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‘जनसत्ता’ का ‘राजसत्ता’ बन जाना (डायरी, 18 नवंबर 2021)

बौद्धिक लेखन में किसी को क्रेडिट देना महत्वपूर्ण माना जाता है। मेरे हिसाब से यह दिया भी जाना चाहिए और ना केवल लेखन में बल्कि जीवन के हर आयाम में। लेकिन हम भारत के महान लाेग बहुत जल्दी किसी को क्रेडिट नहीं देते। क्रेडिट देना तो छोड़िए हम धन्यवाद तक कहने से बचते हैं। फिर […]

बौद्धिक लेखन में किसी को क्रेडिट देना महत्वपूर्ण माना जाता है। मेरे हिसाब से यह दिया भी जाना चाहिए और ना केवल लेखन में बल्कि जीवन के हर आयाम में। लेकिन हम भारत के महान लाेग बहुत जल्दी किसी को क्रेडिट नहीं देते। क्रेडिट देना तो छोड़िए हम धन्यवाद तक कहने से बचते हैं। फिर चाहे वह माता-पिता और पत्नी आदि परिजन क्यों न हो। मैं यदि अपनी बात कहूं तो मुझे लगता है कि मैं अलग हूं। मुझे थैंक्स कहना अच्छा लगता है और सॉरी कहने से भी नहीं हिचकता। एक बार मेरी पत्नी ने मुझसे कहा कि तुम मुझे अच्छे लगते हो। यह कोई अनोखी बात नहीं थी, ऐसा वह बाजदफा पहले भी कहती रही थी और अब भी कहती रहती है। लेकिन उस रात की बात कुछ खास थी। उसने कहा कि मुझे तुम्हारा थैंक्स कहना अच्छा लगता है।
दरअसल, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस स्तर के मनुष्य हैं? हालांकि इसके कई पैमाने हो सकते हैं, जिनमें से एक मेरे हिसाब से यह भी कि आप दूसरों को श्रेय कितना देते हैं और कितना दूसरों के काम को सराहते हैं। इस मामले में यदि पत्रकारिता को घुसेड़ दूं तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि हिंदी अखबारों के संपादक कृतघ्न होते हैं, जबकि अंग्रेजी अखबारों के संपादक कृतज्ञ। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हिंदी के अखबारों में प्रकाशित कुछ खास खबरें, जिन्हें बाइलाइन खबरें कहते हैं, को छोड़कर अन्य सभी खबरों के लेखक कौन हैं, इसकी जानकारी पाठक को नहीं दी जाती है। जबकि अंग्रेजी अखबारों के हर खबर के साथ उसके लेखक पत्रकार का नाम होता है।

[bs-quote quote=”जनसत्ता ने वीर दास की आलोचना करने में ईमानदारी नहीं बरती है। उसका कहना है कि वीर दास ने भारतीय महिलाओं का अपमान किया। जबकि अपनी कविता में वीर दास ने इतना ही कहा है कि– ‘मैं उस भारत से आता हूं जहां दिन में हम महिलाओं की पूजा करते हैं और मैं उस भारत से भी आता हूं जहां रात को हम महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं।'” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

दरअसल, खबरों के साथ पत्रकार का नाम होना आवश्यक है। इसके अनेक फायदे होते हैं। सबसे अधिक फायदा पत्रकार को होता है कि उसकी एक पहचान बनती है। दूसरा फायदा पाठकों को भी होता है कि उन्हें इस बात की जानकारी मिल जाती है कि खबर लिखनेवाले की सामाजिक पहचान क्या है और उसके शब्दों का निहितार्थ क्या है। इसकी एक वजह यह कि भारत में अधिकांश नामों के साथ सरनेम होता है, जो कि सामाजिक पृष्ठभूमि का परिचायक होता है।
खैर, इतनी सारी बातें इसलिए ताकि आज दिल्ली से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ को ‘राजसत्ता’ कह सकूं। दरअसल आज के अंक में जनसत्ता के पहले पृष्ठ के बॉटम में एक खबर छपी है। इसका शीर्षक है – ऐसे वीर अभी दास ही तो हैं। यह खबर मशहूर हास्य अभिनेता वीर दास से जुड़ी है। खास बात यह कि इस खबर के साथ इसके लेखक का नाम नहीं है। लेखक के बदले लिखा है– जनसत्ता संवाददाता। मतलब यह कि हम यह नहीं समझ सकते कि इसे लिखा किसने है।
मूल बात यह कि खबर लिखने में बेईमानी की गयी है। खबर में इस बात की जानकारी नहीं दी गयी है कि वीर दास ने अमरीका के प्रतिष्ठित केनेडी सेंटर में अपने प्रदर्शन के दौरान एक कविता का पाठ किया। अंग्रेजी में इस कविता का  शीर्षक था– आई कम फ्रॉम टू इंडियाज। यानी मैं दो तरह के भारत से आता हूं। वीर दास ने यूट्यूब पर जो वीडियो बीते साेमवार को अपलोड किया, उसमें उन्होंने दो तरह के भारत की चर्चा की है। इस कविता में उन्होंने कोविड के दौरान सरकारों की लापरवाही, किसानों की समस्या आदि का उल्लेख किया है। उन्होंने महिलाओं पर होनेवाली घरेलू हिंसा का जिक्र किया है। वीर दास ने अपनी कविता में जातिगत भेदभाव का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया है। इसकी एक वजह यह संभव है कि उत्तराखंड के देहरादून में जन्मे वीर दास को जातिगत भेदभाव का सामना अधिक नहीं करना पड़ा हो। वैसे भी पहाड़ों पर जातिगत भावना मैदानी इलाकों की तुलना में बहुत कम देखी जाती है।

