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ग्राउंड रिपोर्ट

भाजपा और आरएसएस की हिंदुत्ववादी मानसिकता स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए सबसे बड़ा खतरा है

बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर ने देश में हिंदुत्ववादी ताकतों के मंसूबों को भापते हुए उस समय जो चिंता व्यक्त की थी वह अब पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक स्थिति में पहुँच चुकी है। ऐसे में हमें आपसी भाई चारे को बनाये रखते हुए बीजेपी और आरएसएस के लोगों से दूर रहने की जरूरत है।

देश में इस समय लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। और चुनाव के बीच संविधान ख़त्म करो, संविधान बदलो, 400 पार के नारे दिए जा रहे हैं। आज देश कठिन दौर से गुजर रहा है। जो लोग चुनाव से पहले बाबा साहब अम्बेडकर  द्वारा बनाए गए संविधान को खत्म करने की बात कर रहे थे, जो लोग इस देश को लोकतांत्रिक लोकतंत्र से हिंदू राष्ट्र में बदलने की बात करते हैं, जो लोग इंसानियत को नष्ट  करने की बात करते हैं, अगर उन्हें दोबारा मौका मिल गया तो क्या वे अपने एजेंडे पर आगे बढ़ने का भरसक प्रयास नहीं करेंगे? क्या हमारे देश की हवा में जहर नहीं घुल गया है? क्या नागरिकों को हिंदू-मुसलमान के नाम पर आपस में नहीं लड़ाया जा रहा है? क्या एसएसटी-ओबीसी को गुमराह नहीं किया जा रहा है? लेकिन फिर भी अन्नदाता समाज के कुछ लोग बीजेपी और आरएसएस की मदद कर रहे हैं ताकि अन्नदाता के कंधों पर हिंदू राष्ट्र की स्थापना की जा सके। जिस आरएसएस को बाबा साहब ने संसद में खड़े होकर बेहद खतरनाक संगठन बताया था, उसी आरएसएस के लिए कुछ बुद्धिजीवी और वकील चुनावी स्क्रिप्ट लिख रहे हैं।

आरएसएस और हिंदू राष्ट्रवाद पर शम्सुल जी ने जो शोध किया है, उसके अनुसार लगता है आज भी कोई देश आरएसएस और हिंदू राष्ट्रवाद का मुकाबला नहीं कर सकता। उन्होंने एक आशा भरी तस्वीर दी, हमें शाहीन बाग की याद दिलायी, हमें अन्य आंदोलनों की याद दिलायी। यह कोई बड़ी बात नहीं है। यह राजनीति है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि आरएसएस, हिंदू राष्ट्रवाद और यहां तक ​​कि मुस्लिम राष्ट्रवाद भी आया। उनके अनुसार मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद के सिद्धांतों में कोई अंतर नहीं है। और क्या आप जानते हैं कि यहां कौन सा राष्ट्रवाद चल रहा है? वहां बुद्ध धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद चल रहा है। तो धर्म एक तरफ है और धर्म के माहौल में छिपी राजनीति दूसरी तरफ है। धर्म की जो भी परिभाषा हो, मैं भगत सिंह से लेकर चार्वाक तक की परिभाषाओं तक नहीं जाना चाहता।

लेकिन धर्म, जिसके बारे में संत कबीर ने कहा, मैं उसके बारे में बताऊंगा, मेरे ख्याल से वह धर्म ही है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से प्रेम करना सिखाता है। आज धर्म के नाम पर राजनीति एक इंसान को दूसरे इंसान से लड़ा रही है। ऐसा इसलिए नहीं कि इसके लक्ष्य में कोई धर्म है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह समाज के बड़े वर्गों के मानवाधिकारों को दबाना चाहती है। यह उन्हें नष्ट करना चाहता है। यह उन्हें रसातल में धकेलना चाहता है। यही इसका मुख्य उद्देश्य है। धर्म का इससे कोई लेना-देना नहीं है। अब, अधिकांश समय, यह मुसलमानों की ओर इंगित करता है। एक मुस्लिम राजा थे हम उनके गुलाम थे, आदि। मुस्लिम राजाओं ने यहां किसी भी प्रकार की गुलामी स्थापित नहीं की। लेकिन इसे हिंदू-मुस्लिम लड़ाई मत कहिए। वे पूछेंगे क्यों? मैं कहूंगा, चलो हल्दीघाटी चलते हैं।

