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सहना को सरकारी सुविधा, हलकू अब भी कांप रहा है

प्रेमचंद का साहित्य आज भी कम प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि उस समय में और आज के समय में समस्याओं का स्वरूप बेशक बदल गया हो लेकिन समस्याएँ समाप्त नहीं हुई हैं। बल्कि कुछ समस्याएँ और गहरी हो गई हैं। ग्रामीण व शहरी बेरोज़गारी, बिना लाभ की खेती, दलितों व ग़रीबों का आर्थिक शोषण व उत्पीड़न, ऊँच-नीच व छूआछूत, अकर्मण्यता, अंधविश्वास व धार्मिक पाखण्ड, रिश्वतख़ोरी व भ्रष्टाचार आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं। ग़रीबी का स्वरूप बदल गया है लेकिन ग़रीबी नहीं। खेतिहर किसान मज़दूर में बदल गया है। कुछ समस्याएँ ऐसी भी हैं जिनका स्वरूप तक नहीं बदला है।

कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण पूरी दुनिया में जो तबाही हुई है हमारा देश उससे बहुत ज्यादा प्रभावित हो रहा है। इसका सबसे बुरा प्रभाव तो मज़दूरों और किसानों पर पड़ा है। इस दौर में महानगरों और बड़े औद्योगिक क़स्बों से मज़दूरों के पलायन का प्रयास क्या कहता है? यही न कि मज़दूर-किसान आज भी पेट भरने के लिए अपने गाँवों-घरों से पलायन कर घरों से बहुत दूर बेहद ख़राब हालात में जीवन जीने को विवश हैं। गाँवों की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है और शहर उनके शोषण के नए केंद्रों के रूप में विकसित हो चुके हैं। आर्थिक अथवा प्रकृति के प्रकोप से यदि कोई भी संकट पैदा हो जाता है तो सबसे पहले देश का यही हिस्सा बुरी तरह से प्रभावित होता है। तब यह कहीं के नहीं रहता। यदि देश में पिछले सालों के किसानों की आत्महत्याओं के आँकड़े देखें तो उनकी बदहाली और विवशता का ही नहीं उनके प्रति उपेक्षा व दोषपूर्ण नीतियों का भी पता चल जाता है। ऐसे में प्रेमचंद की कहानी पूस की रात के हल्कू की याद आना स्वाभाविक है क्योंकि वह कई नए रूपों में आज भी मौजूद है।

कई लेखक व कई रचनाएँ कभी अप्रासंगिक नहीं होतीं क्योंकि उनका लेखन काल की सीमाओं को भी पार कर जाता है। प्रेमचंद भी उनमें से एक हैं। प्रेमचंद का साहित्य आज भी कम प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि उस समय में और आज के समय में समस्याओं का स्वरूप बेशक बदल गया हो लेकिन समस्याएँ समाप्त नहीं हुई हैं। बल्कि कुछ समस्याएँ और गहरी हो गई हैं। ग्रामीण व शहरी बेरोज़गारी, बिना लाभ की खेती, दलितों व ग़रीबों का आर्थिक शोषण व उत्पीड़न, ऊँच-नीच व छूआछूत, अकर्मण्यता, अंधविश्वास व धार्मिक पाखण्ड, रिश्वतख़ोरी व भ्रष्टाचार आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं। ग़रीबी का स्वरूप बदल गया है लेकिन ग़रीबी नहीं। खेतिहर किसान मज़दूर में बदल गया है। कुछ समस्याएँ ऐसी भी हैं जिनका स्वरूप तक नहीं बदला है। प्रेमचंद की कहानी पूस की रात को ही लीजिए। इस कहानी में ग्रामीण बेरोज़गारी, बिना लाभ की खेती, ग़रीबों का आर्थिक शोषण, उत्पीड़न व अकर्मण्यता सब कुछ मौजूद है। इसके साथ-साथ कहानी में अपने ज़मीन के टुकड़े पर खेती करने की बजाय किसी दूसरे के यहाँ मज़दूरी करने को बेहतर माना गया है। यद्यपि वहाँ भी कम शोषण नहीं, लेकिन विवशता है। खेती की स्थिति यह है कि वह पूरी तरह से घाटे का सौदा बनकर रह गई है जहाँ मुफ़्त में मजदूरी करनी पड़ती है जो बेगार से किसी भी तरह कम नहीं।

