Thursday, March 28, 2024
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पर्यावरण बनाम आदिवासी या पर्यावरण के साथ आदिवासी

घटना 2019 की है जब जंगलों से लाखों आदिवासियों को बेदखल करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने देश भर के आदिवासियों को झकझोर दिया था। इसके खिलाफ आदिवासी संगठन व जागरूक नागरिक सड़क पर उतर आये थे। दरअसल कोर्ट का यह फैसला कुछ तथाकथित पर्यावरण संरक्षणवादी संगठनों की एक जनहित याचिका पर आया था […]

घटना 2019 की है जब जंगलों से लाखों आदिवासियों को बेदखल करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने देश भर के आदिवासियों को झकझोर दिया था। इसके खिलाफ आदिवासी संगठन व जागरूक नागरिक सड़क पर उतर आये थे। दरअसल कोर्ट का यह फैसला कुछ तथाकथित पर्यावरण संरक्षणवादी संगठनों की एक जनहित याचिका पर आया था जिसमें उन्होंने आदिवासियों पर जंगल के अतिक्रमण और बेजा कब्जे का आरोप लगाते हुये इसे पर्यावरण के लिये खतरा बताया था। इस पूरे मामले में आदिवासियों के प्रति केंद्र सरकार की गहरी बेरुखी सामने भी आयी थी जिसने सुप्रीमकोर्ट में इस मामले में पैरवी के लिये अपने लोग ही नहीं भेजे।

दरअसल यह पूरा मामला आदिवासियों के जंगलों पर हक व जुड़ाव बनाम पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पर्दे के पीछे कॉरपोरेट लॉबी और उसका साथ देती प्रशासनिक मशीनरी और सरकारों की मक्कारी से जुड़ा हुआ था जो आज की दुनिया में जंगलों और पर्यावरण के सबसे निःस्वार्थ संरक्षकों यानी आदिवासियों को ही पर्यावरण का दुश्मन बना देने पर आमादा है।

[bs-quote quote=”विकास का  सबसे ज्यादा खामियाजा आदिवासियों को ही झेलना पड़ा है जिसकी वजह से वे लगातार अपने परम्परागत संसाधनों से दूर होते गए हैं। वे अपने इलाके में आ रही भीमकाय विकास परियोजनाओं, बड़े बांधों और वन्य-प्राणी अभ्यारण्यों की रिजर्वों की वजह से व्यापक रूप से विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हुए हैं और लगातार गरीबी व भूख के दलदल में फंसते गये हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज भारत में करीब 12 करोड़ से अधिक आदिवासी हैं जो गरीबी और तबाही के दल-दल में धकेल दिये गये हैं। सबकी नजर इनके परम्परागत रिहायश में पाये जाने वाले प्रचुर संसाधनों पर है।  कॉरपोरेट से लेकर सरकार तक हर किसी की गिद्ध नजर इसी खजाने पर है। वे कभी विकास तो कभी पर्यावरण संरक्षण पर इसे निगलने के फिराक में लगे रहते हैं और आदिवासियों के हिस्से में विस्थापन और उजाड़ ही आती है।

क्यों हुआ था बेदखली का फरमान?

13 फरवरी 2019 को देश की सर्वोच्य अदालत ने 16 राज्यों के करीब 12 लाख आदिवासियों को जंगल की जमीन पर उनके कब्जे के दावों को खारिज करते हुए राज्य सरकारों को आदेश दिया था कि वे जमीनें खाली करायें साथ ही कोर्ट ने इन राज्यों के मुख्य सचिवों को यह भी कहा था कि ‘वे 24 जुलाई से पहले अदालत में हलफनामा दायर कर बताएं कि तय समय में जमीनें खाली क्यों नहीं कराई गयीं।’

दरअसल यह पूरा मामला वन अधिकार कानून के खराब क्रियान्वयन से जुड़ा हुआ है जिसे जंगलों पर आदिवासियों के अधिकारों को मान्यता देने के लिए दिसम्बर, 2006 में भारत के संसद द्वारा पारित किया गया था। इन बारह लाख आदिवासियों की गलती यह थी कि वे इस कानून के तहत वनवासी के रूप में अपने दावे को साबित नहीं कर पाए थे। कानून के तहत आदिवासियों के इन दावों की जांच जिला कलेक्टर की अध्यक्षता वाली समिति और वन विभाग के अधिकारियों के सदस्यों द्वारा की जाती है, समझा जा सकता है कि कोताही कहां की हुयी होगी।

बहरहाल इसी सन्दर्भ में कुछ वन्यजीव संरक्षण समूहों द्वारा अदालत में एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें मांग की गयी थी कि जो लोग वन अधिकार कानून के तहत वनभूमि पर अपने दावे को साबित नहीं कर पाये हैं। उन्हें इस जमीन से बेदखल कर दिया जाना चाहिए। याचिका में यह भी कहा गया था कि बड़े पैमाने पर लोग जंगलों में अवैध रूप से रह रहे हैं, जिसकी वजह से वन संपदा और पर्यावरण को को बहुत नुकसान हो रहा है।