हम हल्दीघाटी जाते हैं। हल्दीघाटी के मैदान में एक तरफ अकबर की सेना है तो दूसरी तरफ राणा प्रताप की सेना। जब आप अकबर की सेना को देखेंगे तो उसमें अकबर स्वयं नहीं होंगे। उसे याद आ रहा है। अब अकबर एक राजा है। अकबर की जगह सेना का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है? उनका नाम राजा मान सिंह है। राजा मान सिंह। तो बताओ अकबर की सेना में सिर्फ हिंदू होते थे या हिंदू-मुसलमान? दोनों। अब मैं महाराणा प्रताप के पास जाता हूं। महाराणा प्रताप के दो सेनापति थे। एक का नाम राम सिंह और एक का नाम हकीम खान सूर है। राणा प्रताप के पास 3,000 सैनिक थे। राम सिंह के अधीन 2,000 सैनिक। हकीम खान सूर के अधीन 1,000 सैनिक। तो बताओ राणा प्रताप की सेना में सिर्फ हिंदू थे या हिंदू-मुसलमान? दोनों। क्या दोनों तरफ हिंदू हैं? हां या नहीं? क्या दोनों तरफ मुसलमान हैं? तो क्या यह हिंदू-मुसलमानों की लड़ाई है या दो राजाओं की लड़ाई है? क्या यह धर्म की लड़ाई है या सत्ता की? सत्ता के लिए। अब इस इतिहास को इस प्रकार किसने प्रस्तुत किया? वो मैं आपको बताना चाहूँगा। इतिहास को धर्म के चश्मे से देखने का कारण ब्रिटिश उपनिवेशवादी शक्तियों द्वारा व्यापारिक शोषण किया जाना था। अंग्रेज भारत में  पिकनिक मनाने आये थे? वे व्यापार के लिए आए थे।

मुख्य कारण यह भी था कि आधुनिक शिक्षा केवल संप्रभु उपशाखाओं के लिए नहीं थी। भारत के कुछ महान लोगों ने इस शिक्षा को दलितों तक पहुंचाने का प्रयास किया। ज्योति राव फुले को याद करें। उनकी पत्नि का नाम ,सावित्री भाई फुले था। सावित्री भाई फुले ने लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला। और मैं आपको एक मजेदार बात बताता हूं। जब सावित्री भाई फुले ने लड़कियों के लिए स्कूल खोला तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी? उन्होंने कहा, हमारा धर्म महिलाओं को शिक्षा देने की इजाजत नहीं देता। इसीलिए जब सावित्री भाई स्कूल जाती थीं तो अपने साथ अतिरिक्त कपड़े लेकर जाती थीं। क्या उन्हें भी प्रधानमंत्री जैसा अधिकार था? फिर उसने अतिरिक्त कपड़े क्यों लिए? लोग उन पर कीचड़ और धूल फेंकते थे कि वह धर्म के विरुद्ध काम कर रही हैं। और उनके पहले शिक्षक का नाम क्या था? फातिमा शेख। तो याद रखें ये पांच बदलाव। रेल, मेल, जेल, व्यापारी, उद्योगपति, मजदूर, शिक्षक। दलितों के बीच और महिलाओं के बीच शिक्षा। इसी से आधुनिक भारत की नींव पड़ी। इसलिए सर सैयद अहमद को छोड़कर हर कोई यह भूल जाता है। लेकिन उन्हें राजा शिवप्रसाद याद नहीं हैं। उन्होंने एक संगठन बनाया और कहा कि ये लोग अधिकारों की क्या बात कर रहे हैं। यह गलत है। हम हिन्दू, राजा, मुसलमान, नवाब, रानी सरकार के प्रति अपनी निष्ठा प्रस्तुत करते हैं। हम आपके साथ रहेंगे। इसी संगठन से आगे चलकर एक तरफ मुस्लिम लीग और दूसरी तरफ हिंदू महासभा बनी। उसे याद रखो। पहले शख्स का नाम शहीद-ए-आजम भगत सिंह है।

