों (23 अगस्त और 17 सितंबर) में से एक के मौके पर अपना जन्मदिवस मनाया। इस मौके को खास बनाने के लिए भाजपा और आएसएस के लोगों ने खास आयोजन किए। एक आयोजन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के द्वारा भी किया गया। महकमे के मंत्री मनसुख मांडविया ने बताया है कि कल मोदी के जन्मदिन के मौके पर एक ही दिन में वैक्सीन की दो करोड़ से अधिक खुराकें दी गईं। इसे महान उपलब्धि बताते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय में देर शाम केक काटा गया। वहीं कल एक परिचित ने बताया कि उनके इलाके में आरएसएस के गुंडे रामायण का जाप कर रहे हैं और लाउडस्पीकरों के जरिए अन्य लोगों का जीना हराम कर रहे हैं।

खैर, एक खास दृश्य ट्वीटर पर दिखा। नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस की धूम अधिक दिखी। इस अभियान के प्रारंभकर्ता हंसराज मीणा के खिलाफ नरेंद्र मोदी के अनयुयायियों ने अपमानजनक अभियान चलाया। इसके बावजूद देश के युवाओं ने नरेंद्र मोदी को उनके जन्मदिन के मौके पर लानतें भेजीं। यह बेहद खास रहा।

मैं सोच रहा हूं कि यदि राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस की धूम नहीं होती तो क्या होता? मुझे लगता है कि आज प्रकाशित अखबारों में एक खबर जरूर होती और इसका शीर्षक होता -सोशल मीडिया पर मोदी के जन्मदिन की धूम। इसके लिए संख्या भी निर्धारित कर दी जाती, ठीक वैसे ही जैसा कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने जारी किय। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। देश के अखबारों के लिए राष्ट्रीय बेरोजगार अभियान कोई खबर नहीं रही। जबकि यह बेदह महत्वपूर्ण था। शायद ही किसी देश में वहां के नौजवानों ने अपने ही प्रधानमंत्री के जन्मदिवस के मौके पर इस तरह विरोध किया। दरअसल यह विरोध था ही नहीं। यह तो करोड़ों युवाओं की तरफ से मांग है। लेकिन जनसत्ता जैसे अखबार ने भी अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया। दिल्ली से प्रकाशित अन्य अखबारों हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण आदि की चर्चा करना भी बेमानी है। ये तो अखबार हैं भी नहीं। ये हुक्मरान के प्रचार तंत्र के औजार हैं।

[bs-quote quote=”नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस की धूम अधिक दिखी। इस अभियान के प्रारंभकर्ता हंसराज मीणा के खिलाफ नरेंद्र मोदी के अनयुयायियों ने अपमानजनक अभियान चलाया। इसके बावजूद देश के युवाओं ने नरेंद्र मोदी को उनके जन्मदिन के मौके पर लानतें भेजीं। यह बेहद खास रहा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कल का दिन पेरियार जयंती के कारण भी महत्वपूर्ण था। मुझे बिहार के सुदूर इलाकों से पेरियार जयंती समारोह मनाने की सूचनाएं मिलीं। मन को तसल्ली भी हुई कि पेरियार के विचार उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में पहुंचने लगे हैं। ब्राह्मणवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की बातें कर रहे हैं। जाति के विनाश का संकल्प ले रहे हैं। यह वाकई में सबसे उत्साहजनक है।

मैं उत्साहजनक इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यह स्थिति तब है जब उत्तर भारत के किसी भी अखबार ने पेरियार को जगह नहीं दी। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पेरियार जयंती के मौके पर ट्वीट नहीं किया। उन्होंने विश्वकर्मा को याद किया और देशवासियों को बधाई दी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी नरेंद्र मोदी का नकल किया और पेरियार से किनारे कर लिया। उन्होंने विश्वकर्मा पूजा की शुभकामना 16 सितंबर को ही जारी कर दिया था और इसके लिए सूचना एवं जनसंपर्क विभाग का इस्तेमाल किया। हद तो यह कि बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती को भी पेरियार की याद नहीं आई। वहीं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव की बेहयाई का आलम यह कि कल लखनऊ स्थित अपने पार्टी कार्यालय में विश्वकर्मा पूजा का आयोजन किया और आरती उतारते नजर आए। यही हाल झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का भी रहा। उनके लिए भी पेरियार का कोई मतलब नहीं।