इसमें दिलचस्प बात यह है कि इन करीब 12 लाख लोगों के बेदखली का बचाव करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा सुनवाई के दौरान अपने वकील ही नहीं भेजे गये और इस तरह से आदिवासियों के साथ खड़े होने का दावा करने वाली सरकार ने उन्हें कानून की अदालत में बेसहारा ही छोड़ दिया था। जिसकी वजह से सुप्रीमकोर्ट का यह फैसला आया था कि ‘27  जुलाई 2019 तक उन सभी आदिवासियों को बेदखल कर दें जिनके दावे खारिज हो गए हैं’। इस सम्बन्ध में आदिवासी अधिकार के लिये काम कर रहे संगठनों का आरोप था कि मोदी सरकार ने 12 लाख आदिवासीयों का बचाव ही नहीं किया और आखिरी सुनवाई के दौरान तो सरकारी वकील ही अदालत से लापता हो गये थे।

चुनाव की वजह से मिली मोहलत ..?

अदालत के इस आदेश ने हड़कंप मचा दिया और सीधा आरोप केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की मंशा पर लगा कि वह वनभूमि और इसके संसाधनों को कॉरपोरेट घरानों के हवाले कर देना चाहती है। संयोग से अदालत का यह फैसला उस समय आया था जब देश लोकसभा चुनाव में जाने की तैयारी कर रहा था। ऐसे में कोर्ट का यह फैसला सरकार और विपक्षी दलों सभी के लिये परेशानी का सबब बन सकता था क्योंकि इस देश में 47 लोकसभा सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं. इसके अलावा करीब दर्जन पर उनका निर्णायक प्रभाव है।

इसलिये अदालत का फैसला आने के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष पूरी तरह से मुस्तैद नजर आये. कांग्रेस और भाजपा दोनों की राज्य सरकारों द्वारा इस सम्बन्ध में आदिवासियों के साथ खड़े होने और पुनर्विचार याचिका दायर करने की बात की गयी। केंद्र की मोदी सरकार भी अदालत से अपने आदेश पर विचार करने का अनुरोध किया गया जिसपर अदालत राजी हो गयी। इसके बाद केंद्र सरकार द्वारा अदालत में एक हलफनामा दिया गया जिसमें यह दलील दी गयी कि अधिनियम को गलत तरीके से परिभाषित करने के कारण बड़ी संख्या में दावे खारिज हुये हैं और कई मामलों में तो दावा करने वालों को इसका  कारण नहीं बताया गया इसलिये वे इसके खिलाफ अपील भी नहीं कर पाये। केंद्र सरकार द्वारा यह दलील भी दी गयी कि वन अधिकार कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके आधार पर दावे के खारिज होने के बाद किसी को बेदखल किया जाये।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन 12 लाख आदिवासियों को राहत देते हुये अपने 13 फरवरी के आदेश पर फिलहाल रोक लगा दी गयी साथ ही अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को लताड़ते हुये कहा था कि इस मामले में वे अब तक क्यों सोते रहे थे। 

ऐतिहासिक अन्याय का लम्बा सिलसिला और वन अधिकार कानून  

भारत के आदिवासी साथ अन्याय का सिलसिला बहुत पुराना है। पुराने समय में उन्हें राक्षस या असुर  कहा गया और उन्हें जंगलों और पहाड़ों में रहने को मजबूर कर दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान उनसे जंगल का मालिकाना हक भी छीन लिया गया और जंगलों को राज्य की संपत्ति बना लिया गया जिसे ऐतिहासिक अन्याय भी कहा जाता है। आजादी के बाद भी लम्बे समय तक ऐतिहासिक अन्याय का यही सिलसिला कायम रहा। फिर लम्बे संघर्ष और प्रक्रियाओं के बात 2006 में इस स्थिति में बदलाव होता है जब भारत की संसद द्वारा वन अधिकार कानून पारित किया गया जिसे ‘ऐतिहासिक अन्याय’ को दुरुस्त करने वाला कदम कहा गया क्योंकि यह कानून आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन पर उनके मालिकाना हक की पैरवी करता है साथ ही इसमें ग्राम सभाओं को कार्यदायी और न्यायिक शक्तियां भी दी गयी हैं। इस कानून के लागू होने के बाद ग्राम स्तर पर वनाधिकार समितियों का गठन करके 13 दिसम्बर, 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज अनुसूचित जनजातीय समुदाय के लोगों तथा तीन पीढ़ियों से वन भूमि पर काबिज अन्य वन निवासियों से व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे आमंत्रित किये गये थे।