हिन्दू धर्म खतरे में है के पीछे की सच्चाई 

यह हमारा सबसे महत्वपूर्ण कार्य है कि हम ऐसे लोगों को हमेशा यद् रखें। शहीद-ए-आजम भगत सिंह, इंडियन सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। दूसरे, भीम राव बाबा साहेब अम्बेडकर। बाबा साहेब ने अपने समय में कई संगठन बनाये थे।  शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन, इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और अंततः उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया बनाई, जिसके आज कई टुकड़े हो गए हैं। एक बड़ा सवाल यह भी है जिसमें मुस्लिम संगठन कहते है कि इस्लाम ख़तरे में है। कट्टरपंथी हिन्दू शोर मचाने में लगे रहते है कि हिन्दू धर्म खतरे में है। किंतु सच तो ये है कोई भी धर्म कभी खतरे में नहीं होता बल्कि जनता ही खतरे में होती है। जब सत्ता ख़तरे में होती है तो वो धर्म का पर्दा ओढ़कर चलती है। ये बात अभी भी चल रही है। सावरकर ने हिंदू राष्ट्र की बात कही थी। इसी हिंदू राष्ट्र को लेकर 1925 में एक संगठन बना। यह आज की सबसे बड़ी संस्था है। इसका मजाक उड़ाना आसान है। इसका वर्णन करना आसान है। किंतु इससे मुकाबला करना बहुत मुश्किल है। आर.एस.एस को केवल एक ही चिंता रहती है – वह है हिन्दू राष्ट्र स्थापना की। हिंदू राष्ट्र की आड़ में मनुवाद की स्थापना के साथ ब्राह्मणवादी शक्तियों को बल प्रदान करना आरएसएस का एक मात्र मकसद था/है। यह भी कि मनुवाद की स्थापना के बाद समाज के वंचित तबकों पर पूर्ववत अत्याचार की व्यवस्था करता है ।

ऐसे में एक व्यक्ति  का नाम बताना जरूरी है – वह थे भीमराव बाबासाहेब अम्बेडकर, उन्होंने अपने जीवन में बहुत आंदोलन किये। उन्होंने बहुत सारी संस्थाएं बनाईं। जितना उन्होंने लिखा है, उतना अगर हम पढ़ सकें तो बहुत है। आलोचकों ने कई आधारों पर भारतीय संविधान की आलोचना की है। उनमें से संविधान की कुछ आलोचनाएँ हैं, यह एक बहुत बड़ा संविधान है, यह गांधी की विचारधारा और सिद्धांतों का पालन नहीं करता है, और यह 1935 के अधिनियम की कार्बन कॉपी है। जबकि यह कतई गलत है। भारतीय संविधान न तो कठोर है और न ही लचीला है। भारतीय संविधान के ख़िलाफ़ कई आपत्तियाँ की गईं , जिनमें से तीन का संक्षेप में उल्लेख करना ज़रूरी है: पहला, यह बोझिल है; दूसरा यह अप्रतिनिधित्वात्मक है; और तीसरा यह हमारी परिस्थितियों के लिए विदेशी है। भारतीय संविधान के जनक डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर हैं। उस समय डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर कानून मंत्री थे और उन्होंने संविधान का अंतिम पाठ संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया। संविधान को लिखित नियमों के समूह के रूप में परिभाषित किया, जिसे किसी देश में रहने वाले सभी लोगों द्वारा स्वीकार किया जाता है । यह लोगों और सरकार के बीच संबंध निर्धारित करता है।

कहना गलत नहीं है कि ‘संविधान पर पुनर्विचार आरएसएस का ‘हिडेन एजेंडा है।राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए। संघ प्रमुख भागवत ने हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और ज़रूरत है कि आज़ादी के 70 साल के बाद इस पर ग़ौर किया जाए। मोहन भागवत ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि आरक्षण पर फिर से विचार हो। फिर ऐसे सवालों का उठना जाहिर है कि आरएसएस भारतीयता को सिर्फ़ हिंदुत्व के नज़रिए से देखता है। आलोचक कहते हैं कि आरएसएस के इस नज़रिए में भारत की विविधता और जीवन शैली के लिए कोई जगह नहीं है। खैर! आरएसएस और भाजपा हिंदू राष्ट्र की बात करे अथवा संविधान को बदलने की, यह संभव हो ही नहीं सकता क्योकि ‘सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की खंडपीठ ने 1973 के अपने एक फ़ैसले में साफ कर दिया था कि संविधान में संशोधन हो सकता है, लेकिन उसकी मूल भावना में बदलाव नहीं हो सकता।’