उत्तर भारत के दलित-पिछड़े नेताओं में एक राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव खास रहे। उन्होंने पेरियार जयंती के मौके पर ट्वीट जारी किया। अपने ट्वीट में उन्होंने ब्राह्मणवाद और कर्मकांड के खिलाफ संघर्ष का संकल्प व्यक्त किया। लेकिन एक दूसरे ट्वीट में उन्होंने विश्वकर्मा की बधाई देते हुए अपने पहले ट्वीट को अर्थहीन बना दिया।

[bs-quote quote=”कल का दिन पेरियार जयंती के कारण भी महत्वपूर्ण था। मुझे बिहार के सुदूर इलाकों से पेरियार जयंती समारोह मनाने की सूचनाएं मिलीं। मन को तसल्ली भी हुई कि पेरियार के विचार उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में पहुंचने लगे हैं। ब्राह्मणवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की बातें कर रहे हैं। जाति के विनाश का संकल्प ले रहे हैं। यह वाकई में सबसे उत्साहजनक है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल, उपरोक्त नेताओं की चर्चा मैं खास उद्देश्य से कर रहा हूं। मेरे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि द्विज वर्ग किस तरह का कर्मकांड करता है या नहीं करता है। मेरे लिए दलित-पिछड़े-आदिवासी नेता महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन नेताओं का समर्थक यही वर्ग है। और ऐसा भी नहीं है कि ये सभी पेरियार को नही जानते। ये सब जानते हैं लेकिन इसके बावजूद वे पेरियार का नाम न लेकर विश्वकर्मा का नाम जप रहे हैं तो यह एक तरह से ब्राह्मणवादियों की जीत है और साबित करता है कि मुट्ठी भर होने के बावजूद वे अपना वर्चस्व कैसे कायम रखते हैं।

कल की ही बात है। मेरे एक परिचित ने एक गीत की समीक्षा भेज दी। गीत के बोल हैं – बंबई में का बा। पहले तो मुझे गुस्सा आया कि क्या अब एक आलतू-फालतू गीत की समीक्षा भी लिखी जाएगी और इसके बहाने किसी प्रांत की सामाजिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि की समीक्षा की जाएगी। हालांकि थोड़ी देर बाद मुझे लगा कि यह एक नया प्रयोग हो सकता है यदि लेखन अच्छे से किया जाय। अनेक फिल्मी गीत हैं, जिनकी साहित्यिक समीक्षा की जा सकती है। लेकिन बंबई में का बा तो एकदम ही उलट है। वजह यह कि गीत मूल सवाल से बहुत दूर है जो कि भूमि के असमान वितरण से संबंधित है, भूमिहीनता से संबंधित है।

गीत की पहली ही पंक्ति में कहा गया है कि गांव में दो बीघे में मकान है और गाने वाला गायक अथवा नायक टेम्पू में सोने को मजबूर है। गीतकार क्या इतने नासमझ हैं कि वे बीघे का मतलब भी नहीं जानते। एक बीघे में बीस कट्ठा होता है और एक कट्ठे में 1361 वर्ग फुट। इस हिसाब से देखें तो दो बीघे में करीब 52 हजार वर्गफुट होता है। इतने बड़े एरिया में गांवों में किसका घर होता है? पहले होता होगा जब जमींदारी प्रथा थी। जमींदारों के पास घर में बड़ा सा अहाता होता था, बड़ा सा दालान होता था, मर्दानी किता अलग और जनानी किता अलग। मनोज वाजपेयी के पास ऐसा घर जरूर होगा मोतीहारी में। लेकिन बिहार के वे लोग जो मुंबई, दिल्ली, सूरत और चेन्नई आदि शहरों में काम करने जाते हैं, उनमें से अधिकांश के पास दो बीघा तो क्या दो धूर जमीन भी नहीं होती। ऐसे लोगों को कहा जा रहा है कि बंबई में का बा