पूस की रात कहानी में जब हल्कू सहना को देने के लिए घर में कंबल लाने के लिए रखे तीन रुपए अपनी पत्नी मुन्नी से माँगता है तो वह काफी वाद-विवाद करती है। मुन्नी कहती है कि न जाने कितनी बाकी है जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती। यह उस समय के साहूकार या महाजन समाज द्वारा आम आदमी के शोषण की वास्तविकता को प्रकट करता है। एक बार क़र्ज़ ले लो तो वह कई पीढ़ियों तक भी किसी तरह से चुकने में नहीं आता। प्रेमचंद की ही सवा सेर गेहूं इसका जबर्दस्त उदाहरण है। ब्याज पर ब्याज और वह भी भारी दर से और ऊपर से बेईमानी। कर्ज़ चुके तो चुके कैसे? खेती में उतनी आमदनी नहीं जो इस प्रकार का क़र्ज़ उतार सके। नतीजा यह होता है कि ज़मीन ही नहीं, घर-बार सब गिरवी रखने की नौबत आ जाती है और एक खेतिहर किसान हमेशा के लिए बंधुआ मज़दूर बन जाने या गाँव से पलायन करने को विवश हो जाता है। मुन्नी कहती है, ‘तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाक़ी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाक़ी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आए। मैं रुपए न दूँगी- न दूँगी।’

हल्कू उदास होकर जब ये कहता है, ‘तो क्या गाली खाऊँ?’ तब मुन्नी के पास हथियार डालने के सिवाय अन्य कोई चारा नहीं बचता। वह रुपए निकालकर दे देती है पर साथ ही फिर कहती है, ‘तुम छोड़ दो अब से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है! मजूरी करके लाओ, वह उसी में झोंक दो, उस पर से धौंस।’ यहाँ न केवल सहना के दबंग व अत्याचारी आचरण का संकेत मिलता है अपितु किसान के न चाहते हुए खेती करने की विवशता का संकेत भी स्पष्ट है। ऐसे हालात में किसान कब तक खेती करेगा? बेगार से भी बुरी हालत है। कहने को तो संसार का अन्नदाता पर स्वयं दाने-दाने को मोहताज है। ढंग के कपड़े-लत्ते तो बहुत दूर की बात है। यह देश का किसान और मजदूर ही है जिसके श्रम-उत्पादों के दम पर बड़े-बड़े उद्योग चल रहे हैं और देश की कुल जनसंख्या का एक बहुत छोटा-सा भाग अरबों-खरबों कमाकर ऐश कर रहा है।

ये हालात प्रेमचंद के समय में ही नहीं थे बल्कि आज भी मौजूद हैं। जो लोग ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर खेती करते हैं। उनकी ही नहीं, छोटे किसानों की हालत भी बद से भी बदतर है। बेशक कृषि उत्पादकता बढ़ गई है लेकिन इसके साथ-साथ कृषि पर किया जाने वाला खर्च और अधिक बढ़ गया है। अच्छे बीज, खाद, कृषि उपकरण सब मँहगे हो चुके हैं। यद्यपि सरकार उन्हें इनके लिए सस्ते ब्याज पर ऋण उपलब्ध करवाती है लेकिन वास्तविकता यह है कि वे इन ऋणों से कभी उऋण नहीं हो पाते क्योंकि खेती में विभिन्न मदों में जो खर्च हो जाता है फसल बेचने से भी पूरा नहीं होता। मजदूरी निकाल पाना तो बहुत दूर की बात है। ऐसे में ऋण कहाँ से दे? इन्हीं हालात में आज देश में किसान बहुत अधिक संख्या में आत्महत्या करने को मजबूर हैं। ये राष्ट्र और समाज के लिए शर्म की बात है कि संसार का पेट भरने वाला अन्नदाता स्वतंत्रता के 70-75 वर्ष बाद भी इस स्थिति में है। इसे कब समझा जाएगा और कब किसानों की स्थिति बेहतर हो पाएगी?

हल्कू मजदूरी में से एक-एक पैसा बचाकर कंबल लाने के लिए घर में रखे तीन रुपए सहना को देने के लिए मजबूर हो जाता है और बिना कंबल के ही एक गाढ़े की चादर के सहारे पूस (पौष माह जिसमें सबसे ज़्यादा ठंड पड़ती है) की रातों में खेत की रखवाली करने जाता है। यहाँ जंगली जानवर, विशेष रूप से नीलगाएँ, उसकी सबसे बड़ी दुश्मन हैं, जो थोड़ी सी असावधानी होते ही सालभर की मेहनत को कुछ घंटों में चट कर जाती हैं। यही है हमारे किसानों की नियति जिससे हल्कू भी नहीं बच पाता। उसका खेत भी नीलगायों के झुंड की भेंट चढ़ जाता है। जाड़ा रोकने के लिए उसके पास अच्छे तो दूर मामूली कामचलाऊ कपड़े भी नहीं हैं।