 लोकतांत्रिक संस्थाएं हो रही कमजोर

आम लोगों और कई चिंतक-विश्लेषकों का मानना है कि भारतीय लोकतंत्र बड़ा सशक्त है, बेहद मज़बूत है।  पर मैं ऐसा नहीं मानता। दरअसल आज तक हमने भारतीय लोकतंत्र की प्रक्रिया को ही परखा है। चुनाव और मतदान की प्रक्रिया पर बहुत ज़्यादा ध्यान केंद्रित किया गया है, जबकि इसके उलट जो लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं वे बेहद कमज़ोर हो चुकी हैं। कुछ तो लड़खड़ा रही हैं। ऐसे में ख़तरा किस तरह का होता है, उसे समझने के लिए हमें देखना होगा कि हिटलर भी वोटिंग के माध्यम से सत्ता में आए थे और चूंकि लोकतांत्रिक संस्थाएं नहीं थीं, मीडिया नाम की कोई चीज नहीं थी, तमाम जनता और शासन-प्रशासन उनकी पूजा में रत हो गया था तो हिटलर वह सब कर पाया, जो उन्होंने किया।

विकीपीडिया अनुसार भारतीय राजनीति में लोकतंत्र को लेकर जो मिथक है वो कोई इकलौता नहीं हैं। मेरी नज़र में भारतीय राजनीति में तीन मिथक हैं और संविधान के अनुसार, भारत एक प्रधानसमाजवादीधर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक राज्य है। , जहां पर विधायिका जनता के द्वारा चुनी जाती है। अमेरिका की तरह, भारत में भी संयुक्त सरकार होती है, लेकिन भारत में केन्द्र सरकार राज्य सरकारों की तुलना में अधिक शक्तिशाली है, जो कि ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली पर आधारित है। बहुमत की स्थिति में न होने पर मुख्यमंत्री न बना पाने की दशा में अथवा विशेष संवैधानिक परिस्थिति के अंतर्गत, केन्द्र सरकार राज्य सरकार को निष्कासित कर सकती है और सीधे संयुक्त शासन लागू कर सकती है, जिसे राष्ट्रपति शासन कहा जाता है। भारत का पूरी राजनीति मंत्रियों के द्वारा निर्धारित होती है।

भारतीय राजनीति के तीन क्षयकारी मिथकों में से पहला तो यह है कि भारतीय जनतंत्र इतना मज़बूत है कि कोई भी आ जाए, हम देख लेंगे किंतु लोकतंत्र सवालों में  घिरा रहा है। आज का लोकतंत्र तानाशाही की जद में आता जा रहा है। हम कहकर अथवा सुनकर  ख़ुश हो जाते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं। किंतु सबसे बड़ा लोकतंत्र किस आधार पर यह सोचने /समझने की कोशिश नहीं करते। हमारे यहाँ प्रशानिक संस्थाएं तो हैं, किंतु वर्तमान में मोदी सरकार के चलते दम  तोडती जा रही हैं। दूसरा मिथक भारतीय समाज की बहुलता का भी है। बहुलता अपने आप में सहिष्णुता का कारण नहीं होती है बल्कि भारतीय समाज ऐसी अनेक विकृतियाँ हैं  जैसे हिंदू समाज में जाति-प्रथा, धर्मों में आपसी द्वद्व, आर्थिक/सामाजिक असमानता आदि जिसके चलते हमारा समाज साप्रदायिकता का शिकार हमेशा  बना रहता है। वास्तव में बहुलता तो असहिष्णुता को जन्म दे सकती है। लेकिन बहुलता क्या होती है, इसको लेकर हर किसी का अलग-अलग मत उभर कर सामने आता है। मान लीजिए आपका एक मत है, मेरा एक मत है, आपके साथ जो सज्जन बैठे हैं उनका एक मत है।  इतना ही नहीं हम तीनों ही सोचते हैं कि हमारा मत सही है।  क्या यह स्थिति सहिष्णुता की ओर ले जाती है या संघर्ष की स्थिति की ओर ?

जब तक राज्य की संस्थाएं लोकतांत्रिक नहीं होंगी, सशक्त नहीं होंगी, तब तक हम अपने आपको लाख बहुलता और विविधतावादी कह लें, यह अपने आप को बेवक़ूफ़ बनाने वाली बात होगी।  भारतीय लोकतंत्र का तीसरा सबसे बड़ा मिथक है कि हमें लोगों के फ़ैसले का सम्मान करना होगा, क्योंकि हम लोकतंत्र हैं। लोकतंत्र की यह एक ग़लत परिकल्पना है।  लोकतंत्र में लोग ग़लती करते हैं और बड़े पैमाने पर ग़लती करते हैं और यह लोकतांत्रिक संस्थाएं उस ग़लती को सुधारती हैं, उस ग़लती पर हल्का सा मरहम लगाती है। उन ग़लतियों में बदलाव लाने की कोशिश करती हैं, उन ग़लतियों के प्रभाव अगर दुष्प्रभाव हैं तो उसको कम करने की कोशिश करती हैं।