लेकिन सरकारों द्वारा इस कानून की लगातार उपेक्षा की गयी । उनके द्वारा इसे लागू करने में ना केवल कोताही बरती गयी बल्कि इसे कमजोर करने के प्रयत्न भी किये गये। आदिवासी मामलों के मंत्रालय के मुताबिक इस कानून के तहत 42.19 लाख दावे किए गए थे जिनमें से केवल 18.89 लाख दावे ही स्वीकार किए गये यानी 23 लाख से ज्यादा आदिवासी/वनवासी परिवारों के वनभूमि पर किये गये दावे निरस्त कर दिये गये हैं।

संसाधनों की लड़ाई के बीच पिसते अभागे     

भारत के आदिवासी इलाके प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध हैं, प्रमुख खनिजों के मुख्य स्रोत यही इलाके हैं। इसलिये बड़े कारपोरेट और मुनाफाखोरों के निशाने पर भी यही इलाके हैं।  एक तरफ आदिवासी समुदाय  गहरी उपेक्षा, गरीबी और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं तो दूसरी तरफ बड़े विकास परियोजनाओं के कारण उनका जबरन विस्थापन हो रहा है। उदारीकरण के बाद से तो इस प्रक्रिया में बहुत तेजी आयी है, जिसकी वजह से जंगलों के दायरे लगातार सिकुड़े हैं और यहाँ से आदिवासियों की बेदखली बढ़ी है।

विकास का  सबसे ज्यादा खामियाजा आदिवासियों को ही झेलना पड़ा है जिसकी वजह से वे लगातार अपने परम्परागत संसाधनों से दूर होते गए हैं। वे अपने इलाके में आ रही भीमकाय विकास परियोजनाओं, बड़े बांधों और वन्य-प्राणी अभ्यारण्यों की रिजर्वों की वजह से व्यापक रूप से विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हुए हैं और लगातार गरीबी व भूख के दलदल में फंसते गये हैं।

भारत सरकार द्वारा जारी ‘रिर्पोट ऑफ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनॉमिकहेल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस ऑफ ट्राइबल कम्यूनिटी 2014 के अनुसार भूमि अधिग्रहण, विस्थापन और जबरिया पलायन के सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी समुदाय के लोग हुए हैं। विकास परियोजनाओं के कारण सबसे ज्यादा (47 प्रतिशत) आदिवासी समुदाय के लोगों का विस्थापन होता है।  आज कंपनियों की लालच के चलते पर्यावरण के साथ आदिवासी समुदाय दोनों गंभीर खतरे में हैं।

पर्यावरण बनाम आदिवासी या पर्यावरण के साथ आदिवासी

अगर जंगल कम हुये है और वन्य जीवों व पर्यावरण को गंभीर रूप से नुक्सान पहुंचा है तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है ? आखिर आदिवासी क्षेत्रों का बड़ी परियोजनाओं और खनन के जरिये जबरदस्त दोहन किसने किया है और इन सबके लिये किसे विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है? विडंबना है कि इस सबके लिये आदिवासियों को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वन्यजीव संरक्षण समूहों द्वारा अदालत दायर की गयी याचिका में भी कुछ इसी तरह का सवाल उठाते हुये वन अधिकार अधिनियम की वैधता पर ही सवाल खड़े किये गये थे।  उनके मुताबिक यह कानून पहले से ही भारत के बदहाल जंगलों को और बदहाल बना देगा  और यहाँ अतिक्रमण बढ़ेगा।

लेकिन हर किसी को पता है कि जंगलों और पर्यावरण को किससे खतरा है और इसका अतिक्रमण कौन कर रहा है। आदिवासी तो इस अतिक्रमण से पीड़ित हैं। इस बात को गहराई से समझने की जरूरत है कि वे जंगलों के मूल निवासी हैं और इन असली रखवालों का जंगलों के साथ रिश्ता है सहअस्तित्व का रिश्ता। उनका जीवन संस्कृति, रीति-रिवाज, त्यौहार, धार्मिक मान्यताएँ जंगलों और प्रकृति के साथ इस कदर गुत्थमगुत्था हैं कि इसे आसानी से अलग नहीं किया जा सकता है। वे प्रकृति और जंगलों का दोहन तो करते हैं लेकिन हमारी तरह विनाशकारी दोहन नहीं बल्कि उनका दोहन टिकाऊ होता है जो प्रकृति और जैव-विविधता का संरक्षण व संवर्धन करता है।

इसलिये अगर जंगलों और पर्यावरण को बचाना है तो इसमें हम आदिवासी समुदायों को बहिष्कृत करके आगे नहीं बढ़ सकते हैं बल्कि हमें उनसे सीख लेते हुये उनके पीछे चलाना होगा और पर्यावरण व जंगलों के असली दुश्मनों ने निपटना होगा!

जावेद अनीस स्वतंत्र पत्रकार हैं और भोपाल में रहते हैं।

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