[bs-quote quote=”मेरा मानना है कि वीर दास ने भारत सरकार की पोल खोल दी है। अपनी कविता में वीर दास ने यह भी कहा कि– मैं उस देश से आता हूं जहां स्कूली बच्चों को मास्क पहनकर स्कूल आने को कहा जाता है और मैं उसे देश से भी आता हूं जहां के नेता बिना मास्क लगाए लोगों से गले मिलते हैं। जाहिर जौर पर वीर दास ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

खैर, जनसत्ता ने वीर दास की आलोचना करने में ईमानदारी नहीं बरती है। उसका कहना है कि वीर दास ने भारतीय महिलाओं का अपमान किया। जबकि अपनी कविता में वीर दास ने इतना ही कहा है कि– ‘मैं उस भारत से आता हूं जहां दिन में हम महिलाओं की पूजा करते हैं और मैं उस भारत से भी आता हूं जहां रात को हम महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं।’ जाहिर तौर पर जिस देश में रोजान औसतन 19 लड़कियों के साथ बलात्कार होता हो, उस देश के लिए यह टिप्पणी कोई गैरवाजिब टिप्पणी नहीं है। लेकिन रामनाथ गोयनका के अखबरा ‘जनसत्ता’ को वीर दास का कौन साथ कथन इतना भारी पड़ गया कि उसकी बिलबिलाहट उसके द्वारा प्रकाशित खबर में स्पष्ट रूप से दिख रही है।
मेरा मानना है कि वीर दास ने भारत सरकार की पोल खोल दी है। अपनी कविता में वीर दास ने यह भी कहा कि– मैं उस देश से आता हूं जहां स्कूली बच्चों को मास्क पहनकर स्कूल आने को कहा जाता है और मैं उसे देश से भी आता हूं जहां के नेता बिना मास्क लगाए लोगों से गले मिलते हैं। जाहिर जौर पर वीर दास ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा है।
बहरहाल, वीर दास तो सचमुच के वीर हैं। लेकिन जनसत्ता को राजसत्ता बनते देखना एक बुरा अनुभव है। लेकिन किया ही क्या जा सकता है? सिवाय इसके कि हम अपनी बात कहें।
कल मुझे भी एक भारत दिखा था। उसे एक कविता के रूप में दर्ज करने की कोशिश की है–
वह अजीबोगरीब नहीं, 
सामान्य दृश्य था
एक औरत अपने बच्चे के साथ
शहर के चौक पर रखे 
कचरे के डब्बे में खाना खोज रही थी
उसे यकीन था कि
वह ढाबा,
जिसके आगे यह कचरा का डब्बा है
उसमें बहुत से लोग आए होंगे
जिन्होंने खाया होगा आधा-अधूरा खाना
और बचा खाना इसी डब्बे में होगा।
वह डंडे से कचरे को उलटती-पलटती है
कभी पिज्जा तो कभी पनीर का टुकड़ा
अपने बेटे के मुंह में डालती है।
उसे अब भी है यकीन कि
यह जो कचरा का डब्बा है
अजर-अमर है
और इसमें खाना कभी खत्म नहीं होगा
वह हर राेज आएगी
और इस डब्बे में फेंके 
टुकड़ों से पेट की आग बुझाएगी।
मुझे उसका यह विश्वास तब दिखा
जब वह रोटी का टुकड़ा
सुकून से खा रही थी
और उसका बच्चा पेट भर जाने के बाद
कचरे के डब्बे को ढोल समझ पीट रहा था।
सचमुच, यह कोई अजीबोगरीब नहीं, 
सामान्य सा दूश्य था।
अजीबोगरीब तो तब होता जब
संसद की आंखों में पानी होता
और हुक्मरान के पास नैतिकता।

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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1 COMMENT

  1. मैं आपकी बात से कतई सहमत नहीं हूं, किसी अमेरिकी या अन्य देश के व्यक्ति ने भारत में आकर ये कहा कि उनके देश में हत्या या रेप होते हैं जबकि ये हर देश में न होते हो, ऐसा भी नहीं , यहां तक कि अमेरिका में रेप का प्रतिशत भारत से ज्यादा है, सच्चाई के नाम पर आप अपने घर की बुरी बातों को चौराहे में खड़े होकर नहीं गाते हैं, आपकी समझ में इत्ती सी बात न आए तो ये आपके दिमाग का खलल है, दूसरा नाम नहीं दिया लेखक का तो न्यूज में ये कौन सी बड़ी बात है, हर खबर में किस पत्र में नाम देते हैं ?लेकिन आपके लिए नाम इसलिए जरूरी था जिससे उसे आप किसी खेमे में बांध सकते थे , हद है

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