यदि ऐसे में कई लोग यह मानते हैं कि भारत आज के समय में  अतिवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ खड़ा हुआ दिखता है तो यह एक भ्रामक स्थिति है। यही कारण है कुछ लोग यह भी मानते हैं कि शायद हिंदूत्ववादी ताक़तों को राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में आने में दिक़्क़त होती रही है। लेकिन यह महज़ एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू यह है कि शुरुआत में कांग्रेस पार्टी ही हिंदू ताक़तों की अगुआई करती थी। परिणाम ये हुआ कि कांग्रेस की हिंदुत्व राजनीति के कमज़ोर पड़ने पर ही बीजेपी सशक्त हो पाई। किंतु भाजपा सरकार इतनी अतिवादी हो गई है कि लोकशाही में तानाशाही के दर्शन होने लगे हैं। फलत: आज के वक्त में जाति का टकराव, धार्मिक समुदायों का टकराव साफ़ नज़र आने लगा है। यह कमोबेश भारत की ताज़ा राजनीतिक तस्वीर को उजागर करती नज़र आ रही है। भारतीय राजनीति में हिंदुत्व की राजनीति धीरे-धीरे इस क़दर समाहित हो चुकी है कि उसे अब राजनीति से इतर कुछ दिखाई नहीं देता।

भारतीय जनता पार्टी ने हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को सेक्यूलराइज़ करना मान लिया है। भाजपा का यह मानना भी है कि मज़बूत भारत, दिलेर भारत, दृढ़ भारत, फ़ैसला करने में सक्षम (डिसाइसिव) भारत, भारत महाशक्ति है, भारत परमाणु शक्ति है, भारत ही है जो पाकिस्तान को चुनौती दे सकता है। ये सब क्या है? यह आरएसएस और बीजेपी की जो हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना है उसका धर्मनिरपेक्ष संस्करण है। इसे हिंदुवादी मिडिल क्लास दोनों हाथों से स्वीकार कर रहा है। इसमें सबसे दुःखद बात है कि हम यह मानने लग गए हैं कि सहिष्णुता, सभ्यता, संवेदना, सहानुभूति, सौम्यता दरअसल कमज़ोरी हैं। यह सब बीबीसी संवाददाता रूपा झा से राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर से बातचीत पर के अधर पर कहा गया है। खबर है कि राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर ज्योतिर्मय शर्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं। अगर हिंदू राष्ट्र हकीकत बन गया तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिंदू क्या कहते हैं। उल्लेखनीय है हिन्दू धर्म स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए खतरा है। इस दृष्टि से हिंदू राष्ट्र  संविधान के अनुरूप नहीं है। हिंदू राष्ट्र  को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।

बाबा साहब अम्बेडकर ने देश के नागरिकों को हिंदू राष्ट्र  के खतरों से आगाह किया और चेतावनी दी थी कि हिंदू राष्ट्र  को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए। क्योंकि अगर हिंदू राष्ट्र  हकीकत बन गया तो ये देश के लिए सबसे बड़ी समस्या होगी। आप चाहें तो इसे डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर के राइटिंग एंड स्पीचेज वॉल्यूम 8 के पेज नंबर 358 पर देख सकते हैं। लेकिन मैं आपको यह सब क्यों बता रहा हूं? मैं आपको बाबा साहब डॉ. अंबेडकर की बात इसलिए याद दिला रहा हूं क्योंकि इस समय देश में ऐसी शक्तियां सत्ता में आने की कोशिश कर रही हैं जिनका एजेंडा हिंदू राष्ट्र बनाना है।

डा. अम्बेडकर पहले ही हिन्दू राष्ट्र के खतरे को भाँप गए थे 

डा. अम्बेडकर हिंदू राष्ट्र को भारी ख़तरा क्यों मानते थे? डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने हिंदू राष्ट्र को गंभीर ख़तरे के रूप में क्यों माना? भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना आज कोई नया सपना नहीं है, भले ही वह आज परवान चढ़ता नजर आ रहा हो। दरअसल, इससे जुड़े संगठनों द्वारा गोरक्षा और राम मंदिर पर दिखाया गया रवैया तो महज शुरुआती लगता है। किन्तु  भाजपा की पैत्रिक संस्ठा आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने पूरे देश में गौ हत्या रोकने के लिए कानून लागू करने का प्रस्ताव रखा है। उन्होंने आरक्षण पर पुनर्विचार का बयान भी दिया है। हिंदू संस्कृति को संपूर्ण भारत के लिए एक आदर्श जीवन समुदाय बनाना संगठन का घोषित लक्ष्य है। महिलाओं के लिए ड्रेस कोड लव जिहाद के खिलाफ है। अभियान आदि चलते रहते हैं। दरअसल, इस्लाम और हिंदू राष्ट्रों पर आधारित अलग राष्ट्रों की मांग जुड़वां भाइयों की तरह पैदा हुई थी।

डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने 1940 में पाकिस्तान की मांग पर धर्म आधारित राष्ट्र की मांग उठाते हुए कहा था कि यदि हिंदू राष्ट्र बना तो निस्संदेह इस देश को भारी खतरा होगा। हिंदू चाहे कुछ भी कहें, हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए खतरा है। इस आधार पर यह लोकतंत्र के लिए अनुचित है। हिंदू साम्राज्य को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’ लगभग 77 वर्ष पहले डॉ. अम्बेडकर ने जिस खतरे के बारे में आगाह किया था, वह ख़तरा आज भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। आज भले ही संविधान नहीं बदला गया हो लेकिन भाजपा की मोदी सरकार संविधान को खत्म कर मूलत: आरक्षण को खत्म करने के उपक्रम लगातार कर रही है। यह बात अलग है कि  भारत अभी भी धार्मिक रूप से स्वतंत्र है, लेकिन वास्तविक जीवन में हिंदू धर्म आदि ने सामाजिक संस्कृति और राजसत्ता को भी प्रभावित किया है। हाल के संसदीय चुनाव, खासकर उत्तर प्रदेश में, जिसमें भाजपा की भारी जीत के बाद सरकार के रवैये और उसके द्वारा लिए गए फैसलों तथा संघ नेताओं के बयानों से इसमें संदेह की गुंजाइश कम ही है।

लेकिन डॉ. अंबेडकर किसी भी कीमत पर भारत को हिंदू राष्ट्र बनने से रोकना चाहते थे, क्योंकि वे हिंदू समाज को स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का पूर्णतः विरोधी मानते थे। उनके द्वारा हिन्दू राष्ट्र के विरोध का कारण, मुसलमानों के प्रति हिंदुओं की नफरत तक ही सीमित नहीं था। सच तो यह है कि वे हिन्दू राष्ट्र को मुसलमानों की तुलना में हिन्दुओं के लिए अधिक खतरनाक मानते थे। वे हिंदू राष्ट्र को दलितों और महिलाओं का विरोधी मानते थे। अत: इस स्थिति को तोड़ने के लिए उन्होंने हिंदू कोड बिल पेश किया।

मित्रो, बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर को यह तब महसूस हुआ जब हिंदू और मुस्लिम लीग का सांप्रदायिक अभियान चल रहा था। उन्होंने कुछ व्याख्यान दिये और बम्बई विधानसभा में जाकर यह स्पष्ट कर दिया। उन्होंने कहा कि मैं इस बात पर जोर नहीं देता कि इस देश में किसी विशेष संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं है, चाहे वह हिंदू संस्कृति हो, या मुस्लिम, या कर्नाटक, या गुजराती संस्कृति। हम सभी का उद्देश्य इस भावना को मजबूत करना है कि हम सब भारतीय हैं, इस भारतीयता को शक्तिशाली बनाना है। ये मुझे अच्छा नहीं लगता। जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, पहले हम भारतीय हैं, फिर हिंदू, फिर मुसलमान। मैं चाहता हूं कि इस देश के सभी लोग प्रथम और अंतिम तौर पर भारतीय ही हों। डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने अपनी पुस्तक पाकिस्तान या इंडिया में हमें चेतावनी देते हुए कहा कि आज दो भारतीय संप्रदायों का उपयोग किया गया है। उनके राजनीतिक आदर्श संविधान में स्वतंत्रता, न्याय, समानता और बंधनत्व की स्थापना की गई है। जबकि उनके सामाजिक विचार उनके धर्म में नहीं थे, जो उन्हें अलग करते हैं।  आज यह बात और भी स्पष्ट हो गई है जब उनका सुझाव है कि वे सभी मूल्य एक भयानक, कठिन स्थिति में दिखाई देते हैं। उन्होंने देश को लेकर जो चिंता व्यक्त की थी वह अब पहले से कहीं ज्यादा है। अब इन सभी लोगों को बताया जाता है कि वे अपने सपनों को पूरा करने के लिए सही तरीके से काम करें।

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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