सर्दी से बेहाल हल्कू वहाँ पास ही के एक आम के बाग़ में पत्ते इकट्ठे करके अलाव जलाता है जिससे उसके बदन में कुछ गर्मी आ जाती है लेकिन लगातार बढ़ती जा रही सर्दी से वह पस्त हो जाता है। उसे नीलगायों द्वारा खेत के चरे जाने की आहट भी साफ सुनाई पड़ रही है पर मौसम की मार ऐसी भयानक है कि ऐसे जाड़-पाले में वह अपनी जगह से हिलना भी नहीं चाहता। वह अपने कुत्ते को पुकारता है। कुत्ता ज़ोर-ज़ोर से भौंके जा रहा है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि खेत में कुछ अप्रिय घटित हो रहा है। यह सोचकर कि बहुत अच्छी खेती हुई है और जानवर उसका सर्वनाश किए जा रहे हैं, वह चलने को तैयार हो जाता है। हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन क़दम चला पर हवा का एक ऐसा ठंडा, चुभनेवाला, बिच्छू के डंक-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गरमाने लगा। उसके अवचेतन मन में कहीं न कहीं रात-रात भर जागकर रखवाली करने की पीड़ा व इस अलाभप्रद खेती से छुटकारा पाने का द्वंद्व चल रहा था अन्यथा वह इतना लापरवाह कैसे हो सकता था?

वह कुत्ते के भौंकने व नीलगायों द्वारा खेत को चरे जाने से बेपरवाह होकर बुझे हुए अलाव की गर्म राख के पास शांत होकर बैठ जाता है। लेखक के अनुसार अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ़ से जकड़ रखा था। अपनी चादर ओढ़कर वह वहीं लेट जाता है और अलाव की गर्म राख की गर्मी में उसे गहरी नींद आ जाती है और कुत्ते के लगातार ज़ोर-ज़ोर से भौंकने पर भी उसकी नींद नहीं टूटती। उधर नीलगाएँ पूरे खेत को बरबाद कर डालती हैं। नीलगायों की समस्या सिर्फ़ पूस की रात कहानी के हल्कू की ही नहीं है आज का किसान भी उसे झेल रहा है। नीलगाय और दूसरे जंगजी जानवर जो उसकी खेती को नष्ट कर डालते हैं उनकी समस्या को लेकर सरकार कहीं उसके साथ है, तो कहीं उसके विरुद्ध। इस मुद्दे पर कहीं राज्य सरकारों व केंद्र की सरकार के बीच रस्साकशी हो रही है तो कहीं केंद्र की सरकार के मंत्रालयों के बीच द्वंद्व चल रहा है लेकिन इसमें सबसे बड़ी हार हो रही है किसानों की। उसकी खेती न तो प्रेमचंद के ज़माने में ही सुरक्षित थी और न आज के प्रजातंत्र के युग में ही वह नीलगायों और दूसरे जानवरों से सुरक्षित है। देश के विकास के सम्मुख उसकी समस्याएँ अत्यंत तुच्छ हैं।

अगले दिन सुबह खेत की ऐसी दशा देखकर हल्कू की पत्नी मुन्नी बहुत दुखी होती है और चिंतित होकर कहती है, ‘अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।’ खेत में कुछ हो या न हो, फसल अच्छी न हो या जंगली जानवर खा जाएँ, मालगुजारी अथवा लगान तो देना ही पड़ता है। किसान की बदनसीबी तो देखिए कि फसल में कुछ न हो तो मालगुजारी अथवा लगान देने के लिए भी मज़दूरी करके पैसे जोड़ने पड़ते हैं। लेकिन फसल के नष्ट हो जाने पर भी हल्कू ख़ुश है क्योंकि अब चाहे उसे साल भर मज़दूरी क्यों न करनी पड़े कम से कम पूस के महीने की कड़कड़ाती सर्द रातों में बिना कंबल के खेत में नहीं सोना पड़ेगा। फसल के नष्ट हो जाने पर भी यदि कोई किसान ख़ुश है तो इसका सीधा-सा अर्थ है कि वह किसी भी क़ीमत पर खेती करना नहीं चाहता। खेती उसके लिए लाभ का सौदा नहीं एक बोझ बन गई है। लाभ की छोड़िए, उसकी मजदूरी तक इससे नहीं निकल पाती। देखने की बात है कि आज का किसान कितने दिन और इस अलाभप्रद खेती करने की विवशता के जुए को अपने कंधों पर बर्दाश्त कर पाता है और यदि वह इस जुए को उतार फेंकता है तो इसका आम आदमी की रोटी ही नहीं उद्योग जगत पर भी इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? और अब कोरोना संकट के बाद भय अथवा अन्य कारणों से मज़दूरों की वापसी न होने या देर से होने पर उद्योग जगत और देश की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा शीघ्र पता लग जाएगा लेकिन हल्कू की स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन के आसार दूर-दूर तक दिखलाई नहीं पड़ते। यदि किसानों व मज़दूरों की स्थिति में गुणात्मक सकारात्मक परिवर्तन नहीं होता है तो देश का हर प्रकार का विकास बेमानी होगा।

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