अच्युत पटवर्धन, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव तथा अन्य लोगों ने नासिक की जेल में बंद रहते हुए एक समाजवादी दल की आवश्यकता महसूस की और पटना में 17 मई, 1934 के दिन नब्बे साल पहले अंजुमन इस्लामिया हॉल में, कांग्रेस के भीतर समाजवादी गुट की विधिवत स्थापना की गई।
उस समय आचार्य नरेंद्र देव पैंतालीस साल के थे और कार्यक्रम के आयोजक जयप्रकाश नारायण 32 साल के। मतलब यह कि कांग्रेस के भीतर के युवा समाजवादियों का प्रयास था। इसलिए उसे काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी(सीसीपी) का नाम दिया। 17 मई को समाजवादी पार्टी का 90वां स्थापना दिवस था। राष्ट्र सेवा दल के कारण समाजवादी विचारधारा को मानने वालों में से एक मैं भी रहा हूँ। लेकिन तब से लेकर अभी तक मैं इसी भ्रम में हूँ कि कौन-सी समाजवादी पार्टी सही है और कौन सी गलत है और इसी वजह से मै किसी भी पार्टी का सदस्य कभी नहीं बन सका।
जब मैं सेवा दल की शाखा चलाता था, उस समय सेवादल के पूर्व अध्यक्ष (उन दिनों दल प्रमुख) मेरी शाखा में कई बार आए, जिनमें सयुंक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष एस एम जोशी एवं दूसरे सर नाना साहब गोरे, जो प्रजा समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष थे। मैं इन दोनों के बहुत करीब था और दोनो ही मुझे बहुत प्रिय थे लेकिन उनकी समाजवादी पार्टियां मेरी समझ के बाहर थीं। ये दोनों महाराष्ट्र के एक ही शहर में रहने वाले अच्छे मित्र थे लेकिन दोनों अलग-अलग पार्टियों के नेता क्यों हैं? जब तक मैं समझ पाता, तब ही ड़ॉ. लोहिया इस दुनिया को अलविदा कह गए। जेपी सर्वोदय में लोक सेवक बन गए, तो मेरे लिए एस. एम. जोशी, नाना साहबगोरे, जॉर्ज फर्नांडीज, बैरिस्टर नाथ पै, प्रो मधु दंडवते, मृणाल गोरे, प्रोफेसर सदानंद वर्दे, भाई वैद्य, ड़ॉ जी.जी. पारीख, प्रो. जी. पी. प्रधान मास्टर, ड़ॉ. बापू कालदाते सभी अच्छे लगते थे। इन्दुमती-आचार्य केलकर पुत्रवत प्रेम करते थे।
बीस साल के होते-होते मैंने मैं ड़ॉ. लोहिया की मराठी में अनुवादित सभी पुस्तकें पढ़ ली थीं। फिर सेवादल के अभ्यास शिविरों में विनायक कुलकर्णी, हमिद दलवाई, नरहर कुरुन्दकर, अभि शाह, प्रधान मास्टर, यदुनाथ थत्ते, कालदाते, नाना साहब गोरे, एस एम जोशी जैसे महान लोगों के भाषण सुन कर बडा हुआ, पर इनकी दो अलग-अलग पार्टियां क्यों है? यह सवाल आजतक जस का तस बना हुआ है। लेकिन जेपी आन्दोलन में वर्ष 1973-74 के आसपास इनकी पार्टी एक हो गई। इसके अध्यक्ष बने थे, तेजतर्रार चक्का जाम नारे के निर्माता जॉर्ज फर्नांडीज लेकिन बहुत जल्दी आपातकाल के दौरान जनता पार्टी के निर्माण के समय 1 मई, 1977 के दिन विठ्ठल भाई पटेल हाऊस के लॉन में इस पार्टी को विसर्जित कर दिया गया। आचार्य केलकर जी के साथ मैं भी इसका साक्षी रहा हूँ।
कौन सा ‘समाजवादी’ दल समाजवादी है
फिर दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी दो साल होते-होते ही टूट गई तो मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की स्थापना की। उसके ही आसपास हमारे मित्र किशन पटनायक, भाई वैद्य जी की अगुआई में ठाणे में समाजवादी जनपरिषद, नाम से पार्टी बनाई, जिसमें विशेष रुप से मैं कलकत्ता से गया था। पहले ‘समाजवादी जन परिषद’ और उसके बाद हैदराबाद में ‘सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ नाम से पार्टी का गठन हुआ, जिसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया था लेकिन मुझे लगा जब मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी बना ही ली है, अब उसी नाम से, भले ही उसका नाम अंग्रेजी में रखा गया हो, उसमें शामिल होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जितनी भी पार्टियां बनी, उसे बनाने वाले सभी लोग अपने-अपने घरों में पराए हो गए। ग्राम पंचायत स्तर पर भी उनका कभी कोई जनाधार नहीं रह गया।
उत्तर भारत में रघु ठाकुर ने भी लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी के स्थापना की थी, अगर मैं गलत नहीं हूँ तो रघु ठाकुर मुलायम सिंह यादव की पार्टी के महासचिव थे। इसके बावजूद उनमें क्या मत भिन्नता हुई जो उन्होंने अलग पार्टी का निर्माण किया और उसके अध्यक्ष बने।
शायद भारत के संसदीय राजनीति के इतिहास में, यह पहली पार्टी होगी जिसने अमीबा के जैसे ही अपने ही सेल से दूसरी पार्टियों का निर्माण किया। 1934 से लेकर आज तक ड़ॉ. राम मनोहर लोहिया के सिद्धांत का ‘सुधरो या टूटो’ को अमली जामा पहनाया गया होगा? ‘सुधरने’ की सुध अभी भी नहीं है लेकिन ‘टूटने’ को ही याद रख लिया गया।
और अब 90 साल की बरसी के उपलक्ष्य में पार्टी को आगे बढ़ाने वाले लोगों के नामों को अलग-अलग पोस्ट लिख कर महान बताने का दावा कर रहे हैं। पहले के 90 साल के भीतर जिन्होंने कुछ किया, वे क्या थे? क्या किये? क्यो किये? और अनेक बार टूटने के कारण क्या रहे? बगैर इसके मूल्यांकन किए आप कहाँ पहुँचने वाले हैं? घूम-फिर कर वापस आकर सुधरो या टूटो का ही खेल खेलते रहेंगे?