[bs-quote quote=”हद तो यह कि एक ब्राह्मण ने कल दशरथ मांझी को विश्वकर्मा का अवतार बता दिया और उसके फेसबुक पोस्ट को सबसे अधिक पसंद करनेवालों में दलित और पिछड़े थे। मांझी का योगदान यह है कि उन्होंने गया जिले के गेल्हौर में एक पहाड़ को छेनी-हथौड़े से काटकर रास्ता बना डाला। इसके लिए दशरथ मांझी ने अपना जीवन लगा दिया। वे एक सामाजिक कार्यकर्ता रहे और राजनीतिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहते थे। क्या यह बेहतर नहीं होता कि वे एक जन आंदोलन के जरिए सरकार पर दबाव बनाते। लेकिन वहां की राज्य सरकार मूकदर्शक बन दशरथ मांझी के अदम्य साहस (मैं बेवकूफी कहूंगा) को देखती रही।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल, जमीन का वितरण बहुत असमान है। बिहार में जिनके पास खेत है, वह खेती नहीं करते। वे सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, वकील, पत्रकार, नेता, अभिनेता, व्यवसायी हैं। जिनके पास खेत नहीं है वे ही बिहार में किसान हैं। यह उलटी गंगा बह रही है बिहार में।

असल में बिहार और यूपी दोनों राज्यों की हालत एक जैसी है। चूंकि बिहार का हूं तो इसकी रग-रग से वाकिफ हूं। अब वहां दशरथ मांझी आदर्श बन गए हैं। हद तो यह कि एक ब्राह्मण ने कल दशरथ मांझी को विश्वकर्मा का अवतार बता दिया और उसके फेसबुक पोस्ट को सबसे अधिक पसंद करनेवालों में दलित और पिछड़े थे। मांझी का योगदान यह है कि उन्होंने गया जिले के गेल्हौर में एक पहाड़ को छेनी-हथौड़े से काटकर रास्ता बना डाला। इसके लिए दशरथ मांझी ने अपना जीवन लगा दिया। वे एक सामाजिक कार्यकर्ता रहे और राजनीतिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहते थे। क्या यह बेहतर नहीं होता कि वे एक जन आंदोलन के जरिए सरकार पर दबाव बनाते। लेकिन वहां की राज्य सरकार मूकदर्शक बन दशरथ मांझी के अदम्य साहस (मैं बेवकूफी कहूंगा) को देखती रही। यह भी नहीं हुआ कि सरकार उनके हाथ से छेनी-हथौड़ा छीन लेती और कहती कि बाबा आप बहुत महान हैं। अब रहने दें। यह काम दो दिन में हो जाएगा। करना क्या था? बस डायनामाइट लगाना था, दो दिनों में गेल्हौर के लोगों के जीवन का कष्ट दूर हो जाता।

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जो लोग दशरथ मांझी को महानायक मानते हैं, मैं उनसे एक ही सवाल करना चाहता हूं कि क्या वे ऐसी कामना करना चाहेंगे कि उनका बेटा-पोता-नाती दशरथ मांझी के जैसा बने और अपना पूरा जीवन एक पहाड़ का सीना चीरने में लगा दे?

उत्तर भारत के दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को अपना नायक बदलना ही होगा। और कोई विकल्प नहीं। कल एक कविता जेहन में आई।

तुम जोंक हो या नहीं

यह फैसला तुम नहीं कर सकते।

जब तुम जाति के बूते

किसी दलित, आदिवासी, पिछड़े का खून

चूसते हो

मुझे जोंक ही लगते हो

या फिर धर्म रूपी फन काढ़े

कोई गेहुंअन सांप।

मैं वाकिफ हूं कि

गेहुंअन बन तुम

सत्ता के शीर्ष पर कुंडली मारे बैठे हो

और जोंक की तरह

तुम बढ़ते जा रहे हो।

लेकिन अब संविधान है हमारे पास

फिर जोंकों का इलाज

हम खूब जानते हैं

और गेहुंअनों का फन थूरना भी।

बस इतना याद रखना।

 नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस मे संपादक हैं ।

गाँव के लोग
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