आपातकाल में मुझे मुम्बई में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक महाराष्ट्रियन नेता से मिलने का मौका मिला, जो अपने घर में सिर्फ अकेले ही थे और बहुत ही फुर्सत में मुझसे बातचीत की क्योंकि जिनके साथ गया था, उन्होंने शायद पहले ही मेरे बारे में बता दिया था कि मैं जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में महाराष्ट्र की जनसंघर्ष समिति के सदस्यों में से एक रहा हूँ। अभी आपातकाल की वजह से भूमिगत हूँ। (वे इन्दिराजी के अंधभक्त थे, अपना राजनैतिक कॅरियर समाप्त कर लिये थे क्योंकि जैसे ही आपातकाल खत्म हुआ। उनकी पार्टी ने अपनी आदत के अनुसार फिर से अपनी पार्टी से इन महाशय को पार्टी से निष्कासित कर बयान दिया कि उनकी पार्टी से भूल हो गई थी। बाद में गर्दिश और अभाव में जीते हुए उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा) जैसा कि उन्होंने बताया था कि वे कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक सदस्य रहे हैं और ‘दास कैपिटल’ के 50 पन्ने तक नहीं पढ़े हैं। इस बात को सुनकर मैंने मन-ही-मन कहा था कि यदि पूरा पढ़े होते तो आज यह नौबत नहीं आती।
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उन्होंने बताया कि दो घंटे से भी कम समय में, जयप्रकाश नारायण सीआईए की मदद से इंदिरा गाँधी को अपदस्थ करने के लिए ही यह सब षडयंत्र कर रहे हैं और आप युवा लोग भावना में बहकर उनका साथ दे रहे हैं। बगल के बंगला देश में शे शेख़ मुजीबुर रहमान को उनके परिवार के सदस्यों के साथ कैसे बेरहमी से मार डाला। इंदिरा गाँधी की भी इसी तरह हत्या करने वाले हैं।‘ जब मैंने उनसे यह मुलाकात की, उस समय मैं 23 साल का था और कम्युनिस्ट पार्टी का इतना बड़े नेता, इस षडयंत्र की बात बता रहे थे लेकिन मुझे रत्तीभर का विश्वास नहीं हुआ।
इन बातों को सुनकर मुखे लगा कि इस आदमी ने अपने जीवन का ज्यादा समय कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व करते हुए बीता। कामरेड एस एम जोशी के समान ही संयुक्त महाराष्ट्र के मजदूरों तथा अन्य कई प्रकार के आंदोलन का नेतृत्व किया। तात्कालिक रूप से कामयाबी तो हासिल की है लेकिन आजादी के तीस साल बाद सपनों को साकार कर सके, ऐसा बदलाव करने की ताकत वह नहीं जुटा सके।
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण भारत को हिलाकर रखने की वजह से ही श्रीमती इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा की और उस दौरान इनके बाद के नेता भाई ए बी बर्धन, कांग्रेस के वसंत साठे और प्रतिभा पाटिल के साथ, जयप्रकाश नारायण सीआईए के एजेंट थे और यह आंदोलन भी सीआईए की मदद से चल रहा था, जिसकी वजह से आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। यह भाषण मैंने खुद सुना था। इस वजह से इतने बड़े नेता भी, वही कॉन्स्पिरसी थेअरी दोहरा रहे थे इसलिए मेरे उपर इनकी बात का कोई खास असर नहीं पड़ा उल्टा लगा कि इतना बड़ा नेता जयप्रकाश नारायण से ईर्ष्या करता हुआ नजर आ रहा था।
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अभी कानू सान्याल की जीवनी ‘फ़र्स्ट नक्सल’ पढ़ रहा हूँ। उनके नक्सल आन्दोलन का सफर देखकर लगता है कि इनका आंदोलन भी समाजवादियों भाईबंधु की ही तरह टूट का शिकार हुए लगते हैं। 23 मार्च 2010 में कानू बाबू की आत्महत्या करने के पहले तक इनके आंदोलन में टूट का सिलसिला जारी था। मतभिन्नता देखकर लगता है कि देश एकदम बुद्धिहीन लोगों के हाथों में चला गया है।
आज संघ परिवार को प्रतिष्ठित करने में समाजवादियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। जिसमें ड़ॉ. लोहिया, जयप्रकाश, जॉर्ज फर्नांडीज, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे स्वयं को समाजवादी कहने वाले, समाजवाद की आबरू की मिट्टी पलीद कर कौन-सा समाजवादी एजेंडा लागू कर रहे हैं? ये लोग कभी समाजवादी रहे होंगे, इस बारे में शक होने लगता है।